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________________ आपके पत्र आज 'जिनभाषित' का जनवरी 2007 का अंक प्राप्त हुआ । उसमें आपका उच्चस्तरीय संपादकीय लेख पढ़ कर अतीव प्रसन्नता हुई। 'समता - नि:कांक्षिता में अनुत्तीर्ण गृहस्थ मुनि - डिग्री का पात्र नहीं' इस शीर्षक से लिखा गया आपका लेख जिनवाणी के मर्म को आगम व अध्यात्म के संतुलन, सुमेल को दर्शानेवाला है। गृहस्थ को सर्वप्रथम मिथ्यात्वादि दोषों का परित्याग कर भाव से नग्न होना चाहिए- यह सम्यक्त्व से प्रकट होने वाली प्रथम प्रकार की भावनग्नता है। वस्तुत: भावनग्नता की परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर ही गृहस्थ को मुनि की डिग्री (दि. मुनिलिंगरूप जिनदीक्षा) प्रदान की जानी चाहिये। भावपाहुड गाथा - 73, 54, 51, 152 में भावनग्नता का स्वरूप दर्शाकर कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने यद्यपि सम्यग्दृष्टि गृहस्थ को भावश्रमण एवं परीतसंसारी कहा है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि के ही सच्ची ज्ञान-वैराग्य भावना व शक्ति प्रकट होती है, तथापि मोक्षप्राप्ति तो भावश्रमणत्व (निश्चयरत्नत्रय) एवं द्रव्यश्रमणत्व (व्यवहार रत्नत्रय) धारक साधक मुनिराज को ही होती है। आप इसीतरह आगम अध्यात्म के आलोक में अपने उच्चस्तरीय संपादकीय लेखों द्वारा जिज्ञासु पाठकों को धर्म का मर्म (तीन भुवन में सार वीतराग-विज्ञानता) समझाते रहें, यही शुभकामना है । 'जिनभाषित' के गताङ्क में प्रकाशित 'साधार है कुण्डलपुर' शीर्षक आलेख पढ़ा। कुण्डलपुर - प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के दि. 20 मई 2006 के आदेश की प्रबुद्ध लेखक श्री बंसलजी द्वारा की गई समीक्षा के अधिकांश बिन्दुओं से हम सहमत हैं। प्रसंग से हटकर प्रयुक्त किए गये कुछ वाक्यांशों को यदि छोड़ दें, तो इसे एक तटस्थ समीक्षा के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए, 'कुण्डलपुर कोहराम' या 'अधर में है कुण्डलपुर' शीर्षक लेख शृंखला की निष्पत्तियाँ काल्पनिक एवं धार्मिक सौहार्द की भावना से रहित हैं। नकारात्मक लेखन से कभी अच्छे परिणाम नहीं निकल सकते। कोई धर्म का ज्ञाता हो या सामाजिक कार्यकर्ता, यह आवश्यक नहीं है कि वह कानून का भी विशेषज्ञ हो, परन्तु स्वयं को 'ऑलराउण्डर' सिद्ध करने के लिए कभी-कभी लोग वकीलों की तरह किसी भी प्रकरण को लम्बा खींचते हैं और यह ध्यान नहीं रखते कि तिल का ताड़ बनाने से सामाजिक एकता छिन्न-भिन्न हो सकती है। यह सही है कि इस सन्दर्भ में कुछ भूलें हुई हैं, किन्तु उनका सुधार आपसी बातचीत से किया जा सकता है, कानूनी पेंच फँसाकर नहीं । धर्म एवं समाज के हित में कुण्डलपुर की समस्या का शीघ्र समाधान हो, सबकी यही भावना होनी चाहिए। इसी भावना से हमने अपने कुछ विनम्र सुझाव जैनगजट में प्रकाशनार्थ भेजे थे, जो दि. 24 अगस्त 2006 के अंक में छपे और कई महानुभावों ने उनकी सराहना भी की, किन्तु लेखक की ओर से दि. 28 सितम्बर के अंक में जिन शब्दों में उसका उत्तर दिया गया, उससे हमें यह लगा कि इन लोगों का उद्देश्य बातचीत के सारे दरवाजों को बन्द रखकर विवाद को जिन्दा रखने और समाधान को लटकाए रखने का है तथा इनकी भाषा स्वयंभू कमाण्डरों जैसी है, अतः हमने चुप्पी साधना ही ठीक समझा। हमारा तो आज भी यही मत है कि चूँकि कुण्डलपुर का प्रकरण न्यायालय में विचाराधीन है, इसलिए शाब्दिक खींचातानी छोड़कर हमें धैर्यपूर्वक उसके निर्णय की प्रतीक्षा करनी चाहिए। क्या हमें न्यायपालिका पर विश्वास नहीं है ? यदि ऐसा हो भी तो उचित रास्ता यही है कि हम सुनवाई के समय जज के सामने एक तीसरा पक्ष बनकर अपने विचार रखें। आरोप-प्रत्यारोपों को कागजों पर उछाल-उछालकर समाज के वातावरण को बोझिल बनाना हमें तो उचित नहीं लगता, शास्त्रार्थ - महारथियों की बात वे स्वयं जानें। 30 अप्रैल 2007 जिनभाषित ब्र. हेमचन्द्र जैन 'हेम' कहान नगर लामरोड, देवलाली (महा.) Jain Education International For Private & Personal Use Only नरेन्द्र प्रकाश जैन 104, नई बस्ती, फीरोजाबाद (उ.प्र.) www.jainelibrary.org
SR No.524316
Book TitleJinabhashita 2007 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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