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किशनगढ़ के गौरव
मूलचन्द लुहाड़िया
किशनगढ़ प्रवास के गत अर्द्धशताधिक वर्षों में मुझे । का स्वरूप बन गया। गृहस्थ अवस्था में भी वे साधु सदृश स्थानीय एक व्यक्ति के आदर्श व्यक्तित्व ने सर्वाधिक जीवन जीते थे। दो समय सात्त्विक भोजन । एक सब्जी प्रभावित किया और आज उनको किशनगढ़ का गौरव के साथ रोटी और कभी-कभी तो केवल छाछ और रोटी । घोषित करने में, मैं अपने आपको गौरवान्वित अनुभव करता दो जोड़ी सादा सूती कपड़े। संभवतः जीवन भर में एक हूँ। वे व्यक्ति हैं माननीय पं. महेन्द्र कुमार जी पाटनी शास्त्री सूती कोट बनवाया और उसी को सँभालकर रखते हुए काव्यतीर्थ । वे व्यक्ति नहीं थे, अपितु जैनागम के प्रतिरूप पहना। ऊन एवं चमड़े के प्रयोग का उन्हें त्याग था पंडित थे। उन्होंने आगम को केवल पढ़ा या पढ़ाया ही नहीं, बल्कि जी वर्तमान परिस्थिति के अनुरूप एवं भावी आकांक्षाओं आगम को जिया था और ऐसा जिया था कि उनका जीवन का निरोधकर आदर्श परिग्रह-परिमाण व्रत का पालन करते स्वयं में आगम बन गया था। गृहस्थ अवस्था में वे एक थे । अपनी सीमित आय के अनुरूप सीमित व्यय संयोजितकर आगमानुकूल चर्यावाले सद्गृहस्थ रहे और यथासमय संन्यास परिवार का निर्वाह करते थे । पाप के सदृश ऋण से भी अवस्था धारणकर आगमानुकूल चर्यावाले मुनि रहे । दूरी बनाए रखते थे।
मेरे किशनगढ़ - प्रवास के प्रथम दिन ही चन्द्रप्रभु जिनालय के प्रांगण में सायंकाल पंडित जी के दर्शन हुए। प्रतिदिन सायं पंडित जी नियमित शास्त्र पढ़ते थे। मैं भी शास्त्रसभा में आने लगा। दो तीन दिन स्वाध्याय के समय चर्चा में मैंने कुछ भाग लिया, तो पंडित जी ने कहा कि कुछ समय मैं भी शास्त्र वाचन करूँ। मैंने कहा मैं अल्पज्ञ हूँ, आपके समक्ष मेरा शास्त्रवाचन न उपयुक्त है, न आवश्यक। किंतु पंडित जी नहीं माने और आधा घंटा स्वयं वाचनकर शेष आधा घंटे के लिए मुझे वाचन के लिए बैठा देते थे। यह व्यवहार उनकी महानता, सरलता, निरभिमानता और वात्सल्य का दिग्दर्शन करता I
विद्यालय में संस्कृत, अंग्रेजी और धर्म का अध्यापन कराते थे । विद्यार्थियों को इन्दौर परीक्षालय की विभिन्न धार्मिक परीक्षाएँ दिलाते थे । सम्पूर्ण दिनचर्या नियमित और समय-प्रबद्ध रहती थी । प्रत्येक कार्य ठीक समय पर करना उनकी आदत बन गया था। वे जीवन का थोड़ा भी समय व्यर्थ नहीं खोते थे। उनके द्वारा शिक्षण प्राप्त उनके शिष्य आज भी उनके अध्यापन, अनुशासन एवं समयनिष्ठता की भारी प्रशंसा करते हैं। उनके द्वारा प्रदत्त धार्मिक संस्कार वे अपने जीवन की बहुमूल्य सम्पत्ति मानते हैं ।
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अपने माता-पिता की सेवा के साथ-साथ दोनों पुत्रों शिक्षण, जीवननिर्माण एवं सत्-संस्कारारोपण पर पूरा ध्यान देते थे। परिणामस्वरूप दोनों ही पुत्र आदर्श श्रावक बन गए। अपने ज्येष्ठ पुत्र डॉ. चेतनप्रकाश के रूप में उन्होंने समाज को एक अध्येता साहित्यसेवी विद्वान् प्रदान किया । वस्तुत: डॉ. चेतनप्रकाश पंडित जी की एक सदृश प्रतिकृति है। पंडित जी के जीवन के उद्देश्यों, सादा संयमी जीवन, साहित्य सेवा, धर्मशिक्षण एवं धर्मप्रभावना को डॉ. चेतन प्रकाश ने गुणवृद्धि कर अपने जीवन में अपनाया है। गुणी पिता एवं उनके गुणी पुत्र दोनों किशनगढ़ के गौरव हैं।
पंडित जी ने तत्कालीन पत्रिका 'खंडेलवाल जैन हितेच्छु' का सफल संपादन किया। जिनवाणी की सेवा के रूप में उन्होंने अष्टपाहुड, पार्श्वनाथचरित्र एवं कार्तिकेयानुप्रेक्षा का हिंदी-भाषांतर लिखा । समय-समय पर किशनगढ़ में आगत अथवा वर्षायोगरत आचार्य ज्ञानसागर जी मुनि विद्यासागर जी मुनि श्री श्रेयांससागर जी आदि के मुनिसंघों
किशनगढ़ के निकट ग्राम उंटड़ा में सन् 1916 में जन्मे पं. महेन्द्र कुमार जी ने अजमेर में रहते हुए काव्यतीर्थ तथा शास्त्री की शिक्षा प्राप्त की और कुछ दिनों पश्चात् किशनगढ़ में के. डी. जैन विद्यालय में अध्यापक नियुक्त हुए। अजमेर में ही उनका प्रथम विवाह हुआ था, किंतु पत्नी अधिक दिन साथ नहीं रहीं। उनकी दूसरी विवाहित पत्नी ने दो पुत्र श्री चेतनप्रकाश एवं पदमचंद एवं एक पुत्री को जन्म दिया। पुत्री के जन्म के समय ही द्वितीय पत्नी का भी लगभग सन् 1949 में निधन हो गया। उस समय पंडित जी की उम्र मात्र 33 वर्ष थी, जो युवावस्था ही मानी जाती है। पंडित जी चाहते तो एक और विवाह कर सकते थे, किंतु उन्होंने उस घटना के पश्चात् जीवन की धारा संयम की ओर मोड़ दी । सादा एवं सात्त्विक भोजन, सादे वस्त्र, सादा रहन-सहन तथा उच्च विचार, यही उनके जीवन
4 अप्रैल 2007 जिनभाषित
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