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पाखंड को प्रणाम कब तक ?
स्वामी अग्निवेश
आज चैनलों पर धर्म व अध्यात्म के नाम पर जो परोसा जा रहा है, उसमें धर्मतत्त्व कितना और किस रूप में है, उसे निष्पक्ष नजरिए से समझने की जरूरत है ।
पिछले कुछ दिनों से हमारे देश में धार्मिक 'चमत्कारों'। की बाढ़ सी आई है । कभी देव प्रतिमाओं के दूध पीने की खबरें आती हैं, तो कभी किसी समुद्र का पानी मीठा हो जाने का शोर मच उठता है। कभी किसी चर्च में जीसस 'प्रकट' हो जाते हैं, तो कभी किसी मस्जिद की दीवार पर अचानक कुरआन की आयतें या काबा शरीफ का अक्स उभर आता है। कभी किसी मंदिर में देव प्रतिमा की आंखों से आंसू टपकने की खबर आती है, तो किसी मंदिर में मूर्तियों के रंग बदलने की अफवाह सिर उठा लेती है । इसतरह की अंधविश्वासी घटनाओं को चमत्कार समझकर आम जनता उस पर आँख मूँदकर विश्वास कर लेती है और उसे धर्म से जोड़ दिया जाता है। हमारे समाज में ऐसे-ऐसे गुरु घंटाल हैं जो इसतरह की बेसिर-पैर की खबरों के जरिए लोगों की धार्मिक भावनाओं का शोषणकर अपना उल्लू सीधा करने में लगे रहते हैं ।
कुछ दिनों पहले अखबारों में मुझे यह खबर भी पढ़ने को मिली थी कि नेपाल में वर्षा के लिए महिलाओं को नग्नकर उनसे हल चलवाया गया। हमारे देश में भी कहींकहीं इसतरह के प्रयास हुए हैं। यह अंधविश्वास की पराकाष्ठा है । एक और भी घटना सुनने में आई कि आगरा के पास एक गांव में वहां के कुछ लोगों ने परवीन नूरी नामक एक जवान लड़की को बंधक बनाकर यह सिद्ध करना चाहा कि यह 'देवी माँ' है, यह तपस्या करेगी तो पानी बरसेगा । उस लड़की को सात दिनों तक बांधकर भूखा-प्यासा रखा गया। बाद में पता लगने पर पुलिस ने उसे मुक्त कराया।
दरअसल, धर्म के नाम पर सदियों से अंधविश्वास, रूढ़ियां, अनर्गल कर्मकांड, गुरुडम, जातिवाद और तमाम तरह की बुरी प्रथाएं समाज में परोसी जाती रही हैं। इससे धर्म का सही रूप जो सनातन व शाश्वत होता है, सिकुड़ता गया और धर्म संप्रदाय में बदलता चला गया। पहले जब टेक्नोलॉजी का अभाव था तो इस तरह की संकीर्णता व सांप्रदायिकता का प्रचार सीमित क्षेत्र में था । इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों का विस्तार होने के बाद पैसे वाले धर्मगुरुओं को 18 अप्रैल 2007 जिनभाषित
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टीवी के माध्यम से अपने गुरुडम का विस्तार करने के साथ-साथ अंधविश्वास, पाखंड और रूढ़ियों को फैलाने में खूब मदद मिल रही है। आज चैनलों पर धर्म व अध्यात्म के नाम पर जो परोसा जा रहा है, उसमें धर्मतत्व कितना और किस रूप में है, उसे निष्पक्ष नजरिए से समझने की जरूरत है।
इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहा जाए कि एक तरफ टीवी जैसा यंत्र आधुनिक विज्ञान का प्रतीक है, तो दूसरी तरफ इसी के जरिए महाअवैज्ञानिक विचारों का संप्रेषण भी हो रहा है। ज्यादातर चैनलों की सत्य के प्रति कोई प्रतिबद्धता किसी भी स्तर पर दिखाई नहीं पड़ती है। बाजारवाद का सबसे ज्यादा असर इन पर ही दिखाई पड़ता है। यानी मुनाफा कमाना ही इनका एकमात्र मकसद रह गया है। समाज पर इसका अत्यंत प्रतिकूल असर पड़ रहा है। इससे कैसे निबटा जाए, यह सोचने की जरूरत है । आलोचना करना या निराश होकर नहीं बैठ जाना चाहिए । विज्ञान की इस उपलब्धि का सही इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है, इस पर पूरी ताकत लगाने की जरूरत है। टीवी चैनलों के जरिये समाज में फैली तमाम बुराइयों, अंधविश्वासों और पाखंडों पर युवा मस्तिष्क सवाल उठा-उठाकर नए सिरे से आंदोलन छेड़ने की जरूरत है यानी मानस शुद्धि आंदोलन चलाने की जरूरत है । इस सिलसिले में डीडी - १ और डीडी पर प्रसारित 'मंथन' कार्यक्रम ऐसी ही पहल कही जा सकती है, जो पिछले चार महीने से जारी है। ऐसी ही पहल मंथन मित्र मंडल बनाकर गांव-गांव व कस्बे कस्बे में की जानी चाहिए। धर्म व समाज के तमाम सवालों को उठाए बगैर न तो धर्म के सही रूप को समझा जा सकता है और न ही समाज का सुधार ही किया जा सकता है।
धर्म से ताल्लुक रखने वाले तमाम सवालों को तेजी से उठाने और स्कूल-कॉलेज एवं विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले करोड़ों युवाओं के मन-मस्तिष्क को वैचारिक क्रांति की ऊर्जा से आंदोलित व उद्वेलित करने का काम नहीं किया जाएगा, तो निठारी जैसे अमानवीय एवं पैशाचिक
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