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जिनभाषित
वीर निर्वाण सं. 2530
wala
भद्रबाहु गुफा श्रवणबेलगोला
श्रावण वि सं 2061
जुलाई 2004
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पूजनीया आर्यिका श्री मृदुमति जी का ससंघ वर्षायोग कलशस्थापन
आर्थिका चीनिर्णयमति जी
आर्थिका श्री मूदुमति जी
आर्थिकावी प्रसन्नमति जी
परमपूज्य आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज की विशुद्ध परिणामों से मुनि को देता है और जो मुनि ऐसे सुयोग्य शिष्या पूजनीया आर्यिका श्री 105 मृदुमति माता निदोष आहार उपकरण आदिग्रहण करते हैं उन दोनों को जी, पूजनीया आर्यिका श्री 105 निर्णयमति माताजी एवं महान फल मिलता है।जो आहारादि प्रशस्त और निदोष हैं, पूजनीया आर्यिका श्री 105 प्रसन्जमति माताजी, संघस्थ वात, पित्त, कफ आदि दोषों को शांत करने वाले हैं. सर्व ब. पुष्पा दीदी एवं ब. सुनीता दीदी के चातुर्मास मंगल रसों से युक्त है, ऐसे आहारादि गुरुओं को पड़गाहन आदि कलश की स्थापना मध्यप्रदेश की राजधानी झीलों की करके नवधा भक्ति पूर्वक श्रद्धा आदि सात गुणों से युक्त नगरी भोपाल के दिगम्बर जैन मंदिर चौक में 4 जुलाई होकर मेरे द्वारा दिए जाने चाहिए. यह दाता की शुद्धि है। 2004 को विशाल जनसमूह के बीच विधिविधान पूर्वक तथा सभी आहारादिविधि त्याज्य ही है, मुझे इस शोभन की गई। पूज्य माता जी ने इस मंगल अवसर पर अपने आहार के ग्रहण करने से क्या प्रयोजन है? यत् किंचित् उद्बोधन में कहा-मुनिआर्यिकाओं को दो बातों पर ध्यान मात्र भी प्रासुक आहार ग्रहण करके उदर भरना चाहिए, देना होता है, पहली भैक्ष्यशुद्धि और दूसरी ऐसापरिणाम होनापात्रकीआत्मशुद्धि है। प्रतिष्ठापनासमिति। उन्होंने मूलाचार के आधार पर सम्पर्ण मल गणों और उत्तर गणों में मल योग प्रधानवत बतलाया कि आहारचर्या के निदोष होने पर ही वत.शील
रहत, शाल भिक्षाशुद्धि है, जिसका वर्णन कत कारित अनुमोदना
TM और गुण रहते हैं. इसलिए मुनि सदैव आहारचर्या को शुद्ध रहित पासक भोजन की समय पर उपललिता के रूप में करके विचरण करते हैं अर्थात् आहार कोशुद्धि हा प्रधान जिन पवचन में किया गया है अतःभिक्षाशद्धि को छोड़कर है, वही चारित्र है और सभी में सारभूत है। यही बात
उपवास, त्रिकाल योग, अनुष्ठान आदि अन्य योगों को वे आर्यिकाओं पर लागू होती है। मुनि और आर्शिकाओं को ही करते हैं, जो विज्ञान अर्थात् चारित्र से रहित है और 46दोषों से रहित आहारग्रहण करना चाहिए।अतः श्रावकों
परमार्थ को नहीं जानते हैं। तात्पर्य यही है कि आहार की को भी यह ज्ञान होना चाहिए कि वे 46दोष कौन से हैं।
शुद्धिपूर्वक जो थोडाभीतपकिया जाता है वह शोभन है। श्रावकों को यह ज्ञान होने पर ही वे मुनि और आर्यिकाओं को भैन्यशुद्धिकाध्यान रखते हुए आहार दे सकते हैं।
परिमित और प्रशस्त आहार प्रतिदिन भी लेना श्रेष्ठ है
किन्तु चर्याशुद्धिरहित अनेक उपवास करके अनेक विशद्ध भावों से कमों का क्षय होता है। इसलिए जो निदोष
प्रकार की पारणाएँ श्रेष्ठ नहीं हैं। आहार या हिंसादि पापरहित निदोष उपकरण या दोनों को
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रजि. नं. UP/HIN/29933/24/1/2001-TC
डाक पंजीयन क्रं.-म.प्र./भोपाल/588/2003-05
जुलाई 2004
सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन
कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल 462039 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666
सहयोगी सम्पादक | पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, | (मदनगंज किशनगढ़) पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बडौत प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन, 'भारती', बुरहानपुर
शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरीलाल पाटनी (मे.आर.के. मार्बल्स लि.)
किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर
मासिक
वर्ष 3, अङ्क 6 जिनभाषित
अन्तस्तत्त्व सम्पादकीय
: बहिष्कार समाधान का मार्ग नहीं है प्रवचन • होता वही है जो सामने आ जाता है : आचार्य श्री विद्यासागर जी • नारियल में मोक्ष मार्ग : मुनि श्री आर्जव सागर जी प्रवचन
: आर्यिका श्री मृदुमति जी आ.पृ. 3 लेख • असंख्यात गुणी निर्जरा शुभोपयोग में भी
: मुनि श्री निर्णय सागर जी • नवकोटि विशुद्धि
: स्व. पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया 8 • महावीर का श्रावक वर्ग तब
और अब : एक आत्मविश्लेषण : प्रो. सागरमल जैन • कर्मसिद्धान्त-व्यवस्था से वेदवैषम्य की सिद्धि
:प्रो. रतनचन्द्र जैन • यह न करें चातुर्मास म
: एलक नम्रसागर जी • गिरनार एक ज्वलन्त समस्या बहुसंख्यकों को भी अपने
हृदय उदार बनाने होंग :: कैलाश मड़बैया • धर्म में राजनीति
: मूलचन्द लुहाड़िया आवश्यकता अन्वेषण-संस्थान की : इंजी. धरमचन्द्र जैन बाझल्य किटकैट चॉकलेट में कोमल
बछड़ों का मांस * प्राकृतिक चिकित्सा • सैर/व्यायाम/टहलना
: डॉ. रेखा जैन * जिज्ञासा-समाधान
: पं. रतनलाल बैनाड़ा बोध-कथाएँ • खुशामद का फल
• निर्जीव सी बातें: खम्भा और जीना - ग्रन्थ समीक्षा • वास्तु विज्ञान
: डॉ. ज्योति जैन .प्रतिष्ठा पराग
: डॉ. ज्योति जैन कविताएँ • गोमटेश अष्टक
: मुनि श्री आर्जव सागरजी आ.पृ. 2 अनासक्ति का अवदान : योगेन्द्र दिवाकर
21 सम्यक् अनुप्रेक्षा : महेन्द्र कुमार जैन
आ.पृ.4 मुक्तक
: मनोज जैन 'मधुर' * समाचार
प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) फोन: 0562-2151428,
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लेखक के विचारों से सम्पादक को सहमत होना आवश्यक नहीं है। जिनभाषित से सम्बन्धित विवादों के लिए न्यायक्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा।
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होता वही है जो सामने आ जाता है
आचार्य श्री विद्यासागर जी
श्रमण शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी ने मध्यप्रदेश की | कुछ भी बाहर से करना है, हो चुका है। अब जो कुछ है, वह संस्कारधानी जबलपुर के तिलवारा घाट स्थित गोशाला में 25 | भीतरी है। भीतर देखना आवश्यक है। बाहर देखना गलत है। मुनिवरों के साथ दिनाँक 1 जुलाई 2004 को वर्षायोग-स्थापना | समयसार को याद रखने वाली मूर्ति सार को याद रखती है। की। भक्ति प्रारंभ करने से पूर्व उपस्थित हजारों श्रावकों को गुरुजी की साधना अनूठी थी उनका वरदहस्त हम पर रहा। संबोधित करते हुए आचार्य श्री ने कहा कि श्रमणसंघ वर्षाकाल | उन्होंने जीवन का मंथन करके सार तत्त्व ग्रहण कर लिया था। की प्रतीक्षा में रहता अत: आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी की रात्रि के आप भी करने योग्य कार्य को करते चले जाइए। कार्य करने के प्रथम पहर में वर्षायोग की प्रतिष्ठापना और कार्तिक की अमावस्या | प्रति निष्ठा रखिए। यह बात हमने गुरु महाराज से सीखी। जब पर निष्ठापन करता है। केवल दयोदय शब्द कहने से किसी | तक प्राण हैं, तब तक कर्त्तव्य के प्रति जागरुकता रखनी चाहिए। संस्था की ओर दृष्टि जाती है, तो वह जबलपुर पर जाती है। गुरुजी ने कहा था संघ को गुरुकुल बना देना। नमक का महँगा इतना अवश्य है कि करने या कहने से काम नहीं होता, होता होना और मुद्रा का तैरना राष्ट्र के लिये घातक है। तीर्थ या मंदिर वही है जो सामने आ जाता है।
पर जो धर्मध्वजा लहराती है, उसके लहराने में मन, वचन, काय ___ हम तो जीवन पर्यन्त के लिए बंधे हुए हैं। जब तक मुक्ति | और धन आपका होता है। उसमें से धन हटाने पर शेष हमारे का सम्पादन नहीं होता, हमने अपने आपको भगवान् की शरण पास है। धर्म की प्रभावना बढ़े, ऐसा उपदेश देना चाहिए। में बाँध लिया है। यह गुरु (आचार्य ज्ञानसागर जी) की आज्ञा | समाज का धन के प्रति मोह छूट जाये, तो साधु का उपदेश है। हम तो देव-गुरु-शास्त्र से बंधे हैं । गुरु महाराज ने कहा था | सार्थक हो जाता है। पेट तो भरा जा सकता है, पेटी नहीं भरी जा कि दुकान बड़ी खोलना चाहिए छोटी नहीं। दुकान चलती- सकती। पेटी को भरने का अंत नहीं है। राग की प्रवृत्ति सीमित फिरती होगी, तो उससे ग्राहक जुड़ जाते हैं। जो देव-गुरु-शास्त्र होने की प्रभावना हो जाये, तो उपदेश सार्थक हो जाएगा। आप से जुड़ा है, उसका संकल्प दृढ़तर होता जाता है। मोक्षमार्ग में | अपने धन के बाँध में लीकेज आने दें। धन को करुणा, परमार्थ कदम रखने के बाद मोहमार्ग की ओर नहीं जाना चाहिए अन्यथा के कार्य में बहने दें, रोके नहीं। धनसंग्रह की सीमा रखना मोक्षमार्ग समाप्त हो जाएगा। हमें हमारे गुरु ने ऐसे सूत्र दिए | चाहिए। जिनके माध्यम से शिष्य मोक्षमार्ग के सूत्र से बँध जाता है, उसका बाल भी बाँका नहीं होता। गुरु महाराज ने कहा- जो
प्रेषक-निर्मल कुमार पाटोदी, इन्दौर
धर्म/धर्मात्मा
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उज्जवल भावधारा का नाम ही धर्म है।
धर्म तो अपने श्रम की निर्दोष रोटी कमाकर देने में ही है। - 'स्व' से पलायन नहीं, 'स्व' के प्रति जागरण का नाम ही धर्म है। - आत्मा का सम परिणाम ही स्वभाव है वही समता है वही धर्म है। - धर्म, प्रदर्शन की बात नहीं किन्तु दर्शन, अन्तर्दर्शन की बात है। - धर्म वृक्ष से गुजरी हुई सद्भावना की हवा सभी को स्वस्थ एवं सुन्दर बनाती है।
धर्म का अर्थ यही है कि दीन-दुखियों को देखकर आँखों में करुणा का जल छलके, अन्यथा नारियल में भी छिद्र हुआ करता है।
साभारः सागर द समाय
2 जुलाई 2004 जिनभाषित
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सम्पादकीय
बहिष्कार समाधान का मार्ग नहीं है
8 जुलाई 2004 के 'जैन गजट' में माननीय पं. नरेन्द्रप्रकाश जी जैन का सम्पादकीय लेख 'समाधान की दिशा में एक अपील' पढ़ा। उन्होंने लिखा है कि जैन मित्र के 3 जून 2004 के अंक में किन्हीं आनन्दवर्धन जैन द्वारा प्रेषित एक समाचार 'अनिवार्य खुला निमन्त्रण पत्र' शीर्षक से छपा है, जिसमें (भगवान् महावीर की जन्मभूमि के विषय में भिन्न विचार रखने के (कारण) पूजनीया आर्यिका ज्ञानमती जी और उनकी टीम का बहिष्कार करने का इरादा व्यक्त किया गया है। पढ़कर दुःख हुआ । निन्दा और बहिष्कार राजनीतिक हथकण्डे हैं। ये दूसरों की छवि को विकृत कर स्वयं को उज्ज्वल, सही और श्रेष्ठ सिद्ध करते हुए अपनी कुत्सित प्रवृत्तियों को संरक्षण देने के लिए अपनाये जाते हैं। ये समाज में कटुता का जहर फैलाकर उसे विघटित करने वाले, नये पन्थों को जन्म दिलाने वाले और जैनों को अजैनों की गोद में ढकेलने वाले कुत्सित कारनामे हैं । निन्दा और बहिष्कार की भाषा अभद्र भाषा है, अप्रशस्तभाषा है, द्वेषभाषा है, जैनभाषा नहीं है। यह सत्याणुव्रत और सत्यमहाव्रत दोनों के विरुद्ध है । यह उच्चगोत्र के आस्रव की भी विरोधिनी है।
यदि कहीं आगम विरुद्ध मान्यताएँ और प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं, तो उनका भद्रतापूर्वक शालीन भाषा में विरोध किया जाना चाहिए। क्योंकि जैसे अन्याय और अत्याचार का विरोध न करने से उन्हें बढ़ावा मिलता है, वैसे ही आगमविरुद्ध मान्यताओं, प्रवृत्तियों और शिथिलाचार का विरोध न करने से उनके पल्लवित और पुष्पित होने का मार्ग प्रशस्त होता है। विरोध न करना उनकी अनुमोदना करना है। क्योंकि विरोध न करने से स्वेच्छाचारी सोचता है कि समाज को उसकी आगमविरुद्ध मान्यताओं और प्रवृत्तियों पर कोई आपत्ति नहीं है, उन्हें उसने स्वीकार कर लिया है। यह सोचकर वह लोकभय से मुक्त हो जाता है, जिसके फलस्वरूप उसके स्वेच्छाचार में वृद्धि होती जाती है और स्वेच्छाचारियों की संख्या बढ़ती है। ताजा उदाहरण के लिये 'संस्कार सागर' (जुलाई 2004) में प्रकाशित लेख ' यात्रा चाँदी से चरस तक की' पठनीय है। ज्ञानार्णव में आचार्य शुभचन्द्र ने कहा है कि जब भी धर्म का नाश होने लगे, सत्प्रवृत्तियों के ध्वस्त होने की नौबत आ जाए और सत्सिद्धान्त संकट में पड़ जायें, तब उनकी रक्षा के लिए ज्ञानियों को स्वयं ही मुँह खोलना चाहिए
धर्मनाशे क्रियाध्वंसे सुसिद्धान्तार्थविप्लवे ।
अपृष्टैरपि वक्तव्यं तत्स्वरूपप्रकाशने ॥ 9/15 |
इस प्रकार आगमविरुद्ध मान्यताओं और प्रवृत्तियों का विरोध आगमोक्त कर्त्तव्य है । परन्तु यह आगमोक्तमार्ग से ही सम्पन्न किया जाना चाहिए। आगमोक्त मार्ग एक ही है : आगमविरुद्ध मान्यताओं और प्रवृत्तियों को भद्रतापूर्वक दोषी व्यक्ति की दृष्टि लाना और आगमप्रमाण एवं युक्तियों के द्वारा समझाकर उनके परित्याग की प्रेरणा देना। अगर दोषी व्यक्ति पर इसका असर नहीं पड़ता, तो अन्तिम उपाय है उसके साथ असहयोग करना, उससे दूरी बना लेना और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करना । इससे सामाजिक अनुमोदना न मिलने पर दोषी व्यक्ति के अलग-थलग पड़ जाने से उसके मन पर असर पड़ सकता है और चिन्तन-मनन के द्वारा उसकी आगम विरुद्ध मान्यताओं और प्रवृत्तियों में परिवर्तन संभव है " असंजदं ण वन्दे वच्छविहीणो वि सोण वंदिज्ज " यह सूक्ति आचार्य कुन्दकुन्द ने इस अन्तिम उपाय के रूप में ही कही होगी।
बस, आगमोक्त मार्ग यहीं समाप्त हो जाता है। इसके आगे का मार्ग हृदयपरिर्वतन का नहीं हृदयविदारण का है । अत: वह अनागमोक्त है। जिसे हम दोषी मान रहे हैं, उसकी सार्वजनिक रूप से निन्दा और बहिष्कार करके अपनी बात मनवाना अलोकतांत्रिक और आतंकवादी तरीका है। यह उसे और कट्टर बना देता है। अतः यह फूट का मार्ग है। इससे जैन समाज जैतरों में बदनाम भी होता है। इससे परहेज किया जाना चाहिए। महावीर जन्मभूमि पर मतभेद निश्चयाभास या शिथिलाचार जैसा गम्भीर मसला नहीं है। अतः इस विषय में बहिष्कार जैसा कृत्य तो सर्वथा अवांछनीय है।
जैनगजट के मान्य सम्पादक ने विनम्र अनुरोध किया है कि "कुण्डलपुर या वैशाली को लेकर कोई पक्ष अपने परिणामों को कलुषित न होने दे। दोनों ही स्थानों का अपना महत्त्व है, एक का पारम्परिक तो दूसरे का ऐतिहासिक । यदि दोनों क्षेत्रों का विकास होता है, तो इससे धर्म की कोई हानि होनेवाली नहीं है। जिसका मन जहाँ भी रम सकेगा और जहाँ भी उसे निराकुलता अनुभव हो सकेगा, उसी स्थान से उसके कल्याण का मार्ग प्रशस्त होगा । आत्मकल्याण में स्थान बाधक नहीं, कषाय बाधक है । " विद्वद्वर नरेन्द्र प्रकाश जी का यह अनुरोध गंभीरता से विचारणीय है ।
रतनचन्द्र जैन
जुलाई 2004 जिनभाषित
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नारियल में मोक्ष मार्ग
मुनि श्री आर्जव सागर जी
प्रातः स्मरणीय आचार्य गुरुवर श्री 108 विद्यासागर जी महाराज बनकर फलित होता है। जब उसे तोड़ते हैं तो वह भी मीठाके सुशिष्य मुनि श्री 108 आर्जव सागर जी महाराज, क्षुल्लक श्री
मीठा पानी देता है, जो ग्लुकोज का काम करता है,शक्तिवर्द्धक अर्पण सागर जी एवं संघस्थ ब्र.शान्ति कुमार जी के पावन | होता है। कभी कुछ खाने को भी मिलता है। उस वृक्ष से बड़े वर्षायोग का सौभाग्य भोपाल नगर के टीन शेड.टी.टी.नगर जैन | परोपकार का उपदेश हमें प्राप्त होता है।"परस्परोपग्रहो जीवानाम" समाज को प्राप्त हुआ।वर्षायोग कलश स्थापना के मंगल अवसर | इस सूत्र को चरितार्थ करता है। किसी ने पानी दिया था, उसने 1जुलाई 2004 को मुनिश्री ने अपने मार्मिक उदबोधन में कहा- भी उसे पानी दिया और जिन्दगी भर देता रहता है, कोई पत्थर जल की वर्षा के साथ धर्म की वर्षा का योग अब आया है। भी मारे तो फल ही देता है। कहा भी गया है - आज वर्षायोग की स्थापना का शुभ अवसर है। वर्षायोग साधुओं
परोपकाराय फलन्ति वक्षा:परोपकारायवहन्ति नद्यः। की आत्मसाधना का एक मंगल अवसर होता है। वर्षाकाल में परोपकाराय दुहन्ति गावः परोपकाराय सुतप्रसूतिः॥ जब धरती जीवराशि से आकुलित हो जाती है,तब साधु लोग जिस प्रकार परोपकार के लिये वृक्ष फल देते हैं, परोपकार अहिंसा, तप आदि की साधना के निमित्त वर्षायोग धारण करते के लिये नदियाँ बहती हैं परोपकार के लिये गाय दूध देती हैं, हैं, जिसमें मौन, ध्यान आदि की विशेष साधना के साथ अनेक इसी तरह परोपकार के लिये माँ बेटे को जन्म देती है। इस प्रकार शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन का कार्य करते हैं और भव्य परोपकार करना प्रत्येक मानव का धर्म है। यह हमें उपदेश उस लोग उसका अच्छा लाभ उठाते हैं। अपनी चर्या के प्रति सतर्क | नारियल के वृक्ष से मिला। यह तो हुई नारियल के अपने वृक्ष रहना, ये भगवान् ने बतलाया है। एक बार गणधर परमेष्ठी ने | रूपी परिवार की बात। अब कहता हूँ कि जब वह नारियल सूख भगवान् से प्रश्न किया -
करके स्वतः ही वृक्ष को छोड़कर नीचे आता है, उससे यह कधं चरे कधं चिट्ठे कधमासे कधं सये। | उपदेश मिलता है कि जो भव्य अपने परिवार से मोह, लगाव का
कधं भंजेज भासेज कधं पावं ण बज्झदि॥ । सम्बन्ध तोड़ देता है वह सद्गुरु के चरणों में आ जाता है। इसके हे भगवन् ! कैसा आचरण करें, कैसे ठहरें, कैसे बैठें, कैसे | बाद जब उस फल को उपयोग में लाना हो, तो उसके ऊपर का सोवें, कैसे भोजन करें एवं किस प्रकार बोलें कि जिससे पाप से | सूखा पीला कवच (छिलका) निकाला जाता है, जिससे समझें नहीं बंधे। तब इसके उत्तर में भगवान ने कहा
कि मोक्षमार्ग में गुरु के समीप आकर भव्य दीक्षा धारण करने जदं चरे जदं चिट्ठे जदमासे जदं सये। । हेतु पहले वस्त्रों का मोचन करता है। इसके बाद जैसे नारियल
जदं भुंजेज भासेज्ज एवं पावं ण बज्झइ॥ के जटा उखाड़े जाते हैं, वैसे ही भव्य केशलोंच करता है। जटायत्नपूर्वक गमन करें, यत्नपूर्वक खड़े हों, यत्नपूर्वक बैठे, जूट निकल जाने के बाद जिस प्रकार उस फल में तीन चिह्नों का यत्नपूर्वक सोवें, यत्नपूर्वक आहार करें और यत्नपूर्वक बोलें, दर्शन होता है, उसी तरह पूर्ण परिग्रहरहित और केशलोंच के इस तरह करने से पाप का बन्ध नहीं होगा।
बाद साधु में रत्नत्रय के दर्शन होते हैं। उन तीन चिह्नों को ऐसा भगवान् ने उपदेश दिया, जिसका अपने जीवन में | सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का प्रतीक मानना चाहिये। अमल करते हुए साधु लोग समितियों के माध्यम से अपनी चर्या | ये तीन दिखते हैं तो क्या हैं? आँखे हैं? आँखें नहीं बोलना को निर्मल रखते हए योग्य स्थानों में वर्षायोग की स्थापना करते | चाहिए। किसी ने कहा था जो अजैन लोग किसी रागी देवीहैं । मुनियों का जीवन मोक्षमार्ग से जुड़ा हुआ होता है और भी | देवताओं के सामने पशुओं की बलि देते थे और जब उन्हें किसी कोई भव्य अगर मोक्षमार्ग पर चलने को उत्सुक हो, तो उसे भी | समय पशु नहीं मिलते थे, तब वे नारियल के जटा उखाड़कर राह दिखाते हैं । इसी अवसर पर मुझे एक उदाहरण याद आया |
उसमें दिखने वाले तीन चिह्नों में से दो को दो आँखें एवं एक जिसके द्वारा आप लोग संक्षेप में सम्पूर्ण मोक्षमार्ग को समझ कुम्भ बनाकर एक पशु की बलि रूप में उसे उन देवी-देवताओं सकते हैं। कोई एक व्यक्ति भूमि को साफ-सुथरा करके पानी के सामने शस्त्र से काट देते थे और आधा नारियल वहाँ चढ़ाकर का सिंचन करके एक बीज बोता है, खाद-पानी और बाढ़ आधा घर ले जाते थे। इस प्रकार उस परम्परा को रूढिरूप से लगाकर उसको सुरक्षित रखता है, एक दिन वह पौधे से पेड़ दक्षिण के लोग अपनाते रहे, लेकिन इसका रहस्य समझने वाले
4 जुलाई 2004 जिनभाषित
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लोग बलि के पाप से बचने हेतु कभी भी नारियल को देवता के सामने नहीं काटते और न ही समर्पित करते, परन्तु वापस घर ले जाते थे ।
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'मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामिति' बोलकर श्रीफल पूरापूरा ही चढ़ाया जाता है, जिससे कि पूरा-पूरा ही मोक्ष मिल सके। अगर कोई नारियल को फोड़कर आधा चढ़ाये तो आधा ही मोक्ष मिलेगा, कहीं बीच में ही लटक जाएगा। इतना ही नहीं नारियल फोड़कर चढ़ाने से बलिप्रथा का भी समर्थन होता है। तथा आधा घर ले जाने से निर्माल्य खाने का भी दोष लगता है इसके बाद सूखा हुआ वह फल बजाने से खट-खट बजता है। मानो यह उपदेश देता है कि निर्ग्रन्थ अवस्था प्राप्त होने पर साधु को भेद - विज्ञान की प्राप्ति होती है, शरीर और आत्मा भिन्नभिन्न अनुभव में आती है। इसलिये तो उन्हें सभी परीषह और उपसर्ग को सहज रूप से समतापूर्वक सहन करने में आ जाते हैं। इसके बाद वह फल ऊपर से इतना कठोर और देखने में मटमैला होता है कि लोगों को अच्छा नहीं लगता। लेकिन अंदर स्वच्छ सफेद और मुलायम होता है। वह कहता है कि मुझे जो तुम ऊपर से देख रहे हो, वही मात्र मेरा वास्तविक स्वरूप नहीं है। वास्तविक स्वरूप तो अंदर देखने पर ही मालूम पड़ता है, इसलिये तो हमारा बाहरी नाम नारियल अर्थात् बाहर से मैं नोरियल हूँ अन्दर में ओरिजनल हूँ, इसलिये मेरा नारियल नाम भी सार्थक है। इसी तरह साधु लोग ऊपर से किसी पाप, पाखण्ड, मिथ्यात्व, रुढ़िवाद आदि का खण्डन करते हुए कठोर से प्रतीत होते हैं। अस्नान व्रत होने से कभी उनका रंग अच्छा सा प्रतीत न हो, मैला -कुचैला सा लगे, तो अंतर में वे भावों से बहुत नरम सब के हितकर्ता और स्वभाव से बहुत कोमल होते हैं। इसके बाद जब उस नारियल की खोपड़ी को तोड़ा जाता है, तब अन्दर गोल भेला के दर्शन होते हैं। उसी तरह जब साधु अपने शुक्ल ध्यान से मोहनीय कर्म का नाश करते हैं, तब परम वीतरागी कहलाते हैं। नारियल की खोपड़ी की कठोरता बतलाती है कि मोहनीय कर्म बड़ा कठोर होता है और जिसके जाने पर अन्य कर्मों का जाना बहुत सहज हो जाता है। इसके बाद जैसे भेले के ऊपर का छिलका धीरे-धीरे निकाला जाता है, तब धवल भेला निकलता है। वैसे ही साधु लोग क्रमशः ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का क्षय करते हैं, तब कैवल्य की प्राप्ति करके अर्हन्त पद पाते हैं। वह अर्हन्त अवस्था एक धवल भे के समान समझना चाहिए। अभी नारियल पूर्ण शुद्ध अवस्था को प्राप्त नहीं हुआ है, अभी उसमें और कुछ अशुद्धता बाकी है, लेकिन जब उस भेले से तेल निकाला जाता है तब वह पूर्ण शुद्ध अवस्था को प्राप्त करता है। इसी तरह केवलज्ञानी की अर्हन्त
अवस्था पूर्ण शुद्ध नहीं मानी जाती, क्योंकि अभी अघातिया कर्म उनकी आत्मा में बैठे रहते हैं। जब श्रेष्ठ शुक्लध्यान द्वारा अघातिया कर्मों का भी नाश कर दिया जाता , तभी तेल के समान पूर्ण
शुद्ध अवस्था को प्राप्त होते हैं। अब देखो वह तेल अगर एक बर्तन में डाला जाये, तब वह तेल नीचे दब जायेगा क्या? अथवा ऊपर आयेगा? ठीक है ऊपर आयेगा । कहाँ तक ऊपर आयेगा ? जहाँ तक दूध है, उसके ऊपर तो नहीं जायेगा । उसे भी सहारा, साधन चाहिए। इसी तरह अघातिया कर्म दूर होने के उपरान्त वे सिद्धपरमेष्ठी कहाँ जाते हैं ? ऊपर की ओर जाते हैं । कहाँ रुक जाते हैं? सिद्ध शिला में रुक जाते हैं। उसके ऊपर क्यों नहीं जाते? उनके पास तो अनंत शक्ति है, फिर और भी ऊपर जाना चाहिए। अनंत आकाश पड़ा है, जाते रहना चाहिए, उनको रोकने वाला कौन? तो आप बोलेंगे " धर्मास्तिकायाभावात् " धर्मास्तिकाय का अभाव है, इसलिये ऊपर नहीं जा पाते, तो मैं पूछता हूँ कि एक अनंत शक्ति के धारक सिद्ध परमात्मा को भी परद्रव्य के आलंबन की आवश्यकता पड़ी। मतलब बिना निमित्त के उनका काम नहीं चल सकता। धर्मास्तिकाय निमित्त के बिना वे ऊपर नहीं जा पाये, तो हम तुम लोग निमित्त की उपेक्षा करें
तो हमारा जीवन कैसे चलेगा? सम्यग्दर्शन से लेकर मोक्ष तक
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निमित्त भी उपादान के साथ काम करता रहता है, अत: अनेकान्त को समझने वाले लोगों को कभी निमित्त को छोड़ने की बात नहीं करना चाहिए। आप लोगों के उपादान में कुछ तो हमारे चातुर्मासरूपी निमित्त की आवश्यकता रही होगी, इसीलिये तो आप लोगों ने नारियल चढ़ाकर चातुर्मास का निवेदन किया । यह नारियल श्री फल भी कहलाता है, श्री का अर्थ लक्ष्मी होता हैं, जो मोक्ष लक्ष्मी प्रदान करे, उसे श्रीफल कहते हैं। वैसे लक्ष्मी तीन प्रकार की होती है पहली अन्तरंग लक्ष्मी अर्थात् अनंत चतुष्टय, दूसरी है बहिरंग लक्ष्मी-समवशरण आदि विभूति और तीसरी है मोक्ष लक्ष्मी । इन तीनों की पूजा, चाहना करनी चाहिए, अन्य किसी सरागी की नहीं। नारियल जब चढ़ाते हैं, तब उसकी चोटी ऊपर की ओर रखते हैं। इससे वह मुक्ति जाने की भावना प्रगट करता है । इसलिए उसका श्रीफल भी नाम सार्थक है। इस प्रकार हम लोगों ने एक नारयिल या श्रीफल के उदाहरण से मोक्षमार्ग को समझ लिया । यह शार्ट एण्ड स्वीट उदाहरण देने मात्र से आपका काम चल जायेगा। अब चातुर्मास में मौन बैठ सकते लेकिन आप लोगों के संकेत से मालूम पड़ा कि आप बहुत कुछ सुनना चाहते हैं। मैं रोज सुबह-शाम सुना सकता हूँ, आपके बंधन में बंधकर नहीं अपने व्रतों के बंधन को मुख्यता देते हुए शास्त्र सुनाऊँगा । इस श्रीफल की ही यात्रा को विस्तृत करके सुनाऊँगा, जिससे आपको शीघ्रतिशीघ्र मोक्ष फल की प्राप्ति हो ।
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असंख्यात गुणी निर्जरा शुभोपयोग में भी
यद्यपि कर्मों की निर्जरा सभी संसारी जीवों के सदा काल होती रहती है । फिर प्रश्न खड़ा होता है कि संसार के सामान्य जीवों और मोक्षमार्गी जीवों में क्या अंतर शेष रहता है, जिससे मोक्षमार्गियों को श्रेष्ठ माना जाता है। उन्हें पूज्य माना जाता है?
समाधान दोनों के निर्जरा होने पर भी संसारी जीवों के संवर पूर्वक निर्जरा नहीं होती है, जबकि मोक्षमार्गी जीवों के संवर पूर्वक निर्जरा पाई जाती है। बतौर उदाहरण हम समझें कि नदी में दो नाव हैं, दोनों नाव में छिद्र हैं और छिद्रों से पानी नाव में आ रहा है। दोनों नाव के नाविक तथा यात्रीगण नाव से बराबर जल निकाल रहे हैं, किन्तु एक नाव का नाविक अपनी बुद्धि का प्रयोग करता है और पानी निकलने के छिद्रों में डांट लगाकर पानी निकालना प्रारम्भ कर देता है। दूसरी नाव के नाविक ने बिना डांट लगाये ही पानी निकालना प्रारम्भ कर दिया। अब आप ही बतायें कि दोनों नाविकों में से कौन सा श्रेष्ठ है ? उत्तर होगा जिसने नाव के छिद्रों में डांट लगाकर पानी निकालना प्रारम्भ किया है। ठीक इसी प्रकार मोक्षमार्गी, सामान्य संसारी जीवों की तुलना में श्रेष्ठ है। पूज्य है । इतनी ही नहीं मोक्षमार्गी संवर पूर्वक सामान्य निर्जरा तो करता ही है, पर विशेष तप आदि के माध्यमों से भी कर्म निर्जरा करता रहता है। इसी प्रकार की विशेष निर्जरा ही अविपाक निर्जरा कहलाती है ।
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आचार्यों ने निर्जरा के दो भेद कहे हैं - 1. सविपाक निर्जरा 2. अविपाक निर्जरा । जो कर्म फल देकर अपने आप समयानुसार खिर जाते हैं, वह सविपाक निर्जरा कहलाती है और जो कर्म तप, व्रत, संयम आदि विशेष उद्यम करके निर्जरा को प्राप्त होते हैं, वह अविपाक निर्जरा कहलाती है। अतः मोक्षमार्गी के सविपाक और अविपाक दोनों ही निर्जरा होती है। हमारी चर्चा का विषय है असंख्यात गुणी निर्जरा शुभोपयोग में भी।" इस प्रसंग में यह भी जान लेना परमावश्यक है कि शुभोपयोग कहाँ से कहाँ तक होता है। उपयोग आत्मा का लक्षण है। वह मूल में दो प्रकार का होता है :- शुद्धोपयोग, अशुद्धोपयोग। अशुद्धोपयोग के भी दो भेद होते हैं:- शुभोपयोग, अशुभोपयोग । प्रथम से छठे गुणस्थान तक अशुद्धोपयोग (अशुभपयोग, शुभोपयोग) तथा सप्तम गुणस्थान से 12 वें गुणस्थान तक शुद्धोपयोग कहा गया है। इसके आगे अर्थात् 13 वां व 14 वां गुणस्थान शुद्धोपयोग का फल है। इस प्रकार के उपयोग विभाजन में कहीं पर भी (किसी भी आचार्य प्रणीत शास्त्रों से) विरोध नहीं है। हमें विस्मय तब होता है जब कुन्दकुन्द, उमास्वामी जैसे महान् आचार्यों की बात करने वाले कुछ लोग चतुर्थ गुणस्थान से शुद्धोपयोग कहते आ रहे हैं। जबकि आचार्यों के उपयोग विभाजन से ज्ञात होता है कि चतुर्थ गुणस्थान 6 जुलाई 2004 जिनभाषित
मुनि श्री निर्णय सागर जी
सेव सप्तम गुणस्थान से नीचे शुभोपयोग है न कि शुद्धोपयोग । यह निश्चित है कि चतुर्थ गुणस्थान से अर्थात् सम्यकदृष्टि गुणस्थान से असंख्यात गुणी निर्जरा अवश्य होती किन्तु शुद्धोपयोग नहीं।
किसी महानुभाव को शंका हो सकती है कि चतुर्थ गुणस्थान शुद्धोपयोग मानने में बाधा ही क्या है? क्योंकि चतुर्थ गुणस्थान में अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ का अभाव पाया जाता है। समाधान रूप में यह कहना चाहूंगा कि अनंतानुबंधी क्रोधादि कषायों का अभाव तो, नीचे तीसरे आदि गुणस्थानों में संभव है, फिर वहाँ भी शुद्धोपयोग क्यों नहीं मानते हो, अतः अनंतानुबंधी का अभाव मात्र शुद्धोपयोग का कारण नहीं हो सकता है। शुद्धोपयोग
पात्र तो मुनिराज ही होते हैं। शुद्धोपयोग के संदर्भ में देखिए, आचार्य नेमिचंद्र सिद्धान्तिदेव बृहद् द्रव्य-संग्रह ग्रन्थ की गाथा 47 में कहते हैं
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दुवियंपि मोक्खहेडं झाणे पाउणदिजं मुणी णियमा । तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समब्भसय ॥ 47 ॥ अर्थात् दोनों (निश्चय और व्यवहार) मोक्षमार्ग मुनि को ही प्राप्त होते हैं। निश्चय मोक्षमार्ग और शुद्धोपयोग एकार्थवाची हैं। इसलिए मुनियोगी को ध्यान द्वारा शुद्धोपयोग के लिए सम्यक् अभ्यास करना चाहिए।
इसी प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द महाराज प्रवचनसार ग्रन्थ के ज्ञानाधिकार में गाथा 14 में मुनियों को ही शुद्धोपयोगी सिद्ध होता है। ऐसा कहा है
सुविदिद पयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगद रागो । समणो समसुहदुक्खो, भणिदो सुद्धवओगोत्ति ॥ 4 ॥
जो तत्त्वज्ञानी होकर संयम, तप से संयुक्त हैं। राग रहित हैं। सुख-दुःख में समता धारण करते हैं। उनके ही शुद्धोपयोग होता है ।
आचार्य उमास्वामी महाराज ने तत्त्वार्थ सूत्र के 9 वें अध्याय के 45 वें सूत्र में कहा है- सम्यकदृष्टिश्रावकविरतानंत वियोजक दर्शनमोह क्षपकोपशमको पशांतमोह क्षपकक्षीणमोह जिना : क्रमशोऽसंख्येय गुणनिर्जराः ॥ अर्थात् सम्यक्दृष्टि के सामान्य से असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। सम्यकदृष्टि से श्रावक ( पंचम गुणस्थानवर्ती) के असंख्यात गुणी निर्जरा, इससे महाव्रती (षष्ठ गुणस्थान) के असंख्यात गुणी निर्जरा, इससे अनंतानुबंधी विसंयोजना करने वाले के असंख्यात गुणी इससे आगे दर्शनमोह का क्षपक, उपशम श्रेणी, उपशांत मोह, क्षपक श्रेणी, क्षीणमोह तथा जिन (सयोग केवली) के भी असंख्यात - असंख्यात गुणी आगे-आगे निर्जरा होती है।
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इसी प्रकार आचार्य वीरसेन महाराज षट्खंडागम की टीका | पात्रदान, जिनेन्द्र अर्चना, महामंत्र जाप, वैयावृत्ति, वन्दना, धवला पु. 6, पृष्ठ 427 पर लिखते हैं :
प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान आदि शुभ कार्यों को बंध का ही कारण दर्शनेन जिनेन्द्राणां पाप संघात कुंजरम्।
कहते हैं। विचार करो यदि साधक इन शुभ कार्यों को छोड़ दे, तो शतधा भेदमायाति गिरि वज्र हतो यथो॥
क्या होगा? अशुभ कार्यों में लग जावेगा। श्रावक के शुद्धोपयोग
| नहीं होता, मुनिराज हमेशा शुद्धोपयोगी रह सकते नहीं। किन्तु अर्थात् - जिस प्रकार वज्रपात होने से नष्ट किये जाने पर पर्वत
कर्म निर्जरा पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक व छठे गुणस्थानवर्ती के सैकड़ों टुकडे हो जाते हैं, उसी प्रकार जिनेन्द्र भगवान् के दर्शन
मुनिराज के भी असंख्यात गुणी निर्जरा हमेशा होती रहती है। से मिथ्यात्व जैसे घोर पापों का समूह नष्ट हो जाता है, अर्थात्
श्रावक और सविकल्प मुनिराज के जब शुद्धोपयोग (निर्विकल्प निर्जरित हो जाता है। दर्शन पाठ में भी हम प्रतिदिन पढ़ते हैं
समाधि) का अभाव होता है तब शुभ क्रियाओं के अवलंबन से दर्शनेन जिनेन्द्राणां साधुनाम् वंदनेन च।।
ही विपुल कर्म निर्जरा होती है। तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ में अणुव्रत महाव्रतों न चिरं तिष्ठते पापं, छिद्र हस्ते यथोदकम्॥ को आस्रव तत्त्व रूप कहा गया है। ऐसा एक ग्रन्थ में ग्रन्थकार ने अर्थात् - जिस प्रकार छिद्रयुक्त हाथ में जल की गति होती है, | तत्त्वार्थ सूत्र का उद्धरण दिया है। वहाँ प्रसंग में उनको इतना ही वह अधिक समय तक अंजुलि में नहीं ठहर सकता है। वैसे ही दिखाई दिया। जबकि तत्त्वार्थसूत्र के छठे अध्याय में कहा हैजिनेन्द्र भगवान् के दर्शन से और वीतरागी साधुओं की वंदना "सराग संयम संयमासंयमा-कामनिर्जरा बाल तपांसि करने से पाप कर्म शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार आचार्य वाक्यों। देवस्य" ॥20॥ अर्थात् सरागसंयम, संयमासंयम, अकाम निर्जरा, से भी शुभोपयोगी के कर्म निर्जरा सिद्ध होती है। क्योंकि भगवान् बालतप यह देवायु के कारण हैं। इसके आगे एक सूत्र और है - के दर्शन करते समय शुभोपयोग ही होता है, न कि शुद्धोपयोग। | "सम्यक्त्वं च" ॥ 21 ।। सम्यक्दर्शन भी देवायु का कारण है। यहाँ ऐसा भी न समझें कि शुद्धोपयोगी और शुद्धोपयोग की उपेक्षा | खेद का विषय है कि लेखक अधूरी बात क्यों लिखते हैं। एक सूत्र की जा रही है। शुद्धोपयोगी और शुद्धोपयोग तो महान् हैं ही इनकी | की बात लिखी वह भी अधूरी। सरागसंयम,संयमासंयम शब्द अपेक्षा तो शुभोपयोग लघु था, लघु है, लघु ही रहेगा किन्तु बात | महाव्रत-अणुव्रत के साथ भावसंयम के वाचक हैं तथा यदि आस्रव इतनी ही है कि शुभोपयोग बंध का कारण ही नहीं है, उससे संवर के कारण हैं तो सम्यक्त्व भी आस्रव का कारण है, ऐसा क्यों नहीं निर्जरा भी होती है। किसी का प्रश्न होगा कि आस्रव बंध और कहते हैं तथा तत्त्वार्थसूत्र के छठवें अध्याय के साथ नौवाँ अध्याय संवर निर्जरा दो भिन्न तथा विपरीत हैं यह एक कारण से दो कार्य भी पढ़ लेते। नौवें अध्याय में लिखा गया हैकैसे संभव होंगे? इसका समाधान कार्यकारण-व्यवस्था में कर आस्रव निरोधः संवरः॥1॥ दिया गया है कि आचार्य अकलंक देव राजवार्तिक में कहते हैं:
स गुप्ति समिति धर्मानुप्रेक्षा परीषहजय चारित्रैः ॥2॥ एक कारणेनानेक कार्य संभवात् वह्निवत्। जैसे अग्नि, प्रकाश,
तपसा निर्जरा च ॥3॥ प्रताप, पाचक आदि कार्य करने में समर्थ हैं वैसे यहाँ भी एक
नौवें अध्याय में तीन गुप्ति, पाँच समिति, दस धर्म, बारह कारण से आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा होने में विरोध नहीं है।
अनुप्रेक्षा, बाईस परीषह और पाँच चारित्र को संवर, निर्जरा के फिर प्रश्न होगा - शुभोपयोग से आम्रव बंध और शुद्धोपयोग |
कारणों में रखा है। यदि छठवें अध्याय में सरागसंयम, संयमासंयम से संवर निर्जरा क्यों नहीं मानते हो? ।
का अर्थ द्रव्य संयम (अणुव्रत-महाव्रत) ही हैं, तो नौवें अध्याय समाधान - हमें मानने में कुछ भी विरोध नहीं है किन्तु में भी चारित्र से द्रव्य चारित्र (पाँच महाव्रत आदि) लेना चाहिए। कहीं पर किन्हीं आचार्य प्रणीत शास्त्र में इसका उल्लेख मिलना | वहाँ क्षुधा, तृषा आदि परीषहों को भी संवर निर्जरा के कारणों में चाहिए। किसी भी आचार्य प्रणीत शास्त्र में एक साथ दो उपयोग गिना है बाह्य तपों को भी संवर निर्जरा के कारणों में रखा है। इन का विधान न मिला है, न मिलने की संभावना है। अशुभोपयोग, प्रसंगों को क्यों छोड़ दिया, तत्त्वनिर्णय के क्षेत्र में एकान्त नहीं शुभोपयोग दोनों अशुद्धोपयोग एकान्त से समान नहीं है। अशुभोपयोग होना चाहिए, यदि होगा तो सही तत्त्वनिर्णय नहीं माना जायेगा। से एक पाप कर्म का ही बंध होता है, जबकि शुभोपयोग से
जिसका तत्त्वनिर्णय गलत है वह सम्यक्दृष्टि कैसे हो सकता है? पुण्यकर्मों का आस्रव, बंध तथा पाप कर्मों का संवर, निर्जरा भी ___ अतः उपरोक्त संवर, निर्जरा की मीमांसा हमें सार रूप में होते हैं। यहाँ निर्जरा से तात्पर्य अविपाक निर्जरा ग्रहण करना संकेत करती है कि शुद्धोपयोगी संवर, निर्जरा का स्वामी है परन्तु चाहिए। क्योंकि सविपाक निर्जरा तो सभी संसारी जीवों के हमेशा | शुभोपयोग की अवस्था में भी संवर, निर्जरा होती है। शभोपयोग होती रहती है। कुछ लोग अशुभोपयोग,शभोपयोग को समान मानकर | जब तक अमृत तुल्य है तब तक शुद्धोपयोग नहीं होता है।
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नवकोटि विशुद्धि
स्व. पं. मिलापचन्द्र जी कटारिया
जिन आहारादि के उत्पादन में मुनि का मन, वचन, काय के अशुद्धि सब दानविधि को सदोष बना देगी और दाता व पात्र द्वारा कृत कारित अनुमोदितरूप कुछ भी योगदान न हो ऐसा शुद्ध हैं मगर देय कहिए दान का द्रव्य अशुद्ध है, तो यहाँ भी इस आहारादि का लेना मुनि के लिए नवकोटि विशुद्धिदान कहलाता एक की अशुद्धि ही समस्त दानविधि को सदोष बना डालेगी। है। अर्थात् जो आहारादि मुनि के मन के द्वारा कृत-कारित- इसी तरह दाता और देय शुद्ध हैं मगर पात्र अशुद्ध है, तो वह अनुमोदित न हो, न उनके वचन के द्वारा कृत-कारित अनुमोदित दानविधि भी सारी की सारी सदोष ही समझी जाएगी। हो ऐसे आहारादि का दान नवकोटि विशुद्ध दान कहलाता है। जिनसेनाचार्य का यह कथन पं. आशाधर ने सागारधर्मामृत मतलब कि देयवस्तु के सम्पादन में मुनि का कुछ भी सम्पर्क अध्याय 5 श्लोक 47 की टीका में तथा अनगारधर्मामृत के 5वें नहीं होना चाहिये इससे आहारादि के निमित्त हआ आरम्भ दोष अध्याय के अन्त में और शुभचन्द्र ने कार्तिकेयानप्रेक्षा की गाथा मुनि को नहीं लगता है। वरना वह मुनि अध:कर्म जैसे महादोष | 390 की टीका में उद्धत किया है। का भागी होता है। अनेक ग्रन्थों में नवकोटि विशुद्धि का यही किन्तु सोमदेव ने यशस्तिलक के निम्न श्लोक में जिनसेन स्वरूप लिखा मिलता है। किन्तु आचार्य जिनसेन ने आदि पुराण | के उक्त कथन के विरुद्ध लिखा है - पर्व 20 में नवकोटि विशुद्धि का एक अन्य स्वरूप भी लिखा है। भक्तिमात्र प्रदाने हि का परीक्षा तपस्विनाम्। यथा
ते संतः सन्त्वन्तां वा गृही दानेन शुद्ध्यति॥ 818 ।। दातु विशुद्धता देयं पात्रं च प्रपुनाति सा।
अर्थ - भोजन मात्र के देने में साधुओं की क्या परीक्षा शुद्धिर्देयस्य दातारं पुनीते पात्रमप्यदः 736 ॥ करनी? वे चाहे श्रेष्ठ हों या हीन हों। गृहस्थ तो उन्हें दान देने से पात्रस्य शुद्धि र्दातारं देयं चैव पुनात्यतः। शुद्ध हो ही जाता है।
नवकोटि विशुद्धं तदानं भूरिफलोदयम् ॥137॥ सोमदेव ने इस श्लोक में यह शिक्षा दी है कि मुनि को अर्थ - दाता की शुद्धि देय और पात्र को पवित्र बनाती है, आहार दान देते वक्त गृहस्थ को यह नहीं देखना चाहिए कि यह देय की शुद्धि दाता और पात्र को शुद्ध करती है एवं पात्र की | मुनि आचारवान् है या आचार भ्रष्ट है। उसकी जाँच-पड़ताल शुद्धि दाता देय को पवित्र करती है। इस प्रकार का नव कोटि करने की जरूरत नहीं है। मुनि चाहे कैसा ही अच्छा बुरा क्यों न शुद्ध दान प्रचुर फल का देने वाला होता है।
हो, गृहस्थ को तो आहारदान देने का अच्छा ही फल मिलेगा। इसमें जो लिखा है उसका अभिप्राय ऐसा है कि दाता, देय सोमदेव का ऐसा लिखना जिनसेनाचार्य की आम्नाय के (दान का द्रव्य) और पात्र (दान लेने वाला) इन तीनों में यदि | विरुद्ध है, क्योंकि जिनसेन ने ऊपर यह प्रतिपादन किया है कि तीनों ही अशुद्ध हों, तब तो वह दानविधि दोषास्पद है ही। किन्तु पात्र की शुद्धि दाता और देय दोनों को पवित्र बनाती है। प्रकारांतर इन तीनों में से कोई भी दो अशुद्ध हों और एक शुद्ध हो, तो उस से इसी को यों कहना चाहिए कि पात्र की (दान लेने वाले साधु हालत में भी वह दान दोषास्पद ही है। यही नहीं तीनों में से यदि की) अशुद्धि दाता और देय को भी अशुद्ध बना देती है। भावार्थदो शुद्ध हों और सिर्फ एक ही कोई सा अशुद्ध हो, तब भी वह उत्तमदाता और उत्तम देय के साथ-साथ दान लेने वाला भी दानविधि दोषास्पद ही समझनी चाहिए। मतलब कि दानविधि सुपात्र होना चाहिए तब ही दानी को दान का यथेष्ट फल मिलता में दाता. देय और पात्र ये तीनों निर्दोष होने चाहिए तब ही वह | है। बहुत फल को दे सकती है। तीनों में कोई सा एक भी यदि । महर्षि जिनसेन और सोमदेव के इन परस्पर विरुद्ध वचनों सदोष होगा तो वह दान विधि प्रशस्त नहीं मानी जा सकती। | में किनका वचन प्रमाण माना जाए, यह निर्णय हम विचारशील
उक्त श्लोकद्वय में लिखा है कि दाता की शुद्धि देय और पात्र | पाठकों पर ही छोड़ते हैं। को पवित्र बनाती है। इस तरह लिखने का भाव यह है कि यद्यपि देय और पात्र शुद्ध हैं मगर दाता अशुद्ध है तो इस एक की
जैन निबन्ध रत्नावली भाग-2 से साभार
8 जुलाई 2004 जिनभाषित
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महावीर का श्रावक वर्ग तब और अब :
एक आत्मविश्लेषण
प्रो. सागरमल जैन
लेखक जैन जगत् के सुप्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् हैं। आप सन् 1978 तक शा. स्नातकोत्तर हमीदिया महाविद्यालय भोपाल में दर्शन विभाग में अध्यक्ष थे। तत्पश्चात् बीस वर्ष तक प्राचीनतम जैन शोध संस्थान पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी में निदेशक पद पर आसीन रहे। आप अच्छे चिन्तक और लेखक हैं। आपकी लेखनी से अनेक शोधग्रन्थ प्रसूत हुए हैं। प्रस्तुत लेख में आपने श्रावक के बदलते स्वरूप का गहराई से विश्लेषण किया है, जो विचारों को उद्वेलित करता है।
सम्पादक
प्रस्तुत आलेख में हमारा प्रतिपाद्य भगवान् महावीर की श्रावक । की सुरक्षा की, अपितु अपने त्याग से संघ और समाज की सेवा संस्था की वर्तमान परिप्रेक्ष्य में समीक्षा करना है।
भी की। यदि हम वर्तमान काल में जैनधर्म में गृहस्थ वर्ग के जैन धर्म निवृत्तिपरक धर्म है। संन्यास की अवधारणा
स्थान और महत्त्व के सम्बन्ध में विचार करें, तो आज भी स्पष्ट निवृत्तिपरक धर्मों का हार्द है। इस आधार पर सामान्यतया यह
रूप से ऐसा लगता है कि जैन धर्म के संरक्षण और विकास की माना जाता रहा है कि निवृत्तिमार्गीय श्रमण परम्परा में गृहस्थ का
अपेक्षा से आज भी गृहस्थ वर्ग का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सम्पूर्ण वह स्थान नहीं रहा, जो कि प्रवृत्तिमार्गीय हिन्दू परम्परा में उसे
भारत में एक प्रतिशत जनसंख्या वाला यह वर्ग समाज-सेवा प्राप्त था। प्रवृत्तिमार्गीय परम्परा में गृहस्थ आश्रम को सभी
और प्राणी सेवा के क्षेत्र में आज भी अग्रणी स्थान रखता है। देश आश्रमों का आधार माना गया था। यद्यपि श्रमणपरम्परा में संन्यास
में जनता के द्वारा संचालित जनकल्याणकारी संस्थाओं अर्थात् धर्म की प्रमुखता रही, किन्तु यह समझ लेना भ्रांतिपूर्ण होगा कि
विद्यालय, महाविद्यालय, चिकित्सालय, गोशालाएँ, पांजरापोल, उसमें गृहस्थ धर्म उपेक्षित रहा। वे श्रमण परम्पराएँ जो, संघीय | अल्पमूल्य की भोजनशालाओं आदि की परिगणना करें, तो यह व्यवस्था को लेकर विकसित हुईं,उनमें गृहस्थ या उपासक वर्ग
| स्पष्ट है कि देश में लगभग 30 प्रतिशत लोकसेवी संस्थाएँ जैन को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। भारतीय श्रमण परम्परा में | समाज के द्वारा संचालित हैं। एक! जैन, बौद्ध आदि ऐसी परंपराएँ थीं, जिन्होंने संघीय साधना को | समाज यदि 30 प्रतिशत की भागीदारी देता है, तो उसके महत्त्व महत्त्व दिया। भगवान् महावीर ने अपनी तीर्थ स्थापना में श्रमण, को नकारा नहीं जा सकता। एक दृष्टि से देखें तो महावीर के युग श्रमणी, श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ की स्थापना से लेकर आज तक जैनधर्म, जैनसमाज और जैनसंस्कृति के की। भगवान् महावीर की परम्परा में ये चारों ही धर्मसंघ के संरक्षण का महत्त्वपूर्ण दायित्व श्रावक वर्ग ने ही निभाया है, प्रमुख स्तम्भ माने जाते हैं। उन्होंने अपनी संघ व्यवस्था में चाहे उसे प्रेरणा और दिशाबोध श्रमणों से प्राप्त हुआ हो। इस गृहस्थ उपासक एवं उपासिकाओं को स्थान देकर उनके महत्त्व प्रकार सामान्य दृष्टि से देखने पर महावीर के युग और आज के को स्वीकार किया है। महावीर की संघव्यवस्था साधना के क्षेत्र | युग में कोई विशेष अंतर प्रतीत नहीं होता है। में स्त्रीवर्ग और गृहस्थवर्ग दोनों के महत्त्व को स्पष्ट रूप से __ किन्तु जहाँ चारित्रिक निष्ठा के साथ सदाचारपूर्वक नैतिक स्वीकार करती है।
आचार का प्रश्न है, आज स्थिति कुछ बदली हुई प्रतीत होती भगवान् महावीर ने अपने धर्ममार्ग में साधना एवं संघ व्यवस्था है। महावीर के युग में गृहस्थ साधकों में धनबल और सत्ताबल की दृष्टि से गृहस्थ को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया था। यदि मध्यवर्ती की अपेक्षा चारित्रबल अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता था। वर्तमान युगों को देखें तो यह बात अधिक सत्य प्रतीत होती है, क्योंकि संघीय व्यवस्था में गृहस्थवर्ग का महत्त्वपूर्ण स्थान तो स्वीकार मध्ययुग में भी जैनधर्म और संस्कृति को सुरक्षित रखने में | किया जाता है, किन्तु इन बदली हुई परिस्थितियों में चारित्र बल गृहस्थवर्ग का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने न केवल भव्य की अपेक्षा गृहस्थ का धनबल और सत्ताबल ही प्रमुख बन गया जिनालय बनवाये और ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ करवाकर साहित्य । है। समाज में न तो आज चारित्रवान् श्रावकसाधकों का और न
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ही विद्वत् वर्ग का ही कोई महत्त्वपूर्ण स्थान है। आज जैनधर्म की | गृहस्थ वर्ग को श्रमणसंघ के प्रहरी के रूप में उद्घोषित किया सभी शाखाओं ने समाज पर, समाज पर ही क्या कहें, मुनिवर्ग | था। यदि हम सूदूर अतीत में न जाकर केवल अपने निकट पर भी धनबल और सत्ताबल का ही प्राधान्य है। महावीर के युग अतीत को ही देखें, तो यह स्पष्ट है कि आज गृहस्थ ने केवल में और मध्यकाल में भी उन्हीं श्रावकों का समाज पर वर्चस्व | अपने कर्तव्यों और दायित्वों को भूल बैठा है, बल्कि वह अपनी था, जो संघीय हित के लिए तन-मन-धन से समर्पित होते थे। अस्मिता को भी खो बैठा है। आज यह समझा जाने लगा है कि फिर वे चाहे सम्पत्तिशाली हों या आर्थिक अपेक्षा से निर्धन ही धर्म और संस्कृति का संरक्षण तथा आध्यात्मिक साधना सब क्यों न हों। आज हम यह देखते हैं कि समाज के शीर्षस्थानों पर कुछ श्रमण संस्था का कार्य है, गृहस्थ तो मात्र उपासक है। वे ही लोग बैठे हुए हैं, जिनकी चारित्रिक निष्ठा पर अनेक उसके कर्तव्यों की इतिश्री साधु साध्वियों को दान देने अथवा प्रश्नचिह्न लगे हुए हैं।
उनके द्वारा निर्देशित संस्था को दान देने तक सीमित है। आज यदि हम तुलनात्मक दृष्टि से विचार करें, तो ऐसा लगता है हमें इस बात का अहसास करना होगा कि जैनधर्म की संघकि महावीर के युग की अपेक्षा आज आत्मनिष्ठ गृहस्थ साधकों व्यवस्था में हमारा क्या और कितना गरिमामय स्थान है? चर्तुविध की संख्या में कमी आई है। यदि हम महावीर के युग की बात संघ के चार पायों में यदि एक भी पाया चरमराता या टूटता है, करते हैं, तो वह बहुत पुरानी हो गई, यदि निकटभूत अर्थात्
तो दूसरे का अस्तित्व भी निरापद नहीं रह सकता है। यदि उन्नीसवीं शती की बात को ही लें, तो ईस्ट इण्डिया कम्पनी के
श्रावक अपने दायित्व और कर्त्तव्य को विस्मृत करता है, तो संघ काल के जो समाज आधारित आपराधिक आंकडे हमें उपलब्ध
के अन्य घटकों का अस्तित्व भी निरापद नहीं रह सकता। आज होते हैं उनका विश्लेषण किया जाए तो स्पष्ट लगता है कि उस
के साधुवर्ग और श्रावकवर्ग के पारस्परिक सम्बन्धों को देखकर युग में जैनों में आपराधिक प्रवृत्ति का प्रतिशत लगभग शून्य था।
यह शेर बरबस याद आता है- "हम तो डूबेंगे सनम, तुम्हें भी यदि हम आज की स्थिति देखें, तो छोटे-मोटे अपराधों की बात
ले डूबेंगे"। चाहे यह बात कहने में कठोर हो लेकिन एक स्पष्ट तो एक ओर रख दें, देश के महाअपराधों की सूची पर ही दृष्टि सत्य है कि आज का हमारा श्रमण और श्रमणीवर्ग शिथिलाचार डालें तो चाहे घी में चर्बी मिलाने का काण्ड हो, चाहे अलकबीर में आकण्ठ डूबता जा रहा है। यहाँ मैं किसी सम्प्रदाय-विशेष के कारखाने में तथाकथित जैन-भागीदारी का प्रश्न हो अथवा
की बात नहीं कर रहा हूँ और न मेरा यह आक्षेप उन पूज्य बड़े-बड़े आर्थिक घोटाले हों, हमारी साख कहीं न कहीं गिरी | मुनिवृन्दों के प्रति है जो निष्ठापूर्वक अपने चारित्र का पालन है। एक शताब्दी पूर्व तक सामान्य जनधारणा यह थी कि | करते हैं यहाँ मेरा इशारा एक सामान्य स्थिति से है। आपराधिक प्रवृत्तियों का जैन समाज से कोई नाता रिश्ता नहीं | यह सत्य है कि अन्य वर्गों की अपेक्षा जैन श्रमण संस्था है, लेकिन आज की स्थिति यह है कि आपराधिक प्रवृत्तियों के | कहीं न कहीं एक आदर्श प्रतीत होती है, फिर भी यदि हम सरगनाओं में जैन समाज के लोगों के नाम आने लगे हैं। इससे | उसके अन्तस में झाँककर देखते हैं तो कहीं न कहीं हमें हमारे लगता है कि वर्तमान युग में हमारी ईमानदारी और प्रामाणिकता | आदर्श और निष्ठा को ठेस तो अवश्य लगती है। आज जिन्हें हम पर अनेक प्रश्न चिह्न लग चुके हैं तब की अपेक्षा अब अणुव्रतों आदर्श और वन्दनीय मान रहे हैं, उनके जीवन में छल-छद्म, के पालन की आवश्यकता अधिक है।
दुराग्रह और अहम् के पोषण की प्रवृत्तियाँ तथा वासना के ___एक युग था जब श्रावक से तात्पर्य व्रती श्रावक ही होता था। | जीवन के प्रति ललक को देखकर मन पीड़ा से भर उठता है। तीर्थंकरों के युग में जो हमें श्रावकों की संख्या उपलब्ध होती है | किन्तु उनके इस पतन का उत्तरदायी कौन है, क्या वे स्वयं ही वह संख्या श्रद्धाशील श्रावकों की संख्या नहीं, बल्कि व्रती हैं? वास्तविकता यह है कि उनके इस पतन का उत्तरदायित्व श्रावकों की है। किन्तु आज स्थिति बिल्कुल बदलती हुई नजर
हमारे श्रावक वर्ग पर भी है। या तो हमने उन्हें इस पतन के मार्ग आती है, यदि आज हम श्रावक का तात्पर्य ईमानदारी एवं | की ओर अग्रसर किया है या कम से कम उसके सहयोगी बने निष्ठापूर्वक श्रावक व्रतों के पालन करने वालों से लें, तो हम यह
हैं। साधु-साध्वियों में शिथिलाचार, संस्थाओं के निर्माण की पाएँगे कि उनकी संख्या हमारे श्रमण और श्रमणीवर्ग की अपेक्षा
प्रतिस्पर्धा और मठवासी प्रवृत्तियाँ आज जिस तेजी से बढ़ रही कम ही होगी। यद्यपि यहाँ कोई कह सकता है कि व्रत ग्रहण
हैं, वह मध्यकालीन चैत्यवासी और भट्टारक परम्परा, जिसकी करने वालों के आँकड़े तो कहीं अधिक है, किन्तु मेरा तात्पर्य
हम आलोचना करते नहीं अघाते, उससे भी कहीं आगे हैं। हमें मात्र व्रत ग्रहण करने से नहीं, किन्तु उसका परिपालन कितनी
| यह नहीं भूलना चाहिए कि साधु-साध्वियों में जो शिथिलाचार ईमानदारी और निष्ठा से हो रहा है इस बात से है। महावीर ने | बढ़ा है वह हमारे सहयोग से ही बढ़ा है। यह सत्य है कि आज
10 जुलाई 2004 जिनभाषित
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श्रावक, उनमें भी विशेष रूप से सम्पन्न श्रावक, धर्म के नाम पर | जीवन मूल्यों का संरक्षण होगा, अन्यथा केवल प्रदर्शन और होने वाले बाह्य आडम्बरों में अधिक रुचि ले रहे हैं। आध्यात्मिक अपने अहम् की पुष्टि में हमारी अस्मिता ही समाप्त हो जाएगी। साधना के स्थान पर वह प्रदर्शनप्रिय हो रहा है। धर्म प्रभावना | आज न केवल नेताओं के बड़े-बड़े होर्डिंग्स लग रहे हैं, किन्तु का नाम लेकर आज के तथाकथित श्रावक और उनके तथाकथित हमारे साधुओं के भी होर्डिंग्स लग रहे हैं। संचार साधनों की गुरुजन दोनों ही अपने अहं और स्वार्थों के पोषण में लगे हैं। | सुविधाओं के इस युग में महत्त्व मूल्य और आदर्शों को दिया आज धर्म की खोज अन्तरात्मा में नहीं, भीड़ में हो रही है। हम जाना चाहिए, न कि व्यक्तियों को, क्योंकि उसके निमित्त से भीड़ में रहकर अकेले रहना नहीं जानते, अपितु कहीं अपने आज साधु समाज में प्रतिस्पर्धा की भावना जन्मी है और उसके अस्तित्व और अस्मिता को भी भीड़ में ही विसर्जित कर रहे हैं। परिणाम स्वरूप संघ और समाज के धन का कितना अपव्यय हो आज वही साधु और श्रावक अधिक प्रतिष्ठित होता है, जो भीड़ | रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है। यह धन भी साधुवर्ग के इकट्ठी कर सकता है। बात कठोर है, किन्तु सत्य है। आज जो | पास नहीं है, गृहस्थ वर्ग के पास से ही आता है। आज पूजा, मजमा जमाने में जितना कुशल होता है, वही अधिक प्रतिष्ठित | प्रतिष्ठा, दीक्षा, चातुर्मास, आराधना और उपासना की जो पत्रिकाएँ भी होता है।
छप रही हैं, उनकी स्थिति यह है कि एक-एक पत्रिका की ___ आज सेवा की अपेक्षा सेवा का प्रदर्शन अधिक महत्त्वपूर्ण
सम्पूर्ण लागत लाखों में होती है क्या यह धन सत्साहित्य या बनता जा रहा है। मैं पश्चिम के लायन्स और रोटरी क्लबों की । प्राचीन ग्रन्थों के, जो भण्डारों में दीमकों के भक्ष्य बन रहे हैं. बात ही नहीं करता, किन्तु आज के जैनसमाज के विकसित होने | प्रकाशन में उपयोगी नहीं बन सकता है? वाले सोशल ग्रुप की भी बात करना चाहता हूँ। हम अपने हृदय | मैं यह सब जो कह रहा हूँ उसका कारण साधकवर्ग के प्रति पर हाथ रखकर पूछे कि क्या वहाँ सेवा के स्थान पर सेवा का
मेरे समादारभाव में कमी है ऐसा नहीं है, किन्तु उस यथार्थता प्रदर्शन अधिक नहीं हो रहा है? मेरे इस आक्षेप का यह आशय को देखकर मन में जो पीड़ा और व्यथा है, यह उसी का प्रतिफल नहीं है कि सोशल ग्रुप जैसी संस्थाओं का मैं आलोचक हूँ, है। बाल्यकाल से लेकर जीवन की इस ढलती उम्र तक मैंने जो वास्तविकता तो यह है कि आज समाज, संस्कृति और धर्म को | कुछ अनुभव किया है, मैं उसी की बात कह रहा हूँ। मेरे कहने बचाए रखना है, तो ऐसी संस्थाओं की नितांत आवश्यकता है। का यह भी तात्पर्य नहीं है कि समाज पूरी तरह मूल्यविहीन हो मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि आज एक मंदिर, उपाश्रय या | गया है। आज भी कुछ मुनि एवं श्रावक हैं, जिनकी चारित्रिक स्थानक कम बने और उसके स्थान पर गाँव-गाँव में जैनों के निष्ठा और साधना को देखकर उनके प्रति श्रद्धा और आदर का सोशल क्लब खड़े हों, किन्तु उनमें हमारे धर्म, दर्शन और संस्कृति | भाव प्रकट होता है, किन्तु सामान्य स्थिति यही है। आज हमारे का संरक्षण होना चाहिए। आचार की मर्यादाओं का पालन होना | जीवन में और विशेषरूप से हमारे पूज्य मुनि वर्ग के जीवन में चाहिए। आज के युवा में जैन संस्कारों के बीजों का वपन हो | जो दोहरापन यथार्थ या विवशता बनता जा रहा है, उस सबके और वे विकसित हों, इसलिए ऐसे सामाजिक संगठन आवश्यक | लिए हम ही अधिक उत्तरदायी हैं। हैं, किन्तु यदि उनमें पश्चिम की अंधी नकल से हमारे सांस्कृतिक | आज हमें अपने आदर्श अतीत को देखना होगा, अपने पूर्वजों मूल्य और सांस्कृतिक विरासत समाप्त होती है, तो उनकी | की चारित्रनिष्ठा और मूल्यनिष्ठा को समझना होगा। मात्र समझना उपादेयता भी समाप्त हो जाएगी।
ही नहीं, उसे जीना होगा, तभी हम अपनी अस्मिता की और यह सत्य है कि आज के युग में संचार के साधनों में वृद्धि | अपने प्राचीन गौरव की रक्षा कर सकेंगे। आज पुनिया का हुई है और यह भी आवश्यक है कि हमें इन संचार साधनों का आदर्श, आनन्द की चारित्र निष्ठा, भामाशाह का त्याग, तेजपाल उपयोग भी करना चाहिए, किन्तु इन संचार के साधनों के माध्यम
और वस्तुपाल की धर्मप्रभावना, सभी मात्र इतिहास की वस्तु से जीवन-मूल्यों और आदर्शों का प्रसारण होना चाहिए, न कि बन गये हैं। तारण स्वामी, लोकाशाह, बनारसीदास आदि के वैयक्तिक अहम का पोषण। आज यह स्पष्ट है कि हमारी रुचि | धर्मक्रान्ति के शंखनाद की ध्वनि उन आदर्शों और मूल्यों की स्थापना में उतनी नहीं होती है, हमारी दुर्दशा का कारण है, हम कब सजग और सावधान होंगे? जितनी अपने अहम् के सम्पोषण के लिए अपना नाम व फोटो | यह चिन्तनीय है। छपा हुआ देखने में होती है। इस युग में, मैं देख रहा हूँ कि साधनाप्रिय साधु और श्रावक तो कहीं ओझल हो गये हैं। यदि
35, ओसवाल सेरी, उनका जीवन और चारित्रिक मूल्य आगे आएँ तो, उनसे हमारे
शाजापुर 462001(म.प्र.)
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कर्मसिद्धान्त-व्यवस्था से वेदवैषम्य की सिद्धि
वेदवैषम्य जैनदर्शन का विचित्र प्रतीत होने वाला, किन्तु । बतलायी गई है। इसलिए षट्खण्डागम में मनुष्यनी के लिए वास्तविक, विशिष्ट सिद्धान्त है । यह दिगम्बर और श्वेताम्बर संयतगुणस्थान के विधान से द्रव्यस्त्री की मुक्ति का विधान दोनों परम्पराओं के आगमों में स्वीकृत है। स्त्रीशरीर के सूचक सिद्ध नहीं होता । योनि - स्तन आदि चिह्नों, पुरुष शरीर के सूचक शिश्न आदि चिह्नों और नपुंसक शरीर के सूचक योनि- शिश्न आदि के अभाव को द्रव्यवेद या द्रव्यलिंग कहते हैं । तथा पुरुष के प्रति कामभाव, स्त्री के प्रति कामभाव और दोनों के प्रति कामभाव का नाम भाववेद या भावलिंग है। देवों, नारकियों, भोगभूमिजों तथा कर्मभूमि के मनुष्यों और संज्ञी तिर्यंचों में द्रव्यवेद और भाववेद समान ही होते हैं । अर्थात् जो द्रव्य या शरीर से स्त्री, पुरुष या नपुसंक है, वह भाव से भी स्त्री, पुरुष या नपुंसक ही होता है, किन्तु कर्मभूमि के संज्ञी तिर्यंचों और मनुष्यों में व्यवस्था कुछ भिन्न है। उनमें भी प्राय: दोनों वेद समान ही होते है, मात्र कुछ जीवों में विषम हो जाते हैं। जैसे किसी मनुष्य में स्त्रीवेद नामक नोकषायवेदनीय कर्म के उदय से भाववेद तो स्त्री का उदित होता है, किन्तु शिश्नादि - उपांगनामकर्म के उदय से उसके शरीर की रचना पुरुषाकार हो जाती है। इसके फलस्वरूप शरीर से पुरुष होते हुए भी उसकी प्रवृत्तियाँ पुरुषसदृश न होकर स्त्रीसदृश होती हैं, उसमें पुरुष के ही साथ रमण करने की इच्छा उत्पन्न होती है। इसी प्रकार किसी मनुष्य में पुंवेदनामक नोकषायवेदनीय कर्म के उदय से भाववेद तो पुरुष का प्रकट होता है, किन्तु योनिस्तनादि - उपांगनामकर्म के उदय से उसके शरीर की आकृति स्त्रीरूप हो जाती है। इस तरह तीनों भाववेदों और तीनों द्रव्यवेदों में परस्पर विषमता होने से वेदवैषम्य के नौ विकल्प होते हैं। भाववेद कषाय होते हुए भी कषाय के समान अन्तर्मुहूर्त में परिवर्तित नहीं होता, अपितु जन्म से लेकर मृत्यु तक स्थायी रहता है ।
भाववेद मोक्ष में बाधक नहीं है। यदि कोई मनुष्य भाव की अपेक्षा स्त्रीवेदी या नपुंसकवेदी है, तो मोक्षप्राप्ति में कोई बाधा नहीं होती। किन्तु यदि द्रव्य (शरीर) की अपेक्षा स्त्रीवेदी या नपुंसकवेदी है, तो मोक्षसाधना असंभव हो जाती है । अतः द्रव्यवेद भाववेद से बलवान् है। फलस्वरूप मनुष्यादि गतियों का प्रशस्त, अप्रशस्त और अप्रशस्ततर स्वरूप उसी के द्वारा निर्धारित होता है ।
'षट्खण्डागम' में मनुष्यगति के भावस्त्रीवेदी द्रव्यपुरुष को भी 'मनुष्यिनी' शब्द से अभिहित किया गया है और इस प्रकार की मनुष्यिनी के लिए चौदह गुणस्थानों की प्राप्ति संभव 12 जुलाई 2004 जिनभाषित
प्रो. रतनचन्द्र जैन
भाववेद के अनुसार द्रव्यवेद की रचना का मत आगमविरुद्ध
किन्तु प्रो. हीरालाल जी जैन वेदवैषम्य को स्वीकार नहीं करते, इसलिए उन्होंने षट्खण्डागम में जिस मनुष्यनी के लिए संयत गुणस्थान की प्राप्ति बतलायी है, उसे भावमनुष्यिनी न मानकर द्रव्यमनुष्यिनी माना है और यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि दिगम्बर जैन परम्परा में भी स्त्रीमुक्ति मानी गयी है। (सिद्धांतसमीक्षा, भाग 3, पृष्ठ 191, हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, सन् 1945 ) । उन्होंने यह भी प्रतिपादित करने का प्रयत्न किया है कि कर्मसिद्धान्त व्यवस्था से वेदवैषम्य सिद्ध नहीं होता (वही, पृष्ठ 191 ) । वे गोम्मटसार जीवकाण्ड
271 वीं गाथा श्री केशव वर्णी कृत जीवतत्त्व प्रदीपिका काका प्रमाण देते हुए लिखते हैं
"मैंने (पं. राजेन्द्रकुमार जी को) उसी गाथा की संस्कृत टीका पढ़कर सुनाई, जहाँ विधिवत् यह बतलाया गया है कि जब पुंवेद के उदय के साथ निर्माण और अंगोपांगनामकर्म का उदय होता है, तभी शिश्नादि - लिंगाकित पुरुषशरीर उत्पन्न होता है । जब स्त्रीवेद के उदय के साथ उन्हीं नामकर्मों का उदय होता है, तब योनि आदि लिंगसहित स्त्रीशरीर उत्पन्न होता है और जब नपुंसकवेदोदय के साथ उन्हीं कर्मों का उदय होता है, तब उभयलिंग-व्यतिरिक्त नपुंसक शरीर उत्पन्न होता है । यही कर्मसिद्धान्त की नियत व्यवस्था बतलाकर टीकाकार
क्वचित् विषमत्व की बात यह कहकर समझाई है कि चूँकि परमागम में तीनों वेदों से क्षपक श्रेणी का विधान किया गया है, इसलिए यह भी संभव मान लेना चाहिए कि कर्मभूमि के जीवों में भाव और द्रव्य वेदों में वैषम्य भी होता है । किन्तु टीकाकार ने वेदसाम्य को जैसी व्यवस्था से समझाकर बतलाया है, वैसी वे यहाँ नहीं बता सके कि कर्मोदय की कौन सी व्यवस्था से यह केदवैषम्यं फलित होता है । वेदवैषम्य इस कारण भी स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि यदि किसी भी द्रव्य शरीर के साथ कोई भी भाववेद उदय में आ सकता, तो जीवन में कषायों के समान वेदपरिवर्तन भी माना गया होता । आगम में वेद परिवर्तन नहीं मानने का कारण यही है कि स्त्रीवेद स्त्रीशरीर में ही उदय में आ सकता है और चूँकि
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शरीर रचना जीवनभर बदलती नहीं है, इसीलिए भाववेद भी | अथवा नामकर्मोदय से उत्पन्न स्तन-जघन-योनिविशिष्ट शरीर एक पर्याय में कभी बदल नहीं सकता। यही बात पुरुष व | स्त्रीवेद कहलाता है - नपुंसक वेदोदय की है" (सिद्धान्त समीक्षा, भाग 3, पृष्ठ "इत्थिवेददव्वकम्मजणिदपरिणामो किमित्थीवेदो 188-189)
वुच्चदिणामकम्मोदय जणिदथणजहणजोणिविसिट्ठसरीरं प्रोफेसर सा. आगे लिखते हैं "शरीर की स्त्रीपुरुषरूप वा?" (पु.7, पृष्ठ 79) रचना के लिए क्रमशः स्त्री व पुरुषवेद-विशिष्ट जीव निमित्तरूप इन वक्तव्यों में भाववेद की सहकारिता के बिना. केवल से कारणीभूत होता ही है। अत एव कोई भी द्रव्यवेद अपने अंगोपांग-नामकर्म के उदय को द्रव्यवेद की रचना का हेतु भाववेद के बिना उत्पन्न नहीं हो सकता एवं भव के प्रथम बतलाया गया है। अतः श्री केशव वर्णी ने जो गोम्मटसार समय से जीव के जो भाववेद होगा, वह अपने ही अनुरूप | जीवकाण्ड की 271 वीं गाथा की टीका में कहा है कि भाववेद द्रव्यवेद की रचना करके व्यक्तरूप से उदय में आवेगा" (वही, और अंगोपांगनाम कर्म दोनों के उदय से द्रव्यवेद की रचना भाग 3, पृष्ठ 190-191)।
होती है, वह आगमानुकूल नहीं है। अतः उस पर आधारित प्रोफेसर सा.अपना कथन निम्न शब्दों में जारी रखते हैं, प्रो. हीरालाल जी की मान्यता भी आगमविरुद्ध ठहरती है। श्री "वेदरूप भाव के अनुसार ही पुरुष-स्त्रीरूप जातियाँ उत्पन्न | केशव वर्णी ने अन्यत्र भी आगमविरुद्ध कथन किये हैं, जैसे होती है और उनकी जो द्रव्यरचना प्रतिनियत है, वही उनके उन्होंने द्रव्यमानुषी को भी क्षायिकसम्यक्त्व की प्राप्ति बतलायी
त एव वेदवैषम्य कर्मसिद्धान्त व्यवस्था से | है। उसे केवल द्वितीयोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति के अयोग्य सिद्ध नहीं होता, चाहे उसके उल्लेख दिगम्बर ग्रन्थों में हों बतलाया है (जी.त.प्र./गो.जी., गा. 714)।
और चाहे श्वेताम्बर ग्रन्थों में। फलतः यदि तीनों भाववेदों से वस्तुतः जीव के जिन परिणामों से पंवेदादि नोकषायक्षपकश्रेणी-आरोहण इष्ट है, तो तीनों द्रव्यवेदों से मुक्ति के | वेदनीय कर्मों का बन्ध होता है,उन्हीं से शिश्न-स्तन-योनि प्रसंग से बचा नहीं जा सकता" (वही, भाग 3, पृष्ठ 191) | आदि उपांगों की रचना के निमित्तभूत शिश्नादि-उपांगनामकर्म,
यद्यपि श्री केशव वर्णी ने गोम्मटसार जीवकाण्ड की | योनिस्तनादि-उपांगनामकर्म तथा शिश्नयोन्यादि-अभाव रूप271 वीं गाथा की टीका में उपर्युक्त बात लिखी है, तथापि वह । | उपांगनामकर्म का बन्ध होता है। इस प्रकार इन नामकर्मों में ही आगमसम्मत नहीं है, क्योंकि उक्त गाथा में जो कहा गया है, शिश्न-योन्यादि द्रव्यवेदों की रचना के बीज अन्तर्निहित होते वह इस प्रकार है
हैं। अत: उनकी रचना में अंगोपांगनामकर्म स्वयं समर्थ है। पुरूसिच्छिसंढवेदोदयेण पुरिसित्थिसंढवो भावो। उसके लिए भाववेद के उदय की सहकारिता आवश्यक नहीं
णामोदयेण दव्वे पाएण समा कहिं विसमा॥ है। इसलिए "भाववेद के समान ही द्रव्यवेद की रचना होती है ___ अर्थ - पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद नामक चारित्र | अतः कर्मसिद्धान्त व्यवस्था में वेदवैषम्य सिद्ध नहीं होता", मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के उदय से पुरुषभाववेद, स्त्रीभाववेद | प्रो. हीरालाल जी की यह मान्यता आगमविरुद्ध ठहरती है।
और नपुंसकभाववेद का उदय होता है तथा नामकर्म के उदय | गतियों के प्रशस्तादिस्वरूप के निमित्त से से पुरुषद्रव्यवेद, स्त्रीद्रव्यवेद और नपुंसकद्रव्यवेद की रचना
प्रशस्तादि भाववेद का उदय होती है।
भाववेद के अनुरूप द्रव्यवेद की रचना की मान्यता इस गाथा में स्पष्ट कहा गया है कि केवल अंगोपांग इसलिए भी आगमसम्मत सिद्ध नहीं होती कि स्वयं भाववेद नामकर्म के उदय से शिश्न, योनि, स्तन अथवा इनके अभावरूप | का उदय मनुष्यादि गतियों के प्रशस्त, अप्रशस्त और अप्रशस्ततर द्रव्यवेद की रचना होती है। उसमें भाववेद के उदय का कोई | भेदों के उदय पर आश्रित होता है और ये भेद द्रव्यवेद के योगदान नहीं रहता। सर्वार्थसिद्धि में भी कहा गया है- प्रशस्त, अप्रशस्त और अप्रशस्ततर रूपों पर आश्रित होते हैं।
"द्रव्यलिङ्ग योनिमेहनादि नामकर्मोदयनिर्वर्तितम्। विग्रहगति में तीन भाववेदों में से विशिष्ट भाववेद का उदय नोकषायोदयापादितवृत्ति भावलिंगम्" (2/52)। अकारण नहीं हो सकता। कार्यभेदात् कारणभेदः' यह नियम
अर्थात् योनि-मेहन आदि द्रव्यलिंग की रचना नाम सूचित करता है कि विशिष्ट भाववेद विशिष्ट कारण पाकर ही कर्मोदय के निमित्त से होती है और भावलिंग का उदय पुंवेदादि | उदय में आता है। नोकषायकर्म के उदय से होता है।
यह ध्यान देने योग्य है कि पूर्वकृत पुण्य-पाप के धवला में प्रश्न उठाया गया है कि क्या स्त्रीवेद-द्रव्य | फलस्वरूप मनुष्य और देव गति के प्रशस्त और अप्रशस्त भेद कर्म के उदय से उत्पन्न आत्मपरिणाम स्त्रीवेद कहलाता है | होते हैं, जिनके कारण उनमें जन्म लेने वाले जीव सुमानुष
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कुमानुष और सुदेव-कुदेव कहलाते हैं (प्रवचनसार/त.प्र./ | संक्रमण द्वारा उदयवेदरूप संक्रमण हो जाता है और दो वेदरूप गा.3/56-57)। पूर्वकृत पुण्य-पाप के प्रभाव से उपलब्ध होने | द्रव्यकर्म अपने रूप फल न देकर उदयरूप फल देकर खिर के ही कारण भावपंवेद को प्रशस्तवेद एवं भावस्त्रीवेद तथा | जाते हैं" (पं. रतनचन्द्र जैन मुख्तार : व्यक्तित्व एवं कृतित्व, भावनपुंसकवेद को अप्रशस्तवेद कहा गया है, यथा- 1. | भाग 1, पृष्ठ 445)। "अपसत्थवेदोदयेण""" (धवला, पु.5/1, 8, 75-76)। जो द्रव्यवेदनामकर्म सत्त्वरूप में स्थित है, उसके अनुरूप 2. "द्रव्यपुरुष-भावस्त्रीरूपे प्रमत्तविरते आहारक- | भाववेद का उदय होने में कोई बाधा नहीं है, क्योंकि सत्ता में तदङ्गोपाङ्गनामोदयो नियमेन नास्ति।'तु'-शब्दात् अशुभ- | स्थित कर्म भी जीव के परिणामों को प्रभावित करते हैं। जैसे वेदोदये मनःपर्यय-परिहारविशुद्धी अपि न" (गो.जी./ | "जिस जीव के नरकायु का सत्त्व है, वह अणुव्रत या महाव्रत जी.त.प्र., गा.715)। भगवती-आराधना गा. 1210 में संयम धारण नहीं कर सकता" (पं. रतनचन्द्र जैन मुख्तार : व्यक्तित्व का साधन होने से आगामी भव में द्रव्यपुरुषवेद की आकांक्षा | एवं कृतित्व, 1/451)। करने को प्रशस्त निदान कहा गया है
विषमभाववेद-नामकर्म के उदय से संजमहे, पुरिसत्तसत्तबलविरियसंघडणबुद्धी।
विषमभाववेद का उदय सावअबन्धुकुलादीणि णिदाणं होदि हु पसत्थं ॥
इस प्रकार प्रायः द्रव्यवेद के ही सदृश भाववेद का अत: द्रव्यपुरुषवेद भी प्रशस्त होता है और द्रव्यस्त्रीवेद
उदय होता है, तथापि किसी-किसी मनुष्य या तिर्यंच में द्रव्यवेद एवं द्रव्यनपुंसकवेद अप्रशस्त। किन्तु मोक्ष का साधन
के विसदश भी भाववेद उदय में आ जाता है। इसका कारण है द्रव्यपुरुषवेद ही होता है और उसके कारण मनुष्यगाति की
विषमभाववेद-नामकर्म का उदय। अकलंकदेव ने तत्त्वार्थद्रव्यस्त्रियों और द्रव्यनपुंसकों से द्रव्यपुरुष का तथा देवियों से
राजवार्तिक में कहा है, "भाववेद और द्रव्यवेद भिन्न-भिन्न देवों का पद भी उच्च होता है। यही बात पंचेन्द्रिय तिर्यंचों पर
कर्मों के उदय से अस्तित्व में आते हैं। अत: किसी आभ्यन्तर भी चरितार्थ होती है। इसलिए भावपुरुषवेद की अपेक्षा
कारण की विशेषता से द्रव्यपुरुष में भी भावस्त्रीवेद का उदय द्रव्यपुरुषवेद बलवान् है। फलस्वरूप उसके ही सद्भाव-अभाव
हो जाता है और कभी द्रव्यस्त्री में भी भावपुरुषवेद उदय में आ के कारण मनुष्य, देव और तिर्यंच गतियों में विशिष्ट (वेदजन्य)
जाता है "कदाचिद्योषितोऽपिपुंवेदोदयोऽप्याभ्यन्तरविशेषात्" प्रशस्त-अप्रशस्त-भेद उत्पन्न होता है। कर्मभूमि के मनुष्यों
(त.वा.8/9) और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में तीन वेद होने से इन गतियों के तीन
पं. आशाधर जी ने अनगारधर्मामृत के 'यः सोढुं भेद होते हैं : द्रव्य पुरुषवेद की अपेक्षा प्रशस्त, द्रव्यस्त्रीवेद की
कपटी-त्यकीर्तिभुजगीमीष्टे' इत्यादि श्लोक (6/18) में अपेक्षा अप्रशस्त और द्रव्यनपुंसकवेद की अपेक्षा अप्रशस्ततर।
। पर्वभव में किये मायाचार को वेदवैषम्य का हेत बतलाया है। यतः द्रव्यवेद और भाववेद प्रायः समान होते हैं, इसलिए
आगम में मायाचार भावस्त्रीवेद और द्रव्यस्त्रीवेद के बन्ध का जिस जीव के द्रव्यपुरुषवेद-विशिष्ट प्रशस्त मनुष्यगति का उदय
भी कारण बतलाया गया है। किन्तु द्रव्यस्त्रीवेद मोक्ष में बाधक होता है, उसके भव के प्रथम समय में भावपुरुषवेद उदय में
है, जबकि भावस्त्रीवेद बाधक नहीं है। इससे सिद्ध होता है आता है। जिसके द्रव्यस्त्रीवेद-विशिष्ट अप्रशस्त मनुष्यगति का
कि अतिमायाचार से द्रव्यस्त्रीवेद का बन्ध होता है और अल्प उदय होता है, उसके भावस्त्रीवेद तथा द्रव्यनपुंसकवेद-विशिष्ट मायाचार से भावस्त्रीवेद का। तथा इससे यह भी सिद्ध होता है अप्रशस्ततर मनुष्यगति के उदयवाले जीव के भावनपुंसकवेद
कि जिस जीव ने द्रव्यपुरुषवेद का बन्ध कर लिया है, वह यदि प्रकट होता है। इसे दूसरे शब्दों में इस तरह भी कहा जा सकता
अल्प मायाचार करता है, तो उसके विषमभाववेद नामकर्म का है कि उदयागत प्रशस्त, अप्रशस्त या अप्रशस्ततर मनुष्यगति बन्ध होता है, जिसके उदय से विग्रहगति में उसके द्रव्यपुरुषवेद के अनुरूप उदय में आने योग्य जो द्रव्यवेदनामकर्म होता है, के विपरीत भावस्त्रीवेद या भाव नपुंसकवेद का उदय होता है। उसके अनुरूप भाववेद का उदय होता है। इस प्रकार भाववेदोदय अल्पमायाचार के तारतम्य से ही विषमभाववेदनामकर्म में वह के कारण का अन्वेषण करने पर युक्ति से यह सिद्ध होता है कि विशेषता उत्पन्न होती है कि कहीं भावस्त्रीवेद और कहीं भाववेद के अनुरूप द्रव्यवेद का नहीं, अपितु द्रव्यवेद के सदृश | भावनपुंसकवेद उदय में आता है। भाववेद का उदय होता है।
न्यायसिद्धान्तशास्त्री पं.पन्नालालजीसोनी ने कर्मसिद्धान्त के प्रकाण्ड पण्डित पं. रतनचन्द्र जी मुख्तार
'षट्खण्डागम-रहस्योद्घाटन' नामक ग्रन्थ में विरुद्ध द्रव्यवेदनाम ने भी लिखा है, "जिस द्रव्यवेद का उदय होगा, वैसा ही । कर्म' को वेदवैषम्य का हेतु बतलाया है (पृष्ठ 172-173)। भाववेद होगा। अन्य दो द्रव्यवेदों का एक समय पूर्व स्तिबुक- | इसका कारण यह है कि वे विग्रहगति में उदित भाववेद के 14 जुलाई 2004 जिनभाषित
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निमित्त से तत्सदृश द्रव्यवेद की उत्पत्ति मानते हैं, इसलिए | 2. चिकित्सा विज्ञान ने सिद्ध किया है कि कुछ स्त्रीपुरुषों उन्होंने भाववेद से विसदृश द्रव्यवेद की उत्पत्ति से वेदवैषम्य | में स्त्री और पुरुष दोनों की जननेन्द्रियों के लक्षण होते हैं, होना माना है, और उसमें 'विरुद्धद्रव्यवेद नामकर्म' के उदय जिससे उनके वास्तविक लिंग की पहचान करना मुश्किल को हेत बतलाया है। किन्त जैसा कि पर्व में सिद्ध किया गया | होता है। अथवा इनमें से किसी में पहले स्त्रीजननेन्द्रिय की है, भाववेद के निमित्त से तत्सदृश द्रव्यवेद की रचना नहीं प्रधानता होती है, बाद में उसी के स्थान पर पुरुषजननेन्द्रिय का होती, अपितु भावी द्रव्यवेद के निमित्त से तत्सदृश भाववेद का | विकास होने लगता है। अथवा किसी पुरुष में स्त्रीजननेन्द्रिय उदय होता है, अतः विषमभाववेद के उदय से ही वेदवैषम्य | विकसित होने लगती है। इस स्थिति को हम द्रव्यवेद-वैषम्य घटित होता है। अत एव वेदवैषम्य का कारण विषमभाववेद- | नाम दे सकते हैं। ऐसे स्त्री-पुरुषों को आधुनिक चिकित्सक नामकर्म का उदय है, यह सिद्ध होता है।
| शल्यक्रिया द्वारा पुरुष से स्त्री या स्त्री से पुरुष में परिवर्तित कर यद्यपि इस नाम के नामकर्म का उल्लेख आगम में नहीं | देते हैं। अब यदि भाववेद के अनुसार द्रव्यवेद की उत्पत्ति मिलता, तथापि कार्यभेदात् कारणभेदः' इस नियम के अनुसार | मानी जाय, तो एक ही भव में भाववेद के परिवर्तन का प्रसंग उसका अस्तित्व सिद्ध होता है और वह अंगोपांग-नामकर्म में आयेगा। जिस मनुष्य में पहले स्त्रीजननेन्द्रिय की प्रधानता थी, अन्तर्भूत है, जैसा कि 'पृथिवीकाय नामकर्म' एकेन्द्रिय-जाति | उसमें पहले स्त्रीभाववेद का अस्तित्व मानना होगा, पश्चात् नामकर्म में अन्तर्भूत है (धवला पु.3, पृष्ठ 330) । धवलाकार पुरुषजननेन्द्रिय का विकास हो जाने पर और शल्यक्रिया द्वारा का कथन है कि लोक में घोड़ा, हाथी, वृक, भ्रमर, शलभ पुरुष बन जाने पर स्त्रीभाववेद के स्थान में पुरुषभाववेद की मत्कुण, दीमक, गोमी और इन्द्रगोप आदि रूप से जितने कर्मों उत्पत्ति माननी होगी। किन्तु आगम का वचन यह है कि जो के फल पाये जाते हैं, कर्म भी उतने होते हैं (धवला, पु.3, पृष्ठ | भाववेद भव के प्रथम समय में उदित होता है, वही अन्तिम 330)। पं. रतनचन्द्र जैन मुख्तार ने भी एक प्रश्न के समाधान | समय तक विद्यमान रहता है। अतः भाववेद के अनुसार द्रव्यवेद में लिखा है, "नामकर्म की 93 उत्तर प्रकृतियाँ हैं। उनमें से | की उत्पत्ति की मान्यता आगमविरुद्ध है। अंगोपांगनामकर्म, निर्माणकर्म, वर्णनामकर्म, संस्थाननामकर्म भावी द्रव्यवेद के अनुसार भाववेद का उदय मानने पर भी उत्तरप्रकृतियाँ हैं। इनके भी अवान्तरभेद असंख्यात हैं। इन | उक्त स्थिति में भाववेद के परिवर्तन का आगमविरोधी प्रसंग कर्मों के उदय के कारण मनुष्यादि जीवों की भिन्न-भिन्न उपस्थित नहीं होता, क्योंकि किसी मनुष्य में एक ही भव में शक्लें पायी जाती हैं। कषायस्थान व योगस्थान भी असंख्यात | द्रव्यवेद का परिवर्तन हो जाने पर, भाववेद के अपरिवर्तित हैं। इनकी विभिन्नता के कारण अंगोपांग आदि प्रकृतियों के | रहने से या तो वेदवैषम्य उत्पन्न हो सकता है अथवा पहले बन्ध में विभिन्नता आ जाती है।" (पं. रतनचन्द्र जैन मुख्तार | | वेदवैषम्य था, तो वेदसाम्य की स्थिति घटित हो सकती है। ये : व्यक्तित्व एवं कृतित्व,भाग 1, पृष्ठ 481)। इन वचनों से भी दोनों स्थितियाँ कर्मसिद्धान्त के अनुकूल हैं। एक ही भव में 'विषमभाववेद-नामकर्म' का अस्तित्व सिद्ध होता है। द्रव्यवेद-परिवर्तन की घटना तीव्र पुण्य या पाप के उदय से
. भाववेदानुसार द्रव्यवेदरचना का मत विसंगतिपूर्ण | संभव है, जैसे किसी दृष्टिहीन को तीव्र पुण्योदयवश नेत्र ___भाववेद के अनुसार द्रव्यवेद की रचना मानने पर निम्न- | प्रत्यारोपण द्वारा दृष्टि की प्राप्ति संभव है अथवा तीव्रपापोदय लिखित विसंगतियाँ उत्पन्न होती हैं
के कारण कुष्ठरोग होने से सुन्दर शरीर का कुरूप हो जाना 1. विग्रहगति में विशिष्ट भाववेद का उदय किस निमित्त .| संभव है। से होता है, इस प्रश्न का समाधान केवल यह है कि उदयागत | 3.भाववेद के अनुसार द्रव्यवेद की उत्पत्ति मानने पर मनुष्यगति के प्रशस्तत्वादि वैशिष्ट्य से उसके निमित्तभूत | वेदवैषम्य घटित नहीं हो सकता, क्योंकि भाववेद सदा एकरूप द्रव्यपुरुषादिवेद का उदय सुनिश्चित हो जाने के कारण विग्रहगति होता है, उसमें वैचित्र्य या विविधरूपता नहीं होती। इसलिए में भावपंवेदादि का उदय होता है। यदि इस तथ्य को स्वीकार | उसके अनुसार सदा तत्सदृश द्रव्यवेद की ही रचना संभव है, न किया जाय और यह माना जाय कि भावपुंवेदादि के उदय में विषम द्रव्यवेद का निर्माण संभव नहीं है। किन्तु भावी द्रव्यवेद ही अंगोपांग नामकर्म द्रव्यपुरुषादिवेद की रचना करता है, तो के अनुसार भाववेद का उदय स्वीकार करने पर प्रायः वेदसाम्य भावपुंवेदादि का उदय किस निमित्त से होता है, इस प्रश्न का तथा क्वचित् विषमभाववेद-नामकर्म के उदय से वेदवैषम्य, दोनों समाधान नहीं होता। फलस्वरूप जैन कर्मसिद्धान्त के यादृच्छिक | संभव होते हैं। (कारणकार्यव्यवस्था-रहित) अथवा नियतिवादी होने का प्रसंग इन तीन विसंगतियों से गोम्मटसार के टीकाकार केशव आता है।
| वर्णी तथा उनके मतानुयायी वेदवैषम्यवादियों का और प्रथम
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दो विसंगतियों से वेदवैषम्य-विरोधी प्रो.हीरालाल जी जैन का | संदर्भ यह मत कर्मसिद्धान्त व्यवस्था के विरुद्ध सिद्ध होता है कि 1. Intersexuality may be defined as the presence of both
male and female external and or internal genital organ भाववेद के अनुसार ही अंगोपांगनामकर्म द्रव्यवेद की रचना
in the same individual causing confusion in the करता है। अत: उदयागत मनुष्यगति के प्रशस्तत्वादि-वैशिष्ट्य diagnosis of true sex. (D.C.Dutta. Text Book of
Gynaecology Including Contraception' Third addition, से द्रव्यपुरुषादिवेद का उदय सुनिश्चित होता है, उसके अनुसार
chapter 26- Intersex, Publisher: New Central Book भावपुरुषादि वेद का उदय होता है और क्वचित् विषमभाववेद
Agency, 8/1, Chintamoni Das lane Calcutta - 700009) नामकर्म के उदय से विषमभाववेद उदय में आता है। इस व्यवस्था के अनुसार कर्मसिद्धान्त से ही वेद वैषम्य का अस्तित्व
ए/2,मानसरोवर, शाहपुरा सिद्ध होता है।
भोपाल-462039, (म.प्र.)
यह न करें चातुर्मास में
एलक नम्रसागर जी
दिग्भ्रमित युवा शक्ति को दिशाबोध दें, समाज में छाई। हाँ चातुर्मास में आप इतना अवश्य काम करें कि जैन जड़ता को दूर कर चेतना का प्रवाह करें, कई भागों में विभाजित | समाज के प्रत्येक घर में जैन पत्र-पत्रिकाओं के आजीवन एवं टूटती समाज को प्रेम और वात्सल्य के बन्धन में बांध कर सदस्य बनवा दें ताकि हर माह घर बैठे ज्ञान की अच्छीसमाज का जीर्णोद्धार करें, समाज में सन्त के चातुर्मास की | अच्छी बातें मालूम होगी। जैसे जिनभाषित, संस्कार सागर, यही सार्थकता है। समाज को धर्मध्यान कराना ही धर्म की महिलादर्श, बालादर्श, जैनगजट आदि। पम्पलेट की अपेक्षा सच्ची प्रभावना समझी जा सकती है। अनेक फंक्शनों में ढेर आप 20-25 हजार का साहित्य बुलवा दें ताकि चार माह सारा पैसा खर्च कराना केवल पत्र पत्रिकाओं के आलोचना का समाज साहित्य का अध्ययन करते रहें। आपने खुद देखा होगा विषय है। सन्त के चातुर्मास से समाज को क्या मिला? अध्यात्म, | कि मंदिरों में पम्पलेट रद्दी कागज की कोठरी में डले रहते हैं संस्कार, चर्या, बस हमको यही देना है समाज को। चातुर्मास उनका कुछ भी उपयोग नहीं होता। आशा है सन्त लोग समाज में समाज को हम अध्यात्म दें, संस्कार दें, चर्या दें। यहाँ वहाँ को पम्पलेटों के छपवाने में रुपये खर्च कराने का आग्रह न के कार्यक्रमों में पैसे बरबाद न कर स्थाई पाठशाला फंड तैयार | करें। करें, एवं पाठशाला खोलने पर जोर दें, समाज में स्वाध्याय की - सन्त ने समाज में यदि मृत्यु भोज, रात्रि विवाह, बफर टूटती परम्परा को जीवित करें सारी समाज को सामूहिक सिस्टम बन्द करवा कर पाठशाला, पुस्तकालय खुलवा दिया स्वाध्याय कराएं।
तो मैं समझता हूँ इससे बढ़कर चातुर्मास की और कोई सफलता चातुर्मास में छपने वाले कम्प्यूटरीकृत, चिकने कागज, | नहीं हो सकती। चातुर्मास के दौरान युवा पीढ़ी को मर्यादा के चमकते कागज, कई रंगों में रंगीन कागज, मंहगे दामों वाले | क्षेत्र में भी मर्यादित करें। आप उन लड़कियों की एक ड्रेस चातुर्मासिक पम्पलेटों का छपवाना भी बंद करें। हर साल हम | बनवा दें ताकि हर क्लासों में सभी लोग ड्रेस पहन कर आएं, चातुर्मास के पम्पलेटों में इतना पैसा खर्च कर देते हैं उतने पैसे | आप उन लड़कियों को जीन्स के कपड़े पहन कर क्लासों में में एक कॉलेज बन सकता है, सैकड़ों पुस्तकालय खुल सकते | आने की इजाजत न दें। चातुर्मास के दौरान समाज को छहढाला हैं, कई गरीब परिवारों को आजीविका का साधन मिल सकता | एवं रत्नकरण्ड श्रावकाचार ग्रन्थ का अध्ययन अवश्य कराएं है। आखिर उन दो-दो हाथ लम्बे पम्पलेटों को पढ़ता कौन है? | वह भी अध्यात्म के साथ चातुर्मास के दौरान इतना भी ध्यान केवल माली और पोस्टमेन के अलावा? फोन, मोबाइल, इंटरनेट | रखें कि समाज को आगे का चातुर्मास कराने की प्यास बनी के जमाने में इन पम्पलेटों की कतई आवश्यकता नहीं है अतः। रहे। इस तरह की जीवन चर्या समाज में बनाएं। चातुर्मास छपवाना ही है तो हल्के कागज, कम कीमत वाले पम्पलेटों में | समाज सुधार का अच्छा मौका है इसको व्यर्थ न जाने दें, वर्षा काम चला लें।
| योग के चार माह के प्रत्येक दिन पयूषण पर्व सा गुजारें। . 16 जुलाई 2004 जिनभाषित
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गिरनार एक ज्वलन्त समस्या : बहुसंख्यकों को भी अपने हृदय उदार बनाने होंगे
कैलाश मड़बया
कुछ वर्षों पहले उत्तरप्रदेश की बूढ़ी गंगा क्षेत्र के कंपिल | दानपत्र पर पश्चिम एशियाई नरेश की मुद्रा भी अंकित है। यह तीर्थ पर एक पुरातत्त्व-गोष्ठी में भाग लेने गया था। अनेक हिन्दु | काल ईसा पूर्व 1140 अनुमान किया गया। उन्हीं ऐतिहासिक पंडितों ने वहाँ स्थित मीनारों, मकबरों और मस्जिदों को इंगित | गिरनार के स्वामी के चरणों पर पिछले वर्षों से यहाँ कुछ गेरूए कर बताया कि देखिये यह स्पष्टतः मंदिरों एवं मठों को परिवर्तित | वस्त्रधारी लोगों की 'दादागिरी' देखकर मन पीड़ा से भर गया कर बनाये गये हैं। इसी तरह माण्डव की एक विशाल मस्जिद कि वहाँ जैनियों को, वे भगवान् नेमिनाथ की जय तक बोलने को भी शिव मंदिर में परिवर्तित कर स्थापित किया गया बताया नहीं देते। हाँ, चढ़ावा जरूर ग्रहण कर लेते हैं और शांत जाता है, इत्यादि! अभी बाबरी मस्जिद का प्रकरण शांत नहीं | जिनावलम्बी यह अन्याय वर्षों से सह रहे हैं? हुआ कि चिकमंगलूर (दक्षिण) में एक मुस्लिम इबादत स्थल मैंने अत्यंत विनम्रता से उन कथित गेरूये वस्त्रधारियों पर दत्तात्रय की समाधि का विवाद जारी हो गया। कुछ कथित (आचरण देखकर सन्त तो नहीं कह सकते) से ज्ञात करना विद्वान् तो आगरा स्थित ताजमहल को भी हिन्दूमहल को परिवर्तित चाहा कि आप जैनियों को भगवान् नेमिनाथ की जय क्यों नहीं कर, बताने में नहीं चूकते। आखिर इन विवादों का अंत कहाँ बोलने देते? तो त्रिशूल उठाकर वे हम पर आग बबूला हो उठेहोगा?
"यह दत्तात्रय का स्थान है, नेमिनाथ की जय नहीं बोल सकते।" पिछले दिनों गुजरात स्थित गिरनार तीर्थ की यात्रा पर जाने | मैंने पूछा - जैन तो दत्तात्रय की जय बोलने से नहीं रोकते फिर का अवसर मिला तो यह देखकर हैरान रह गया कि जिन आप क्यों यह विष फैला रहे हैं ! यह सुनकर वे शेर की तरह वैदिकधर्मियों और जैनधर्मियों में कभी झगड़ा नहीं रहा, उन्हीं दहाड़ उठे- दम है जैनियों में जो हमें रोकें। हमने दत्तात्रय कह में कतिपय कथित महन्त अपनी दुकानदारी चलाने के लिए दिया तो नेमिनाथ कैसे हो जायेंगे? फिर नेमिनाथ की जय क्यों लट्ठमारी कराने पर उतारू हैं। मैं तो स्वयं ही पचास वर्षों पूर्व से | बोलेंगे? लोकगीतों एवं भजनों में सुनता आ रहा था; इतिहास में, पुराणों | इस समय हठधर्मिता का उनका क्रोध सातवें आसमान पर में यत्र-तत्र-सर्वत्र सभी जगह पढ़ता आ रहा था कि गिरनार | था, फिर भी मैंने सहजता से कुछ निम्न प्रश्न पूछे जिनका उत्तर पर्वत की पांचवी टोंक से जैन धर्म के बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ उनके पास नहीं था परन्तु बहुसंख्यक-बल का घमण्ड उनके मोक्ष गये थे। उनके श्रीचरण वहाँ विराजमान हैं इसलिए जैनियों | सिर पर चढ़कर बोल रहा था। के लिये गिरनार जी (गुजरात), सम्मेद शिखर के बाद दूसरा मेरा पहला प्रश्न था कि यहाँ दत्तात्रय कहाँ से आ गये, अत्यन्त पूज्य पर्वत है।
जबकि आप लोग माउण्ट आबू के अचलगढ़ पर दत्तात्रय मंदिर प्रसिद्ध पुरातत्त्वविद् डॉ. फूहरर, प्रो. वारनेट, कर्नल टॉड | को मानते हैं। उधर आप दक्षिण में चिकमंगलूर के निकट की एवं डॉ. राधाकृष्णन, तीर्थंकर नेमिनाथ की ऐतिहासिकता को | मुस्लिम दरगाह को दत्तात्रय का मान रहे हैं। चित्रकूट में भी स्वीकारते हैं। टॉड ने तो खोजकर यह निष्कर्ष दिया था कि | दत्तात्रय हैं! तो असली दत्तात्रय का मूल स्थान कोई एक नियत नेमिनाथ की स्केण्डिनेविया की जनता में प्रथम 'ओडिन' तथा | तो करिए! (मंदिर भले ही कई हों!) वे चीखे- असली दत्तात्रय चीनियों के प्रथम 'फो' नाम के देवता तीर्थंकर नेमिनाथ ही थे। | यहीं हैं! 'भारतीय इतिहास एवं दृष्टि' (पृष्ठ 45) में डॉ. प्राणनाथ मेरा पुन: आधारभूत प्रश्न था- हिन्दुओं के समस्त तीर्थ नदी विद्यालंकार ने कठियावाड़ से प्राप्त एक प्राचीन ताम्रपत्र प्रकाशित के किनारे हैं यथा मथुरा, काशी, उज्जयनी, अयोध्या, वृन्दावन किया था। उक्त दान पत्र पर उल्लेख है कि सुमेर जाति में उत्पन्न आदि और जैनियों के प्रायः पर्वतों पर-जैसे शिखर जी, गिरनारजी, काबुल के रिवल्वियन सम्राट ने बुचंदनजर ने जो रेवानगर दिलवाड़ा, गोमटेश्वर, सोनागिरि आदि; तो आपका इस पहाड़ (कठियावाड़) का अधिपति था; यदुराज की द्वारिका में आकर पर तीर्थ कहाँ से आ गया? हाँ, कुछ देवियों के तीर्थ अवश्य गिरनार के स्वामी नेमिनाथ की भक्ति की तथा दान दिया था। पहाड़ों पर माने जाते हैं पर दत्तात्रय तो देवी हैं नहीं।
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आगे मैंने शंका का निवारण करना चाहा कि'चरण' तो जैन | करना भी नहीं छोड़ा। म.प्र. के गुना स्थित जैन तीर्थ का नाम धर्मावलम्बियों के धर्म में ही मानने की परम्परा है, हिन्दुओं में | बजरंगगढ़ है तो उसका नाम भी बदलने की नहीं सोची। देवगढ़ प्रायः नहीं। दत्तात्रय के चरणों का पुराणों में कहीं उल्लेख भी | में, खजुराहो में हिन्दु मंदिर साथ में पूज्य है। सोनागिरी पर तो नहीं मिलता।
कतिपय हिन्दुओं ने नई स्थापना कर अवरोध भी उत्पन्न किया ___ मैंने उनसे ऐतिहासिक पक्ष की बात कही कि जैन शास्त्रों के | पर जैन समाज ने कभी पराया नहीं माना। अनुसार तीर्थंकर नेमिनाथ बारात लेकर जूनागढ़ की राजकुमारी उस दिन जब गिरनार पर्वत पर केवल चढ़ावा ग्रहण करने राजुल को ब्याहने इसी अंचल से जूनागढ़ (पहाड़ के नीचे की | की गरज से कब्जा जमाये गेरूये वस्त्रधारियों ने, केवल हमें बस्ती) आये थे। परन्तु बारात के स्वागतार्थ माँस के कटने वाले | मारने की धमकी के अतिरिक्त हमारे एक भी प्रश्न का उत्तर नहीं पशुओं की, बाड़े की उठी चीत्कार सुनकर नेमि कुँवर का मन | दिया तो तलहटी में आकर वहाँ के निवासियों से हमने चर्चा द्रवित हो उठा और वे पशुओं को मुक्त कराने के उपरान्त स्वयं की। तब ज्ञात हुआ कि कुछ वर्ष पहले (आजादी के तत्काल भी 'ऐसे' जीवन से मुक्ति पाने के लिए बिन ब्याहे, वस्त्राभूषण बाद) यहाँ के अन्य जैन अनुयायियों और हिन्दु धर्मावलम्बियों त्याग, निकट स्थित इसी गिरनार पर्वत पर तपस्यारत हो, मोक्षगामी में यह समझौता हुआ था कि गिरनार पर्वत पर प्रत्येक दर्शनार्थी हुये। राजुल के पिता का दुर्ग जूनागढ़ में आज भी है। को शांति से न केवल दर्शन करने दिये जायेंगे वरन् जयकारा ___ यह भी कि नेमिनाथ और श्री कृष्ण चचेरे भाई थे इसलिए | बोलने पर भी नहीं रोका जायेगा। हिन्दु धर्मावलंबी भी चाहें तो श्री कृष्ण की द्वारिका, यहीं पास स्थित (समुद्र में समाई) मानी | दर्शन कर सकते हैं। तत्कालीन कलेक्टर के उस समझौता बैठक जाती है। भौगोलिक पक्ष यह भी है कि समुद्र के पास स्थित | के दस्तावेज विद्यमान हैं। परन्तु अब स्थिति यह निर्मित हो अरावली पर्वत के इन शिखरों पर बने अन्य जैन मंदिर हज़ारों | चुकी है कि जैन धर्मावलम्बी यहाँ से भयभीत हो अन्यत्र भाग वर्ष पुराने हैं जबकि वैदिक देवी-देवताओं के पाषाण चिह्न | गये। मात्र एक दो परिवार शेष हैं परन्तु प्रतिदिन अनेकानेक जैन आजादी के बाद रखे गये हैं। वहाँ के शिलालेख, राजुल गुफा दर्शनार्थी देश के सुदूर स्थलों से नेमिनाथ की चरण वंदना हेतु और 'सरे सावन' आदि स्थल भौगोलिक प्रमाण प्रस्तुत करने के गिरनार पर्वत की दस हजार सीढ़ियां चढ़कर ऊपर पहुँचते हैं लिये पर्याप्त हैं।
और गालियां/धमकियाँ खाकर, मन मसोसकर लौट जाते हैं। सामजिक प्रमाण यह है कि सदियों से सुदूर भारतीय अंचलों वर्षों पहले एक भोपाल के जैन पर प्राणघातक हमला भी किया में गाये जाने वाले लोकगीतों में गिरनार पर्वत पर नेमि-राजुल | गया था। की तपस्या और मोक्ष जाने की परम्परा जीवित है।
जैन समाज को अल्पसंख्यक होते हुये भी, केन्द्र शासन "नेमि पिया ने जो लिया गिरनार बसेरा...." और 'मोरे नेमि गुजरात एवं अन्य कई प्रान्तीय सरकारों ने अभी तक अल्पसंख्यक गये गिरनार-बरस जाओ दो बुंदियाँ...' जैसे लोकगीतों के घोषित नहीं किया (यद्यपि म.प्र. जैसे कई प्रान्तों में जैन अल्प अतिरिक्त राजस्थानी और गुजराती में चर्चित किंवदंतियाँ एवं संख्यक घोषित किये जा चुके हैं) जिससे कि वे अपने धर्म प्रचलित लोकगीत गिरनार के नेमिनाथ को अपने हृदयों में आदि तीर्थों की कानूनी तौर पर सुरक्षा कर सकें। विडम्बना यह है कि काल से बसाये हुए हैं।
जैन अनुयायी अल्प तो हैं ही, शांतिप्रिय, अहिंसक और लोकतंत्र दिलवाड़ा की जीवंत संगमरमरी शिल्पकला में हजार वर्ष से | के नारों, जुलूसों, झगड़ों-झाँसों से बचते रहना चाहते हैं । आपस गिरनार की 'नेमि-तपस्या' और 'राजुल विवाह' के प्रमाण आज | में भी जैन लोग कई फिरकों में बँटे हुये हैं- दिगम्बर, श्वेतांबर, भी दिलों को उद्वेलित किये बिना नहीं रहते। भारत भर में ग्रन्थों तेरहपंथी, बीसपंथी, समैया, परवार, गोलापूरब, गोलालारे और में, जैन आख्यानों में, मंदिरों की भित्ति कलाओं में गिरनार से | अब निश्चयनय-व्यवहारनय आदि तक के खेमे खड़े हो गये नेमिनाथ के मोक्ष जाने की वास्तविकता और पाँचवी टोंक हैं। अब बताइये जिस जैन समाज के काश्मीर से कन्याकुमारी (शिखर) स्थित चरण जैन धर्मावलम्बियों की हार्दिक आस्था और गुजरात से बंगाल तक हर गाँव-पर्वत पर कलात्मक जैन के आदिकालीन संबल हैं।
मंदिर और भव्य तीर्थ अवस्थित हों ऐसे में उनकी सुरक्षा कौन जैन धर्मावलम्बी तो इतने उदार और शांत है कि सदियों से | करेगा? आखिर 'जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली' उक्ति जैन मंदिरों में तीर्थों में अनेक जगह हनुमान, क्षेत्रपाल विराजमान | कब तक चलेगी? हैं पर कभी किसी जैन ने उनको पृथक करना तो दूर, प्रणाम
75, चित्रगुप्त नगर
कोटरा-भोपाल (म.प्र.) 18 जुलाई 2004 जिनभाषित -
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धर्म में राजनीति
मूलचन्द लुहाड़िया प्रशंसा के शब्दों में यह कहा जाता रहा है कि सोनगढ़ | लेख में पहले अध्यात्म को वर्तमान रूप में जीवित रखने मान्यता के प्रणेता कानजी स्वामी ने बहुत बड़ी संख्या में | वाले टोडरमल जी आदि विद्वानों की प्रशंसा की गई है। वस्तुतः श्वेताम्बर जैनों को दिगम्बर जैन बनाया है और सौराष्ट्र में अनेक | उस पंड़ित वर्ग ने आगम ज्ञान को जीवित रखा है न कि अध्यात्म दिगम्बर जैन मंदिरों का निर्माण कराया है और इस प्रकार उन्होंने
को। अध्यात्म में दो शब्द हैं। अधि और आत्म। अधि अर्थात् दिगम्बर जैन की महती प्रभावना की है। किन्तु वास्तविकता |
निकटता। आत्म निकटता, आत्मलीनता अथवा आत्म रमणता कुछ और ही है। उन्होंने इस अनेकांतात्मक कल्याणकारी दिगम्बर का नाम अध्यात्म है जो पर पदार्थ के अंर्तबाह्य संयोग सम्बन्ध जैन सिद्धान्त के स्वस्थ शरीर को अपनी एकान्त मान्यताओं के
से मुक्त होने पर प्रकट वीतराग चारित्र का रूप है। मात्र शब्दों कोढ़ से विकृत कर दिया है। उनके अनुयायी अपनी एकान्त | द्वारा आत्मा की बात करने वाले किन्तु अप्रत्याख्यानावरणादि मान्यताओं के प्रचार से धर्म के क्षेत्र में राजनीति का सहारा लेने
कषाय की तीन चौकड़ियों सहित व्यक्ति को आध्यात्मिक सत्पुरुष में भी संकोच नहीं कर रहे हैं।
कैसे कहा जा सकता है और वे महापुरुष कैसे हो सकते हैं? जैन
| दर्शन के अनुसार व्यक्ति में पूज्यता चारित्र से आती है, ज्ञान से सोनगढ़ मान्यता के पुरोधा विद्वान् डॉ. हुकुमचंद भारिल्ल
नहीं। पूर्व में हुए जैनागम के ज्ञाता, टीकाकार और व्याख्याकार का एक लेख "एक नये युग का आरम्भ" प्राकृत विद्या जुलाईदिसम्बर, 2003 में प्रकाशित हुआ था। इस लेख में वर्तमान युग
मूर्धन्य विद्वान् पं. आशाधर जी, पं. बनारसीलाल जी, पं. टोडरमल के दिगम्बरत्व के पुनरोन्नायक प.पू. आचार्य शांतिसागर जी
जी, पं. दौलतराम जी, पं. जयचंद जी आदि हुए, उनको कभी महाराज की प्रशंसा की है। आश्चर्य हुआ यह देखकर कि
आध्यात्मिक सत्पुरुष या सद्गुरुदेव या महापुरुष नामों द्वारा
महिमा मंडित नहीं किया गया। उन्होंने समाज में अपने को दिगम्बर साधुओं के प्रति घोर उपेक्षा का व्यवहार करने वाले और महाव्रतादि को एकान्त से बंध का कारण घोषित करने
साधारण श्रावक के रूप में ही प्रस्तुत किया और अपने पद की वाले इन सोनगढ़ी विद्वान् श्री भारिल्ल जी में सहसा यह मुनि
सीमा से बाहर अविवेक पूर्ण विनय सत्कार को कभी पनपने भक्ति कैसे उमड़ पड़ी? लेख को ध्यान से पढ़ने पर यह रहस्य
नहीं दिया। उद्घाटित होता है कि श्री भारिल्ल जी ने आचार्य श्री की प्रशंसा
श्री भारिल्ल जी ने आचार्य श्री एवं कानजी स्वामी के सम्मिलन के बहाने कानजी स्वामी और उनकी मान्यता की ही प्रशंसा की | को एक ऐतिहासिक प्रसंग बताते हुए इस प्रकार प्ररूपित किया है। यह है धर्म में राजनीति के प्रवेश द्वारा लाभ उठा लेने की
| है मानो पू. आचार्य श्री एवं कानजी स्वामी समान पद के व्यक्ति निपुणता का एक उदाहरण। यदि वास्तव में ही निष्कपट भाव से | हों। प.पू. आचार्य श्री आचार्य परमेष्ठी के रूप में थे और कानजी श्रद्धापूर्वक आदरणीय भारिल्ल जी अपने शब्दों के अनुसार |
स्वामी जो स्वयं को अविरत सम्यग्दृष्टि कहते थे, उनके उपासक प.पू. आचार्य शांतिसागर महाराज को इस युग के नग्न दिगम्बरत्व के रूप में। दोनों में उपास्य उपासक के सम्बन्ध की बात भारिल्ल की प्रतिष्ठा के नये युग का प्रारम्भ करने वाले दिगम्बर परम्परा | जी की लेखनी नहीं लिख पाई। भारिल्ल जी द्वारा आचार्य श्री के के सर्वश्रेष्ठ हैं तो उन्हें अपनी इस श्रद्धा को व्यवहारिक प्रयोग में | द्वारा सोनगढ़ को प्रशसा में कह गए निम्न वाक्य चितनीय हैं लाकर समाज के समक्ष अपना स्पष्ट आचरण प्रकट करना चाहिए।।
"आचार्य श्री ने न केवल उन्हें आशीर्वाद दिया, अपितु सोनगढ़ उन्हें निजी एवं सार्वजनिक धार्मिक स्थानों पर पू. आचार्य श्री के के आध्यात्मिक वातावरण की सराहना भी की। श्वेताम्बर बहुल प्रेरणादायी चित्र लगाने चाहिए। पूजा की पुस्तकों में पू. आचार्य सौराष्ट्र में दिगम्बर धर्म का उदय और महती प्रभावना देखकर श्री की पूजा छपानी चाहिए। प्रतिदिन अथवा समय-समय पर
आचार्य श्री बहुत प्रसन्न थे, उन्होंने उक्त प्रभावना और उसमें आचार्य श्री की पूजा करनी चाहिए। अपनी पत्रिकाओं में पू.आचार्य | स्वामी जी के नेतृत्व में सक्रिय लोगों की सच्चे दिल से सराहना श्री के संस्मरण एवं उपदेश प्रकाशित करना चाहिए। यदि ऐसा की और कहा कि यहाँ का आध्यात्मिक वातावरण देखकर हमें नहीं हुआ तो यही समझा जायेगा कि विद्वान् भारिल्ल जी की | बहुत खुशी हुई है।" राजनीति में प्रवीण भारिल्ल जी के उक्त कथनी और करनी में समानता नहीं है और उनके द्वारा अपने वाक्य असत्य पर आधारित होने के साथ-साथ कटनीति से भी लेख में की गई पू. आचार्य श्री प्रशंसा मात्र छलपूर्ण वाक् जाल
प्रेरित हैं।
इस प्रसंग में सोनगढ़ समीक्षा में छपे पू. आचार्य शांति सागर
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महाराज के निम्न वाक्य ध्यान देने योग्य हैं "यह जो नया मत | समाज को इससे सावधान रहना चाहिए जिससे दिगम्बर जैन चलाया गया है, यह कानजी मत ही कहलायेगा। समाज को | धर्म में यह मिथ्या विकार पनपने न पावे।। इससे सावधान रहना चाहिए। जिससे दिगम्बर जैन धर्म में यह ____ आदरणीय श्री भारिल्ल जी ने लेख के अंत में परम पूज्य मिथ्या विकार पनपने न पावे।" उपरोक्त शब्दों में कानजी मत | आचार्य श्री और आध्यात्मिक सत्परुष श्री कानजी स्वामी दोनों की आलोचना करने वाले पू. आचार्य श्री कैसे सोनगढ़ के को महापुरुष शब्द से सम्बोधित कर सम श्रेणी में लाने का वातावरण की और जैन धर्म में फैल रहे इस मिथ्या विकार की प्रयास किया है। यदि श्री भारिल्ल जी में जैनागम की विनय सराहना कर सकते थे? संयम को धर्म नहीं मानने वाले असंयम व्यवहार व्यवस्था पर थोड़ी भी श्रद्धा होती तो अपने आपको प्रिय व्यक्तियों की सराहना तो असंयम की सराहना होगी। जीवन | अविरतसम्यग्दृष्टि घोषित करने वाले श्री कानजी को प.पू. आचार्य में संयम के बिना अध्यात्म का प्रवेश असंभव है। संयम ही तो | परमेष्ठी के उपासक के रूप में और आचार्य श्री को उपास्य के अध्यात्म का थर्मामीटर है। जीवन में संयम के प्रारम्भ से ही | रूप में प्रस्तुत करते। दोनों को महापुरुष के रूप में प्रस्तुत कर अध्यात्म का प्रारम्भ, संयम के विकास से ही अध्यात्म का | उन्हें समान श्रेणी में गणना करने का दर्भावनापर्ण प्रयत्न नहीं विकास और संयम की पूर्णता से ही अध्यात्म की पूर्णता होती करते। यदि कानजी स्वामी को उनके कथनानुसार दार्शनिक है। संयम धारण करने की अनुकूलता के होते हुए भी संयम के श्रावक भी मान लिया जाय तो आचार्य समन्तभद्र स्वामी के प्रति अरुचि के कारण संयम धारण नहीं करने वाले व्यक्तियों के अनुसार उनको "पंचगुरुचरण शरणाः" होना चाहिए। उनके द्वारा आध्यात्मिक वातावरण के निर्माण की कल्पना भी नहीं की मन में आचार्य श्री की पूजा करने और उनको आहारदान देने के जा सकती। जो कुछ वहाँ हो रहा है वह मात्र शब्दों द्वारा अध्यात्म भाव आए बिना नहीं रह सकते थे। क्यों ऐसा हुआ? के अभिनय से अधिक कछ नहीं है। आदरणीय भारिल्ल जी ने
__जैन धर्म में अध्यात्म और संयम की भिन्न-भिन्न धाराएं पू. आचार्य श्री द्वारा की गई सराहना के बारे में सर्वथा असत्य
नहीं हैं। अध्यात्म और संयम दोनों सहचारी एवं सहगामी परिणाम और मनगढंत बातें लिखी हैं और पाठकों को गुमराह करने की
हैं जिनका सम्बन्ध कषायों के अभाव में जुड़ा है। सम्यग्दर्शन कूटनीतिक चाल चली है। पू. आचार्य श्री के सोनगढ़, दो दिन
प्रकट होने पर अनंतानुबंधी कषाय का अभाव रहता है। बाह्य में ठहरने की बात भी असत्य है। पं. सुमेरुचंद जी दिवाकर की
श्रावकोचित प्रतिमा रूप से देशव्रत धारण किए बिना "चारित्र चक्रवर्ती" पुस्तक के पृष्ठ 107 पर लिखा है :
अप्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव नहीं होता। इसी प्रकार तीसरी लाइन"इस पर आचार्य श्री ने कहा-" हम तुम्हारा बाह्य में जब तक आरम्भ परिग्रह बना रहता है तब तक उपदेश सुनने नहीं आए हैं हमें तुम्हारे भाव जानना है।" प्रत्याख्यानावरण कषाय का भी अस्तित्व बना रहता है। बाह्य
अठाहरवीं लाइन "महाराज के इस विवेचन को सुनकर आभ्यंतर दोनों प्रकार के त्याग को संयम कहते हैं। संयम से ही कानजी चुप हो गए। इस प्रबल तर्क के विरुद्ध कहा भी क्या जा | आत्मा पर पदार्थों के संयोग से छूट कर अपने आत्म गुणों की सकता था?"
निकटता को प्राप्त होता है और यही अध्यात्म है। बाह्य त्याग के इक्कीसवीं लाइन "महाराज सोनगढ़ में नहीं ठहरे थे।"
बिना न संयम है और न उसका प्रतिफल अध्यात्म । भोगाकांक्षा
के कारण बाह्य त्याग में उदासीनता रहने पर अध्यात्म की गंध श्री भारिल्लजी और दिवाकरजी के कथनों में निम्न |
भी नहीं आ सकती। जैसे-जैसे संयम में वृद्धि होती जाती है, विरोधाभास है :
वैसे-वैसे कषाएं क्षीण होती जाती हैं और अध्यात्म प्रकट होता __ 1. श्री भारिल्ल जी ने लिखा है "आचार्य श्री के अनुरोध
जाता है। आत्म निकटता रूप अध्यात्म प्रकट होने पर राग घटता पर स्वामी जी का भी समयसार की 13 वीं गाथा पर आधा घंटा
है, वैराग्य उत्पन्न होता है। वैराग्य होने पर जीवन में संयम प्रवचन हुआ।" जबकि श्री दिवाकर जी के अनुसार आचार्य
प्रकट होता है। श्री ने कहा था कि हम तुम्हारा उपदेश सुनने नहीं आए हैं। 2. श्री भारिल्ल जी ने लिखा है कि पू. आचार्य श्री दो दिन
अंत में विद्वान् भारिल्ल जी ने प.पू.आचार्य श्री आध्यात्मिक सोनगढ़ में रुके जब कि श्री दिवाकर जी ने लिखा है कि
सत्पुरुष कानजी स्वामी दोनों के अनुयायियों को यह सलाह दी महाराज सोनगढ़ में नहीं ठहरे थे।
है कि वे दोनों महापुरुषों के विचार और व्यवहार का अनुकरण
करें तो सामाजिक एकता और शांति को असीम बल मिलेगा। 3. श्री भारिल्ल जी ने लिखा है कि "आचार्य श्री ने न केवल उन्हें आशीर्वाद दिया बल्कि सोनगढ़ के आध्यात्मिक वातावरण
सलाह निश्चय ही हितकारी और उपयुक्त है। किन्तु सर्वप्रथम की सराहना भी की" जबकि सोनगढ़ समीक्षा के अनुसार पू.
तो सलाह देने वाले भारिल्ल साहब एवं अन्य कानजी स्वामी के आचार्य श्री ने कानजी मत को एक नया मत बताते हुए कहा कि
अनुयायियों को पूज्य आचार्य श्री के विचार और व्यवहार का 20 जुलाई 2004 जिनभाषित
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जीवन में प्रयोगात्मक अनुसरण करने की पहल कर अपनी "कर्म को जानने से धर्म नहीं होता। मंद कषाय से कर्म के कथनी और करनी में एकात्मता सिद्ध करनी चाहिए थी। किन्तु लक्ष्य से जो ज्ञान हो वह भी मिथ्या श्रुतज्ञान है।" वे सब आज भी प. पू.आचार्य श्री के विचार व्यवहार से उतने "इससे क्रमशः विकार बढ़कर वह ज्ञान अत्यंत हीन होकर ही दूर खड़े है जितने पहले थे।
निगोद दशा होगी" भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित महाबंध भाग 1 के प्रथम इस प्रकार आचार्य श्री को कानजी स्वामी के अनुयायियों संस्करण की प्रस्तावना के पृष्ठ 14 पर पू. आचार्य श्री का एक द्वारा अज्ञानी, मिथ्याश्रत ज्ञानी, निगोदगामी, अनात्मार्थी आदि उपदेश प्रकाशित हुआ है "पहले समयसार का नहीं महाबंध कहा गया है। का ज्ञान चाहिए। पहले सोचो हम दुःख में क्यों पड़े हैं? क्यों
मायाचार से प्रेरित श्री भारिल्ल जी का यह आचरण कि एक नीचे हैं? गुरुमुख से प्रथम श्रावकाचार का अध्ययन करो। पश्चात्
पात ओर वे या उनके साथी पू. आचार्य श्री की अत्यन्त हीन शब्दों में
या आत्म विषयक शास्त्र तथा अन्य शास्त्रों का अभ्यास करो।
निंदा करते हैं और दूसरी ओर वे उनकी प्रशंसा करते हुए उनके तीर्थंकर भगवान् से भी प्रश्न कर्ता गणधर ने साठ हजार प्रश्नों में।
विचार व्यवहार का जीवन में अनुसरण करने की प्रेरणा देते हैं, अंतिम प्रश्न आत्मा के सम्बन्ध में पूछा था। आत्मा की चर्चा
क्या धर्म क्षेत्र में राजनीति का यह एक कुटिल खेल नहीं है, बालक्रीड़ा के कन्दुक के सदर्श समझना उचित नहीं है। "कोरा
किसी भी निष्पक्ष व्यक्ति को ऐसे विरोधाभासी आचरण को उपदेश धोबी के समान है" आचार्य श्री के उक्त कथन पर तीव्र
देखकर श्री भारिल्ल जी के इस लेख में एक धोखे भरी राजनीति कड़ी प्रतिक्रिया हुई जो "आत्म धर्म" के दिसम्बर, 1997 के
की गंध आए बिना नहीं रह सकती। काश विद्वत् प्रवर श्री अंक में "व्यवहार मुढ जीवन की मिथ्या मान्यता" शीषर्क से
भारिल्ल जी छलपूर्ण राजनीति से ऊपर उठकर शुद्ध हृदय से प्रकाशित हुई।
अपने समर्थकों को उक्त लेख के उपदेशात्मक अंश को गंभीरता वहाँ लिखा है "व्यवहार मूढ जीव कहता है"पहले समयसार ।
से जीवन में अपनाने की प्रेरणा दे सकें तो निश्चय ही उनके नहीं पहले महाबंध चाहिए" वह आत्मार्थी कैसे हो सकता है? लिखे अनसार यह"एक नये यग का आरंभ" हो सकेगा अन्यथा
अन्यत्र भेद विज्ञानसार पुस्तक पृष्ठ 156, 133, 146 में निम्न तो यही माना जायेगा कि आदरणीय भारिल्ल जी का लेख मात्र वाक्य देखें।
एक राजनीतिक खेल है। "कर्म का ज्ञान मोक्ष का कारण नहीं है परन्तु आत्म
लुहाड़िया सदन, स्वभाव का ज्ञान मोक्ष का कारण है........।"
मदनगंज किशनगढ़ "अज्ञानी कहते हैं पहले आत्मा का नहीं किन्तु कर्म का
305801 जिला-अजमेर (राज.) ज्ञान करना चाहिए।"
मुक्तक
अनासक्ति का अवदान
योगेन्द्र दिवाकर ध्यान में रहते भोग ही भोग, इसीलिये हम नहीं निरोग। किन्तु सत्य-पुरुषार्थ करें तो, महापुरुष बनने का योग।
मनोज जैन 'मधुर'
सोय चेतन को हर पल जगाते रहो, सप्त व्यसनों को मन से भगाते रहो।
किस घड़ी काल आकर दबोचे हमें, मंत्र नवकार का गुनगुनाते रहो।।
अनासक्ति का अवदान, महान, ज्यों किरणे देता दिनमान। मुक्तिगामी पूज्य स्वतंत्र, शाश्वत शिव होता भगवान् ॥
दिवा निकेतन, पुष्पराज कालोनी, प्रथम पंक्ति,
सतना (म.प्र.) |
5/13 इन्द्रा कालोनी बाग उमराव दुल्हा
भोपाल -10
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आवश्यकता अन्वेषण- संस्थान की
समय की धड़कन को सुन पाने से एक ओर जहाँ दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है। वहीं दूसरी ओर वर्तमान एवं भावी पीढ़ी का जीवन भी सम्हाला जा सकता है। वैज्ञानिकता आज की युवा पीढ़ी के जीवन की आधारशिला है किन्तु संयम कहिए या अनुशासन या नैतिक आचरण के परिप्रेक्ष्य में यह आधारशिला ठोस धरातल पर नहीं है । प्रतिकूलताएँ एवं प्रतिस्पर्धाएँ इतनी
एवं भयावह हैं कि उनके अन्धड़ में आचार विहीनता का महारोग ग्रस लेगा । अतः आज आवश्यकता इस बात की है युवा एवं भावी पीढ़ी को जैन धर्म / दर्शन में निहित जीवन जीने की कला सिखाई जाए। प्रश्न उठता है कैसे ? भाषण या प्रवचन से विशेष कुछ होने वाला नहीं है, हाँ जैनधर्म में निहित विज्ञान के पक्ष का गहन अध्ययन किया जाए। देश विदेश की समस्त जैन समाज एक ऐसा केन्द्रीय शिक्षा एवं शोध संस्थान स्थापित करे जिसमें जैन धर्म में निहित विज्ञान के पक्ष पर अध्ययन एवं प्रयोग शालाओं के माध्यम से अन्वेषण किया जाए। ऐसे संस्थान की ठोस योजना हेतु, सर्व प्रथम तो समर्पित व्यक्ति चाहिए जो जैन समाज के मानस को इस योजना से जोड़ सकें। फिर अर्थ और भूमि की आवश्यकता स्वमेव पूर्ण हो ही जाएगी। आशीर्वाद चाहिए सभी जैनाचार्यों का जिससे यह कार्य सुगम हो जायेगा ।
अब प्रश्न उठता है कि इस परियोजना का क्रियान्वयन करने हेतु धन कैसे जुटाया जाय। यदि हमारा समाज विभिन्न जगहों पर होने वाले पंचकल्याणक महोत्सवों एवं नित नये क्षेत्र एवं परियोजनाओं पर दृष्टिपात करें तो अपव्यय पर नियंत्रण किया जा सकता है तथा बचत की राशि से इस कार्य को क्रियान्वित कर सकते हैं।
पंचकल्याणक महोत्सव एक ओर जिनबिम्ब को संस्कारित करने की विधि है वहीं दूसरी ओर उससे धर्मप्रभावना भी होती है । किन्तु देखने में आता है कि समाज अकसर व्यवस्था तथा अनावश्यक क्रियाओं में बहुत अपव्यय कर देता है । उदाहरण के तौर पर कुछ लेखा शीर्ष जहाँ अपव्यय रोका जा सकता है निम्नलिखित है
1. पंडाल का विस्तार वास्तु शास्त्र या प्रतिष्ठा ग्रंथों के अनुसार बनाया जाता है किन्तु देखने में आता है कि आधा पंडाल खाली रहता । आयोजकों को अपने क्षेत्र विशेष में रहने वाले जैन समुदाय, उनकी रुचि तथा व्यस्तता को ध्यान में रखकर एवं पंचकल्याणकों में जाने का घटता हुआ आकर्षण देखकर ही पंडाल की साईज निर्धारित की जानी चाहिए इससे पर्याप्त बचत
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हो सकती है।
2. सुरक्षा तथा सेनेटरी की व्यवस्था पर खर्च आवश्यक होता किन्तु जुलूस बैंडबाजे, हाथी-घोड़ा, गजरथ रंगीन पोस्टर में प्रचार सामग्री में खर्च सीमित किया जाना चाहिए।
3. धार्मिक अनुष्ठान में राजनेताओं का आमंत्रण बन्द ही कर देना चाहिए।
इंजी. धरमचन्द्र जैन बाझल्य
4. अकसर ऐसे अवसर पर रात्रि में सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। व्यवसायिक कलाकार एक से दो घण्टे के कार्यक्रम का अच्छा खासा पैसा ले जाते हैं, कुछेक तो कहींकहीं प्रतिष्ठाचार्य, मुनिराज या प्रभावशाली व्यक्ति के माध्यम से अपना कार्यक्रम रखवा देते हैं। परिणामतः अपने ही समाज द्वारा तैयार किया हुआ कार्यक्रम या तो आगे पीछे धकेला जाता है या रद्द करना पड़ता है। आयोजकों को दृढ़तापूर्वक एवं विनम्रता से ऐसे घुसपैठियों को मना कर देना चाहिए। इससे बचत तो होगी ही साथ ही अपने कलाकारों की प्रतिभा भी प्रकट होगी तथा मनोबल बढ़ेगा।
5. कार्यकारिणी समिति या न्यासियों की प्रारंभिक बैठक में ही मूर्ति को प्रतिष्ठित कराने के निम्न विकल्पों पर चर्चा कर निर्णय कर लेना चाहिए
-
(अ) पंचकल्याणक कराना है, या
(ब) आसपास में हो रहे पंचकल्याणक में मूर्ति प्रतिष्ठित कराना है ।
बाकी सभी कार्य नवनिर्मित मंदिर जैसे वेदीशुद्धि, ध्वजाशुद्धि, मूर्ति विराजमान करना, ध्वजारोहण, कलशारोहण आदि धूमधाम से किन्तु कम खर्च में किये जा सकते हैं।
उपरोक्त बातों पर यदि आरम्भ में मंथन कर निर्णय लें, तो अपव्यय से बचा जा सकता है। बचत की राशि जनकल्याणकारी योजनाओं में, नैतिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार में तथा अन्वेषण संस्थान की स्थापना में लगाई जाए तो धर्म प्रभावना कार्यकारी एवं स्थायी होगी।
अन्वेषण संस्थान
आज इस बात की परम आवश्यकता है कि अखिल भारतीय दिगम्बर जैन समाज एक ऐसा केन्द्रीय शिक्षा संस्थान एवं अनुसंधान संस्थान स्थापित करे, जिसमें जैन दर्शन में निहित सामान्य तथा विशेष विषयों पर जैसे-पदार्थ विज्ञान, अणुविज्ञान, भौतिक शास्त्र, वनस्पति शास्त्र, रसायन शास्त्र, भूगोल एवं खगोल शास्त्र, पर्यावरण सुरक्षा, सामाजिक व्यवस्था, न्यायशास्त्र, इत्यादि
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ग्रन्थ समीक्षा
जियाबाद
एवं प्रबंधन के सार्वभौमिक, सार्वकालिक सिद्धान्तों पर अन्वेषण । किया जा सके।
इस संस्थान में बहुभाषाविद् विद्वान या रिसर्च स्कालर हों, | पुस्तक का नाम - वास्तु विज्ञान जिन्हें आगम का पूर्ण ज्ञान हो, जो वैज्ञानिकों के साथ कन्धे से
(गह देवालय एवं प्रतिमा विज्ञान) कन्धा मिलाकर समर्पण भाव से कार्य कर सकें। इन जैन दर्शन
लेखक - पं. सनतकुमार विनोद कुमार जैन के विद्वानों का कार्यक्षेत्र जैनागम में निहित वैज्ञानिक तथ्यों, सूत्रों का तथा गाथाओं का संदर्भ सहित अर्थ अंग्रेजी तथा हिन्दी में प्रकाशक - देवेन्द्र कुमार (अजय) अभिषेक जैन वैज्ञानिकों के समक्ष रखें। वैज्ञानिक उनका आधुनिकतम खोज
(बिजली वाले) 1/6013 कबूलनगर से तुलनात्मक अध्ययन कर अन्वेषण के नये आयाम लिपिबद्ध
शाहदरा, दिल्ली-32 कर प्रयोगशालाओं में अनुसंधान हेतु भेजें।।
संस्करण - ये अध्ययन आरम्भ में तो प्राथमिक स्तर के हो सकते हैं,
प्रथम, 2004, पृष्ठ - 12+130, बाद में मध्यम एवं उच्चस्तरीय कार्यक्रम विकसित किये जा मूल्य
35.00 रुपये सकते हैं। उदाहरण के तौर पर खाद्य एवं अखाद्य आहार एवं
वास्तु विज्ञान लगभग एक दशाब्दी से वास्तु ज्ञान पेयजल सम्बन्धी मर्यादा, जीवाणुओं की उत्पत्ति, उनकी उत्पत्ति
का प्रचार-प्रसार बड़ी तेजी से हुआ है। के स्थान, इत्यादि के आलेख अनुसंधान हेतु निर्देश एवं नमूने
नवीन भवन का निर्माण कराने वाले तो देकर शासकीय एवं निजी प्रयोगशालाओं के माध्यम से उल्लिखित
वास्तुशास्त्रियों से सलाह लेते ही हैं पुराने तथ्यों की पुष्टि कराई जा सकती है। प्रयोगशाला के विश्लेषणों
मकानों में भी वास्तु के अनुसार परिवर्तन/ का संकलन कर आगम ग्रंथों का संदर्भ एवं उनकी प्राचीनता
परिवर्धन तेजी से हो रहा है। परन्तु यह देकर विश्वस्तरीय पत्रिकाओं में प्रकाशित करना चाहिए।
विधा/विद्या कोई नई नहीं है जैनागम में संस्था छोटे स्तर से आरम्भ की जाए। पूरी परियोजना को
इसका उल्लेख मिलता है साथ ही 'प्रासाद तीन या चार भागों में विभाजित किया जा सकता है एवं प्रयोगशाला स्थापित करने का कार्य बाद में एकीकरण विधि से किया जा
मंडन', वास्तुप्रकरण 'वत्थुविज्जा' आदि स्वतंत्र ग्रंथ भी जैन सकता है। यह कार्य आज की युवा एवं भावी पीढ़ी को विवेक
साहित्य में मिलते हैं। आवश्यकता थी एक संक्षिप्त किन्तु सर्वांग एवं आस्था का धरातल प्रदान करने में विशेष कार्यकारी हो
पुस्तक प्रस्तुत की जाये 'वास्तुविज्ञान' इसी कमी को पूरा करने सकता है। पूज्य श्री 108 आचार्य देशभूषण जी महाराज के
का सार्थक एवं प्रशंसनीय प्रयास है। शब्दों में : "विभिन्न धर्मानुयायी अपने गुड को मिश्री के रूप में भ्रातृद्वय पं. सनत कुमार विनोद कुमार जैन साहित्य/ संसार के सामने अपने अपने धर्म का प्रचार कर रहे हैं, तब जैन | विधिविधान में जाना पहचाना नाम है। सार्थ सिद्धचक्र विधान से समाज अपने मिश्री के समान अंदर बाहर से पूर्ण मिष्ठ जैन धर्म उन्हें प्रभूत यश और प्रतिष्ठा मिली है। को संसार के समक्ष यथेष्ट रूप संसार के समक्ष रखने में संकोच 'वास्तुविज्ञान' तीन खंडों (अध्यायों) में विभक्त हैं प्रथम कर रहा है। जैन समाज का यह महान अपराध है और इस खण्ड समुच्चय, द्वितीय खण्ड गृह वास्तु और तृतीय खण्ड देवालय अपराध का परिणाम कठोर बादाम, नारियल की तरह अवश्य
वास्तु । वास्तु शास्त्र का आरम्भिक ज्ञान प्राप्त करने के इच्छुक भुगतना पड़ेगा। दण्ड केवल शारीरिक मारपीट का ही नहीं होता
महानुभावों के साथ इस विषय में रूचि रखने वालों को पुस्तक है। धिक्कार घृणा का दण्ड भी सजन पुरुष के लिए बड़ा भारी अत्यन्त उपादेय है स्वयं लेखकद्वय के अनुसार 'यह पुस्तक एवं असहनीय होता है" समाज को एक सूत्र में पिरोने के लिए
वास्तु ज्ञान की पूर्ण पुस्तक नहीं कही जा सकती, इसमें विषय यह संस्था कार्यकारी हो सकती है।
को संक्षिप्त किया है।' पुस्तक में स्थान-स्थान रेखा चित्रों के ____ अत: मैं चतुःसंघ से निवेदन करता हूँ कि लेख के पठनोपरान्त
माध्यम से विषय को स्पष्ट किया गया है गणतीय माप देने में यदि ऊंचे तो क्रियान्वयन करने की दिशा में आगे बढ़े। मेरा
परिश्रम किया गया है। कलश, ध्वजा, ध्वजदंड आदि का भी योगदान समर्पित भाव से होगा।
स्वरूप बताया गया है। जन कल्याण की भावना से लिखी गयी ए-92, शाहपुरा,
इस कृति का सुधी पाठकजन भरपूर लाभ उठायेंगे ऐसी मंगल भोपाल 462039 (म.प्र.)
भावना है।
डॉ. ज्योति जैन
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किटकैट चॉकलेट में कोमल बछड़ों का मांस
चॉकलेट, टॉफी, च्युइंगम स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हैं। बच्चों की सेहत पर गहरा असर डालती, लुभावनी लगती चाकलेट मांसाहारी भी है। किटकैट जैसी मँहगी चाकलेट में बछड़े का मांस भी मिलाया जाता है, आखिर क्यों?
चॉकलेट, ब्रेड, बेबीफूड और बिस्किट का उपयोग आमतौर । 1340 माइक्रोग्राम निकल देखने में आता है, जबकि यह 160 पर किया जा रहा है। मगर बहुत कम लोग जानते हैं कि इनमें | माइक्रोग्राम से अधिक नहीं होना क्या मिलाया जाता है। किटकैट बिस्किट में बछड़े का मांस अमरीकी चॉकलेटों में अपेक्षाकृत कम निकल होती है। मिलाया जाता है। बिस्किट में अंडे मिलाए जाते हैं और बेबीफूड टाफियों में कृत्रिम रंगों के रूप में पोन सो, कार्मोसिन, फ्रास्ट रेड (बच्चों का आहार) तो बच्चों के लिए जानलेवा साबित हो रहा ई, अमारंध, ऐरी प्रीसीन, टाइड्राजीन, सनसेट यलो, इंडिगो है। ऐसे उत्पादों की सूचना और विज्ञापन पर इन्हें लिखना कारमीन, लिंट ब्लू, ग्रीन रस और फास्ट ग्रीन रंग मिलाए जाते कानूनन जरूरी नहीं है।
हैं। इन 11 रंगों के अतिरिक्त रंगों का उपयोग गैर कानूनी माना चॉकलेट बच्चों की जान का दुश्मन बनी हुई है। लॉलीपॉप, | जाता है। इन रंगों की मात्रा भी एक किलो पदार्थ में 0.2 ग्राम से च्युईंगम, चॉकलेट खाने से बच्चों की सेहत गिरती है और वे कई | अधिक नहीं होनी चाहिए। यद्यपि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने रोगों का शिकार हो सकते हैं। नेस्ले की किटकैट चॉकलेट में | अमारंध रंग को मान्य नहीं किया है, तथापि आज इसका उपयोग छोटे बछड़ों के शरीर से प्राप्त मांस (रेनेटस) मिलाया जाता है। ज्यादा हो रहा है। इसकी पुष्टि नेस्ले यू.के. लिमिटेड की न्यूट्रांशन ऑफीसर श्रीमती कनाडा, रूस और अमेरिका में किए गए विश्लेषण से ज्ञात वाल एंडरसन ने की है। अन्तर्राष्ट्रीय पत्रिका 'यंग जैन्स' में बाल | हुआ है कि अमारंध रंग सिर्फ कैंसर की उत्पत्ति ही नहीं, अपितु एंडरसन का ऐसा ही पत्र प्रकाशित किया है, जिन्होंने एक पत्र | गर्भस्थ शिशुओं में जन्मजात विकृति और न्यूनता उत्पन्न कर के जबाब में लिखा है किटकैट में कोमल बछडों का रेनेट | सकता है। गर्भवती महिलाओं को चॉकलेट से सावधान रहने (मांस) होने से शाकाहारियों के लिए अखाद्य है। बच्चों को | की आवश्यकता है। जर्मनी में किए गए परीक्षण के अनुसार प्रिय लगने वाली ऐसी चीजें उनकी सेहत खराब करती हैं।। सनसेट यलो का अधिक सेवन अंधत्व ला सकता है। ये रसायन चॉकलेट, बिस्किट बच्चों को ज्यादा देना हानिकारक है, यह बच्चों की पाचनशक्ति मंद कर उनके विकास में बाधक बनते सब जानते हैं, मगर इससे और अधिक खतरे हैं, जिसमें अधिकांश लोग अनभिज्ञ हैं। लालीपॉप, च्युईंगम, चॉकलेट, टॉफी बच्चों चरबी से चॉकलेट की सेहत और आदतों पर विपरीत असर डालती है। बच्चों का श्रीमती मेनका गांधी ने अपने एक शोध लेख में स्पष्ट किया आहार कम हो जाता । शक्कर से बनी इन वस्तुओं से बच्चों का है कि कुछ चॉकलेटें चरबी के गिरे हुए टुकड़ों से बनाई जाती पाचन तंत्र बिगड़ता है। पेट की खराबी से बच्चे सुस्त व चिड़चिड़े हैं। अब देखें ब्रेड और बिस्किट का स्वाद । 'इंटेलीजेंट इन्वेंटर' हो जाते हैं। दांतों में केविटी (छिद्र) हो जाती है। केविटी में | के 9 अगस्त 2002 के अंक में प्रकाशित एक लेख में निवेदिता सूक्ष्म कीटाणु बढ़ जाते हैं जो और जीवाणुओं के साथ शक्कर मुखर्जी ने लिखा है कि गेहूं से तैयार आटा विषयुक्त होता है। द मिलने से एसिड बन जाता है और यह दांतों के लिए अत्यंत कन्जूमर एजूकेशन एंड रिसर्च ने देशभर से खरीदे 13 प्रकार के हानिकारक होता है।
आटों के नमूनों की परीक्षा की थी और पाया था कि इन सभी में लखनऊ की पर्यावरण प्रयोगशाला में वैज्ञानिक एस.सी. | डी.डी.टी. सहित लीडेन और इथेन जैसे जन्तुनाशक रसायनों के सक्सेना द्वारा किए गए शोध से ज्ञात हआ है कि चॉकलेट में अंश मिले हुए थे। ज्यादा निकल होने से बच्चों को कैंसर भी हो सकता है। इसके ब्रेड के आटे में पाये जाने वाले उक्त रसायन फसल उगाने अतिरिक्त इसका प्रभाव लीवर तथा पित्ताशय पर भी पड़ता है, | के समय उपयोग में लाए जाते हैं, जबकि इनके उपयोग पर चर्मरोग हो सकता है और असमय बाल सफेद हो जाते हैं। श्री | पाबंदी लगी हुई है। डी.डी.टी. मस्तिष्क और ज्ञानतंत्र को हानि सक्सेना का दावा है कि 40 ग्राम चॉकलेट में भारत में 600 से | पहुँचाता है, एल्ड्रीन से कैंसर होने का भय होता है तथा इथेन
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जैसे आर्गेनो फास्फेट्स से श्वसनतंत्र के ऊपर वाले भाग में मवाद हो जाता है, पेट में पीड़ा उत्पन्न होती है, चक्कर आते हैं। वमन भी होता है, सिर में झटके लगते हैं, अंधेरा सा प्रतीत होता है और मन में कमजोरी महसूस होती है।
सीइआरसी की पत्रिका 'इनसाइट' की सम्पादक प्रीति शाह ने लिखा है- 'एक प्रकार से विचार करने पर मालूम होता है कि विषयुक्त रसायनों की मिलावट से अधिक भय तो छोटे बच्चों, गर्भवती स्त्रियों, वृद्धों और कम प्रतिकारक शक्तिवाले रोगियों को बना रहता है। सीईआरसी ने ब्रेड की 13 ब्रांडों का उल्लेख भी किया है, जिनका परीक्षण किया गया था। यदि ऐसी प्रख्यात ब्रांडों में से ऐसे जहरीले रसायन हों तो यत्र-तत्र तैयार की जाती, सुंदर और मनोहर पैकिंग वाली तथा आकर्षक विज्ञापनों वाली दूसरी ब्रांडों की तो बात ही क्या करना।'
जहाँ तक बिस्किट की बात है, खाद्य पदार्थ मिलावट प्रतिबंधक नियम अ- 18/07 के अनुसार आइसक्रीम की तरह बिस्किट में भी अंडों का उपयोग करने की अनुमति दी गई है, लेकिन बिस्किट में अंडों का मिश्रण करने पर उसकी सूचना अथवा विज्ञापन भी जारी करना अनिवार्य नहीं है। बेबी फूड्स के बारे में क्लोड अल्वारीस लिखते हैं कि बच्चों को मार डालने के लिए अनेक मार्ग हैं, जिनमें बेबीफूड भी एक है । आटा पचाने की क्षमता नहीं रखने वाले बच्चों के पाचन तंत्र पर जब मैदे से बनाए हुए बिस्किटों का आक्रमण होता है, तो उन्हें बीमार होने से कौन रोक सकता है।
स्वस्थ्य जीवन के लिये आवश्यक है कि बेकरी से बने पदार्थों को दूर से ही सलाम कर लिया जाए। बेकरी उत्पादों में दो मुख्य हानिकारक खाद्य पदार्थ होते हैं- वनस्पति और मैदा । बेकरी के बटर बिस्किट में करीब आधा तो वनस्पति घी होता है । नान खटाई में 35 से 40 प्रतिशत वनस्पति और 20 प्रतिशत शक्कर तथा शेष मैदा होता है। टोस्ट और डोग्गी बिस्किट में 20 से 25 ग्राम वनस्पति डाला जाता है। वनस्पति घी में 30 से 50 प्रतिशत चरबी (ट्रांसफेटी एसिड) होता है।
न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडीसिन में प्रसिद्ध हुए एक प्रयोग के अनुसार ट्रांसफेटी एसिड लेने से रक्त में हानिकारक (एल.डी.एल.) कोलेस्ट्रॉल की मात्रा कम हो जाती है। उधर मैदा बनाने की प्रक्रिया में गेहूँ के रेशे प्रायः निकाल दिए जाते हैं, जबकि रेशे मालवरोध को दूर करते हैं। रक्त के ग्लूकोज और कोलेस्ट्राल को नियंत्रित रखने के लिए भी रेशे जरूरी हैं। डायबिटीज और हृदयरोगियों के लिए वनस्पति और मैदा दोनों ही नुकसानदायक है ।
पर्यावरण ऊर्जा टाइम्स, मार्च 2003 से साभार
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मूल्य
ग्रन्थ समीक्षा
प्रतिष्ठा पराग
(मंदिर - वेदी प्रतिष्ठा - कलशारोहण विधि)
पं. गुलाबचन्द 'पुष्प'
ब्र. जयकुमार 'निशान्त'
अ. भा. दि. जैन शास्त्री परिषद 261/
3 पटेल नगर मुजफ्फरनगर (उ.प्र.)
प्रथम, 2004, पृष्ठ - 224, 60.00 रुपये
जैन साहित्य में प्रतिष्ठा सम्बन्धी ग्रन्थों की अपेक्षाकृत न्यूनता है इसका एक कारण सुप्रसिद्ध प्रतिष्ठाचार्य पं. नाथूलाल जी शास्त्री के शब्दों में यह है- 'प्रतिष्ठाचार्य चाहते हैं। कि उनकी क्रिया विधि एवं मंत्र संस्कार क्रियाएं गुप्त ही रहें ।' वर्तमान नवोदित प्रतिष्ठाचार्यों /विधि विधान कर्त्ताओं तथा सामान्यजनों को श्रद्धेय पं. गुलाबचन्द जी पुष्प का आभार मानना चाहिए कि उन्होंने प्राचीन ग्रंथों के आधार पर 'प्रतिष्ठा पराग' का संकलन किया है। आज प्रतिष्ठा सम्बन्धी कार्य बढ़ गये हैं, उसी अनुपात में प्रतिष्ठाचार्यों की भी आवश्यकता है। नवोदित प्रतिष्ठाचार्य आगमानुसार क्रियाऐं कैसे करायें इसका सप्रमाण विवेचन प्रस्तुत कृति में है पं. पुष्प जी जैन जगत के सिद्धान्तज्ञ विद्वान् एवं अनुभव वृद्ध प्रतिष्ठाचार्य हैं। उन्होंने क्रियाविधि में कभी कोई समझौता नहीं किया। अनुष्ठान तभी सफल होता है। जब वह पूर्ण विधि विधान से हो। यह शिक्षा आज के नवीन प्रतिष्ठाचार्यों को लेना चाहिए।
सम्पादन में ब्र. जयकुमार निशान्त जी ने विशेष श्रम किया है प्रूफ संशोधन में परिश्रम अधिक किया गया है। जो शुभ लक्षण है। पूर्व में भी ये पिता-पुत्र प्रतिष्ठा रत्नाकर जैसा हीरा दे चुके हैं।
'प्रतिष्ठा पराग' की विशिष्ट उपलब्धि जनमानस को यही है कि इसमें क्रियायें विस्तारपूर्वक और समझाकर इस प्रकार बताई गयी है कि सुधीजन यह मांगलिक क्रियाएं स्वयं भी करा सकते हैं। ऐसी क्रियाओं में दीपावली पूजन, श्रुतपंचमी, गृहप्रवेश, वाहन शुद्धि, सल्लेखना पूर्वक अंतिम शव संस्कार विधि आदि
लिया जा सकता है। पुस्तक के अन्त में विभिन्न मंत्रों के चित्र दिये गये हैं साथ ही अष्ट प्रातिहार्य, अष्ट मंगल द्रव्य के चित्र दिए हैं। बीच में भी जहाँ आवश्यक हुआ है वहाँ चित्रों के माध्यम से विषय को स्पष्ट किया गया है। संक्षेप में यह कृति प्रतिष्ठा के सागर को पुस्तक की गागर में भरने वाली कृति है ।
डॉ. ज्योति जैन जुलाई 2004 जिनभाषित
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प्राकृतिक चिकित्सा
सैर/व्यायाम/टहलना
डॉ. रेखा जैन
निरोग काया ही दुनिया की सबसे बड़ी दौलत है। उसके उम्र बढ़ाता है पैदल चलना:-बोस्टन विश्वविद्यालय बगैर जीवन की हर सुख सुविधा बेमानी हो जाती है। कोई के डॉ.लेविन का मत है कि सप्ताह में मात्र तीन दिन 45 मिनट कितना ही धनवान् हो, शरीर रोगी हो मन दुखी रहे तो सारा | रोज का भ्रमण स्वस्थ जीवन के लिए पर्याप्त है। भ्रमण पर स्टेन रुपया पैसा धरा रह जाता है। सच पूछे तो आदमी को जन्नत भी फोर्ड विश्वविद्यालय अमेरिका में शोध अनुसंधान हुए 12 मिल जाए और काया का सुख न हो तो वह सुखी नहीं हो | किलोमीटर प्रति सप्ताह चलने से मृत्यु के खतरे 21 प्रतिशत सकता। पर निरोग काया और स्वस्थ सुखी मन के लिए जीवन | कम और 40-50 किलोमीटर प्रति सप्ताह पैदल चलने में लगभग में कुछ सरल नियमों को गूंथ लेना बेहद जरूरी है। हष्ट-पुष्ट बने | 10 प्रतिशत रह जाते है। इसलिए हमारे आचार्यगण, साधुजन रहने के लिए जिस प्रकार शुद्ध व सन्तुलित आहार जरूरी है,उसी स्वस्थ सुखी हम लोगों की अपेक्षाकृत अधिक रहते हैं। प्रकार नियमित व्यायाम संतुलित व्यवहार और मानसिक सुख ___ मस्तिष्क की क्षमता बढ़ाता है टहलनाः- सैन फांसिस्को संतोष की भी जरूरत होती है, रोजाना व्यायाम करने से अनेक स्थित कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी की किस्टीन याफे के मतानुसार फायदे हैं। इससे मांस पेशियों की कसरत होती है। हड्डियों को
जीवन के आठ दशक देख चुकी महिलाएं भी नियमित रूप से ताकत मिलती है,दिल और फेफड़े मजबूती पाते हैं। रक्त संचार पैदल चलकर व व्यायाम करके अपने मस्तिष्क को आयु के सुचारू होता है। रक्तचाप और ब्लडशुगर संयत रहते है। और प्रभाव से बचा सकती हैं। इसके विपरीत जो महिलाएं कम मन मस्तिष्क को ताजगी मिलती है।
चलती हैं व कम व्यायाम करती हैं उनके मस्तिष्क की सक्रियता नियमित व्यायाम से दिल की कामकाजी ताकत बढ़ती है। पहले से कम हो जाती है। और वह थोड़ी सी आक्सीजन पाकर ही ज्यादा काम कर पाता
टहलते/सैर/व्यायाम करते समय ध्यान रखने योग्य है। दिल की कोरोनरी धमनियों में खून का दौरा बढ़ जाता है।
बातें:और खून की आक्सीजन संवहन क्षमता बढ़ जाती है । नतीजतन
1.आचार्य चरक ने व्यायाम के सम्बन्ध में चरक संहिता 7/ दिल को ज्यादा आक्सीजन पहुँचने लगती है। जिससे उसकी
31 में लिखा है कोई भी ऐसी शारीरिक क्रिया या चेष्टा जो उचित कार्यक्षमता बढ़ जाती है। व्यायाम करने से धमनियों में खून के
हो, हितकारी हो और मन को अच्छी लगे,जो शरीर में सुडोलता थक्के बनने की प्रवृत्ति भी घटती है। प्लेटलेट रक्त कणों का
लाए और बल बढ़ाए इस क्रिया का नाम व्यायाम है। चिपचिपाना और खून का गाढ़ापन घटता है। इससे दिल का
___2.टहलते समय बड़े डग भरना किसी भी मायने में फायदे दौरा पड़ने और लकवा होने की आशंका कम हो जाती है।
मंद नहीं है। सैर करते वक्त कदम उतने ही बड़े लें जितने की व्यायाम मन के लिए भी टॉनिक है रोजाना व्यायाम करने से
आदत हो। कदमों की लम्बाई आराम देह ही होनी चाहिए, शरीर में ऐसे जैव रसायन उत्पन्न होते हैं। जिनसे मन प्रफुल्लित
तनाव पैदा करने वाली नहीं। महसूस करता है । नियमित व्यायाम से दिल को सुरक्षा देने वाले
____ 3.शरीर जिस रफ्तार को आसानी से सह सके वही गति कोलेस्ट्राल घटक (हाई डेंसिटी लाइपोप्रोटीन )एच.डी.एल.की
अपनाएं। हाँ अगर स्वास्थ्य ठीक ठाक हो तो धीरे-धीरे गति को मात्रा बढ़ती है। और नुकसान पहुँचाने वाले जोखिम भरे कोलेस्ट्राल
बढ़ा लेना चाहिए। वैसे तेज रफ्तार से ही टहलना भरपूर व्यायाम (लो डेंसिटी लाइपोप्रोटीन) एल.डी.एल. की मात्रा कम हो जाती है। कुछ परीक्षणों में तो यहाँ तक देखा गया है कि कई
4.कम से कम 45 मिनट प्रातः एवं 30 मिनट शाम को लोगों के लिए व्यायाम करना एक समय के बाद व्यसन बन
टहलना चाहिए। करीब 2 से 3 किलोमीटर प्रातः और 1 से 2 जाता है। इसका सम्बन्ध भी शरीर की जैव रासायनिकी से जोड़ा
किलोमीटर शाम को चलना चाहिए। गया। व्यायाम से शरीर के कुछ ऐसे प्राकृतिक जैव रसायन पैदा
5.टहलते समय बांहों को कोहनियों पर 90 अंश के कोण होते है। जो हमारे दुख दर्द को मिटाते हैं। और उसकी रासायनिक
पर मोड़ कर आगे पीछे कुदरती तौर पर स्विंग करें। इससे प्रायः संरचना मारफीन जैसी होती है। व्यायाम करने से इम्यून सिस्टम
शरीर कर गति स्वतः बढ़ जाती है। इसका सम्बन्ध शरीर के (कुदरती बचाव प्रणाली) भी अधिक सशक्त बनती है।
बायो मेकेनिक्स या जैव प्रक्रिया से है। बांहों और टांगों के बीच
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सदा एक सन्तुलन रहता है। अगर हम बांहें सीधी करके चलें तो | 13.सैर पर बीड़ी,सिगरेट, तम्बाकू,पान, गुटखा नहीं खाना टांगों की गति धीमी हो जाती है। बांहें मोड़ कर चलें तो टांगों | चाहिए। की रप्तार कुछ तेज हो जाती है।
14. भरपेट भोजन करने पर सैर करना हानिकारक है। भोजन 6.चलते वक्त गति बढ़ाने के लिए कमर के ऊपर के भाग | के करीब तीन घंटे बाद ही सैर की जा सकती है। चहलकदमी को झुकने देना वाजिब नहीं है। इस झुकाव से कंधों, छाती और करना अलग बात है। रीढ़ में तनाव पैदा होता है। जबकि व्यायाम का एक मकसद ____ 15.आखिरी बात - अगर श्वाँस रोग (बहुत बड़ा हो) निःसन्देह ही शरीर को तनाव रहित करना है।
हृदय रोग,अत्यधिक उच्च रक्तचाप,जिनका हृदय जन्म से कमजोर 7.चलते समय किसी से बातचीत नहीं करें। एकाग्रचित्त | हो, हृदय के वाल्व त्रुटीपूर्ण या क्षतिग्रस्त हो, जिसे मिरगी का होकर संभव हो तो अपने इष्ट का चितंन करते हुए या फिर मैं | रोग हो, जो पैरों में सन्धिवात से पीड़ित हो, जिसके पैरों में चोट स्वस्थ हो रहा हैं या हँ ऐसी भावना को दोहराते हए चलें। यदि | या परेशानी हो, पथरी,पीलिया, मानसिक रोग से ग्रसित हो, आप बातचीत करते हैं तो मुँह के खुलने पर श्वाँस मुँह के | जिसे दिनभर अत्यधिक शारीरिक श्रम का कार्य करना हो, जो माध्यम से श्वांस नली में जायेगी जिससे गला सूखेगा और प्यास किसी लम्बी बीमारी से हाल ही में उठा हो ऐसे व्यक्तियों को लगेगी जो आपमें थकान पैदा करेगी और यदि आपने टहलने के | सैर,टहलना,व्यायाम नहीं करना चाहिए। बीच पानी पिया तो पेट में पानी जाने पर भारीपन लगेगा कभी- ____ 16.व्यायाम करके आकर तत्काल स्नान नहीं करना चाहिए। कभी नसों में सूजन भी आ जाती है। और पानी पीने से शरीर का कम से कम पसीने को सूखने तक रुकना चाहिए। हृदय की तापमान जो व्यायाम के कारण बड़ा था अचानक गिर सकता है धड़कन सामान्य हो जाने तक न तो खाना-पीना चाहिये न ही जिससे ब्लडप्रेशर जैसी समस्या से पीड़ित व्यक्ति में और समस्या | कोई कार्य करना चाहिए। बढ़ सकती है। पानी पीने से टहलने की एकाग्रता भंग हो जाती 17. यदि आप किसी बीमारी से ग्रस्त हैं तो सैर का कार्यक्रम है और व्यवधान जैसा आ जाता है।
अपनाने से पहले डाक्टर से सलाह अवश्य लेवें। 8.नाक से श्वाँस लें - टहलते वक्त सारी श्वाँस नाक से यह सोच सरासर गलत है कि दिल का दौरा पड़ चुकने लेवें। मुँह बिल्कुल न खुला छोड़े। श्वाँस नाक से लेने पर के बाद आदमी सैर करने लायक नहीं रहता। दरअसल बेहतर हमारा ब्रीथिंग पावर बढ़ता है। श्वसन सम्बन्धी विकार व रक्त तो इसी में है कि दौरे के कुछ हप्ते बाद ही अगर स्वास्थ्य विकार दूर होते हैं। अस्थमा और डायबिटीज जैसे रोगों में लाभ अनुमति दे तो डाक्टरी राय से सैर का पूरा एक क्रमबद्ध केलेण्डर मिलता है।
बनाकर उसे अमल में लाना चाहिए। इससे दिल की सेहत 9.अधिक व्यायाम हानिकारक - अति व्यायाम के कारण बढ़ती है। बंद रुकी हुई कोरोनरी धमनियों के हिस्सों में नई रक्त प्यास की अधिकता,रस,धातुओं का क्षय, मांसपेशियों में लेक्टिक धमनियां फूट आती हैं, जिससे दिल को खुराक मिलने लगती एसीड,साइट्रिक एसिड बढ़ने से रक्त चाप बढ़ना, खांसी, बुखार, है। डायबिटीज के रोगियों के लिए भी सैर बहुत फायदेमंद है। उल्टी आदि कष्ट हो सकते हैं।
नियमित सैर करने से शुगर का नियंत्रण और संतुलन बेहतर ___ 10.सैर हप्ते में कम से कम पांच दिन जरूर करें। वैसे | बनता है। जोड़ सूजे हों, साँस फूलती हो या किसी भी कारण से प्रतिदिन का व्यायाम ही लाभकर है।
कोई परेशानी हो तो यह सोचना सरासर गलत है कि मन में ____ 11.सैर पर निकलते समय यह ध्यान रखें कि तन पर उपयुक्त संकल्प हो तो रोग दूर भाग जाएगा। वस्त्र हों, ढीले वस्त्र जो मौसम के अनुकूल हों और पावों में ___अंत में हमारा स्वास्थ्य तभी ठीक हो सकेगा जब हमने पूर्व केनवास के आरामदेह जूते भी कसे हों तो बेहतर होगा। समय जन्म में रोगियों की सेवा की होगी, असहाय की सहायता की बचाने के चक्कर में इन छोटी,मगर महत्त्वपूर्ण बातों पर ध्यान न होगी, औषधि दान, आहारदान दिया हो। वर्तमान में दूसरे के देना कष्टकारी सिद्ध हो सकता है।
रोगों के प्रति सहानुभूति, सद्भावना रखनी होगी जीवन में मैत्री 12. सुबह सैर पर लाने से पहले शौचादि से निवृत्त होना | की भावना रखनी होगी क्योंकि मिलता वही है जो हम बोते हैं। चाहिए और खाली पेट एक दो गिलास पानी जितना सम्भव हो सके पानी पीकर सैर पर जाना चाहिए,लेकिन बीच में पानी नहीं
पुलिस ट्रेनिंग कालेज सागर (म.प्र.) पीना चाहिए।
विनय, वात्सल्य, एकता तीनों रत्नत्रय के समान हैं समाज की संरचना में इनका बहुमूल्य योगदान है।
सागर द समाय
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जिज्ञासा-समाधान
पं. रतनलाल बैनाड़ा
प्रश्नकर्ता : कल्पेश जैन, बारामती
2. मांस त्याग के अतिचार : चमड़े से सम्बन्धित हींग जिज्ञासाः क्या उत्सर्पिणी के छठेकाल एवं पंचमकाल में, | खाना, चलित रस वाले दूध-दही आदि को खाना, मर्यादा के वर्तमान की तरह विवाह आदि नहीं होते हैं?
बाद पकवान खाना। अशुद्ध दवाएं बेचना। समाधान : उत्सर्पिणी के छठेकाल में स्त्री, मनुष्य और | 3. मधु त्याग के अतिचार : गुलकन्द खाना, मधु मिश्रित तिर्यंच नग्न रहकर पशुओं जैसा आचरण करते हुए क्षुधित होकर | दवाएं लेना, एनिमा, अंजन आदि में मधु प्रयोग करना। शहद वन प्रदेशों में धतूरे आदि वृक्षों के फल, फूल एवं पत्ते आदि बेचना। खाते हैं। उस काल के प्रथम भाग में आयु 15-16 वर्ष और | 4. जुआ व्यसन त्याग के अतिचार : किसी भी प्रकार का ऊँचाई एक हाथ प्रमाण होती है। इसके आगे आयु आदि बढ़ती | सट्टा करना, हार-जीत की भावना से होड़ लगाना तथा ताशजाती है। 21000 वर्ष के अतिदुखमा काल के समाप्त होने पर | पत्ते आदि खेलना। लॉटरी खरीदना आदि। दुखमा नामक पंचम काल आता है। इस पंचम काल में आहार | 5. वेश्या व्यसन त्याग के अतिचार : गीत-संगीत और आदि व्यवस्था छठे कालवत् रहती है। किन्तु आयु 20 वर्ष और | वाद्यों की ध्वनि सुनने में आसक्ति रखना। व्याभिचारी जनों की ऊँचाई 3-311 हाथ होती है। दुखमा काल के एक हजार वर्ष | संगति करना। वेश्यागृह गमन करना, सिनेमा, टी.वी. आदि शेष रहने पर इस भरत क्षेत्र में 14 कुलकरों की उत्पत्ति होने | देखना, बिना प्रयोजन घूमना आदि। लगती है। उस समय विविध प्रकार ही औषधियों के रहते हुए | 6.शिकार व्यसन त्याग के अतिचार : चित्रों का फाड़ना, भी पृथ्वी पर अग्नि नहीं रहती। तब कुलकर विनय से युक्त चित्र वाले वस्त्रों को काटना, फाड़ना, मिट्टी, प्लास्टिक आदि से मनुष्यों को उपदेश देते हैं कि मथकर आग उत्पन्न करो और | बने जानवरों को तोड़ना आदि। भोजन पकाओ, विवाह करो और बांधव आदिक निमित्त से | 7. चोरी व्यसन त्याग के अतिचार : भागीदार के भाग को इच्छानुसार सुखों का उपभोग करो। जिनको कुलकर इस प्रकार | हड़पना, भाई-बंधुओं का भाग न देना, अपने निकट की दूसरे की शिक्षा देते हैं, वे पुरुष अत्यन्त म्लेच्छ होते हैं। अन्तिम | की भूमि में अपना अधिकार बढ़ाना आदि। कुलकर के समय से विवाह विधियां प्रचलित हो जाती हैं। 8. परस्त्री सेवन त्याग व्रत के अतिचार : अपने साथ
भावार्थ : इस प्रकरण से स्पष्ट है कि अंतिम कुलकर, जो । विवाह की इच्छा से किसी कन्या को दूषण लगाना, गंधर्व दुखमाकाल के अन्त में होते हैं, उनके काल से विवाह विधि | विवाह (लव मैरिज) करना, कन्याओं को उड़ाकर उनसे दुराचार प्रारम्भ होती है। इससे पूर्व पूरे छठेकाल और पंचमकाल में | करना आदि। विवाह विधि नहीं होती। देखें-तिलोयपण्णत्ति, अधिकार-4, गाथा | 9. रात्रि भोजन त्याग व्रत के अतिचार : दिन के प्रथम 1588 से 15961
तथा अन्तिम मुहूर्त में भोजन करना तथा दवा आदि लेना। रात्रि जिज्ञासा : पहली प्रतिमा में अष्टमूलगुणधारण और सप्त | में दूध, फलादिक का सेवन करना या दूसरों को खिलाना। रात्रि व्यसन का त्याग करना होता है तथा इसके अतिचार भी नहीं | में भोजन बनाना या रात्रि में बने पदार्थ खाना। लगने दिये जाते। कृपया इनके अतिचारों का वर्णन करें?
10. जलगालन व्रत के अतिचार : 48 मिनिट बाद बिना समाधान : इस प्रश्न के समाधान में "सागार धर्मामृत" छना पानी पीना । पतले और जीर्ण वस्त्र से पानी छानना। जिवानी अधिकार 3 में अच्छी तरह प्रकाश डाला गया है। उसी के | यथास्थान न डालना। अनुसार यहाँ लिखा जा रहा है।
इतना विशेष है कि यदि उपरोक्त कार्य यदा-कदा हों तो 1. मद्य त्याग के अतिचार 'चौबीस घंटे बाद भी आचार, | अतिचार कहलाते हैं। नियमित होने पर व्रत भंग हो जाता है। मुरब्बा आदि तथा दही, छाछ का सेवन करना। वैद्यक गीली प्रश्नकर्ता : रवीन्द्र कुमार जैन, अशोकनगर दवाईयों का, होम्योपैथिक दवाईयों का, एलोपैथिक दवाईयों का | जिज्ञासा : निदान किसे कहते हैं, क्या अगली पर्याय अच्छी सेवन करना। तम्बाखू, भांग आदि नशीले पदार्थ खाना, बीड़ी, I मिलने की भावना भी निदान है? सिगरेट पीना, कोल्ड-ड्रिंक पीना, शराब आदि नशीले पदार्थ | समाधान : धर्मसेवन करके उसके फलस्वरूप आगामी बेचना।'
भव में भोगों की आकांक्षा करना, इन्द्र, चक्रवर्ती आदि पदों को 28 जुलाई 2004 जिनभाषित
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पाने की इच्छा करना निदान कहलाता है। सर्वार्थसिद्धि 7/37 में | समाधान : उपरोक्त चारों संवतों में सबसे नवीन शक संवत् इस प्रकार कहा है -
है। इससे प्राचीन ईसवी सन है। उससे प्राचीन विक्रम संवत् है भोगाकांक्षा नियतुं दीयते चित्तं तस्मिस्तेनेति वा निदानम्। और सबसे प्राचीन वीर निर्वाण संवत् है। अत: इनको परस्पर में
भोगाकांक्षा से जिसमें या जिसके कारण चित्त नियम से दिया | निकालने के लिए शक संवत् में 77 जोड़ने पर ईसवी सन् जाता है वह निदान है।
निकलता है। ईसवी सन् में 57 जोड़ने पर विक्रम संवत् निकल निदान के दो भेद हैं, अप्रशस्त निदान तथा प्रशस्त निदान।। आता है। तथा विक्रम संवत् में 470 जोड़ने पर वीर निर्वाण अप्रशस्त निदान दो प्रकार है
संवत् निकलता है। उदाहरण : यदि किसी ग्रन्थ का रचना काल 1. भोगार्थ निदान - देव, मनुष्यों में प्राप्त होने वाले भोगों शक संवत् 105 लिखा हो तो उस काल को 77 करने पर 182 की अभिलाषा करना, स्त्रीपना, धनिकपना, श्रेष्ठीपद, नारायण, | ईसवी सन् मानना चाहिए तथा इसी में 57 जोड़ने पर अर्थात चक्रवर्तीपना आदि की भोगों के लिए अभिलाषा करना यह | 182+ 57 = 239 विक्रम संवत् मानना चाहिए और इसमें 470 भोगार्थ अप्रशस्त निदान है। किसी राजा, श्रेष्ठी, महारानी आदि | जोड़ने पर 239+470 = 709 वीर निर्वाण संवत् मानना चाहिए। को सुखों का उपभोग करते हुए देखकर इच्छा करना कि मेरे प्रश्नकर्ता : पं. महेशचन्द्र जैन, भिण्ड पूजा, तप, व्रत आदि का फल हो तो मैं भी ऐसा बनूं आदि जिज्ञासा : पं. मोहनलाल शास्त्री द्वारा संपादित तत्त्वार्थसूत्र भोगार्थ निदान है।
में असैनी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का नियम से सम्मूर्च्छन जन्म होता 2. मानार्थ निदान : अभिमान के वश होकर उत्तम जाति, है, ऐसा लिखा है, तो क्या वे सभी नपुंसक होते हैं? कुल की अभिलाषा करना, आचार्यपद, गणधरपद, तीर्थंकर | समाधान : असैनी पंचेन्द्रिय जीव गर्भज और सम्मूर्च्छन पद, सौभाग्य, आज्ञा और सुन्दरता इनकी प्रार्थना करना, क्रुद्ध | दोनों प्रकार के होते हैं। जो सम्मूर्च्छन होते हैं वे तो नियम से होकर मरण समय में शत्रु वध आदिक की इच्छा करना मानार्थ | नपुंसक ही होते हैं और जो गर्भज होते हैं वे तीनों वेद वाले होते निदान है।
हैं। पं. मोहनलाल शास्त्री द्वारा सम्पादित मोक्षशास्त्र का जो 3. प्रशस्त निदान : पौरुष, शारीरिक बल, वीर्यान्तराय कर्म | विषय आपने प्रश्न में लिखा है, वह गलत है कृपया सुधार का क्षयोपशम होने से उत्पन्न होने वाला दृढ़ परिणाम, वज्रवृषभ लीजिएगा। कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं - नाराच संहनन आदि संयम साधक सामग्री मुझे प्राप्त हों यह 1. श्री धवना पुस्तक, 1 पृष्ठ 346 पर इस प्रकार कहा है: प्रशस्त निदान है। मेरे दुःखों का नाश हो, मेरे कर्मों का नाश हो, "तिरिक्खा तिवेदा असण्णि पंचिन्दिय-प्पहुदिजाव संजदामेरे समाधिमरण हो, मुझे रत्नत्रयरूप बोधि की प्राप्ति हो, ये संजदात्ति" 107॥ मोक्ष के कारण भूत प्रशस्त निदान हैं। जिनधर्म को भलीभांति से अर्थ-तिर्यंच असंज्ञी पंचेन्द्रिय से लेकर संयतासंयत गणस्थान पालन कर सकें इसलिए हमारा जन्म आगामी भव में बड़े कुटुम्ब | तक तीनों वेदों से युक्त होते हैं। (यदि सभी असैनी पंचेन्द्रिय में न हो क्योंकि कुटुम्ब की विडम्बना से धर्म साधन में बाधा | सम्मूर्च्छन ही होते तो वे तीनों वेदों से युक्त नहीं हो सकते हैं होती है। धनिक व राजा के महारम्भी परिग्रही होने से धर्म क्योंकि सम्मूर्च्छन जीव तो नियम से नपुंसक ही होते हैं) साधन के भाव नहीं होते, इसीलिए आगे मेरा जन्म उत्तम कुल, 2. श्री मूलाचार गाथा 1132 में इस प्रकार कहा है - जाति वाले मध्यम दर्जे के परिवार में हो। यह भी प्रशस्त निदान पंचेदिया दु सेसा सण्णि असण्णीय तिरिय मणुसा य। कहा जाता है। उपरोक्त में से अप्रशस्त निदान सर्वथा हेय है। ते होंति इत्थिपुरिसा णपुंसगा चावि वेदेहिं ।।1132।। गृहस्थ को कदाचित् उपरोक्त प्रशस्त निदान प्रयोजनवान् हैं।। अर्थः शेष संज्ञी और असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा मनुष्य ये मुनिराज तो दु:खों का नाश हो, कर्मों का नाश हो आदि प्रार्थना | वेदों की अपेक्षा स्त्री, पुरुष और नपुंसक भी होते हैं। 1132 ॥ करते हैं और यह भी जानते हैं रत्नत्रय की आराधना से किसी। 3. जीवकाण्ड गाथा 79 में इस प्रकार कहा गया है : भी प्रकार का निदान न करने पर भी, अन्य जन्म में निश्चय से इगिवण्णं इगिविगले असण्णिसण्णिगयजलथलखगाणं। पुरुषत्व व संयम आदि की प्राप्ति होती ही है। निदान के विशेष गब्भभवे सम्मुच्छे दुतिगं भोगथलखचरे वो दो।79॥ विवरण के लिए भगवती आराधना गाथा 1216/1226 तथा अर्थ : एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों के इक्कावन (51), अमितगति श्रावकाचार अधिकार-7. श्लोक नं. 20 से 46 तक पंचेन्द्रियतिर्यंचों में जलचर, थलचर और नभचर के संज्ञी व देखने का कष्ट करें।
असंज्ञियों में गर्भज के दो और सम्मूर्च्छन के तीन भेद तथा भोग प्रश्नकर्ता : श्रीमती सुरेखा दोषी, बारामती
- भूमिज थलचर और नभचर के दो-दो भेद होते हैं ।।79॥ जिज्ञासा : वीर निर्वाण संवत्, विक्रम संवत्, शक संवत् | विशेषार्थ : यहाँ जलचर, थलचर और नभचर के संज्ञी व तथा सन् में कितना अंतर रहता है?
असंज्ञियों में गर्भज के पर्याप्त व निवृत्य-पर्याप्त ऐसे दो-दो भेद
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होते हैं, क्योंकि गर्भजों में लब्धपर्याप्तक नहीं होते। इस प्रकार
बोध-कथा गर्भज संज्ञी व असंज्ञी कर्मभूमिज तिर्यंचों में इस प्रकार गर्भज
खुशामद का फल संज्ञी व असंज्ञी कर्मभूमिज तिर्यंचों में बारह जीवसमास होते हैं।
अमेरिका के प्रसिद्ध व्यवसायी राकफेलर बहुत धनाड्य थे।। अर्थात् लब्धपर्याप्तक नहीं होते। अर्थात् सैनी गर्भज जलचर, जिस प्रभूत मात्रा में उनके पास धन था, उतना ही विशाल था उनका थलचर, नभचर तथा असैनी गर्भज जलचर, थलचर, नभचर ये हृदय भी। जरूरत मन्द लोगों तथा समाज सेवी संस्थाओं को दान छह भेद हुए। इनको पर्याप्त एवं निवृत्यपर्याप्त इन दो से गुणा देने में वे कभी हिचकिचाते नहीं थे। उनकी प्रसिद्धि एक दानवीर करने पर 12 जीवसमास हुए।
के रूप में फैल गई थी। उपरोक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि असैनी पंचेन्द्रिय
किन्तु उन्हें खुशामद पसन्द नहीं थी।
एक आदमी ने सोचा कि श्री राकफेलर बहुत बड़े दानी हैं। सम्मूर्च्छन तथा गर्भज दोनों प्रकार के होते हैं, जिनमें गर्भज तो
चलो अवसर का लाभ उठाया जाय। उनके पास जाकर उनकी तीनों वेद वाले होते हैं और सम्मूर्च्छन केवल नपुंसक वेद वाले
थोड़ी प्रशंसा करके कुछ धन प्राप्त किया जाय। यह सोचकर वह ही होते हैं।
राकफेलर के पास आ पहुँचा और लगा उनकी खुशामद करने, प्रश्नकर्ता : अखिलेश जैन, फिरोजाबाद
प्रशंसा के पुल बाँधने लगा - जिज्ञासा: सभी देवियाँ प्रथम कल्प में होती हैं तो क्या "आपके जैसा दानवीर तो सारे अमेरिका में नहीं है। जहाँ भी सोलहवें स्वर्ग में ले जायी जाने वाली देवियों की भी लेश्या पीत जाओ, आपकी दानवीरता की प्रशंसा सुनने को मिलती है। मैं बड़ी ही रहती है या शुक्ल हो जाती है?
दूर से यहाँ आया हूँ रास्ते में जगह-जगह आपकी ही प्रशंसा सुनने समाधान : गोम्मटसार जीवकांड गाथा 546 में इस प्रकार
को मिली आपके समान।"
"ठहरिए महाशय, एक बात बताइए। आप जिस मार्ग से आए कहा है:
हैं उसी मार्ग से लौटेंगे अथवा किसी अन्य मार्ग से?" राकफेलर तेउस्साय सट्ठाले लोगस्स असंख्यभागमेत्तं तु।
को उस व्यक्ति द्वारा की जा रही अपनी खुशामद कतई अच्छी नहीं अउचोद्दसभागा वा देसूणा होंति णियमेण ॥546॥
लग रही थी। अत: उन्होंने बोलते-बोलते बीच में ही रोककर अर्थ : पीत लेश्या का स्वस्थानस्वस्थान की अपेक्षा लोक उपरोक्त प्रश्न पूछा। का असंख्यातवां भाग स्पर्श है और विहारवत्स्वस्थान की अपेक्षा | उस व्यक्ति ने उत्तर दिया- "मैं उसी मार्ग से लौटूंगा जिधर से कुछ कम आठ बटा चौदह भाग (8/14) स्पर्श है।
आया हूँ। बताइए, यदि आपका कोई काम हो तो उसे करके मुझे विशेषार्थ : यहाँ विहारवत् स्वस्थान की अपेक्षा कुछ कम बड़ी प्रसन्नता होगी।" आठ राजू स्पर्श कहा है क्योंकि तीसरे नरक तक विहार करते
"हाँ, एक काम है", राकफेलर ने कहा, "रास्ते में जिस-जिस
आदमी ने मेरी तारीफ की उन सभी को कृपया कहते जाइये कि हुए तेजो लेश्या वाले देवों का नीचे 2 राजू और ऊपर 16 वें
राकफेलर कोई दानवीर आदमी नहीं है। लोग उसकी झूठी प्रशंसा स्वर्ग तक 6 राजू इसप्रकार 8 राजू क्षेत्र का स्पर्श पाया जाता है।
करते हैं। देखिए, उसने मुझे एक फूटी कौड़ी भी नहीं दी।" । यहाँ कोई शंका करता है कि ऊपर 16 वें स्वर्ग में पीतलेश्या
"मेरा इतना काम आप ही कर दीजिएगा।""नमस्कार।" नहीं है मात्र शुक्ल लेश्या है। फिर ऊपर 6 राजू स्पर्श कैसे संभव अपना-सा मुँह लिए वह खुशामदी आदमी खाली हाथ लौट है। इसका समाधान यह है कि 16 वें स्वर्ग के देवों की नियोगिनी गया। देवियाँ सौधर्म युगल से उत्पन्न होती हैं और उनके पीत लेश्या ही होती है। 16 वें स्वर्ग तक के देव अपनी नियोगिनी देवियों
अवश्य मंगवायें को अपने विमानों में ले जाते हैं।
पुस्तक का नाम
भक्ति संस्कार सौरभ श्री देवसेनाचार्य विरचित तत्त्वसार के श्लोक नं. 22 की
संस्करण
द्वितीय, जुलाई 2004, पृष्ठ-160
लागत मूल्य ____12.00 रुपये टीका में इस प्रकार कहा है। "इन सर्व देवियों के मध्यम पीत
विक्रय मूल्य
6.00 रुपये लेश्या होती है।"
डाकखर्च
2.00 रुपये उपरोक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि सभी देवियों के पीत विषय
प्रार्थना, देववंदना, शास्त्र वंदना, गुरुवंदना, लेश्या ही होती है। और उनके 16 वें स्वर्ग में भी ले जाये जाने
प्रमुख ग्रन्थ पाठ, प्रमुख स्तोत्र पाठ,
आध्यात्मिक भजन, आचार्य वंदना आदि पर लेश्या नहीं बदलती है।
सम्पर्क सूत्र : 1/205, प्रोफेसर कालोनी,
ब. भरत जैन आगरा (उ.प्र.)
आचार्य ज्ञानसागर ग्रन्थमाला, श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान वीरोदय नगर, सांगानेर, जयपुर (राज.)
फोन नं. 0141-2730552, 3418497 30 जुलाई 2004 जिनभाषित
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समाचार
श्री जयंत मलैया नगरीय प्रशासन एवं | श्रुत संवर्धन ज्ञान संस्कार शिक्षण शिविर की विकास मंत्री बने
स्मारिका के लिये सामग्री भेजें दमोह के यशस्वी विधायक श्री जयंत जैन मलैया को नगरीय | परमपूज्य सराकोद्धारक राष्ट्रसन्त उपाध्याय रत्न श्री 108 प्रशासन एवं विकास मंत्री बनाया गया है। हाल ही में म.प्र. की | ज्ञानसागरजी महाराज की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से श्रुत संवर्धन मुख्यमंत्री सुश्री उमाभारती ने अपने मंत्रीमण्डल के विस्तार में | संस्थान मेरठ (उ.प्र.) के तत्वावधान में अब तक आयोजित हुए श्री जयंत मलैया को केबिनेट मंत्रीमंडल में शामिल किया। श्री | 'श्रुत संवर्धन ज्ञान संस्कार शिविरों' की 'प्रेरणा' नाम से भव्य व मलैया पूर्व में श्री सुन्दरलाल पटवा के मंत्रीमण्डल में भी मंत्री | आकर्षक सामग्री युक्त स्मारिका निकालने का निर्णय लिया गया रह चुके हैं। ज्ञातव्य रहे मध्यप्रदेश की वर्तमान सरकार में अब है। विगत वर्षों में मध्यप्रदेश में 28, उत्तरप्रदेश में 13 नगरों में, तीन जैन मंत्री हो गये हैं। श्री राघव जी वित्त योजना आर्थिक | राजस्थान में 7 नगरों में शिविर का आयोजन किया जा चुका है। सांख्यिकी तथा श्रीमती अलका जैन स्कूल शिक्षा मंत्री के रूप में जिसमें बालबोध, छहढाला, तत्त्वार्थसूत्र, रत्नकरण्डश्रावकाचार, पहले से हैं।
भक्तामर एवं पूजन विधि के साथ नैतिक शिक्षा का शिक्षण ___ श्री जयंत मलैया को केबिनेट मंत्री मण्डल में मंत्री बनने पर | वरिष्ठ एवं नवोदित विद्वानों द्वारा कराया गया है। उक्त शिविरों में श्री राजेश रागी बक्सवाहा, देवेन्द्र देव, वीरेन्द्र सिंघई बक्सवाहा, लगभग 11000 शिविरार्थी सम्मिलित हुए। ज्ञानचंद जैन, कमलेश जैन, राकेश जैन नरवां, आशीष शास्त्री, वर्तमान शिक्षा नीति से जहाँ छात्र धर्म, संस्कार से दूर हो रहे पं. सुनील संचय शास्त्री नरवां, सुनील शास्त्री जयपुर आदि ने | हैं वहीं भारतीय संस्कृति को भी खोते जा रहे हैं। आपसे अनुरोध बधाई प्रेषित की है। जिनभाषित' परिवार भी अभिनंदन करता है | है कि शिविर संयोजना को प्रभावी कराने हेतु परामर्श एवं
सुनील संचय 'जैन दर्शनाचार्य', नरवां अपनी सम्मति अविलम्ब भेजने की कृपा करें जिससे स्मारिका पर्दूषण पर्व में विद्वान् बुलाने
का प्रकाशन शीघ्र किया जा सके।
सम्पर्क सूत्र के लिये शीघ्रता करें
श्रुत संवर्धन संस्थान, प्रथम तल श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर द्वारा प्रतिवर्ष
247 देहली रोड, मेरठ (उ.प्र.)
फोन नं. 01212528704,3119857 की भांति इस वर्ष भी पर्युषण पर्व में प्रवचन हेतु विद्वान् जायेंगे। अतः समाज से अनुरोध है कि जो भी समाज विद्वान् को बुलाना
श्रमण संस्कृति संस्थान का परीक्षा परिणाम चाहे, यथाशीघ्र सूचित करे। 31 अगस्त तक प्राप्त पत्रों को
शत-प्रतिशत रहा स्वीकार किया जायेगा। इसके बाद पत्र आने पर स्वीकार नहीं श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर में किये जाएंगे।
अध्ययनरत छात्रों का श्री दिगम्बर जैन आचार्य संस्कृत पत्र व्यवहार का पता :
महाविद्यालय में लौकिक एवं धार्मिक परीक्षा में प्रतिवर्ष की अधिष्ठाता/निदेशक श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान
भांति सत्र 2003-2004 का परीक्षा परिणाम शत-प्रतिशत रहा। वीरोदय नगर, जैन नशियों रोड, सांगानेर, जयपुर (राज.) माध्यमिक शिक्षा मण्डल, अजमेर की कनिष्ठ उपाध्याय (11वीं) फोन नं. 0141-2730552, 2781649, मो. 3418497
की परीक्षा में 28 छात्रों में से 20 प्रथम श्रेणी एवं 12 छात्र द्वितीय पर्दूषण पर्व पर विद्वान् आमंत्रित करें
श्रेणी में उत्तीर्ण हुए एवं वरिष्ठ उपाध्याय (12वीं) के 28 छात्रों परमपूज्य सराकोद्धारक उपाध्याय श्री 108 ज्ञानसागर जी
में 12 छात्र प्रथम श्रेणी एवं 16 छात्र द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुए महाराज की प्रेरणा से स्थापित श्रुत संवर्धन संस्थान मेरठ(उ.प्र.)
एवं राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर के शास्त्री प्रथम के तत्वावधान में प्रवचन, पूजन, दशलक्षण पर्व एवं अनुष्ठान हेतु
वर्ष के 18 छात्रों में से 6 छात्र प्रथम श्रेणी व 12 छात्र द्वितीय विद्वानों को भेजा जा रहा है।
श्रेणी में उत्तीर्ण हुए, शास्त्री द्वितीय वर्ष के 19 छात्रों में से 5 आपके नगर में धर्म प्रभावना हेतु यदि विद्वानों की आवश्यकता
प्रथम श्रेणी, एवं 14 छात्र द्वितीय श्रेणी उत्तीर्ण में हुए, शास्त्री हो तो शीघ्र सम्पर्क करें।
तृतीय वर्ष के 14 छात्रों में 10 छात्र प्रथम श्रेणी, 4 छात्र द्वितीय सम्पर्क सूत्र
श्रेणी से उत्तीर्ण होकर शास्त्री उपाधि प्राप्त की तथा तृतीय श्रेणी श्रुत संवर्धन संस्थान, प्रथम तल 247 देहली रोड, मेरठ (उ.प्र.) | में कोई भी छात्र नहीं रहा।
पुलक जैन जुलाई 2004 जिनभाषित 31
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T
पल्पसर
(फोन नं.0761-2371121) के नाम पर आवेदन पत्र प्रेषित
करें। यह भी विदित कराया गया है कि माह सितम्बर 2004 में महाराष्ट्र शासन ने जैन समाज की चिरप्रतीक्षित मांग पर
नवीन प्रशिक्षार्थियों की भरती का कार्यक्रम उन प्रशिक्षार्थियों को विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार कर विगत 7 मई 2004 को राज्य
भेजा जावेगा । जिनके आवेदन 15 अगस्त 2004 तक कार्यालय में 'जैन समाज' को अल्पसंख्यक समाज' घोषित कर दिया है।
को प्राप्त हो चुके होगें। इस सम्बन्ध में महाराष्ट्र के राज्यपाल के आदेश एवं नाम से महाराष्ट्र शासन के सचिव श्री यू.पी.एस. मदान के हस्ताक्षर से 7 एलोरा गुरुकुल में आचार्य विद्यासागर सभागृह' मई 2004 को सामान्य प्रशासन विभाग,मंत्रालय, मुम्बई 400032,
का नवनिर्माण शुभारंभ समारोह महाराष्ट्र से निर्णय जारी हो गया है। मराठी भाषा में प्रकाशित
श्री पार्श्वनाथ ब्रह्मचर्याश्रम (गुरुकुल)एलोरा जिला औरंगाबाद इस शासन निर्णय क्रमांक आर.एम.एन./2003/1216/प्र.क्र.114/
| (महाराष्ट्र) में परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर सभागृह का नव 03/35 में जारी इस निर्णय में सूचित किया गया है कि राष्ट्रीय
निर्माण शुभारम्भ समारोह ध.श्री मान् अशोक कुमार जी पाटनी अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम 1992 के अनुसार केन्द्र शासन
(आर.के.मार्बल)मदनगंज-किशनगढ़ वालों की प्रेरणा से रविवार, ने मुस्लिम, ईसाई, सिक्ख, बौद्ध, एवं पारसी इन समाजों को
दिनांक 18-07-04, दोपहर-3 बजे श्री सुभाषसा केशरसा साहु 'अल्पसंख्यक समाज' सम्बोधित करके घोषित किया है। उसके
जी, जालना वालों की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। अनुसार राज्य के इन समाजों को अल्पसंख्यक समाज के लिए
संत शिरोमणी आचार्य पर्याप्त सुविधाएँ उपलब्ध हैं। राज्य के जैन समाज की ओर से उपर्युक्त पाँचों समाजों के समान ही इस समाज को भी 'अल्प
श्री विद्यासागर जी महाराज संख्यक समाज की घोषणा किए जाने के सम्बन्ध में माँग की
की शिष्या का सुयश गयी थी और शासन इस पर विचार कर रहा था। शासन ने इस
आचार्य श्री की आज्ञानुसार संस्कृत विषय सम्बन्ध में पर्याप्त सोचकर राज्य के जैन समाज को 'अल्पसंख्यक
में एम. ए. करने के लिए प्रतिभा मंडल समाज' घोषित करने का निर्णय लिया है।
से आयी शारदा सीमेंट पाइप फैक्ट्री वाले __ जैन समाज के विद्यार्थियों,संस्थाओं के शैक्षणिक एवं भाषिक
श्री रूपचन्द जी जैन की सुपुत्री ब्रह्म. उन्नयन के लिए लाभकारी इस निर्णय के प्रति महाराष्ट्र शासन
रश्मि (क्षमा दीदी) ने शास. स्ना. महाविद्यालय दमोह में अध्ययन
करते हुए संस्कृत के साथ प्राकृत तथा जैन विद्या वैकल्पिक वर्ग के माननीय मुख्यमंत्री, अल्पसंख्यक विभागीय मंत्री, महाराष्ट्र
स्वीकृत करके डॉ.भागेन्दु जी के संरक्षण में एम. ए. संस्कृत राज्य अल्पसंख्यक आयोग के साथ ही वे सभी जन बधाई के
2004 की परीक्षा में 86.6 प्रतिशत अंक अर्जित कर डॉ. हरीसिंह पात्र हैं जिन्होंने इस महत्वपूर्ण कार्य में सहयोग प्रदान किया है।
गौर विश्वविद्यालय सागर में प्रथम स्थान प्राप्त किया है। इस जैन समाज जबलपुर, प्रशासकीय प्रशिक्षण संस्थान, श्री पिसनहारी
उपलब्धि पर ब्र. रश्मि (क्षमा दीदी) को सभी शुभचिंतकों ने ट्रस्ट कमेटी, श्री नंदीश्वर द्वीप रचना समिति, जैन नवयुवक
शुभकामनाएं प्रेषित की। सभा,दयोदय तीर्थ कमेटी आदि अनेकों संस्थाओं द्वारा महाराष्ट्र
कु. नमिता दिनेशकुमार शासन के प्रति बधाईयाँ प्रेषित कर हर्ष व्यक्त किया है।
गंगवाल का सुयश नरेश गढ़वाल
औरंगाबाद के उद्योगपति श्री दिनेश कुमार अजित जैन, एडवोकेट, जबलपुर
जी गंगवाल की पुत्री तथा स्वतंत्रता संग्राम आवेदन पत्र आमंत्रित
सेनानी श्री पन्नालाल जी गंगवाल की पोती
कु. नमिता गंगवाल ने वर्ष 2004 की प्राशासकीय प्रशिक्षण संस्थान, पिसनहारी मढ़िया, जबलपुर
H.S.C. की परीक्षा में औरंगाबाद विभाग संस्थान के डायरेक्टर श्री अजित जैन एडवोकेट द्वारा जारी
में 85 प्रतिशत अंक प्राप्त कर 11वाँ मेरिट का स्थान प्राप्त कर विज्ञप्ति के अनुसार माह अक्टूबर 2004 के प्रारम्भ होने वाले
अपना एवं परिवार का तथा समाज का नाम रोशन किया। अतः नवीन सत्र के प्रवेश हेतु 15 अगस्त 2004 तक प्रशिक्षार्थियों
विविध संस्थाओं द्वारा अभिनंदन किया गया। कु. नमिता ने न द्वारा आवेदन पत्र मंगाए गए।
केवल स्कूल की पढ़ाई में प्रथम स्थान प्राप्त किया, बल्कि जीवन प्रतियोगी परीक्षा के प्रशिक्षार्थी गण, श्री मुकेश सिंघई, की अन्य कलाओं में भी राष्ट्रीय स्तर का यश सम्पादन किया है। अधीक्षक भारतवर्षीय श्री दिगम्बर जैन प्रशासकीय प्रशिक्षण विशेषकर चित्रकला में जापान अवार्ड मिला एवं सम्पूर्ण भारतवर्ष संस्थान,पाण्डुक शिला परिसर,पिसनहारी मढ़िया, गढ़ा जबलपुर में से 23 लाख छात्र-छात्राओं ने भाग लिया जिसमें नमिता को
। स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ । 32 जुलाई 2004 जिनभाषित
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गोमटेश प्रार्थना अष्टक
मुनि श्री आर्जवसागर जी
ऋषभदेव के योग्य पुत्र जो, कामदेव के पदधारी। त्याग राज्य को बने तपस्वी, पूर्ण हये वे अविकारी॥ भरतादिक नप चरणों में आ, संस्तुति कर नत माथ हुये। बाहुबली जी निर्विकल्प हो, चिन्मय गुण के साथ हुये॥
एक वर्ष उपवास नियम से, अडिग रूप हो ध्यान किया। भय ममता को छोड़ आपने, समता का रस पान किया। शुक्ल ध्यान की अग्नि से फिर, मोह शत्रु का नाश किया।
बने केवली बाहुबली जी, अक्षय सुख को प्राप्त किया। वीतरागमय गोमटेश ये, दिग्-अम्बर बन खड़े हुये। देवों से भी अतिशयकारी, महाकीर्ति से बड़े हुये॥ इस अम्बर की शोभाश्री को, मेरु सदृश बढ़ा रहे। स्वयं ध्यान की आभा से ये, शान्ति सुधा को बहा रहे ॥
बिन बोले सन्देश दे रहे. मोक्ष मार्ग का हे। स्वामी। पाप तजो सभी बनो मुमुक्षु, यही जगत को सुखनामी॥ जैन धर्म का मूल रहा जो, दया, शील को अपनाओ।
इन्द्रियविजयी श्रमणमार्ग से, ध्यानसिद्धि कर शिव पाओ॥ धर्मभाव से भरे यहाँ पर, लोग हजारों आते हैं। दर्शन पा वे गोमटेश का, समदर्शन अपनाते हैं। त्यागमयी ये मुद्रा लखके, स्वयं त्याग कुछ करते हैं। तव चरणों में ध्यान लगाते, आत्मिक सुख को पाते हैं।
बड़े पुण्य से बाहुबली जी तव दर्शन भविजन पाते। सब चिन्तायें विषय खेद को, भक्त भूल हैं वे जाते॥ उत्तम निर्मल भाव जगाते, संस्तुति करते गुण गाते।
अशुभ कर्म को धोते हैं जन, पुण्य खजाना वे पाते। गोमटेश जी तव दर्शन से, मन मेरा ना हटता है। नहीं लौट जाये प्रभु ऐसा, मम मानस यह कहता है। प्रतिमा में क्या मंत्र भरा जो, मुग्ध हमें कर लेता है। अद्भुत मनोज्ञ मूरत को यह हृदय खाँच भर लेता है।
धन्य हुये तुम अनुपम पद पा, अनंत गुण के धनी बने। सबदी परमेश्वर होकर, भव्य कमल को रवी बने। बाहुबली श्री गोमटेश जी, तब चरणों को नमता मैं। बन जाऊँ तुम सम में स्वामी, यही प्रार्थना करता मैं॥
J
education International
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________________ रजि नं.UPIHIN/29933/24/1/2001-TC डाक पंजीयन क्र.- म.प्र./भोपाल/588/2003-05 सम्यक-अनुप्रेक्षा महेन्द्र कुमार जैन सोच रहा मैनें तो भगवन,कुछ न पाप किया है। फिर भी क्यूं मुझको इस भव में,क्यं कर दण्ड दिया है। पर अनादि से संचित कर्मों का ही,पल तो पाया, नही सोच पाऊं मैं ऐसा, जिनवर जो बतलाया॥5॥ थोड़ी सी पीड़ा से प्रभु, मैं तो विचलित हो जाता, जिनवर का दर छोड़ के, मैं तो देवमढ हो जाता। वीत-राग जिनदेव को रागी, मान के पूजा करता, आश नहीं जब पूरी होती, तो मैं पलायन करता॥6॥ रागी-द्वेषी देव-कुदेव की मैं पूजन करता, शुभ्र चांदनी का पथ तज कर, मिथ्या पथ पर चलता। अपने कर्मों का ही लेखा, मुझे समझ नहीं आता, और जिनेद्र को दोष लगाकर, देवमूढ़ हो जाता॥7॥ निश्चल मन से सोचूं तब,पीड़ा से मन भर आता, दिव्य द्वार को तज कर मैं, क्यूं देवमूढ़ हो जाता। कुगुरु की संगत में करके, नाहक पाप कमाता, गंडा मुदरी तावीजों से,मन लांछित कर आता॥8॥ कैसे-कैसे महामुनी,जिन सहे उपसर्ग घनेरे, नहीं किया पर दोषारोपण, कर्म विपाक हैं मेरे। जिन श्रद्वा से किंचित भी,न उनने मन को फेरा, अडिग रहे,निज आत्मलीन हो, मेट लिया भव फेरा॥9॥ आओ विचारें उनकी गाथा, जिन उपसर्ग सहे हैं, कालजयी वे बने सभी, जिन सम्यक मार्ग गहे हैं। काल भी जिनसे हार गया, ऐसे वे आत्मध्यानी, मुक्ति-वधू के कंत बने, ऐसे वे भेदविज्ञानी // धन्य धन्य वे महामुनि, कोल्हू में जो पिल जाते, अभिनन्दन आदि मुनिवर, सव पंच सहस है आते। पंक्तिबद्ध चलते आते, कोल्हू में जो पिलते जाते, हम विचार से ही घबड़ाते, पर वे न घबड़ाते॥11॥ नहीं क्रोध, नहीं क्षोभ, नहीं आक्षेप किसी पर करते, शांत भाव से कर्मोदयफल मान,निर्जरा करते। वे बड़भागी महाव्रती तब, निज स्वरूप में रमण करें, ऐसे ही उपसर्ग विजेता, मोक्ष-लक्ष्मी वरण करें 12 // S-599, नेहरूनगर, भोपाल स्वामित्व एवं प्रकाशक, मुद्रक :रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, जोन-1, महाराणा प्रताप नगर, |.Jain Education Internaभोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित। POmPrivate arrersonar use only