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________________ ही विद्वत् वर्ग का ही कोई महत्त्वपूर्ण स्थान है। आज जैनधर्म की | गृहस्थ वर्ग को श्रमणसंघ के प्रहरी के रूप में उद्घोषित किया सभी शाखाओं ने समाज पर, समाज पर ही क्या कहें, मुनिवर्ग | था। यदि हम सूदूर अतीत में न जाकर केवल अपने निकट पर भी धनबल और सत्ताबल का ही प्राधान्य है। महावीर के युग अतीत को ही देखें, तो यह स्पष्ट है कि आज गृहस्थ ने केवल में और मध्यकाल में भी उन्हीं श्रावकों का समाज पर वर्चस्व | अपने कर्तव्यों और दायित्वों को भूल बैठा है, बल्कि वह अपनी था, जो संघीय हित के लिए तन-मन-धन से समर्पित होते थे। अस्मिता को भी खो बैठा है। आज यह समझा जाने लगा है कि फिर वे चाहे सम्पत्तिशाली हों या आर्थिक अपेक्षा से निर्धन ही धर्म और संस्कृति का संरक्षण तथा आध्यात्मिक साधना सब क्यों न हों। आज हम यह देखते हैं कि समाज के शीर्षस्थानों पर कुछ श्रमण संस्था का कार्य है, गृहस्थ तो मात्र उपासक है। वे ही लोग बैठे हुए हैं, जिनकी चारित्रिक निष्ठा पर अनेक उसके कर्तव्यों की इतिश्री साधु साध्वियों को दान देने अथवा प्रश्नचिह्न लगे हुए हैं। उनके द्वारा निर्देशित संस्था को दान देने तक सीमित है। आज यदि हम तुलनात्मक दृष्टि से विचार करें, तो ऐसा लगता है हमें इस बात का अहसास करना होगा कि जैनधर्म की संघकि महावीर के युग की अपेक्षा आज आत्मनिष्ठ गृहस्थ साधकों व्यवस्था में हमारा क्या और कितना गरिमामय स्थान है? चर्तुविध की संख्या में कमी आई है। यदि हम महावीर के युग की बात संघ के चार पायों में यदि एक भी पाया चरमराता या टूटता है, करते हैं, तो वह बहुत पुरानी हो गई, यदि निकटभूत अर्थात् तो दूसरे का अस्तित्व भी निरापद नहीं रह सकता है। यदि उन्नीसवीं शती की बात को ही लें, तो ईस्ट इण्डिया कम्पनी के श्रावक अपने दायित्व और कर्त्तव्य को विस्मृत करता है, तो संघ काल के जो समाज आधारित आपराधिक आंकडे हमें उपलब्ध के अन्य घटकों का अस्तित्व भी निरापद नहीं रह सकता। आज होते हैं उनका विश्लेषण किया जाए तो स्पष्ट लगता है कि उस के साधुवर्ग और श्रावकवर्ग के पारस्परिक सम्बन्धों को देखकर युग में जैनों में आपराधिक प्रवृत्ति का प्रतिशत लगभग शून्य था। यह शेर बरबस याद आता है- "हम तो डूबेंगे सनम, तुम्हें भी यदि हम आज की स्थिति देखें, तो छोटे-मोटे अपराधों की बात ले डूबेंगे"। चाहे यह बात कहने में कठोर हो लेकिन एक स्पष्ट तो एक ओर रख दें, देश के महाअपराधों की सूची पर ही दृष्टि सत्य है कि आज का हमारा श्रमण और श्रमणीवर्ग शिथिलाचार डालें तो चाहे घी में चर्बी मिलाने का काण्ड हो, चाहे अलकबीर में आकण्ठ डूबता जा रहा है। यहाँ मैं किसी सम्प्रदाय-विशेष के कारखाने में तथाकथित जैन-भागीदारी का प्रश्न हो अथवा की बात नहीं कर रहा हूँ और न मेरा यह आक्षेप उन पूज्य बड़े-बड़े आर्थिक घोटाले हों, हमारी साख कहीं न कहीं गिरी | मुनिवृन्दों के प्रति है जो निष्ठापूर्वक अपने चारित्र का पालन है। एक शताब्दी पूर्व तक सामान्य जनधारणा यह थी कि | करते हैं यहाँ मेरा इशारा एक सामान्य स्थिति से है। आपराधिक प्रवृत्तियों का जैन समाज से कोई नाता रिश्ता नहीं | यह सत्य है कि अन्य वर्गों की अपेक्षा जैन श्रमण संस्था है, लेकिन आज की स्थिति यह है कि आपराधिक प्रवृत्तियों के | कहीं न कहीं एक आदर्श प्रतीत होती है, फिर भी यदि हम सरगनाओं में जैन समाज के लोगों के नाम आने लगे हैं। इससे | उसके अन्तस में झाँककर देखते हैं तो कहीं न कहीं हमें हमारे लगता है कि वर्तमान युग में हमारी ईमानदारी और प्रामाणिकता | आदर्श और निष्ठा को ठेस तो अवश्य लगती है। आज जिन्हें हम पर अनेक प्रश्न चिह्न लग चुके हैं तब की अपेक्षा अब अणुव्रतों आदर्श और वन्दनीय मान रहे हैं, उनके जीवन में छल-छद्म, के पालन की आवश्यकता अधिक है। दुराग्रह और अहम् के पोषण की प्रवृत्तियाँ तथा वासना के ___एक युग था जब श्रावक से तात्पर्य व्रती श्रावक ही होता था। | जीवन के प्रति ललक को देखकर मन पीड़ा से भर उठता है। तीर्थंकरों के युग में जो हमें श्रावकों की संख्या उपलब्ध होती है | किन्तु उनके इस पतन का उत्तरदायी कौन है, क्या वे स्वयं ही वह संख्या श्रद्धाशील श्रावकों की संख्या नहीं, बल्कि व्रती हैं? वास्तविकता यह है कि उनके इस पतन का उत्तरदायित्व श्रावकों की है। किन्तु आज स्थिति बिल्कुल बदलती हुई नजर हमारे श्रावक वर्ग पर भी है। या तो हमने उन्हें इस पतन के मार्ग आती है, यदि आज हम श्रावक का तात्पर्य ईमानदारी एवं | की ओर अग्रसर किया है या कम से कम उसके सहयोगी बने निष्ठापूर्वक श्रावक व्रतों के पालन करने वालों से लें, तो हम यह हैं। साधु-साध्वियों में शिथिलाचार, संस्थाओं के निर्माण की पाएँगे कि उनकी संख्या हमारे श्रमण और श्रमणीवर्ग की अपेक्षा प्रतिस्पर्धा और मठवासी प्रवृत्तियाँ आज जिस तेजी से बढ़ रही कम ही होगी। यद्यपि यहाँ कोई कह सकता है कि व्रत ग्रहण हैं, वह मध्यकालीन चैत्यवासी और भट्टारक परम्परा, जिसकी करने वालों के आँकड़े तो कहीं अधिक है, किन्तु मेरा तात्पर्य हम आलोचना करते नहीं अघाते, उससे भी कहीं आगे हैं। हमें मात्र व्रत ग्रहण करने से नहीं, किन्तु उसका परिपालन कितनी | यह नहीं भूलना चाहिए कि साधु-साध्वियों में जो शिथिलाचार ईमानदारी और निष्ठा से हो रहा है इस बात से है। महावीर ने | बढ़ा है वह हमारे सहयोग से ही बढ़ा है। यह सत्य है कि आज 10 जुलाई 2004 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524287
Book TitleJinabhashita 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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