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________________ महावीर का श्रावक वर्ग तब और अब : एक आत्मविश्लेषण प्रो. सागरमल जैन लेखक जैन जगत् के सुप्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् हैं। आप सन् 1978 तक शा. स्नातकोत्तर हमीदिया महाविद्यालय भोपाल में दर्शन विभाग में अध्यक्ष थे। तत्पश्चात् बीस वर्ष तक प्राचीनतम जैन शोध संस्थान पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी में निदेशक पद पर आसीन रहे। आप अच्छे चिन्तक और लेखक हैं। आपकी लेखनी से अनेक शोधग्रन्थ प्रसूत हुए हैं। प्रस्तुत लेख में आपने श्रावक के बदलते स्वरूप का गहराई से विश्लेषण किया है, जो विचारों को उद्वेलित करता है। सम्पादक प्रस्तुत आलेख में हमारा प्रतिपाद्य भगवान् महावीर की श्रावक । की सुरक्षा की, अपितु अपने त्याग से संघ और समाज की सेवा संस्था की वर्तमान परिप्रेक्ष्य में समीक्षा करना है। भी की। यदि हम वर्तमान काल में जैनधर्म में गृहस्थ वर्ग के जैन धर्म निवृत्तिपरक धर्म है। संन्यास की अवधारणा स्थान और महत्त्व के सम्बन्ध में विचार करें, तो आज भी स्पष्ट निवृत्तिपरक धर्मों का हार्द है। इस आधार पर सामान्यतया यह रूप से ऐसा लगता है कि जैन धर्म के संरक्षण और विकास की माना जाता रहा है कि निवृत्तिमार्गीय श्रमण परम्परा में गृहस्थ का अपेक्षा से आज भी गृहस्थ वर्ग का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सम्पूर्ण वह स्थान नहीं रहा, जो कि प्रवृत्तिमार्गीय हिन्दू परम्परा में उसे भारत में एक प्रतिशत जनसंख्या वाला यह वर्ग समाज-सेवा प्राप्त था। प्रवृत्तिमार्गीय परम्परा में गृहस्थ आश्रम को सभी और प्राणी सेवा के क्षेत्र में आज भी अग्रणी स्थान रखता है। देश आश्रमों का आधार माना गया था। यद्यपि श्रमणपरम्परा में संन्यास में जनता के द्वारा संचालित जनकल्याणकारी संस्थाओं अर्थात् धर्म की प्रमुखता रही, किन्तु यह समझ लेना भ्रांतिपूर्ण होगा कि विद्यालय, महाविद्यालय, चिकित्सालय, गोशालाएँ, पांजरापोल, उसमें गृहस्थ धर्म उपेक्षित रहा। वे श्रमण परम्पराएँ जो, संघीय | अल्पमूल्य की भोजनशालाओं आदि की परिगणना करें, तो यह व्यवस्था को लेकर विकसित हुईं,उनमें गृहस्थ या उपासक वर्ग | स्पष्ट है कि देश में लगभग 30 प्रतिशत लोकसेवी संस्थाएँ जैन को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। भारतीय श्रमण परम्परा में | समाज के द्वारा संचालित हैं। एक! जैन, बौद्ध आदि ऐसी परंपराएँ थीं, जिन्होंने संघीय साधना को | समाज यदि 30 प्रतिशत की भागीदारी देता है, तो उसके महत्त्व महत्त्व दिया। भगवान् महावीर ने अपनी तीर्थ स्थापना में श्रमण, को नकारा नहीं जा सकता। एक दृष्टि से देखें तो महावीर के युग श्रमणी, श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ की स्थापना से लेकर आज तक जैनधर्म, जैनसमाज और जैनसंस्कृति के की। भगवान् महावीर की परम्परा में ये चारों ही धर्मसंघ के संरक्षण का महत्त्वपूर्ण दायित्व श्रावक वर्ग ने ही निभाया है, प्रमुख स्तम्भ माने जाते हैं। उन्होंने अपनी संघ व्यवस्था में चाहे उसे प्रेरणा और दिशाबोध श्रमणों से प्राप्त हुआ हो। इस गृहस्थ उपासक एवं उपासिकाओं को स्थान देकर उनके महत्त्व प्रकार सामान्य दृष्टि से देखने पर महावीर के युग और आज के को स्वीकार किया है। महावीर की संघव्यवस्था साधना के क्षेत्र | युग में कोई विशेष अंतर प्रतीत नहीं होता है। में स्त्रीवर्ग और गृहस्थवर्ग दोनों के महत्त्व को स्पष्ट रूप से __ किन्तु जहाँ चारित्रिक निष्ठा के साथ सदाचारपूर्वक नैतिक स्वीकार करती है। आचार का प्रश्न है, आज स्थिति कुछ बदली हुई प्रतीत होती भगवान् महावीर ने अपने धर्ममार्ग में साधना एवं संघ व्यवस्था है। महावीर के युग में गृहस्थ साधकों में धनबल और सत्ताबल की दृष्टि से गृहस्थ को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया था। यदि मध्यवर्ती की अपेक्षा चारित्रबल अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता था। वर्तमान युगों को देखें तो यह बात अधिक सत्य प्रतीत होती है, क्योंकि संघीय व्यवस्था में गृहस्थवर्ग का महत्त्वपूर्ण स्थान तो स्वीकार मध्ययुग में भी जैनधर्म और संस्कृति को सुरक्षित रखने में | किया जाता है, किन्तु इन बदली हुई परिस्थितियों में चारित्र बल गृहस्थवर्ग का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने न केवल भव्य की अपेक्षा गृहस्थ का धनबल और सत्ताबल ही प्रमुख बन गया जिनालय बनवाये और ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ करवाकर साहित्य । है। समाज में न तो आज चारित्रवान् श्रावकसाधकों का और न जुलाई 2004 जिनभाषित १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524287
Book TitleJinabhashita 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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