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________________ गोमटेश प्रार्थना अष्टक मुनि श्री आर्जवसागर जी ऋषभदेव के योग्य पुत्र जो, कामदेव के पदधारी। त्याग राज्य को बने तपस्वी, पूर्ण हये वे अविकारी॥ भरतादिक नप चरणों में आ, संस्तुति कर नत माथ हुये। बाहुबली जी निर्विकल्प हो, चिन्मय गुण के साथ हुये॥ एक वर्ष उपवास नियम से, अडिग रूप हो ध्यान किया। भय ममता को छोड़ आपने, समता का रस पान किया। शुक्ल ध्यान की अग्नि से फिर, मोह शत्रु का नाश किया। बने केवली बाहुबली जी, अक्षय सुख को प्राप्त किया। वीतरागमय गोमटेश ये, दिग्-अम्बर बन खड़े हुये। देवों से भी अतिशयकारी, महाकीर्ति से बड़े हुये॥ इस अम्बर की शोभाश्री को, मेरु सदृश बढ़ा रहे। स्वयं ध्यान की आभा से ये, शान्ति सुधा को बहा रहे ॥ बिन बोले सन्देश दे रहे. मोक्ष मार्ग का हे। स्वामी। पाप तजो सभी बनो मुमुक्षु, यही जगत को सुखनामी॥ जैन धर्म का मूल रहा जो, दया, शील को अपनाओ। इन्द्रियविजयी श्रमणमार्ग से, ध्यानसिद्धि कर शिव पाओ॥ धर्मभाव से भरे यहाँ पर, लोग हजारों आते हैं। दर्शन पा वे गोमटेश का, समदर्शन अपनाते हैं। त्यागमयी ये मुद्रा लखके, स्वयं त्याग कुछ करते हैं। तव चरणों में ध्यान लगाते, आत्मिक सुख को पाते हैं। बड़े पुण्य से बाहुबली जी तव दर्शन भविजन पाते। सब चिन्तायें विषय खेद को, भक्त भूल हैं वे जाते॥ उत्तम निर्मल भाव जगाते, संस्तुति करते गुण गाते। अशुभ कर्म को धोते हैं जन, पुण्य खजाना वे पाते। गोमटेश जी तव दर्शन से, मन मेरा ना हटता है। नहीं लौट जाये प्रभु ऐसा, मम मानस यह कहता है। प्रतिमा में क्या मंत्र भरा जो, मुग्ध हमें कर लेता है। अद्भुत मनोज्ञ मूरत को यह हृदय खाँच भर लेता है। धन्य हुये तुम अनुपम पद पा, अनंत गुण के धनी बने। सबदी परमेश्वर होकर, भव्य कमल को रवी बने। बाहुबली श्री गोमटेश जी, तब चरणों को नमता मैं। बन जाऊँ तुम सम में स्वामी, यही प्रार्थना करता मैं॥ J education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524287
Book TitleJinabhashita 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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