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________________ होते हैं, क्योंकि गर्भजों में लब्धपर्याप्तक नहीं होते। इस प्रकार बोध-कथा गर्भज संज्ञी व असंज्ञी कर्मभूमिज तिर्यंचों में इस प्रकार गर्भज खुशामद का फल संज्ञी व असंज्ञी कर्मभूमिज तिर्यंचों में बारह जीवसमास होते हैं। अमेरिका के प्रसिद्ध व्यवसायी राकफेलर बहुत धनाड्य थे।। अर्थात् लब्धपर्याप्तक नहीं होते। अर्थात् सैनी गर्भज जलचर, जिस प्रभूत मात्रा में उनके पास धन था, उतना ही विशाल था उनका थलचर, नभचर तथा असैनी गर्भज जलचर, थलचर, नभचर ये हृदय भी। जरूरत मन्द लोगों तथा समाज सेवी संस्थाओं को दान छह भेद हुए। इनको पर्याप्त एवं निवृत्यपर्याप्त इन दो से गुणा देने में वे कभी हिचकिचाते नहीं थे। उनकी प्रसिद्धि एक दानवीर करने पर 12 जीवसमास हुए। के रूप में फैल गई थी। उपरोक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि असैनी पंचेन्द्रिय किन्तु उन्हें खुशामद पसन्द नहीं थी। एक आदमी ने सोचा कि श्री राकफेलर बहुत बड़े दानी हैं। सम्मूर्च्छन तथा गर्भज दोनों प्रकार के होते हैं, जिनमें गर्भज तो चलो अवसर का लाभ उठाया जाय। उनके पास जाकर उनकी तीनों वेद वाले होते हैं और सम्मूर्च्छन केवल नपुंसक वेद वाले थोड़ी प्रशंसा करके कुछ धन प्राप्त किया जाय। यह सोचकर वह ही होते हैं। राकफेलर के पास आ पहुँचा और लगा उनकी खुशामद करने, प्रश्नकर्ता : अखिलेश जैन, फिरोजाबाद प्रशंसा के पुल बाँधने लगा - जिज्ञासा: सभी देवियाँ प्रथम कल्प में होती हैं तो क्या "आपके जैसा दानवीर तो सारे अमेरिका में नहीं है। जहाँ भी सोलहवें स्वर्ग में ले जायी जाने वाली देवियों की भी लेश्या पीत जाओ, आपकी दानवीरता की प्रशंसा सुनने को मिलती है। मैं बड़ी ही रहती है या शुक्ल हो जाती है? दूर से यहाँ आया हूँ रास्ते में जगह-जगह आपकी ही प्रशंसा सुनने समाधान : गोम्मटसार जीवकांड गाथा 546 में इस प्रकार को मिली आपके समान।" "ठहरिए महाशय, एक बात बताइए। आप जिस मार्ग से आए कहा है: हैं उसी मार्ग से लौटेंगे अथवा किसी अन्य मार्ग से?" राकफेलर तेउस्साय सट्ठाले लोगस्स असंख्यभागमेत्तं तु। को उस व्यक्ति द्वारा की जा रही अपनी खुशामद कतई अच्छी नहीं अउचोद्दसभागा वा देसूणा होंति णियमेण ॥546॥ लग रही थी। अत: उन्होंने बोलते-बोलते बीच में ही रोककर अर्थ : पीत लेश्या का स्वस्थानस्वस्थान की अपेक्षा लोक उपरोक्त प्रश्न पूछा। का असंख्यातवां भाग स्पर्श है और विहारवत्स्वस्थान की अपेक्षा | उस व्यक्ति ने उत्तर दिया- "मैं उसी मार्ग से लौटूंगा जिधर से कुछ कम आठ बटा चौदह भाग (8/14) स्पर्श है। आया हूँ। बताइए, यदि आपका कोई काम हो तो उसे करके मुझे विशेषार्थ : यहाँ विहारवत् स्वस्थान की अपेक्षा कुछ कम बड़ी प्रसन्नता होगी।" आठ राजू स्पर्श कहा है क्योंकि तीसरे नरक तक विहार करते "हाँ, एक काम है", राकफेलर ने कहा, "रास्ते में जिस-जिस आदमी ने मेरी तारीफ की उन सभी को कृपया कहते जाइये कि हुए तेजो लेश्या वाले देवों का नीचे 2 राजू और ऊपर 16 वें राकफेलर कोई दानवीर आदमी नहीं है। लोग उसकी झूठी प्रशंसा स्वर्ग तक 6 राजू इसप्रकार 8 राजू क्षेत्र का स्पर्श पाया जाता है। करते हैं। देखिए, उसने मुझे एक फूटी कौड़ी भी नहीं दी।" । यहाँ कोई शंका करता है कि ऊपर 16 वें स्वर्ग में पीतलेश्या "मेरा इतना काम आप ही कर दीजिएगा।""नमस्कार।" नहीं है मात्र शुक्ल लेश्या है। फिर ऊपर 6 राजू स्पर्श कैसे संभव अपना-सा मुँह लिए वह खुशामदी आदमी खाली हाथ लौट है। इसका समाधान यह है कि 16 वें स्वर्ग के देवों की नियोगिनी गया। देवियाँ सौधर्म युगल से उत्पन्न होती हैं और उनके पीत लेश्या ही होती है। 16 वें स्वर्ग तक के देव अपनी नियोगिनी देवियों अवश्य मंगवायें को अपने विमानों में ले जाते हैं। पुस्तक का नाम भक्ति संस्कार सौरभ श्री देवसेनाचार्य विरचित तत्त्वसार के श्लोक नं. 22 की संस्करण द्वितीय, जुलाई 2004, पृष्ठ-160 लागत मूल्य ____12.00 रुपये टीका में इस प्रकार कहा है। "इन सर्व देवियों के मध्यम पीत विक्रय मूल्य 6.00 रुपये लेश्या होती है।" डाकखर्च 2.00 रुपये उपरोक्त प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि सभी देवियों के पीत विषय प्रार्थना, देववंदना, शास्त्र वंदना, गुरुवंदना, लेश्या ही होती है। और उनके 16 वें स्वर्ग में भी ले जाये जाने प्रमुख ग्रन्थ पाठ, प्रमुख स्तोत्र पाठ, आध्यात्मिक भजन, आचार्य वंदना आदि पर लेश्या नहीं बदलती है। सम्पर्क सूत्र : 1/205, प्रोफेसर कालोनी, ब. भरत जैन आगरा (उ.प्र.) आचार्य ज्ञानसागर ग्रन्थमाला, श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान वीरोदय नगर, सांगानेर, जयपुर (राज.) फोन नं. 0141-2730552, 3418497 30 जुलाई 2004 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524287
Book TitleJinabhashita 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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