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________________ पाने की इच्छा करना निदान कहलाता है। सर्वार्थसिद्धि 7/37 में | समाधान : उपरोक्त चारों संवतों में सबसे नवीन शक संवत् इस प्रकार कहा है - है। इससे प्राचीन ईसवी सन है। उससे प्राचीन विक्रम संवत् है भोगाकांक्षा नियतुं दीयते चित्तं तस्मिस्तेनेति वा निदानम्। और सबसे प्राचीन वीर निर्वाण संवत् है। अत: इनको परस्पर में भोगाकांक्षा से जिसमें या जिसके कारण चित्त नियम से दिया | निकालने के लिए शक संवत् में 77 जोड़ने पर ईसवी सन् जाता है वह निदान है। निकलता है। ईसवी सन् में 57 जोड़ने पर विक्रम संवत् निकल निदान के दो भेद हैं, अप्रशस्त निदान तथा प्रशस्त निदान।। आता है। तथा विक्रम संवत् में 470 जोड़ने पर वीर निर्वाण अप्रशस्त निदान दो प्रकार है संवत् निकलता है। उदाहरण : यदि किसी ग्रन्थ का रचना काल 1. भोगार्थ निदान - देव, मनुष्यों में प्राप्त होने वाले भोगों शक संवत् 105 लिखा हो तो उस काल को 77 करने पर 182 की अभिलाषा करना, स्त्रीपना, धनिकपना, श्रेष्ठीपद, नारायण, | ईसवी सन् मानना चाहिए तथा इसी में 57 जोड़ने पर अर्थात चक्रवर्तीपना आदि की भोगों के लिए अभिलाषा करना यह | 182+ 57 = 239 विक्रम संवत् मानना चाहिए और इसमें 470 भोगार्थ अप्रशस्त निदान है। किसी राजा, श्रेष्ठी, महारानी आदि | जोड़ने पर 239+470 = 709 वीर निर्वाण संवत् मानना चाहिए। को सुखों का उपभोग करते हुए देखकर इच्छा करना कि मेरे प्रश्नकर्ता : पं. महेशचन्द्र जैन, भिण्ड पूजा, तप, व्रत आदि का फल हो तो मैं भी ऐसा बनूं आदि जिज्ञासा : पं. मोहनलाल शास्त्री द्वारा संपादित तत्त्वार्थसूत्र भोगार्थ निदान है। में असैनी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का नियम से सम्मूर्च्छन जन्म होता 2. मानार्थ निदान : अभिमान के वश होकर उत्तम जाति, है, ऐसा लिखा है, तो क्या वे सभी नपुंसक होते हैं? कुल की अभिलाषा करना, आचार्यपद, गणधरपद, तीर्थंकर | समाधान : असैनी पंचेन्द्रिय जीव गर्भज और सम्मूर्च्छन पद, सौभाग्य, आज्ञा और सुन्दरता इनकी प्रार्थना करना, क्रुद्ध | दोनों प्रकार के होते हैं। जो सम्मूर्च्छन होते हैं वे तो नियम से होकर मरण समय में शत्रु वध आदिक की इच्छा करना मानार्थ | नपुंसक ही होते हैं और जो गर्भज होते हैं वे तीनों वेद वाले होते निदान है। हैं। पं. मोहनलाल शास्त्री द्वारा सम्पादित मोक्षशास्त्र का जो 3. प्रशस्त निदान : पौरुष, शारीरिक बल, वीर्यान्तराय कर्म | विषय आपने प्रश्न में लिखा है, वह गलत है कृपया सुधार का क्षयोपशम होने से उत्पन्न होने वाला दृढ़ परिणाम, वज्रवृषभ लीजिएगा। कुछ प्रमाण इस प्रकार हैं - नाराच संहनन आदि संयम साधक सामग्री मुझे प्राप्त हों यह 1. श्री धवना पुस्तक, 1 पृष्ठ 346 पर इस प्रकार कहा है: प्रशस्त निदान है। मेरे दुःखों का नाश हो, मेरे कर्मों का नाश हो, "तिरिक्खा तिवेदा असण्णि पंचिन्दिय-प्पहुदिजाव संजदामेरे समाधिमरण हो, मुझे रत्नत्रयरूप बोधि की प्राप्ति हो, ये संजदात्ति" 107॥ मोक्ष के कारण भूत प्रशस्त निदान हैं। जिनधर्म को भलीभांति से अर्थ-तिर्यंच असंज्ञी पंचेन्द्रिय से लेकर संयतासंयत गणस्थान पालन कर सकें इसलिए हमारा जन्म आगामी भव में बड़े कुटुम्ब | तक तीनों वेदों से युक्त होते हैं। (यदि सभी असैनी पंचेन्द्रिय में न हो क्योंकि कुटुम्ब की विडम्बना से धर्म साधन में बाधा | सम्मूर्च्छन ही होते तो वे तीनों वेदों से युक्त नहीं हो सकते हैं होती है। धनिक व राजा के महारम्भी परिग्रही होने से धर्म क्योंकि सम्मूर्च्छन जीव तो नियम से नपुंसक ही होते हैं) साधन के भाव नहीं होते, इसीलिए आगे मेरा जन्म उत्तम कुल, 2. श्री मूलाचार गाथा 1132 में इस प्रकार कहा है - जाति वाले मध्यम दर्जे के परिवार में हो। यह भी प्रशस्त निदान पंचेदिया दु सेसा सण्णि असण्णीय तिरिय मणुसा य। कहा जाता है। उपरोक्त में से अप्रशस्त निदान सर्वथा हेय है। ते होंति इत्थिपुरिसा णपुंसगा चावि वेदेहिं ।।1132।। गृहस्थ को कदाचित् उपरोक्त प्रशस्त निदान प्रयोजनवान् हैं।। अर्थः शेष संज्ञी और असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा मनुष्य ये मुनिराज तो दु:खों का नाश हो, कर्मों का नाश हो आदि प्रार्थना | वेदों की अपेक्षा स्त्री, पुरुष और नपुंसक भी होते हैं। 1132 ॥ करते हैं और यह भी जानते हैं रत्नत्रय की आराधना से किसी। 3. जीवकाण्ड गाथा 79 में इस प्रकार कहा गया है : भी प्रकार का निदान न करने पर भी, अन्य जन्म में निश्चय से इगिवण्णं इगिविगले असण्णिसण्णिगयजलथलखगाणं। पुरुषत्व व संयम आदि की प्राप्ति होती ही है। निदान के विशेष गब्भभवे सम्मुच्छे दुतिगं भोगथलखचरे वो दो।79॥ विवरण के लिए भगवती आराधना गाथा 1216/1226 तथा अर्थ : एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों के इक्कावन (51), अमितगति श्रावकाचार अधिकार-7. श्लोक नं. 20 से 46 तक पंचेन्द्रियतिर्यंचों में जलचर, थलचर और नभचर के संज्ञी व देखने का कष्ट करें। असंज्ञियों में गर्भज के दो और सम्मूर्च्छन के तीन भेद तथा भोग प्रश्नकर्ता : श्रीमती सुरेखा दोषी, बारामती - भूमिज थलचर और नभचर के दो-दो भेद होते हैं ।।79॥ जिज्ञासा : वीर निर्वाण संवत्, विक्रम संवत्, शक संवत् | विशेषार्थ : यहाँ जलचर, थलचर और नभचर के संज्ञी व तथा सन् में कितना अंतर रहता है? असंज्ञियों में गर्भज के पर्याप्त व निवृत्य-पर्याप्त ऐसे दो-दो भेद जुलाई 2004 जिनभाषित 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524287
Book TitleJinabhashita 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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