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________________ शरीर रचना जीवनभर बदलती नहीं है, इसीलिए भाववेद भी | अथवा नामकर्मोदय से उत्पन्न स्तन-जघन-योनिविशिष्ट शरीर एक पर्याय में कभी बदल नहीं सकता। यही बात पुरुष व | स्त्रीवेद कहलाता है - नपुंसक वेदोदय की है" (सिद्धान्त समीक्षा, भाग 3, पृष्ठ "इत्थिवेददव्वकम्मजणिदपरिणामो किमित्थीवेदो 188-189) वुच्चदिणामकम्मोदय जणिदथणजहणजोणिविसिट्ठसरीरं प्रोफेसर सा. आगे लिखते हैं "शरीर की स्त्रीपुरुषरूप वा?" (पु.7, पृष्ठ 79) रचना के लिए क्रमशः स्त्री व पुरुषवेद-विशिष्ट जीव निमित्तरूप इन वक्तव्यों में भाववेद की सहकारिता के बिना. केवल से कारणीभूत होता ही है। अत एव कोई भी द्रव्यवेद अपने अंगोपांग-नामकर्म के उदय को द्रव्यवेद की रचना का हेतु भाववेद के बिना उत्पन्न नहीं हो सकता एवं भव के प्रथम बतलाया गया है। अतः श्री केशव वर्णी ने जो गोम्मटसार समय से जीव के जो भाववेद होगा, वह अपने ही अनुरूप | जीवकाण्ड की 271 वीं गाथा की टीका में कहा है कि भाववेद द्रव्यवेद की रचना करके व्यक्तरूप से उदय में आवेगा" (वही, और अंगोपांगनाम कर्म दोनों के उदय से द्रव्यवेद की रचना भाग 3, पृष्ठ 190-191)। होती है, वह आगमानुकूल नहीं है। अतः उस पर आधारित प्रोफेसर सा.अपना कथन निम्न शब्दों में जारी रखते हैं, प्रो. हीरालाल जी की मान्यता भी आगमविरुद्ध ठहरती है। श्री "वेदरूप भाव के अनुसार ही पुरुष-स्त्रीरूप जातियाँ उत्पन्न | केशव वर्णी ने अन्यत्र भी आगमविरुद्ध कथन किये हैं, जैसे होती है और उनकी जो द्रव्यरचना प्रतिनियत है, वही उनके उन्होंने द्रव्यमानुषी को भी क्षायिकसम्यक्त्व की प्राप्ति बतलायी त एव वेदवैषम्य कर्मसिद्धान्त व्यवस्था से | है। उसे केवल द्वितीयोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति के अयोग्य सिद्ध नहीं होता, चाहे उसके उल्लेख दिगम्बर ग्रन्थों में हों बतलाया है (जी.त.प्र./गो.जी., गा. 714)। और चाहे श्वेताम्बर ग्रन्थों में। फलतः यदि तीनों भाववेदों से वस्तुतः जीव के जिन परिणामों से पंवेदादि नोकषायक्षपकश्रेणी-आरोहण इष्ट है, तो तीनों द्रव्यवेदों से मुक्ति के | वेदनीय कर्मों का बन्ध होता है,उन्हीं से शिश्न-स्तन-योनि प्रसंग से बचा नहीं जा सकता" (वही, भाग 3, पृष्ठ 191) | आदि उपांगों की रचना के निमित्तभूत शिश्नादि-उपांगनामकर्म, यद्यपि श्री केशव वर्णी ने गोम्मटसार जीवकाण्ड की | योनिस्तनादि-उपांगनामकर्म तथा शिश्नयोन्यादि-अभाव रूप271 वीं गाथा की टीका में उपर्युक्त बात लिखी है, तथापि वह । | उपांगनामकर्म का बन्ध होता है। इस प्रकार इन नामकर्मों में ही आगमसम्मत नहीं है, क्योंकि उक्त गाथा में जो कहा गया है, शिश्न-योन्यादि द्रव्यवेदों की रचना के बीज अन्तर्निहित होते वह इस प्रकार है हैं। अत: उनकी रचना में अंगोपांगनामकर्म स्वयं समर्थ है। पुरूसिच्छिसंढवेदोदयेण पुरिसित्थिसंढवो भावो। उसके लिए भाववेद के उदय की सहकारिता आवश्यक नहीं णामोदयेण दव्वे पाएण समा कहिं विसमा॥ है। इसलिए "भाववेद के समान ही द्रव्यवेद की रचना होती है ___ अर्थ - पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद नामक चारित्र | अतः कर्मसिद्धान्त व्यवस्था में वेदवैषम्य सिद्ध नहीं होता", मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के उदय से पुरुषभाववेद, स्त्रीभाववेद | प्रो. हीरालाल जी की यह मान्यता आगमविरुद्ध ठहरती है। और नपुंसकभाववेद का उदय होता है तथा नामकर्म के उदय | गतियों के प्रशस्तादिस्वरूप के निमित्त से से पुरुषद्रव्यवेद, स्त्रीद्रव्यवेद और नपुंसकद्रव्यवेद की रचना प्रशस्तादि भाववेद का उदय होती है। भाववेद के अनुरूप द्रव्यवेद की रचना की मान्यता इस गाथा में स्पष्ट कहा गया है कि केवल अंगोपांग इसलिए भी आगमसम्मत सिद्ध नहीं होती कि स्वयं भाववेद नामकर्म के उदय से शिश्न, योनि, स्तन अथवा इनके अभावरूप | का उदय मनुष्यादि गतियों के प्रशस्त, अप्रशस्त और अप्रशस्ततर द्रव्यवेद की रचना होती है। उसमें भाववेद के उदय का कोई | भेदों के उदय पर आश्रित होता है और ये भेद द्रव्यवेद के योगदान नहीं रहता। सर्वार्थसिद्धि में भी कहा गया है- प्रशस्त, अप्रशस्त और अप्रशस्ततर रूपों पर आश्रित होते हैं। "द्रव्यलिङ्ग योनिमेहनादि नामकर्मोदयनिर्वर्तितम्। विग्रहगति में तीन भाववेदों में से विशिष्ट भाववेद का उदय नोकषायोदयापादितवृत्ति भावलिंगम्" (2/52)। अकारण नहीं हो सकता। कार्यभेदात् कारणभेदः' यह नियम अर्थात् योनि-मेहन आदि द्रव्यलिंग की रचना नाम सूचित करता है कि विशिष्ट भाववेद विशिष्ट कारण पाकर ही कर्मोदय के निमित्त से होती है और भावलिंग का उदय पुंवेदादि | उदय में आता है। नोकषायकर्म के उदय से होता है। यह ध्यान देने योग्य है कि पूर्वकृत पुण्य-पाप के धवला में प्रश्न उठाया गया है कि क्या स्त्रीवेद-द्रव्य | फलस्वरूप मनुष्य और देव गति के प्रशस्त और अप्रशस्त भेद कर्म के उदय से उत्पन्न आत्मपरिणाम स्त्रीवेद कहलाता है | होते हैं, जिनके कारण उनमें जन्म लेने वाले जीव सुमानुष जुलाई 2004 जिनभाषित 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524287
Book TitleJinabhashita 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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