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________________ कुमानुष और सुदेव-कुदेव कहलाते हैं (प्रवचनसार/त.प्र./ | संक्रमण द्वारा उदयवेदरूप संक्रमण हो जाता है और दो वेदरूप गा.3/56-57)। पूर्वकृत पुण्य-पाप के प्रभाव से उपलब्ध होने | द्रव्यकर्म अपने रूप फल न देकर उदयरूप फल देकर खिर के ही कारण भावपंवेद को प्रशस्तवेद एवं भावस्त्रीवेद तथा | जाते हैं" (पं. रतनचन्द्र जैन मुख्तार : व्यक्तित्व एवं कृतित्व, भावनपुंसकवेद को अप्रशस्तवेद कहा गया है, यथा- 1. | भाग 1, पृष्ठ 445)। "अपसत्थवेदोदयेण""" (धवला, पु.5/1, 8, 75-76)। जो द्रव्यवेदनामकर्म सत्त्वरूप में स्थित है, उसके अनुरूप 2. "द्रव्यपुरुष-भावस्त्रीरूपे प्रमत्तविरते आहारक- | भाववेद का उदय होने में कोई बाधा नहीं है, क्योंकि सत्ता में तदङ्गोपाङ्गनामोदयो नियमेन नास्ति।'तु'-शब्दात् अशुभ- | स्थित कर्म भी जीव के परिणामों को प्रभावित करते हैं। जैसे वेदोदये मनःपर्यय-परिहारविशुद्धी अपि न" (गो.जी./ | "जिस जीव के नरकायु का सत्त्व है, वह अणुव्रत या महाव्रत जी.त.प्र., गा.715)। भगवती-आराधना गा. 1210 में संयम धारण नहीं कर सकता" (पं. रतनचन्द्र जैन मुख्तार : व्यक्तित्व का साधन होने से आगामी भव में द्रव्यपुरुषवेद की आकांक्षा | एवं कृतित्व, 1/451)। करने को प्रशस्त निदान कहा गया है विषमभाववेद-नामकर्म के उदय से संजमहे, पुरिसत्तसत्तबलविरियसंघडणबुद्धी। विषमभाववेद का उदय सावअबन्धुकुलादीणि णिदाणं होदि हु पसत्थं ॥ इस प्रकार प्रायः द्रव्यवेद के ही सदृश भाववेद का अत: द्रव्यपुरुषवेद भी प्रशस्त होता है और द्रव्यस्त्रीवेद उदय होता है, तथापि किसी-किसी मनुष्य या तिर्यंच में द्रव्यवेद एवं द्रव्यनपुंसकवेद अप्रशस्त। किन्तु मोक्ष का साधन के विसदश भी भाववेद उदय में आ जाता है। इसका कारण है द्रव्यपुरुषवेद ही होता है और उसके कारण मनुष्यगाति की विषमभाववेद-नामकर्म का उदय। अकलंकदेव ने तत्त्वार्थद्रव्यस्त्रियों और द्रव्यनपुंसकों से द्रव्यपुरुष का तथा देवियों से राजवार्तिक में कहा है, "भाववेद और द्रव्यवेद भिन्न-भिन्न देवों का पद भी उच्च होता है। यही बात पंचेन्द्रिय तिर्यंचों पर कर्मों के उदय से अस्तित्व में आते हैं। अत: किसी आभ्यन्तर भी चरितार्थ होती है। इसलिए भावपुरुषवेद की अपेक्षा कारण की विशेषता से द्रव्यपुरुष में भी भावस्त्रीवेद का उदय द्रव्यपुरुषवेद बलवान् है। फलस्वरूप उसके ही सद्भाव-अभाव हो जाता है और कभी द्रव्यस्त्री में भी भावपुरुषवेद उदय में आ के कारण मनुष्य, देव और तिर्यंच गतियों में विशिष्ट (वेदजन्य) जाता है "कदाचिद्योषितोऽपिपुंवेदोदयोऽप्याभ्यन्तरविशेषात्" प्रशस्त-अप्रशस्त-भेद उत्पन्न होता है। कर्मभूमि के मनुष्यों (त.वा.8/9) और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में तीन वेद होने से इन गतियों के तीन पं. आशाधर जी ने अनगारधर्मामृत के 'यः सोढुं भेद होते हैं : द्रव्य पुरुषवेद की अपेक्षा प्रशस्त, द्रव्यस्त्रीवेद की कपटी-त्यकीर्तिभुजगीमीष्टे' इत्यादि श्लोक (6/18) में अपेक्षा अप्रशस्त और द्रव्यनपुंसकवेद की अपेक्षा अप्रशस्ततर। । पर्वभव में किये मायाचार को वेदवैषम्य का हेत बतलाया है। यतः द्रव्यवेद और भाववेद प्रायः समान होते हैं, इसलिए आगम में मायाचार भावस्त्रीवेद और द्रव्यस्त्रीवेद के बन्ध का जिस जीव के द्रव्यपुरुषवेद-विशिष्ट प्रशस्त मनुष्यगति का उदय भी कारण बतलाया गया है। किन्तु द्रव्यस्त्रीवेद मोक्ष में बाधक होता है, उसके भव के प्रथम समय में भावपुरुषवेद उदय में है, जबकि भावस्त्रीवेद बाधक नहीं है। इससे सिद्ध होता है आता है। जिसके द्रव्यस्त्रीवेद-विशिष्ट अप्रशस्त मनुष्यगति का कि अतिमायाचार से द्रव्यस्त्रीवेद का बन्ध होता है और अल्प उदय होता है, उसके भावस्त्रीवेद तथा द्रव्यनपुंसकवेद-विशिष्ट मायाचार से भावस्त्रीवेद का। तथा इससे यह भी सिद्ध होता है अप्रशस्ततर मनुष्यगति के उदयवाले जीव के भावनपुंसकवेद कि जिस जीव ने द्रव्यपुरुषवेद का बन्ध कर लिया है, वह यदि प्रकट होता है। इसे दूसरे शब्दों में इस तरह भी कहा जा सकता अल्प मायाचार करता है, तो उसके विषमभाववेद नामकर्म का है कि उदयागत प्रशस्त, अप्रशस्त या अप्रशस्ततर मनुष्यगति बन्ध होता है, जिसके उदय से विग्रहगति में उसके द्रव्यपुरुषवेद के अनुरूप उदय में आने योग्य जो द्रव्यवेदनामकर्म होता है, के विपरीत भावस्त्रीवेद या भाव नपुंसकवेद का उदय होता है। उसके अनुरूप भाववेद का उदय होता है। इस प्रकार भाववेदोदय अल्पमायाचार के तारतम्य से ही विषमभाववेदनामकर्म में वह के कारण का अन्वेषण करने पर युक्ति से यह सिद्ध होता है कि विशेषता उत्पन्न होती है कि कहीं भावस्त्रीवेद और कहीं भाववेद के अनुरूप द्रव्यवेद का नहीं, अपितु द्रव्यवेद के सदृश | भावनपुंसकवेद उदय में आता है। भाववेद का उदय होता है। न्यायसिद्धान्तशास्त्री पं.पन्नालालजीसोनी ने कर्मसिद्धान्त के प्रकाण्ड पण्डित पं. रतनचन्द्र जी मुख्तार 'षट्खण्डागम-रहस्योद्घाटन' नामक ग्रन्थ में विरुद्ध द्रव्यवेदनाम ने भी लिखा है, "जिस द्रव्यवेद का उदय होगा, वैसा ही । कर्म' को वेदवैषम्य का हेतु बतलाया है (पृष्ठ 172-173)। भाववेद होगा। अन्य दो द्रव्यवेदों का एक समय पूर्व स्तिबुक- | इसका कारण यह है कि वे विग्रहगति में उदित भाववेद के 14 जुलाई 2004 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524287
Book TitleJinabhashita 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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