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________________ निमित्त से तत्सदृश द्रव्यवेद की उत्पत्ति मानते हैं, इसलिए | 2. चिकित्सा विज्ञान ने सिद्ध किया है कि कुछ स्त्रीपुरुषों उन्होंने भाववेद से विसदृश द्रव्यवेद की उत्पत्ति से वेदवैषम्य | में स्त्री और पुरुष दोनों की जननेन्द्रियों के लक्षण होते हैं, होना माना है, और उसमें 'विरुद्धद्रव्यवेद नामकर्म' के उदय जिससे उनके वास्तविक लिंग की पहचान करना मुश्किल को हेत बतलाया है। किन्त जैसा कि पर्व में सिद्ध किया गया | होता है। अथवा इनमें से किसी में पहले स्त्रीजननेन्द्रिय की है, भाववेद के निमित्त से तत्सदृश द्रव्यवेद की रचना नहीं प्रधानता होती है, बाद में उसी के स्थान पर पुरुषजननेन्द्रिय का होती, अपितु भावी द्रव्यवेद के निमित्त से तत्सदृश भाववेद का | विकास होने लगता है। अथवा किसी पुरुष में स्त्रीजननेन्द्रिय उदय होता है, अतः विषमभाववेद के उदय से ही वेदवैषम्य | विकसित होने लगती है। इस स्थिति को हम द्रव्यवेद-वैषम्य घटित होता है। अत एव वेदवैषम्य का कारण विषमभाववेद- | नाम दे सकते हैं। ऐसे स्त्री-पुरुषों को आधुनिक चिकित्सक नामकर्म का उदय है, यह सिद्ध होता है। | शल्यक्रिया द्वारा पुरुष से स्त्री या स्त्री से पुरुष में परिवर्तित कर यद्यपि इस नाम के नामकर्म का उल्लेख आगम में नहीं | देते हैं। अब यदि भाववेद के अनुसार द्रव्यवेद की उत्पत्ति मिलता, तथापि कार्यभेदात् कारणभेदः' इस नियम के अनुसार | मानी जाय, तो एक ही भव में भाववेद के परिवर्तन का प्रसंग उसका अस्तित्व सिद्ध होता है और वह अंगोपांग-नामकर्म में आयेगा। जिस मनुष्य में पहले स्त्रीजननेन्द्रिय की प्रधानता थी, अन्तर्भूत है, जैसा कि 'पृथिवीकाय नामकर्म' एकेन्द्रिय-जाति | उसमें पहले स्त्रीभाववेद का अस्तित्व मानना होगा, पश्चात् नामकर्म में अन्तर्भूत है (धवला पु.3, पृष्ठ 330) । धवलाकार पुरुषजननेन्द्रिय का विकास हो जाने पर और शल्यक्रिया द्वारा का कथन है कि लोक में घोड़ा, हाथी, वृक, भ्रमर, शलभ पुरुष बन जाने पर स्त्रीभाववेद के स्थान में पुरुषभाववेद की मत्कुण, दीमक, गोमी और इन्द्रगोप आदि रूप से जितने कर्मों उत्पत्ति माननी होगी। किन्तु आगम का वचन यह है कि जो के फल पाये जाते हैं, कर्म भी उतने होते हैं (धवला, पु.3, पृष्ठ | भाववेद भव के प्रथम समय में उदित होता है, वही अन्तिम 330)। पं. रतनचन्द्र जैन मुख्तार ने भी एक प्रश्न के समाधान | समय तक विद्यमान रहता है। अतः भाववेद के अनुसार द्रव्यवेद में लिखा है, "नामकर्म की 93 उत्तर प्रकृतियाँ हैं। उनमें से | की उत्पत्ति की मान्यता आगमविरुद्ध है। अंगोपांगनामकर्म, निर्माणकर्म, वर्णनामकर्म, संस्थाननामकर्म भावी द्रव्यवेद के अनुसार भाववेद का उदय मानने पर भी उत्तरप्रकृतियाँ हैं। इनके भी अवान्तरभेद असंख्यात हैं। इन | उक्त स्थिति में भाववेद के परिवर्तन का आगमविरोधी प्रसंग कर्मों के उदय के कारण मनुष्यादि जीवों की भिन्न-भिन्न उपस्थित नहीं होता, क्योंकि किसी मनुष्य में एक ही भव में शक्लें पायी जाती हैं। कषायस्थान व योगस्थान भी असंख्यात | द्रव्यवेद का परिवर्तन हो जाने पर, भाववेद के अपरिवर्तित हैं। इनकी विभिन्नता के कारण अंगोपांग आदि प्रकृतियों के | रहने से या तो वेदवैषम्य उत्पन्न हो सकता है अथवा पहले बन्ध में विभिन्नता आ जाती है।" (पं. रतनचन्द्र जैन मुख्तार | | वेदवैषम्य था, तो वेदसाम्य की स्थिति घटित हो सकती है। ये : व्यक्तित्व एवं कृतित्व,भाग 1, पृष्ठ 481)। इन वचनों से भी दोनों स्थितियाँ कर्मसिद्धान्त के अनुकूल हैं। एक ही भव में 'विषमभाववेद-नामकर्म' का अस्तित्व सिद्ध होता है। द्रव्यवेद-परिवर्तन की घटना तीव्र पुण्य या पाप के उदय से . भाववेदानुसार द्रव्यवेदरचना का मत विसंगतिपूर्ण | संभव है, जैसे किसी दृष्टिहीन को तीव्र पुण्योदयवश नेत्र ___भाववेद के अनुसार द्रव्यवेद की रचना मानने पर निम्न- | प्रत्यारोपण द्वारा दृष्टि की प्राप्ति संभव है अथवा तीव्रपापोदय लिखित विसंगतियाँ उत्पन्न होती हैं के कारण कुष्ठरोग होने से सुन्दर शरीर का कुरूप हो जाना 1. विग्रहगति में विशिष्ट भाववेद का उदय किस निमित्त .| संभव है। से होता है, इस प्रश्न का समाधान केवल यह है कि उदयागत | 3.भाववेद के अनुसार द्रव्यवेद की उत्पत्ति मानने पर मनुष्यगति के प्रशस्तत्वादि वैशिष्ट्य से उसके निमित्तभूत | वेदवैषम्य घटित नहीं हो सकता, क्योंकि भाववेद सदा एकरूप द्रव्यपुरुषादिवेद का उदय सुनिश्चित हो जाने के कारण विग्रहगति होता है, उसमें वैचित्र्य या विविधरूपता नहीं होती। इसलिए में भावपंवेदादि का उदय होता है। यदि इस तथ्य को स्वीकार | उसके अनुसार सदा तत्सदृश द्रव्यवेद की ही रचना संभव है, न किया जाय और यह माना जाय कि भावपुंवेदादि के उदय में विषम द्रव्यवेद का निर्माण संभव नहीं है। किन्तु भावी द्रव्यवेद ही अंगोपांग नामकर्म द्रव्यपुरुषादिवेद की रचना करता है, तो के अनुसार भाववेद का उदय स्वीकार करने पर प्रायः वेदसाम्य भावपुंवेदादि का उदय किस निमित्त से होता है, इस प्रश्न का तथा क्वचित् विषमभाववेद-नामकर्म के उदय से वेदवैषम्य, दोनों समाधान नहीं होता। फलस्वरूप जैन कर्मसिद्धान्त के यादृच्छिक | संभव होते हैं। (कारणकार्यव्यवस्था-रहित) अथवा नियतिवादी होने का प्रसंग इन तीन विसंगतियों से गोम्मटसार के टीकाकार केशव आता है। | वर्णी तथा उनके मतानुयायी वेदवैषम्यवादियों का और प्रथम जुलाई 2004 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524287
Book TitleJinabhashita 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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