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________________ महाराज के निम्न वाक्य ध्यान देने योग्य हैं "यह जो नया मत | समाज को इससे सावधान रहना चाहिए जिससे दिगम्बर जैन चलाया गया है, यह कानजी मत ही कहलायेगा। समाज को | धर्म में यह मिथ्या विकार पनपने न पावे।। इससे सावधान रहना चाहिए। जिससे दिगम्बर जैन धर्म में यह ____ आदरणीय श्री भारिल्ल जी ने लेख के अंत में परम पूज्य मिथ्या विकार पनपने न पावे।" उपरोक्त शब्दों में कानजी मत | आचार्य श्री और आध्यात्मिक सत्परुष श्री कानजी स्वामी दोनों की आलोचना करने वाले पू. आचार्य श्री कैसे सोनगढ़ के को महापुरुष शब्द से सम्बोधित कर सम श्रेणी में लाने का वातावरण की और जैन धर्म में फैल रहे इस मिथ्या विकार की प्रयास किया है। यदि श्री भारिल्ल जी में जैनागम की विनय सराहना कर सकते थे? संयम को धर्म नहीं मानने वाले असंयम व्यवहार व्यवस्था पर थोड़ी भी श्रद्धा होती तो अपने आपको प्रिय व्यक्तियों की सराहना तो असंयम की सराहना होगी। जीवन | अविरतसम्यग्दृष्टि घोषित करने वाले श्री कानजी को प.पू. आचार्य में संयम के बिना अध्यात्म का प्रवेश असंभव है। संयम ही तो | परमेष्ठी के उपासक के रूप में और आचार्य श्री को उपास्य के अध्यात्म का थर्मामीटर है। जीवन में संयम के प्रारम्भ से ही | रूप में प्रस्तुत करते। दोनों को महापुरुष के रूप में प्रस्तुत कर अध्यात्म का प्रारम्भ, संयम के विकास से ही अध्यात्म का | उन्हें समान श्रेणी में गणना करने का दर्भावनापर्ण प्रयत्न नहीं विकास और संयम की पूर्णता से ही अध्यात्म की पूर्णता होती करते। यदि कानजी स्वामी को उनके कथनानुसार दार्शनिक है। संयम धारण करने की अनुकूलता के होते हुए भी संयम के श्रावक भी मान लिया जाय तो आचार्य समन्तभद्र स्वामी के प्रति अरुचि के कारण संयम धारण नहीं करने वाले व्यक्तियों के अनुसार उनको "पंचगुरुचरण शरणाः" होना चाहिए। उनके द्वारा आध्यात्मिक वातावरण के निर्माण की कल्पना भी नहीं की मन में आचार्य श्री की पूजा करने और उनको आहारदान देने के जा सकती। जो कुछ वहाँ हो रहा है वह मात्र शब्दों द्वारा अध्यात्म भाव आए बिना नहीं रह सकते थे। क्यों ऐसा हुआ? के अभिनय से अधिक कछ नहीं है। आदरणीय भारिल्ल जी ने __जैन धर्म में अध्यात्म और संयम की भिन्न-भिन्न धाराएं पू. आचार्य श्री द्वारा की गई सराहना के बारे में सर्वथा असत्य नहीं हैं। अध्यात्म और संयम दोनों सहचारी एवं सहगामी परिणाम और मनगढंत बातें लिखी हैं और पाठकों को गुमराह करने की हैं जिनका सम्बन्ध कषायों के अभाव में जुड़ा है। सम्यग्दर्शन कूटनीतिक चाल चली है। पू. आचार्य श्री के सोनगढ़, दो दिन प्रकट होने पर अनंतानुबंधी कषाय का अभाव रहता है। बाह्य में ठहरने की बात भी असत्य है। पं. सुमेरुचंद जी दिवाकर की श्रावकोचित प्रतिमा रूप से देशव्रत धारण किए बिना "चारित्र चक्रवर्ती" पुस्तक के पृष्ठ 107 पर लिखा है : अप्रत्याख्यानावरण कषाय का अभाव नहीं होता। इसी प्रकार तीसरी लाइन"इस पर आचार्य श्री ने कहा-" हम तुम्हारा बाह्य में जब तक आरम्भ परिग्रह बना रहता है तब तक उपदेश सुनने नहीं आए हैं हमें तुम्हारे भाव जानना है।" प्रत्याख्यानावरण कषाय का भी अस्तित्व बना रहता है। बाह्य अठाहरवीं लाइन "महाराज के इस विवेचन को सुनकर आभ्यंतर दोनों प्रकार के त्याग को संयम कहते हैं। संयम से ही कानजी चुप हो गए। इस प्रबल तर्क के विरुद्ध कहा भी क्या जा | आत्मा पर पदार्थों के संयोग से छूट कर अपने आत्म गुणों की सकता था?" निकटता को प्राप्त होता है और यही अध्यात्म है। बाह्य त्याग के इक्कीसवीं लाइन "महाराज सोनगढ़ में नहीं ठहरे थे।" बिना न संयम है और न उसका प्रतिफल अध्यात्म । भोगाकांक्षा के कारण बाह्य त्याग में उदासीनता रहने पर अध्यात्म की गंध श्री भारिल्लजी और दिवाकरजी के कथनों में निम्न | भी नहीं आ सकती। जैसे-जैसे संयम में वृद्धि होती जाती है, विरोधाभास है : वैसे-वैसे कषाएं क्षीण होती जाती हैं और अध्यात्म प्रकट होता __ 1. श्री भारिल्ल जी ने लिखा है "आचार्य श्री के अनुरोध जाता है। आत्म निकटता रूप अध्यात्म प्रकट होने पर राग घटता पर स्वामी जी का भी समयसार की 13 वीं गाथा पर आधा घंटा है, वैराग्य उत्पन्न होता है। वैराग्य होने पर जीवन में संयम प्रवचन हुआ।" जबकि श्री दिवाकर जी के अनुसार आचार्य प्रकट होता है। श्री ने कहा था कि हम तुम्हारा उपदेश सुनने नहीं आए हैं। 2. श्री भारिल्ल जी ने लिखा है कि पू. आचार्य श्री दो दिन अंत में विद्वान् भारिल्ल जी ने प.पू.आचार्य श्री आध्यात्मिक सोनगढ़ में रुके जब कि श्री दिवाकर जी ने लिखा है कि सत्पुरुष कानजी स्वामी दोनों के अनुयायियों को यह सलाह दी महाराज सोनगढ़ में नहीं ठहरे थे। है कि वे दोनों महापुरुषों के विचार और व्यवहार का अनुकरण करें तो सामाजिक एकता और शांति को असीम बल मिलेगा। 3. श्री भारिल्ल जी ने लिखा है कि "आचार्य श्री ने न केवल उन्हें आशीर्वाद दिया बल्कि सोनगढ़ के आध्यात्मिक वातावरण सलाह निश्चय ही हितकारी और उपयुक्त है। किन्तु सर्वप्रथम की सराहना भी की" जबकि सोनगढ़ समीक्षा के अनुसार पू. तो सलाह देने वाले भारिल्ल साहब एवं अन्य कानजी स्वामी के आचार्य श्री ने कानजी मत को एक नया मत बताते हुए कहा कि अनुयायियों को पूज्य आचार्य श्री के विचार और व्यवहार का 20 जुलाई 2004 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524287
Book TitleJinabhashita 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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