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________________ धर्म में राजनीति मूलचन्द लुहाड़िया प्रशंसा के शब्दों में यह कहा जाता रहा है कि सोनगढ़ | लेख में पहले अध्यात्म को वर्तमान रूप में जीवित रखने मान्यता के प्रणेता कानजी स्वामी ने बहुत बड़ी संख्या में | वाले टोडरमल जी आदि विद्वानों की प्रशंसा की गई है। वस्तुतः श्वेताम्बर जैनों को दिगम्बर जैन बनाया है और सौराष्ट्र में अनेक | उस पंड़ित वर्ग ने आगम ज्ञान को जीवित रखा है न कि अध्यात्म दिगम्बर जैन मंदिरों का निर्माण कराया है और इस प्रकार उन्होंने को। अध्यात्म में दो शब्द हैं। अधि और आत्म। अधि अर्थात् दिगम्बर जैन की महती प्रभावना की है। किन्तु वास्तविकता | निकटता। आत्म निकटता, आत्मलीनता अथवा आत्म रमणता कुछ और ही है। उन्होंने इस अनेकांतात्मक कल्याणकारी दिगम्बर का नाम अध्यात्म है जो पर पदार्थ के अंर्तबाह्य संयोग सम्बन्ध जैन सिद्धान्त के स्वस्थ शरीर को अपनी एकान्त मान्यताओं के से मुक्त होने पर प्रकट वीतराग चारित्र का रूप है। मात्र शब्दों कोढ़ से विकृत कर दिया है। उनके अनुयायी अपनी एकान्त | द्वारा आत्मा की बात करने वाले किन्तु अप्रत्याख्यानावरणादि मान्यताओं के प्रचार से धर्म के क्षेत्र में राजनीति का सहारा लेने कषाय की तीन चौकड़ियों सहित व्यक्ति को आध्यात्मिक सत्पुरुष में भी संकोच नहीं कर रहे हैं। कैसे कहा जा सकता है और वे महापुरुष कैसे हो सकते हैं? जैन | दर्शन के अनुसार व्यक्ति में पूज्यता चारित्र से आती है, ज्ञान से सोनगढ़ मान्यता के पुरोधा विद्वान् डॉ. हुकुमचंद भारिल्ल नहीं। पूर्व में हुए जैनागम के ज्ञाता, टीकाकार और व्याख्याकार का एक लेख "एक नये युग का आरम्भ" प्राकृत विद्या जुलाईदिसम्बर, 2003 में प्रकाशित हुआ था। इस लेख में वर्तमान युग मूर्धन्य विद्वान् पं. आशाधर जी, पं. बनारसीलाल जी, पं. टोडरमल के दिगम्बरत्व के पुनरोन्नायक प.पू. आचार्य शांतिसागर जी जी, पं. दौलतराम जी, पं. जयचंद जी आदि हुए, उनको कभी महाराज की प्रशंसा की है। आश्चर्य हुआ यह देखकर कि आध्यात्मिक सत्पुरुष या सद्गुरुदेव या महापुरुष नामों द्वारा महिमा मंडित नहीं किया गया। उन्होंने समाज में अपने को दिगम्बर साधुओं के प्रति घोर उपेक्षा का व्यवहार करने वाले और महाव्रतादि को एकान्त से बंध का कारण घोषित करने साधारण श्रावक के रूप में ही प्रस्तुत किया और अपने पद की वाले इन सोनगढ़ी विद्वान् श्री भारिल्ल जी में सहसा यह मुनि सीमा से बाहर अविवेक पूर्ण विनय सत्कार को कभी पनपने भक्ति कैसे उमड़ पड़ी? लेख को ध्यान से पढ़ने पर यह रहस्य नहीं दिया। उद्घाटित होता है कि श्री भारिल्ल जी ने आचार्य श्री की प्रशंसा श्री भारिल्ल जी ने आचार्य श्री एवं कानजी स्वामी के सम्मिलन के बहाने कानजी स्वामी और उनकी मान्यता की ही प्रशंसा की | को एक ऐतिहासिक प्रसंग बताते हुए इस प्रकार प्ररूपित किया है। यह है धर्म में राजनीति के प्रवेश द्वारा लाभ उठा लेने की | है मानो पू. आचार्य श्री एवं कानजी स्वामी समान पद के व्यक्ति निपुणता का एक उदाहरण। यदि वास्तव में ही निष्कपट भाव से | हों। प.पू. आचार्य श्री आचार्य परमेष्ठी के रूप में थे और कानजी श्रद्धापूर्वक आदरणीय भारिल्ल जी अपने शब्दों के अनुसार | स्वामी जो स्वयं को अविरत सम्यग्दृष्टि कहते थे, उनके उपासक प.पू. आचार्य शांतिसागर महाराज को इस युग के नग्न दिगम्बरत्व के रूप में। दोनों में उपास्य उपासक के सम्बन्ध की बात भारिल्ल की प्रतिष्ठा के नये युग का प्रारम्भ करने वाले दिगम्बर परम्परा | जी की लेखनी नहीं लिख पाई। भारिल्ल जी द्वारा आचार्य श्री के के सर्वश्रेष्ठ हैं तो उन्हें अपनी इस श्रद्धा को व्यवहारिक प्रयोग में | द्वारा सोनगढ़ को प्रशसा में कह गए निम्न वाक्य चितनीय हैं लाकर समाज के समक्ष अपना स्पष्ट आचरण प्रकट करना चाहिए।। "आचार्य श्री ने न केवल उन्हें आशीर्वाद दिया, अपितु सोनगढ़ उन्हें निजी एवं सार्वजनिक धार्मिक स्थानों पर पू. आचार्य श्री के के आध्यात्मिक वातावरण की सराहना भी की। श्वेताम्बर बहुल प्रेरणादायी चित्र लगाने चाहिए। पूजा की पुस्तकों में पू. आचार्य सौराष्ट्र में दिगम्बर धर्म का उदय और महती प्रभावना देखकर श्री की पूजा छपानी चाहिए। प्रतिदिन अथवा समय-समय पर आचार्य श्री बहुत प्रसन्न थे, उन्होंने उक्त प्रभावना और उसमें आचार्य श्री की पूजा करनी चाहिए। अपनी पत्रिकाओं में पू.आचार्य | स्वामी जी के नेतृत्व में सक्रिय लोगों की सच्चे दिल से सराहना श्री के संस्मरण एवं उपदेश प्रकाशित करना चाहिए। यदि ऐसा की और कहा कि यहाँ का आध्यात्मिक वातावरण देखकर हमें नहीं हुआ तो यही समझा जायेगा कि विद्वान् भारिल्ल जी की | बहुत खुशी हुई है।" राजनीति में प्रवीण भारिल्ल जी के उक्त कथनी और करनी में समानता नहीं है और उनके द्वारा अपने वाक्य असत्य पर आधारित होने के साथ-साथ कटनीति से भी लेख में की गई पू. आचार्य श्री प्रशंसा मात्र छलपूर्ण वाक् जाल प्रेरित हैं। इस प्रसंग में सोनगढ़ समीक्षा में छपे पू. आचार्य शांति सागर जुलाई 2004 जिनभाषित 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524287
Book TitleJinabhashita 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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