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________________ जैसे आर्गेनो फास्फेट्स से श्वसनतंत्र के ऊपर वाले भाग में मवाद हो जाता है, पेट में पीड़ा उत्पन्न होती है, चक्कर आते हैं। वमन भी होता है, सिर में झटके लगते हैं, अंधेरा सा प्रतीत होता है और मन में कमजोरी महसूस होती है। सीइआरसी की पत्रिका 'इनसाइट' की सम्पादक प्रीति शाह ने लिखा है- 'एक प्रकार से विचार करने पर मालूम होता है कि विषयुक्त रसायनों की मिलावट से अधिक भय तो छोटे बच्चों, गर्भवती स्त्रियों, वृद्धों और कम प्रतिकारक शक्तिवाले रोगियों को बना रहता है। सीईआरसी ने ब्रेड की 13 ब्रांडों का उल्लेख भी किया है, जिनका परीक्षण किया गया था। यदि ऐसी प्रख्यात ब्रांडों में से ऐसे जहरीले रसायन हों तो यत्र-तत्र तैयार की जाती, सुंदर और मनोहर पैकिंग वाली तथा आकर्षक विज्ञापनों वाली दूसरी ब्रांडों की तो बात ही क्या करना।' जहाँ तक बिस्किट की बात है, खाद्य पदार्थ मिलावट प्रतिबंधक नियम अ- 18/07 के अनुसार आइसक्रीम की तरह बिस्किट में भी अंडों का उपयोग करने की अनुमति दी गई है, लेकिन बिस्किट में अंडों का मिश्रण करने पर उसकी सूचना अथवा विज्ञापन भी जारी करना अनिवार्य नहीं है। बेबी फूड्स के बारे में क्लोड अल्वारीस लिखते हैं कि बच्चों को मार डालने के लिए अनेक मार्ग हैं, जिनमें बेबीफूड भी एक है । आटा पचाने की क्षमता नहीं रखने वाले बच्चों के पाचन तंत्र पर जब मैदे से बनाए हुए बिस्किटों का आक्रमण होता है, तो उन्हें बीमार होने से कौन रोक सकता है। स्वस्थ्य जीवन के लिये आवश्यक है कि बेकरी से बने पदार्थों को दूर से ही सलाम कर लिया जाए। बेकरी उत्पादों में दो मुख्य हानिकारक खाद्य पदार्थ होते हैं- वनस्पति और मैदा । बेकरी के बटर बिस्किट में करीब आधा तो वनस्पति घी होता है । नान खटाई में 35 से 40 प्रतिशत वनस्पति और 20 प्रतिशत शक्कर तथा शेष मैदा होता है। टोस्ट और डोग्गी बिस्किट में 20 से 25 ग्राम वनस्पति डाला जाता है। वनस्पति घी में 30 से 50 प्रतिशत चरबी (ट्रांसफेटी एसिड) होता है। न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडीसिन में प्रसिद्ध हुए एक प्रयोग के अनुसार ट्रांसफेटी एसिड लेने से रक्त में हानिकारक (एल.डी.एल.) कोलेस्ट्रॉल की मात्रा कम हो जाती है। उधर मैदा बनाने की प्रक्रिया में गेहूँ के रेशे प्रायः निकाल दिए जाते हैं, जबकि रेशे मालवरोध को दूर करते हैं। रक्त के ग्लूकोज और कोलेस्ट्राल को नियंत्रित रखने के लिए भी रेशे जरूरी हैं। डायबिटीज और हृदयरोगियों के लिए वनस्पति और मैदा दोनों ही नुकसानदायक है । पर्यावरण ऊर्जा टाइम्स, मार्च 2003 से साभार Jain Education International पुस्तक का नाम संकलन सम्पादन प्रकाशक संस्करण मूल्य ग्रन्थ समीक्षा प्रतिष्ठा पराग (मंदिर - वेदी प्रतिष्ठा - कलशारोहण विधि) पं. गुलाबचन्द 'पुष्प' ब्र. जयकुमार 'निशान्त' अ. भा. दि. जैन शास्त्री परिषद 261/ 3 पटेल नगर मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) प्रथम, 2004, पृष्ठ - 224, 60.00 रुपये जैन साहित्य में प्रतिष्ठा सम्बन्धी ग्रन्थों की अपेक्षाकृत न्यूनता है इसका एक कारण सुप्रसिद्ध प्रतिष्ठाचार्य पं. नाथूलाल जी शास्त्री के शब्दों में यह है- 'प्रतिष्ठाचार्य चाहते हैं। कि उनकी क्रिया विधि एवं मंत्र संस्कार क्रियाएं गुप्त ही रहें ।' वर्तमान नवोदित प्रतिष्ठाचार्यों /विधि विधान कर्त्ताओं तथा सामान्यजनों को श्रद्धेय पं. गुलाबचन्द जी पुष्प का आभार मानना चाहिए कि उन्होंने प्राचीन ग्रंथों के आधार पर 'प्रतिष्ठा पराग' का संकलन किया है। आज प्रतिष्ठा सम्बन्धी कार्य बढ़ गये हैं, उसी अनुपात में प्रतिष्ठाचार्यों की भी आवश्यकता है। नवोदित प्रतिष्ठाचार्य आगमानुसार क्रियाऐं कैसे करायें इसका सप्रमाण विवेचन प्रस्तुत कृति में है पं. पुष्प जी जैन जगत के सिद्धान्तज्ञ विद्वान् एवं अनुभव वृद्ध प्रतिष्ठाचार्य हैं। उन्होंने क्रियाविधि में कभी कोई समझौता नहीं किया। अनुष्ठान तभी सफल होता है। जब वह पूर्ण विधि विधान से हो। यह शिक्षा आज के नवीन प्रतिष्ठाचार्यों को लेना चाहिए। सम्पादन में ब्र. जयकुमार निशान्त जी ने विशेष श्रम किया है प्रूफ संशोधन में परिश्रम अधिक किया गया है। जो शुभ लक्षण है। पूर्व में भी ये पिता-पुत्र प्रतिष्ठा रत्नाकर जैसा हीरा दे चुके हैं। For Private & Personal Use Only 'प्रतिष्ठा पराग' की विशिष्ट उपलब्धि जनमानस को यही है कि इसमें क्रियायें विस्तारपूर्वक और समझाकर इस प्रकार बताई गयी है कि सुधीजन यह मांगलिक क्रियाएं स्वयं भी करा सकते हैं। ऐसी क्रियाओं में दीपावली पूजन, श्रुतपंचमी, गृहप्रवेश, वाहन शुद्धि, सल्लेखना पूर्वक अंतिम शव संस्कार विधि आदि लिया जा सकता है। पुस्तक के अन्त में विभिन्न मंत्रों के चित्र दिये गये हैं साथ ही अष्ट प्रातिहार्य, अष्ट मंगल द्रव्य के चित्र दिए हैं। बीच में भी जहाँ आवश्यक हुआ है वहाँ चित्रों के माध्यम से विषय को स्पष्ट किया गया है। संक्षेप में यह कृति प्रतिष्ठा के सागर को पुस्तक की गागर में भरने वाली कृति है । डॉ. ज्योति जैन जुलाई 2004 जिनभाषित 25 www.jainelibrary.org
SR No.524287
Book TitleJinabhashita 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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