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________________ इसी प्रकार आचार्य वीरसेन महाराज षट्खंडागम की टीका | पात्रदान, जिनेन्द्र अर्चना, महामंत्र जाप, वैयावृत्ति, वन्दना, धवला पु. 6, पृष्ठ 427 पर लिखते हैं : प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान आदि शुभ कार्यों को बंध का ही कारण दर्शनेन जिनेन्द्राणां पाप संघात कुंजरम्। कहते हैं। विचार करो यदि साधक इन शुभ कार्यों को छोड़ दे, तो शतधा भेदमायाति गिरि वज्र हतो यथो॥ क्या होगा? अशुभ कार्यों में लग जावेगा। श्रावक के शुद्धोपयोग | नहीं होता, मुनिराज हमेशा शुद्धोपयोगी रह सकते नहीं। किन्तु अर्थात् - जिस प्रकार वज्रपात होने से नष्ट किये जाने पर पर्वत कर्म निर्जरा पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक व छठे गुणस्थानवर्ती के सैकड़ों टुकडे हो जाते हैं, उसी प्रकार जिनेन्द्र भगवान् के दर्शन मुनिराज के भी असंख्यात गुणी निर्जरा हमेशा होती रहती है। से मिथ्यात्व जैसे घोर पापों का समूह नष्ट हो जाता है, अर्थात् श्रावक और सविकल्प मुनिराज के जब शुद्धोपयोग (निर्विकल्प निर्जरित हो जाता है। दर्शन पाठ में भी हम प्रतिदिन पढ़ते हैं समाधि) का अभाव होता है तब शुभ क्रियाओं के अवलंबन से दर्शनेन जिनेन्द्राणां साधुनाम् वंदनेन च।। ही विपुल कर्म निर्जरा होती है। तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ में अणुव्रत महाव्रतों न चिरं तिष्ठते पापं, छिद्र हस्ते यथोदकम्॥ को आस्रव तत्त्व रूप कहा गया है। ऐसा एक ग्रन्थ में ग्रन्थकार ने अर्थात् - जिस प्रकार छिद्रयुक्त हाथ में जल की गति होती है, | तत्त्वार्थ सूत्र का उद्धरण दिया है। वहाँ प्रसंग में उनको इतना ही वह अधिक समय तक अंजुलि में नहीं ठहर सकता है। वैसे ही दिखाई दिया। जबकि तत्त्वार्थसूत्र के छठे अध्याय में कहा हैजिनेन्द्र भगवान् के दर्शन से और वीतरागी साधुओं की वंदना "सराग संयम संयमासंयमा-कामनिर्जरा बाल तपांसि करने से पाप कर्म शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार आचार्य वाक्यों। देवस्य" ॥20॥ अर्थात् सरागसंयम, संयमासंयम, अकाम निर्जरा, से भी शुभोपयोगी के कर्म निर्जरा सिद्ध होती है। क्योंकि भगवान् बालतप यह देवायु के कारण हैं। इसके आगे एक सूत्र और है - के दर्शन करते समय शुभोपयोग ही होता है, न कि शुद्धोपयोग। | "सम्यक्त्वं च" ॥ 21 ।। सम्यक्दर्शन भी देवायु का कारण है। यहाँ ऐसा भी न समझें कि शुद्धोपयोगी और शुद्धोपयोग की उपेक्षा | खेद का विषय है कि लेखक अधूरी बात क्यों लिखते हैं। एक सूत्र की जा रही है। शुद्धोपयोगी और शुद्धोपयोग तो महान् हैं ही इनकी | की बात लिखी वह भी अधूरी। सरागसंयम,संयमासंयम शब्द अपेक्षा तो शुभोपयोग लघु था, लघु है, लघु ही रहेगा किन्तु बात | महाव्रत-अणुव्रत के साथ भावसंयम के वाचक हैं तथा यदि आस्रव इतनी ही है कि शुभोपयोग बंध का कारण ही नहीं है, उससे संवर के कारण हैं तो सम्यक्त्व भी आस्रव का कारण है, ऐसा क्यों नहीं निर्जरा भी होती है। किसी का प्रश्न होगा कि आस्रव बंध और कहते हैं तथा तत्त्वार्थसूत्र के छठवें अध्याय के साथ नौवाँ अध्याय संवर निर्जरा दो भिन्न तथा विपरीत हैं यह एक कारण से दो कार्य भी पढ़ लेते। नौवें अध्याय में लिखा गया हैकैसे संभव होंगे? इसका समाधान कार्यकारण-व्यवस्था में कर आस्रव निरोधः संवरः॥1॥ दिया गया है कि आचार्य अकलंक देव राजवार्तिक में कहते हैं: स गुप्ति समिति धर्मानुप्रेक्षा परीषहजय चारित्रैः ॥2॥ एक कारणेनानेक कार्य संभवात् वह्निवत्। जैसे अग्नि, प्रकाश, तपसा निर्जरा च ॥3॥ प्रताप, पाचक आदि कार्य करने में समर्थ हैं वैसे यहाँ भी एक नौवें अध्याय में तीन गुप्ति, पाँच समिति, दस धर्म, बारह कारण से आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा होने में विरोध नहीं है। अनुप्रेक्षा, बाईस परीषह और पाँच चारित्र को संवर, निर्जरा के फिर प्रश्न होगा - शुभोपयोग से आम्रव बंध और शुद्धोपयोग | कारणों में रखा है। यदि छठवें अध्याय में सरागसंयम, संयमासंयम से संवर निर्जरा क्यों नहीं मानते हो? । का अर्थ द्रव्य संयम (अणुव्रत-महाव्रत) ही हैं, तो नौवें अध्याय समाधान - हमें मानने में कुछ भी विरोध नहीं है किन्तु में भी चारित्र से द्रव्य चारित्र (पाँच महाव्रत आदि) लेना चाहिए। कहीं पर किन्हीं आचार्य प्रणीत शास्त्र में इसका उल्लेख मिलना | वहाँ क्षुधा, तृषा आदि परीषहों को भी संवर निर्जरा के कारणों में चाहिए। किसी भी आचार्य प्रणीत शास्त्र में एक साथ दो उपयोग गिना है बाह्य तपों को भी संवर निर्जरा के कारणों में रखा है। इन का विधान न मिला है, न मिलने की संभावना है। अशुभोपयोग, प्रसंगों को क्यों छोड़ दिया, तत्त्वनिर्णय के क्षेत्र में एकान्त नहीं शुभोपयोग दोनों अशुद्धोपयोग एकान्त से समान नहीं है। अशुभोपयोग होना चाहिए, यदि होगा तो सही तत्त्वनिर्णय नहीं माना जायेगा। से एक पाप कर्म का ही बंध होता है, जबकि शुभोपयोग से जिसका तत्त्वनिर्णय गलत है वह सम्यक्दृष्टि कैसे हो सकता है? पुण्यकर्मों का आस्रव, बंध तथा पाप कर्मों का संवर, निर्जरा भी ___ अतः उपरोक्त संवर, निर्जरा की मीमांसा हमें सार रूप में होते हैं। यहाँ निर्जरा से तात्पर्य अविपाक निर्जरा ग्रहण करना संकेत करती है कि शुद्धोपयोगी संवर, निर्जरा का स्वामी है परन्तु चाहिए। क्योंकि सविपाक निर्जरा तो सभी संसारी जीवों के हमेशा | शुभोपयोग की अवस्था में भी संवर, निर्जरा होती है। शभोपयोग होती रहती है। कुछ लोग अशुभोपयोग,शभोपयोग को समान मानकर | जब तक अमृत तुल्य है तब तक शुद्धोपयोग नहीं होता है। जुलाई 2004 जिनभाषित 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524287
Book TitleJinabhashita 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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