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________________ असंख्यात गुणी निर्जरा शुभोपयोग में भी यद्यपि कर्मों की निर्जरा सभी संसारी जीवों के सदा काल होती रहती है । फिर प्रश्न खड़ा होता है कि संसार के सामान्य जीवों और मोक्षमार्गी जीवों में क्या अंतर शेष रहता है, जिससे मोक्षमार्गियों को श्रेष्ठ माना जाता है। उन्हें पूज्य माना जाता है? समाधान दोनों के निर्जरा होने पर भी संसारी जीवों के संवर पूर्वक निर्जरा नहीं होती है, जबकि मोक्षमार्गी जीवों के संवर पूर्वक निर्जरा पाई जाती है। बतौर उदाहरण हम समझें कि नदी में दो नाव हैं, दोनों नाव में छिद्र हैं और छिद्रों से पानी नाव में आ रहा है। दोनों नाव के नाविक तथा यात्रीगण नाव से बराबर जल निकाल रहे हैं, किन्तु एक नाव का नाविक अपनी बुद्धि का प्रयोग करता है और पानी निकलने के छिद्रों में डांट लगाकर पानी निकालना प्रारम्भ कर देता है। दूसरी नाव के नाविक ने बिना डांट लगाये ही पानी निकालना प्रारम्भ कर दिया। अब आप ही बतायें कि दोनों नाविकों में से कौन सा श्रेष्ठ है ? उत्तर होगा जिसने नाव के छिद्रों में डांट लगाकर पानी निकालना प्रारम्भ किया है। ठीक इसी प्रकार मोक्षमार्गी, सामान्य संसारी जीवों की तुलना में श्रेष्ठ है। पूज्य है । इतनी ही नहीं मोक्षमार्गी संवर पूर्वक सामान्य निर्जरा तो करता ही है, पर विशेष तप आदि के माध्यमों से भी कर्म निर्जरा करता रहता है। इसी प्रकार की विशेष निर्जरा ही अविपाक निर्जरा कहलाती है । - आचार्यों ने निर्जरा के दो भेद कहे हैं - 1. सविपाक निर्जरा 2. अविपाक निर्जरा । जो कर्म फल देकर अपने आप समयानुसार खिर जाते हैं, वह सविपाक निर्जरा कहलाती है और जो कर्म तप, व्रत, संयम आदि विशेष उद्यम करके निर्जरा को प्राप्त होते हैं, वह अविपाक निर्जरा कहलाती है। अतः मोक्षमार्गी के सविपाक और अविपाक दोनों ही निर्जरा होती है। हमारी चर्चा का विषय है असंख्यात गुणी निर्जरा शुभोपयोग में भी।" इस प्रसंग में यह भी जान लेना परमावश्यक है कि शुभोपयोग कहाँ से कहाँ तक होता है। उपयोग आत्मा का लक्षण है। वह मूल में दो प्रकार का होता है :- शुद्धोपयोग, अशुद्धोपयोग। अशुद्धोपयोग के भी दो भेद होते हैं:- शुभोपयोग, अशुभोपयोग । प्रथम से छठे गुणस्थान तक अशुद्धोपयोग (अशुभपयोग, शुभोपयोग) तथा सप्तम गुणस्थान से 12 वें गुणस्थान तक शुद्धोपयोग कहा गया है। इसके आगे अर्थात् 13 वां व 14 वां गुणस्थान शुद्धोपयोग का फल है। इस प्रकार के उपयोग विभाजन में कहीं पर भी (किसी भी आचार्य प्रणीत शास्त्रों से) विरोध नहीं है। हमें विस्मय तब होता है जब कुन्दकुन्द, उमास्वामी जैसे महान् आचार्यों की बात करने वाले कुछ लोग चतुर्थ गुणस्थान से शुद्धोपयोग कहते आ रहे हैं। जबकि आचार्यों के उपयोग विभाजन से ज्ञात होता है कि चतुर्थ गुणस्थान 6 जुलाई 2004 जिनभाषित Jain Education International मुनि श्री निर्णय सागर जी सेव सप्तम गुणस्थान से नीचे शुभोपयोग है न कि शुद्धोपयोग । यह निश्चित है कि चतुर्थ गुणस्थान से अर्थात् सम्यकदृष्टि गुणस्थान से असंख्यात गुणी निर्जरा अवश्य होती किन्तु शुद्धोपयोग नहीं। किसी महानुभाव को शंका हो सकती है कि चतुर्थ गुणस्थान शुद्धोपयोग मानने में बाधा ही क्या है? क्योंकि चतुर्थ गुणस्थान में अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ का अभाव पाया जाता है। समाधान रूप में यह कहना चाहूंगा कि अनंतानुबंधी क्रोधादि कषायों का अभाव तो, नीचे तीसरे आदि गुणस्थानों में संभव है, फिर वहाँ भी शुद्धोपयोग क्यों नहीं मानते हो, अतः अनंतानुबंधी का अभाव मात्र शुद्धोपयोग का कारण नहीं हो सकता है। शुद्धोपयोग पात्र तो मुनिराज ही होते हैं। शुद्धोपयोग के संदर्भ में देखिए, आचार्य नेमिचंद्र सिद्धान्तिदेव बृहद् द्रव्य-संग्रह ग्रन्थ की गाथा 47 में कहते हैं - दुवियंपि मोक्खहेडं झाणे पाउणदिजं मुणी णियमा । तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समब्भसय ॥ 47 ॥ अर्थात् दोनों (निश्चय और व्यवहार) मोक्षमार्ग मुनि को ही प्राप्त होते हैं। निश्चय मोक्षमार्ग और शुद्धोपयोग एकार्थवाची हैं। इसलिए मुनियोगी को ध्यान द्वारा शुद्धोपयोग के लिए सम्यक् अभ्यास करना चाहिए। इसी प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द महाराज प्रवचनसार ग्रन्थ के ज्ञानाधिकार में गाथा 14 में मुनियों को ही शुद्धोपयोगी सिद्ध होता है। ऐसा कहा है सुविदिद पयत्थसुत्तो संजमतवसंजुदो विगद रागो । समणो समसुहदुक्खो, भणिदो सुद्धवओगोत्ति ॥ 4 ॥ जो तत्त्वज्ञानी होकर संयम, तप से संयुक्त हैं। राग रहित हैं। सुख-दुःख में समता धारण करते हैं। उनके ही शुद्धोपयोग होता है । आचार्य उमास्वामी महाराज ने तत्त्वार्थ सूत्र के 9 वें अध्याय के 45 वें सूत्र में कहा है- सम्यकदृष्टिश्रावकविरतानंत वियोजक दर्शनमोह क्षपकोपशमको पशांतमोह क्षपकक्षीणमोह जिना : क्रमशोऽसंख्येय गुणनिर्जराः ॥ अर्थात् सम्यक्दृष्टि के सामान्य से असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। सम्यकदृष्टि से श्रावक ( पंचम गुणस्थानवर्ती) के असंख्यात गुणी निर्जरा, इससे महाव्रती (षष्ठ गुणस्थान) के असंख्यात गुणी निर्जरा, इससे अनंतानुबंधी विसंयोजना करने वाले के असंख्यात गुणी इससे आगे दर्शनमोह का क्षपक, उपशम श्रेणी, उपशांत मोह, क्षपक श्रेणी, क्षीणमोह तथा जिन (सयोग केवली) के भी असंख्यात - असंख्यात गुणी आगे-आगे निर्जरा होती है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524287
Book TitleJinabhashita 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2004
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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