Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 04
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवर्द्धमानाय नमः। अंक ६ भाग १५ जैनहितैषी चैत सं० २४४७ । अप्रैल सन् १९२१ विषय-सूची। १. नया सन्देश (सम्पादक) ... ... ... १६२-१६६ २. पण्डितगण और हतिहास (पं० नाथूराम प्रेमी) ... १६६-१६८ ३. संकट-निवारण फंडका ट्रस्टडीड (बा० अमित प्रसाद) १६६-१७ ४. नयचक्र और देवसेनसूरि (पं० नाथूराम प्रेमी) ... १७०-१७७ ५. महासभाके कानपुरी अधिवेशनका कच्चा चिट्ठा (बा. अजित प्रसाद) १७७-१८५ भगवत्कुन्दकुन्द और श्रुतसागर (पं० नाथूराम प्रेमी)... १८५-१८८ ७. विविध विषय १८८-१९११ प्रार्थनाएँ। १ जनहितैषी किसी स्वार्थबुद्धि से प्रेरित होकर निजी लाभके लिये नहीं निकाला जाता है। इसके लिये समय, शक्ति और धनका जो व्यय किया जाता है वह केवल निष्पक्ष और ऊँचे विचारोंके प्रचारके लिये; अतः इसकी उन्नतिमें हमारे प्रत्येक पाठकको सहायता देनी चाहिए। २ जिन महाशयोंको इसका कोई लेख अच्छा मालूम हो उन्हें चाहिए कि उस लेखको वे जितने मित्रोको पढ़कर सुना सके, अवश्य सुना दिया करें। ____३ यदि कोई लेख अच्छा न मालूम हो अथवा विरुद्ध मालूम हो तो केवल उसीके कारण लेखक व सम्पादकसे द्वेषभाव धारण न करने के लिये सविनय निवेदन है। ४ लेख भेजने के लिये सभी सम्प्रदायके लेखकोंको आमंत्रण है। सम्पादक। सम्पादक, बाबू जुगुलकिशोर मुख्तार । श्रीलक्ष्मीनारायण प्रेस, काशीर For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियमावली | १ जैनहितैषी का वार्षिक मूल्य ३) तीन रुपया पेशगी है । २ ग्राहक वर्ष के श्रारम्भसे किये जाते हैं और बीचमें वें श्रंकसे । श्राधे वर्षका मल्य १ ॥ ) ३ प्रत्येक अंक का मूल्य ।) चार श्राने । ४ लेख, बदलेके पत्र, समालोचनार्थ पुस्तक श्रादि 'बाबू जुगुल किशोरजी मुख्तार, सरसावा ( महारनपुर )" के पास भेजना चाहिए। सिर्फ प्रबन्ध और मूल्य श्रदि सम्बन्धी पत्रव्यवहार इस पतेसे किया जाय: मैनेजरजैन ग्रंथ-रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, पो० गिरगाँव, बम्बई । नये नये ग्रन्थ | कालिदास और भवभूति । महाकवि कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलकी और भवभूतिके उत्तररामचरितकी अपूर्व, अद्भुत और मर्मस्पर्शी समालोचना । मूल लेखक, स्वर्गीय नाटककार द्विजेन्द्रलाल राय । प्रत्येक कवि, साहित्यप्रेमी और संस्कृतशोको यह ग्रन्थ पढ़ना चाहिए। मूल्य १ ॥ ), सजिल्दका २ ) साहित्य-मीमांसा । पूर्वीय और पाश्चात्य साहित्यकी काव्यों और नाटकोंकी मार्मिक और तुलनात्मक पद्धतिले की हुई श्रालोचना । इसमें श्रार्यसाहित्य की जो महत्ता, उपकारिता और विशेषता दिखलाई गई है, उसे पढ़कर पाठक फड़क उठेंगे। हिन्दी में इस विषयका यह सबसे पहला ग्रन्थ है । मूल्य १॥ अरबी काव्यदर्शन । अरबी साहित्यका इतिहास, उसकी विशेषतायें और नामी नामी कवियोंकी कविताके नमूने | हिन्दी में बिलकुल नई चीज । लेखक, पं० महेशप्रसाद साधु, मौलवी श्रालिम-फाजिल । मू० १) सुखदास- जार्ज ईलियट के सुप्र सिद्ध उपन्यास 'साइलस मारनर' का हिन्दी रूपान्तर । इस पुस्तकको हिन्दी के लब्ध प्रतिष्ठ उपन्यास-लेखक श्रीयुत् प्रेमचन्दजीने लिखा है । बढ़िया एण्टिक पेपर पर बड़ी ही सुन्दरतासे छुपाया गया है । उपन्यास बहुत ही अच्छा और भावपूर्ण है । मूल्य ॥ =) स्वाधीनता - जान स्टुअर्ट मिलकी 'लिबर्टी'का अनुवाद | यह ग्रन्थ बहुत दिनोंसे मिलता नहीं था, इसलिये फिरसे छपाया गया है । स्वाधीनता की इतनी अच्छी तात्विक श्रालोचना श्रापको कहीं न मिलेगी। प्रत्येक विचारशीलको यह ग्रन्थ पढ़ना चाहिए। मूल्य २) सजिल्दका २|| ज्ञान और कर्म - हिन्दीमें अपूर्व तात्विक ग्रन्थ । कलकत्ता हाईकोर्ट के जज स्वर्गीय सर गुरुदास बन्धोपाध्यायके लिखे हुए सुप्रसिद्ध ग्रन्थका अनुवाद | इसमें मनुष्य के इहलोक और परलोकसम्बन्धी सभी विषयोंकी बड़ी विद्वत्तापूर्ण श्रालोचना की गई है। बहुत बड़ा ग्रन्थ है । मूल्य ३) सजिल्दका ३ || ) जान स्टुअर्ट मिल - स्वाधीनताके मूल लेखकका अतिशय शिक्षाप्रद और पढ़ने योग्य जीवनचरित । अबकी बार यह जुदा छपाया गया है । मूल्य ॥ =) =) तमाखूसे हानि - पं० हनुमत्प्रसादजी वेधकृत । म० मलावरोध-चिकित्सा - : मू० 13) फिजी में भारतीय प्रतिज्ञाबद्धकुलीप्रथा-लेखक, एक भारतीय हृदय । 22 39 मूल्य १) For Personal &ivate Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARARA पन्द्रहवाँ भाग । अंक ६ SC WALD WHEN WE हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः । Key जैनहितैषी WOMEN WA नया संदेश | समालोचना करनेवाला जैनी नहीं ! किसी वस्तुके गुण-दोषपर विचार करना और उन्हें दिखलाना समालोचना कहलाता है । परीक्षा, मीमांसा और विवेचना भी उसीके नामान्तर हैं । समालोचनाके द्वारा विवेक जागृत होता, हेयोपादेयका ज्ञान बढ़ता और अन्ध श्रद्धाका नाश होता है । इसलिए सद्धर्मप्रवर्तक और सद्विचारक जन हमेशा परीक्षा-प्रधानताका अभिनन्दन किया करते और उसे महत्त्वकी दृष्टिसे देखा करते हैं । जैनधर्ममें इस परीक्षा प्रधानताको और भी ज्यादा महत्त्व दिया गया है और किसी भी विषयके त्यागग्रहण से पहले उसकी अच्छी तरहसे न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी । बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी 'हितैषी' ।। JEG GETS चैत्र २४४७ - श्रप्रैल १६२१ For Personal & Private Use Only जाँच पड़ताल कर लेनेकी प्रेरणा की गई है । गुण दोषोंपर विचार करनेका यह अधिकार भी सभी मनुष्योंको स्वभावसे ही प्राप्त है, चाहे वह मनुष्य छोटा हो या बड़ी और चाहे उच्चासन पर विराजमान हो या नीचे पर । जो मनुष्य किसी वस्तुको निर्माण करके उसे पब्लिकके सामने रखता है, वह अपने उस कृत्य के द्वारा इस बातकी घोषणा करता है कि प्रत्येक मनुष्य उस वस्तुके गुण-दोषोंपर विचार करे । और इसलिए पब्लिकमें रक्खी हुई किसी वस्तुपर यदि कोई मनुष्य अपनी सम्मति प्रकट करता है, उसके गुण-दोषोंको बतलाता है तो उसके इस अधिकारमें बाधा डालनेका किसीको अधिकार नहीं है । अपनी भूल और अपनी त्रुटि बहुधा अपनेको मालूम नहीं हुआ करती, उसे प्रायः दूसरे लोग ही बतलाया करते हैं । कभी कभी उन भूलों Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ और त्रुटियोंका अनुभव ऐसे लोगोंको हो जाया करता है जो ज्ञानादिकमें अपने बराबर नहीं होते और बहुत कम दर्जा रखते हैं। और यह सब आत्मशक्तियोंके विकाशका माहात्म्य है— किसीमें कोई शक्ति किसी रूप से विकसित होती है और किसीमें कोई किसी रूपसे । ऐसा कोई भी नियम नहीं हो सकता कि पूर्वजोंके सभी कृत्य अच्छे हों, उनमें कोई त्रुटि न पाई जाती हो और गुरुओंसे कोई दोष ही न बनता हो । पूर्वजोंके कृत्य बुरे भी होते हैं और गुरुओं तथा श्राचार्योंसे भी दोष बना करते हैं अथवा त्रुटियाँ और भूलें हुआ करती हैं । यही वजह है कि शास्त्रोंमें अनेक पूर्वजोंके कृत्योंकी निन्दा की गई है और श्राचार्यों तक के लिए भी प्रायश्चित्तका विधान पाया जाता है । इसलिए चाहे कोई गुरु हो या शिष्य, पूज्य हो या पूजक और प्राचीन हो या श्रर्वाचीन, सभी अपने अपने कृत्यों द्वारा आलोचनाके विषय हैं और सभीके गुण-दोषोंपर विचार करनेका जनताको अधिकार है । नीतिकारोंने भी साफ लिखा है कि I जैनहितैषी । "शत्रोरपि गुणावाच्या दोषावाच्या गुरोरपि । अर्थात् - शत्रुके भी गुण और गुरुके भी दोष कहने -- आलोचना किये जानेके योग्य होते हैं । अतः जो लोग अपना हित चाहते हैं, अन्धश्रद्धा के कूपमें गिरनेसे बचने के इच्छुक हैं और जिन्होंने परीक्षाप्रधानता के महत्त्व को समझा है उन्हें खूब 'जाँच पड़ताल से काम लेना चाहिए, किसी भी विषय के त्याग अथवा ग्रहणसे पहले उसकी अच्छी तरहसे आलोचना प्रत्यालोचना कर लेनी चाहिए और केवल 'बाबा वाक्यं प्रमाणं' के आधार [ भाग १५ पर न रहना चाहिए । यही उन्नतिमूलक शिक्षा हमें जगह जगह पर जैनशास्त्रों में दी गई हैं और ऐसे सारगर्भित उदार उपदेशोंसे जैनधर्म श्रबतक गौरवशाली बना हुआ है । परन्तु हमारे पाठकोंको आज यह जानकर आश्चर्य होगा कि शोलापुर के सेठ रावजी सखाराम दोशीने जैनसिद्धान्त विद्यालय मोरेनाके वार्षिकोत्सव पर सभापतिकी हैसियतसे भाषण देते हुए, उक्त शिक्षासे प्रतिकूल, जैनसमाजको हालमें एक नया सन्देश सुनाया है; और वह संक्षेपमें यह है कि जो विद्वान् लोग जैनग्रन्थोंकी समालोचना करते हैं - उनके गुण-दोषोंको प्रकट करते हैं - वे जैनी नहीं हैं ! इस सम्बन्धमें आपके कुछ खास वाक्य इस प्रकार हैं: " अब थोड़े दिनोंसे कुछ पढ़े-लिखे लोगों में एक तरहका भ्रम होकर वे परम पूज्य आचायोंके ग्रन्थोंकी समालोचना कर रहे हैं। जो जैनी हैं वे आचायोंकी समालोचना करते हैं, यह वाक्य कहने में विपरीतता दिखाई देती है । आचायोंकी समालोचना करनेवाला जैनी कैसे कहला सकता है ?" श्रमझमें नहीं श्राता कि जैनी होने और • श्राचाय्यकी समालोचना करनेमें परस्पर क्या विपरीतता है । क्या सेठ साहबका इससे यह श्रभिप्राय है कि, जो स्वयं श्राचार्य नहीं वह श्राचार्य के गुण-दोषों का विचार नहीं कर सकता अथवा उसे वैसा करनेका अधिकार नहीं ? यदि ऐसा है तो सेठ साहबको यह भी कहना होगा कि जो श्राप्त नहीं है, अनीश्वर है उसे श्राप्त भगवान्की, ईश्वर-परमात्मा की मीमांसा और परीक्षा करनेका भी कोई अधिकार नहीं है, न वह कर सकता है । औरत को स्वापी समन्तभद्र और For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नया संदेश। विद्यानन्दादि जैसे महान् प्राचार्योंको भी परम प्राचार्य और मुनीन्द्रतक नहीं कलङ्कित करना होगा और उन्हें अजैन लिखा ? क्या बहुतसे ग्रन्थों में अज्ञान, ठहराना पड़ेगा; क्योंकि स्वयं प्राप्त, ईश्वर कषाय और भूल आदिके कारण पीछेसे या परमात्माके पदपर प्रतिष्ठित न होते। कुछ मिलावट नहीं हुई ? क्या जिनसेन हुए भी उन्होंने प्राप्त-परमात्माकी त्रिवर्णाचार और कुन्दकुन्दश्रावकाचार मीमांसा और परीक्षातक कर डालनेका जैसे कुछ ग्रन्थ बड़े प्राचार्यों के नामसे साहस किया है। स्वामी समन्तभद्रने तो जाली बने हुए नहीं? और क्या अने भगवान् महावीर स्वामीकी भी परीक्षा कर विषयोंमें श्रज्ञानादि किसी भी कारणसे, डाली है और यहाँतक लिखा है कि देवों- बहुतसे प्राचार्योंमें परस्पर मतभेद नहीं का आगमन, आकाशमें गमन और छत्र रहा है ? यदि यह सब कुछ हुआ है तो चवरादि विभूतियोंकी वजहसे मैं आपको फिर सत्यकी जाँचके लिए ग्रन्थकी महान्-पूज्य नहीं मानता, ये बातें तो परीक्षा, मीमांसाऔर समालोचना श्रादिमायावियों-इन्द्रजालियों में भी पाई जाती के सिवा दूसरा और कौनसा अच्छा हैं* | क्या सेठ साहब स्वामी समन्तभद्र साधन है जिससे यथेष्ट लाभ उठाया जैसे महान् प्राचार्योपर इस प्रकारका जा सके ? शायद इसी स्थितिका अनुभव दोष लगाने और उन्हें अजैन ठहरानेके करके किसी कविने यह वाक्यं कहा हैलिये तय्यार हैं ? यदि नहीं तो आपको जिनमत महल मनोज्ञ अति यह मानना होगा कि नीचे दर्जेवाला भी कलियुग छादित पन्थ । ऊँचे दर्जेवालेकी परीक्षा और उसके गुण- समझ बूझके परखियो। दोषोंकी जाँच, अपनी शक्तिके अनुसार, चर्चा निर्णय ग्रन्थ ।। कर सकता है। और इसलिए श्रावकोंका इस वाक्यमें साफ़ तौरसे हमें जैन मुनियों तथा प्राचार्योंके कुछ कृत्योंकी समा ग्रन्थोकी अच्छी तरहसे परीक्षा और लोचना करना, उनके गुणदोष जतलाना, समालोचना करके उनके विषयको ग्रहण अधिकारकी दृष्टिसे कोई अनुचित कार्य करनेकी सलाह दी गई है और उसका नहीं है। इसके सिवा हम सेठसाहबसे कारण यह बतलाया गया है कि जैनधर्मपूछते हैं कि क्या साधु सम्प्रदायमें कपट का वास्तविक मार्ग आजकल पाच्छावेषधारी, द्रयलिंगी, शिथिलाचारी अल्प दित हो रहा है-कलियुगने उसमें तरह शानी,और अनेक प्रकारके दोषोंको लगाने तरहके काँटे और झाड़ खड़े कर दिये हैं : वाले साधु तथा आचार्य नहीं हुए हैं ? जिनको साफ करते चलनेकी जरूरत है। क्या आचार्यों में मठाधिपति (गहीनशीन) पं० आशाधरजीने 'अनगारधर्मामृत' की भहारक लोग शामिल नहीं हैं ? क्या ऐसे टीकामें किसी विद्वान्का जो निम्नलिखित प्राचार्योंके बनवाये हुए सैकड़ों ग्रन्थ वाक्य उद्धृत किया है वह भी ध्यानमें जैनसमाजमें प्रचलित नहीं हैं ? क्या इन रखे जानेके योग्य है - प्रन्थों में श्रमणाभास भट्टारकोंने अपनेको पण्डितैर्धष्ट चारित्रैबठरैश्च तपोधनैः । * देवागमनभोयान चामरादि विभूतयः । मायाविष्वपि शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मालिनी कृतम् ।। दृश्यते नातस्त्वमासिनो महान् ॥–श्राप्तमीमांसा । · + ऐसे ही साधुओको लक्ष्य करके 'सजनचित्तवल्लम' . इस बातमें सखेद यह बतलाया गया आदि ग्रन्थों में उनकी कडी आलोचना की गई है। है कि जिनेन्द्र भगवानके निर्मल शासन For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैनहितैषी। [ भाग १५ को भ्रष्टचारित्र पण्डितों और धूर्त मुनियों से घबराते हैं उनकी जैनधर्मविषयक श्रद्धा, ने मलीन कर दिया है। और इससे भी हमारी रायमें बहुत ही कमज़ोर है और यही ध्वनित होता है कि हमें जैनग्रन्थों के उनकी दशा उस मनुष्य जैसी है जिसे विषयको बड़ी सावधानीके साथ, खूब अपने हाथ में प्राप्त हुए सुवर्णपर उसके , परीक्षा और समालोचनाके बाद, ग्रहण शुद्ध सुवर्ण होने का विश्वास नहीं होता करना चाहिए, क्योंकि उक्त महात्माओं- और इसलिए वह उसे तपाने आदिको की कृपासे जैनशासनका निर्मल रूप बहुत परीक्षामें देते हुए घबराता है और यही कुछ मैला हो रहा है । ऐसी हालतमें कहता है कि तपानेकी क्या जरूरत है. मालूम नहीं होता कि सेठसाहब ग्रन्थोंकी तपानेसे सोने का अपमान होता है। और परीक्षाओं और समालोचनाओंसे क्यों उसको आगमें डालनेवाला सोनेका प्रेमी इतना घबराते हैं और क्यों उसका दर्वाजा कैसे कहला सकता है ! जो लोग शुद्ध बन्द करनेकी फिकरमें हैं। क्या आप सुवर्ण के परीक्षक नहीं होते और अपने जिनसेन त्रिवर्णाचारके कर्ता जैसे प्राचार्यो- खोट मिले हुए सुवर्णको ही शुद्ध सुवर्णको 'परमपूज्य' प्राचार्य समझते हैं और की रष्टिसे देखते हैं और उसीसे प्रेम ऐसे ही प्राचार्योंकी मानरक्षाके लिए रखते हैं, उनके सुवर्ण में कभी किसी परीआपका यह सब प्रयत्न है ? यदि ऐसा है क्षक द्वारा खोट निकाले जानेपर उनकी तो हमें कहना होगा कि आप बड़ी भारी प्रायः ऐसी ही दशा हुआ करती है। ठीक भूलमें हैं । अब वह जमाना नहीं रहा यही दशा इस समय हमारे सेठसाहबकी और न लोग इतने मूर्ख हैं जो ऐसे जाली जान पड़ती है। उन्हें अपने सुवर्ण (श्रद्धाप्रन्योंको भी माननेके लिए तैयार हो स्पद साहित्य) के खोट मिश्रित करार जायँ । सहृदय विद्वत्समाजमें अब ऐसे दिये जानेका भय है और उसके संशोधन ग्रन्थलेखक कोई आदर नहीं पा सकते कराने में सुवर्णका वज़न कम हो जानेका और न स्वामी समन्तभद्र जैसे महा- डर है । इसी लिए आप ऐसे ऐसे नवीन प्रतिभाशाली और अंपूर्व मौलिक ग्रन्थोंके संदेश सुनाकर-समालोचकोंको अजैनी निर्माणकर्ता आचार्योका आदर तथा करार देकर-परीक्षाका दर्वाज़ा बन्द गौरव कभी कम हो सकता है। इसलिए कराना चाहते हैं और शायद फिरसे समालोचनाओंसे घबरानेकी ज़रूरत अन्धश्रद्धाका साम्राज्य स्थापित करनेकी नहीं। ज़रूरत है समालोचनामे कही हुई फिकरमें हैं ! किसी अन्यथा बातको प्रेमके साथ सम- आपने अपने सन्देशमें एक बात यह झानेकी, जिससे उसका स्पष्टीकरण हो भी कही है कि हमें किसी सभाके सभासके। समालोचनामोसे दोषोंका संशो- पति, किसी पत्रके सम्पादक और किसी धन और भ्रमोका पृथकरण हुआ करता स्थानके पण्डितकी बातोपर ध्यान नहीं है और उससे यथार्थ वस्तुस्थितिको देना चाहिए और न उन्हें प्रमाण मानना समझकर श्रद्धानके निर्मल बनाने में भी चाहिए; बल्कि 'गुरूणां अनुगमनं' के बहुत बड़ी सहायता मिलती है। इसलिए सिद्धान्तपर चलना चाहिए । अर्थात्, सत्यके उपासकों द्वारा सद्भावसे लिखी हमारे गुरुनोने, पूर्वाचार्योंने जो उपदेश हुई समालोचनाएँ सदा ही अभिनन्दनीय दिया है उसीके अनुसार हमें चलना होती हैं। जो लोग ऐसी समालोचनामों चाहिए । यह सामान्य सिद्धान्त कहने For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ६ ] सुनने में जितना सुगम और रुचिकर मालूम होता है, अनुष्ठानमें उतना सुगम और रुचिकर नहीं है । बहुतसे गुरुश्रोंके वचनोंमें परस्पर भेद पाया जाता हैहर एक विषय में सब श्राचार्योंकी एक राय नहीं है । जब पूर्वाचार्योंके परस्पर विभिन्न शासन और मत सामने आते हैं तब श्रच्छे अच्छे श्राशाप्रधानियोंकी बुद्धि चकरा जाती है और वे 'किं कर्तव्य विमूढ़' हो जाते हैं । उस समय परीक्षाप्रधानता और अपने घरकी अकलसे काम लेनेसे ही काम चल सकता है । अथवा यो कहिये कि ऐसे परीक्षाप्रधानी और खोजी विद्वानोंकी बातोंपर ध्यान देनेसे ही कुछ नतीजा निकल सकता है, केवल 'गुरूणां श्रनुगमनं' के सिद्धान्तपर बैठे रहने से नहीं । हम सेठ साहबसे पूछते हैं कि, (१) एक आचार्य सीताको रावण की पुत्री और दूसरे जनककी पुत्री बतलाते हैं, (२) जम्बू स्वामीका समाधि स्थान एक मथुरामें, दूसरे विपुलाचल पर्वतपर और तीसरे कोटिकपुरमें ठहराते हैं; (३) भद्रबाहु के समाधि-स्थानको एक श्रवण वेल्गोलके चन्दगिरि पर्वतपर और दूसरे उज्जयिनीमें बतलाते हैं:(४) श्रावक - के अष्ट मूल गुणोंके निरूपण करनेमें एक प्राचार्य कुछ कहते हैं, दूसरे कुछ और तीसरे चौथे कुछ और ही (५) कुछ आचार्य छठी प्रतिमाको 'दिवामैथुन त्याग' बतलाते हैं और कुछ 'रात्रिभोजन विरति', (६) कोई गुरु रात्रि भोजनविरति को छठा अणुव्रत करार देते हैं और कोई नहीं; (9) गुणवत और शिक्षावतके कथनमें भी चाय में परस्पर मतभेद है*; (E) कितने ही श्राचार्य ब्रह्मावतीके लिए नया संदेश | ● देखो हमारे शासनभेद सम्बन्धी लेख, जैन हितैषी भाग १४ अंक १,२-३, ७-८०६ । १६५ वेश्याका निषेध करते हैं और कुछ सोमदेव जैसे श्राचार्य उसका विधान करते हैं। इसी तरहके और भी सैकड़ो मतभेद हैं; इनमें से प्रत्येक विषयमें कौनसे गुरुकी बात मानी जाय और कौनसे की नहीं ? जिसकी बात न मानी जाय उसकी श्राज्ञा भङ्ग करनेका दोष लगेगा या नहीं ? और तब क्या उक्त 'गुरूणांमनुगमनं' के सिद्धान्तमें बाधा नहीं श्रावेगी ? आप उस गुरुको गुरुत्वसे ही च्युत कर देंगे ? परीक्षा, जाँच-पड़ताल और युक्तिवादको छोड़कर, आपके पास ऐसी. कौनसी गारंटी है जिससे एक 'गुरुकी बात मानी जाय और दूसरेकी नहीं ? कृपाकर यह तो बतलाइये कि जितने श्राचार्यों, भट्टारको आदि गुरुश्रोंके वचन (शास्त्र) समाजमें इस समय प्रचलित हैं, अथवा सुने जाते हैं उनमें से आपको कौन कौनसे गुरुओोंके वचन मान्य हैं, जिससे आपके 'गुरूणां अनुगमनं सिद्धान्तका कुछ फलितार्थ तो निकले - लोगोंको यह तो मालूम हो जाय कि श्राप श्रमुक अमुक गुरुश्रों, ग्रन्थकारोंकी सभी बातोंको आँख बन्द कर मान लेनेका परामर्श दे रहे हैं। साथ ही यह भी बतलाइये कि यदि उनके कथनों में भी परस्पर विरोध पाया जाय तो फिर आप उनमें से कौनसेको गुरुत्वसे च्युत करेंगे और क्योंकर । केवल एक सामान्य वाक्य कह देनेसे कोई नतीजा नहीं निकल सकता । भले ही साक्षात् गुरुश्रोंके सम्बन्धमें आपके इस सिद्धान्त वाक्य का कुछ अच्छा उपयोग हो सके, परन्तु परम्परा गुरुओं और विभिन्न मतोंके धारक बहुगुरुओके सम्बन्धमें वह बिलकुल निरापद मालूम 1 * • वधूवितस्त्रियो मुक्त्वा सर्वत्रोन्यत्रतजने । मातास्वसातनूजेति मतिर्ब्रह्म गृहाश्रमे || ( यशस्तिलक) For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। [भाग १५ नहीं होता और न सर्वथा उसीके आधार पण्डितगण और इतिहास । पर रहा जा सकता है-खासकर इस कलिकालमें जब कि भ्रष्टचरित्र पण्डितों लेखक-पण्डित नाथूरामजी प्रेमी ] . और धूर्त मुनियों के द्वारा जैनशासन बहुत इधर कुछ पण्डित महाशयोकी कृपाकुछ मैला (मलिन) किया जा चुका है। दृष्टि हम लोगोंके पीछे खुफिया पुलिसके आजकल हिन्दू साधुओं में कितना समान रहने लगी है। हम लोगोंकी प्रत्येक अत्याचार बढा हश्रा है और वे अपने हरकतपर और प्रत्येक बातपर उन्हें साधधर्मसे कितने पतित हो रहे हैं! सन्देह होने लगा है। दुर्भाग्यसे हम उनकी चरित्रशुद्धि और उत्थानके लिए लोगोंका नाम 'बावू-दल' के रजिस्टरमें अथवा दूसरोंको सन्मार्ग दिखलानेके लिख लिया गया है और पण्डितशाही लिए, क्या किसी गृहस्थको यह समझकर इस दलको उसी भयभीत दृष्टिसे देखती उनके दोषोंकी मालोचना नहीं करनी है जिससे 'नौकरशाही' असहयोगचाहिए कि वे साधु हैं और हम गृहस्थ, वादियों को देखती है। उसे भय हो गया हमें गुरुजनोंकी समालोचना करनेका का है कि हम लोगोंकी प्रत्येक बात और अधिकार नहीं? और क्या ऐसी समा- प्रत्येक चर्चा जैनधर्मको मिट्टीमें मिला लोचना करनेवाला हिन्दू नहीं रहेगा ? देनेवाली है, इसलिए वह हमसे सदा यदि सेठ साहब ऐसा कुछ नहीं मानते, सावधान रहना चाहती है। इस निर्मूल बल्कि देश, धर्म और समाजकी उन्नतिके भयने उसकी मतिको गुसाई तुलसीलिए वैसी समालोचनाओंका होना दासजीके शब्दों में 'कीट-भृगकी नाई। आवश्यक समझते हैं तो उन्हें जैन-समा- बना दिया है। यही कारण है जो उसे लोचकोंको भी उसी दृष्टिसे देखना हम लोगों के इतिहास-सम्बन्धी लेखों में चाहिए। कोई वजह नहीं है कि क्यों त्रुटि- भी उक्त भय मुँह फाड़े हुए नज़र आने पूर्ण साधुओं और त्रुटिपूर्ण ग्रन्थोंकी, लगा है। हमें उसकी इस अवस्था पर बड़ी सम्यक् आलोचनाद्वारा, त्रुटियाँ दिखला- दया भाती है; परन्तु ऐसा कोई उपाय कर जनताको उनसे सावधान न किया नहीं सूझता जिससे वह इस भयसे मुक्त जाय और क्यों इस तरहपर उन्नतिके हो जाय । मार्गको अधिकाधिक प्रशस्त बनानेका पण्डित महाशयोको यह हम कैसे यत्न न किया जाय। समझा कि इतिहास बहुत ही कठोर आशा है, वस्तुस्थितिका दिग्दर्शन और निर्मम सत्यका उपासक है। वह करानेवाले हमारे इस नोटपर सेठ साहब न वेदशास्त्रों का लिहाज करता है और न शान्तिके साथ विचार करेंगे और बन परम्परासे चले आये हुए विश्वासोका । सकेगा तो, संयत* भाषामें, योग्य उत्तर- वह उसी ओरको अपना मस्तक झुकाता से भी कृतार्थ करनेकी कृपा करेंगे। है जिस ओर 'सत्यदेव' अपने निर्विकारसरसावा । वैशाख कृष्ण ६ सं १६७। रूपमें विराजमान दिखलाई देते हैं। यह बात भी उनके गलेमें कैसे उतारी जाय कि ऐसे लेखोंपर यहाँ प्रायः कोई विचार नहीं किया इतिहासके लेखक या खोज करनेवाले जाता जो असंयत, असभ्ब अथवा द्वेषपूर्ण भाषामें सवेश नहीं होते और इसलिए उनसे लिखे हों।-सम्पादक । भूलें होना कुछ अस्वाभाविक बात नहीं For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रङ्क ६ ] है । उनके अनुमानोंके सत्य होनेकी जितनी सम्भावना होती है, श्रसत्य और निर्मूल होने की भी उससे कम नहीं होती । बुद्धिकी कमी और गहरा अध्ययन न होनेके कारण उनके प्रमाण भी कभी कभी पतिगण और इतिहास । प्रमाण ठहर जाते हैं । परन्तु यह सब कुछ होनेपर भी इतिहास-लेखकोंपर यह अपराध नहीं लगाया जा सकता कि उनकी दयानत - उनका अभिप्राय अच्छा नहीं है । जो उनसे अधिक अध्ययनशील और विद्वान् होते हैं, वे उनकी भूलें बतलाते हैं और वे उन्हें सादर स्वीकार कर लेते हैं । भूलें होती हैं, इस कारण किसीको इतिहासकी चर्चा ही न करनी चाहिए, ऐसा नादिरशाही हुक्म निकाला भी जाय तो उसका अर्थ यही होगा कि हमें इतिहासकी कोई आवश्यकता ही नहीं है ।. पण्डितजनों को यह समझा देना भी हमारी शक्तिसे परे है कि परम्परासे चले आये हुए सभी विश्वास, सभी किंवदन्तियाँ और कथा-कहानियाँ इतिहास नहीं हैं । इनके भीतर इतिहासका श्रंश हो सकता है; परन्तु वे सर्वांश में सत्य नहीं मानी जा सकतीं। और जबतक वे यह नहीं समझ लेते हैं, तबतक उनका भय दूर हो भी कैसे सकता है ? दुर्भाग्य से जैनधर्म और जैनसाहित्यका इतिहास अभीतक बहुत ही अन्धकार में पड़ा हुआ है। ज्ञानके इस बड़े भारी श्रावश्यक साधनको खड़ा करने के लिए अभीतक जो कुछ प्रयत्न हुए हैं वे प्रायः न होनेके ही बराबर हैं । उचित तो यह था कि ये पण्डित लोग — जिन्हें जैनसमाजने बड़ी बड़ी श्राशायें बाँधकर तैयार किया है— इस साधनके तैयार करने में सबसे अधिक हाथ बँटाते और अपने परिश्रम तथा अध्ययनशीलताके १६७ द्वारा इस अन्धकारपूर्ण मार्गको प्रकाशित करते । सो न करके उलटे ये पण्डित उन लोगोंके मार्ग में रोड़े अटकाते हैं जो अपनी थोड़ीसी शक्ति और योग्यताके बलपर जो कुछ बन सकता है, शुद्ध भावनाओसे किया करते हैं। अपनी उक्त 'ate भृङ्गकी नाई' मतिके कारण इन्हें इतिहास के इस शुद्ध और सरल मार्गमें भी वही 'भयका भूत' दिखलाई देता है और ये बीच बीचमें चीख उठते हैं कि “देखो ये बड़े चालाक हैं, तुम्हारी आँखोंमें धूल झोंक देंगे, ये श्वेताम्बरोंसे विशेष प्रेम रखते हैं, इनकी बातोंपर विश्वास मत करो ।" इत्यादि । पण्डितोंके इस भयको दूर करनेका केवल एक ही उपाय हो सकता है और वह यह कि हम लोग इस कामको करना छोड़ दें और इनके धर्ममार्गको निष्कएटक बना दें। परन्तु दुःख तो यह है कि अभीतक ये बेचारे इतिहासका 'श्रीगणेश' भी नहीं जानते हैं और इतिहासकी एक पंक्ति और एक वाक्यके लिखनेके लिए कितना परिश्रम और कितनी ढूँढ़-खोज करनी पड़ती है, उसकी इन्हें कल्पना भी नहीं है । गत बीस वर्षोंमें दिगम्बर जैनसाहित्य के इतिहासके सम्बन्धमें जो कुछ थोड़ा बहुत काम हुआ है, उसमें इनका शायद ही कहीं कोई हाथ हो। और आगे भी हमें यह श्राशा नहीं है कि इतिहास के मार्गमें धींगाधींगी करनेके सिवा इनके द्वारा कोई वास्तविक काम होगा । अभी श्रभी गन्धहस्तिमहाभाष्य, सिद्धसेन दिवाकर, सूक्तमुक्तावली और नयचक्र श्रादिके सम्बन्धमें कुछ पण्डित महाशयोंके द्वारा जिस ढंग और जिस शैलीसे लिखे हुए उत्तर लेख प्रकाशित हुए हैं, उन्हें पढ़कर निष्पक्ष पाठक यह अच्छी तरह जान लेंगे कि उनमें इतिहास For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जैनहितेषी। [ भाग १५ चर्चा करनेकी कितनी योग्यता है और की है और इस तरह इतिहास जैसे हम लोगोंके इतिहाससम्बन्धी प्रयनोंकी आनन्दप्रद विषयको अतिशय कटुक्लेश ओर वे कैसी भीत और सशंक दृष्टिसे कर बना दिया है । पण्डित बंशीधरजी देखते हैं। __ शास्त्रीने तो बाबू जुगलकिशोरजी पर "जो लोग इतिहास और पुरातत्व यहाँतक इलज़ाम लगाया है कि वे गन्ध. सम्बन्धी पत्रोंको पढ़ते हैं, वे जानते हैं हस्तिमहाभाष्यके अस्तित्वका लोप इस कि एक इतिहासकी भूलको दूसरा इति-: कारण कर रहे हैं कि “कहीं ऐसा न हो हासज्ञ कैसी सभ्यता, शिष्टता और भाषा- कि अधिक प्राचीन एक महाग्रन्थ उपसमितिकी रक्षा करता हुआ प्रकट करता लब्ध हो जाय और उससे उपलब्ध है। और फिर उसका विरोध करनेवाला प्रागमोकी जड़ और भी पक्की हो जाय । अपना दूसरा मत कैसी अच्छी शैलीसे नास्तिकोंका जो डर है उसका एक मात्र स्थापित करता है। उसमें न कटाक्षोंका यही कारण है और इसलिये उक्त ग्रन्थकाम पड़ता है और न कटूक्तियोंका, और राजकी खोजमें लगनेसे लोगोंको विमुख इस तरह इतिहासके बड़ेसे बड़े गूढ़ करनेका प्रयत्न किया जा रहा है।" धन्य प्रश्न हल हो जाते हैं। परन्तु यहाँ तो यह है इस पाण्डित्यको और धन्य है उस हाल है कि हम लोगोंने कोई नई बात मस्तिष्कको जिसमेंसे ऐसे पवित्र विचार लिखी और पण्डित महाशयोको उसमें निकलते हैं ! हमारी दुरभिसन्धिकी-चालाकीकी- उक्त जमा-खोकोपकाया करयहइच्छा व भाई ! नहीं होती कि उनके प्रतिवादमें कुछ उक्त विषय, जिन पर पण्डित महा- लिखा जाय । लिखने में हम लोग पेश शयोंके विरोधी लेख निकले हैं, इतने भी नहीं पा सकते। परन्तु फिर भी महत्वके और मनोरंजक हैं कि उनपर यह आवश्यक प्रतीत होता है कि कमसे बड़े अच्छे ढंगसे बरसों चर्चा चल कम उन बातोंका प्रत्युत्तर अवश्य दे दिया सकती थी। उनमें कटूक्तियों और व्यक्ति- जाय, जो केवल इतिहाससे सम्बन्ध गत भाक्षेपोंके लिए तो कोई स्थान ही रखती हैं और जिनके कारण लोग भ्रममें नहीं था। जो बातें हम लोगोंने लिखी है, पड़ सकते हैं। वे यदि भ्रमयुक्त हैं तो उनके विरुद्ध इस अङ्कमें मैंने 'नयचक्र' सम्बन्धी प्रमाणोंके पाते ही हम उन्हें मान लेते; लेखका उत्तर दे दिया है। अन्यान्य लेखोंऔर यदि हम दुराग्रहसे या हठसे न का उत्तर भी यथावकाश देनेका प्रयत मानते, तो कमसे कम जो विचारशील हैं किया जायगा। उन्हें तो मानना ही पड़ता। सो न करके पण्डित महाशयोंने प्रतिपाद्य विषयोंकी अपेक्षा स्वयं हम लोगोंपर ही विशेष कृपा For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ६ संकटनिवारण फंडका ट्रस्ट डीड। संकटनिवारण फंडका ट्रस्टडीड। । पत्र ( Deed of Trust ) द्वारा, एक " विश्वास कोष (Trust) स्थापित करता [सेठी अर्जुनलालजीके मज़रबन्द हूँ, कि ऊपरकी रकममें एक सालका किये जानेके समय ब्रह्मचारी शीतल- ब्याज दर ॥ सैंकड़ा जोड़कर १२७६प्रसादजीकी प्रेरणासे उक्त नामका जो ६-३ एक हज़ार, दो सौ छिहत्तर रुपये, फएड खोला गया था, उसका कुछ रुपया नौ पाने, तीन पाई, (जिसको मैंने 'ट्रेडिंग बाबू अजितप्रसाद साहब वकील हाई ऐण्ड बैंकिंग हाउस' लखनऊमें ब्याजपर कोर्ट लखनऊके पास जमा हुआ था, जमा कर दिया है)* जैन जनताके उपजिसका वे हिसाब प्रकाशित करते रहे कारार्थ जमा रहेगी। चाहे इस ही बैंकमें हैं। हालमें बाबू साहबने, अपने सिरका चाहे कहीं और-और इसके ब्याज अथवा बोझा हलका करनेके लिए, उक्त फण्डकी यदि आवश्यकता हो, तो मूलसे, जैन रकमपर सूद लगाकर उसे 'ट्रेडिंग ऐण्ड जनताका यथोचित उपकार होता रहेगा। बैंकिंग हाउस लखनऊ में तीन व्यक्तियों- इस कोषके प्रबन्धक (Trustees) के नामसे सूदपर जमा करा दिया है श्रीमान् जैनधर्भ-भूषण ब्रह्मचारी शीतल- . और साथ ही, उसका एक ट्रस्ट डीड प्रसादजी, पण्डित नाथूराम प्रेमी बम्बई, लिखकर उसकी रजिस्टरी भी करा दी पण्डित जुगुलकिशोरजी सरसावा, है। ट्रस्ट डीड (Trust deed) की एक ज़िला सहारनपुर, श्रीयुत ज्योतीप्रसाद, नकल बाबू साहबने जैनहितैषीमें प्रका- सम्पादक जैनप्रदीप, देवबन्द और मैं शित करनेके लिए हमारे पास भेजी है अजितप्रसाद रहेंगे। प्रबन्धक बहसम्मतिजिसे हम अपने पाठकोंके अवलोकनार्थ से इस कोषके उपयोगार्थ नियम बनावें। नीचे प्रकट करते हैं-सम्पादक।] मैं इस विश्वासपत्रको यथाशक्ति बदल __ सर्वसाधारण जनता और विशेष (Modify) वा खण्डित (Cancel) कर करके जैन जनताको विदित हो कि सकूँगा। और मेरे देहान्तपर अन्य प्रबश्रीमान जैनधर्मभूषण ब्रह्मचारी शीतल- न्धक ऐसा ही बहुसम्मतिसे कर सकेंगे। प्रलादजीके उपदेशले जैन जनतामें पण्डित अजितप्रसाद अर्जुनलाल सेठी बी० ए० को सन् १६१४ (Sd) Ajit Prasad में नज़रबन्द किये जाने पर एक कोष वकील हाईकोर्ट, लखनऊ । सङ्कट निवारण फण्डके नामसे स्थापित किया था। कुछ रुपया उस फण्डका मेरे (Sd) Witness पास आता रहा और जमाखर्च होता Gokul Chand Rai रहा, जिसका हिसाब मैं जैन गज़ट और Vakil . जैनमिंत्र समाचारपत्रों में प्रकाशित करता 22-3-2 Registerd as No. रहा। मई १६२० में मेरे पास १२०४-६- (Sd) Jaswant Rai 199 in Book in ३ थे (जैनमित्र मिती आषाढ़ सुदी १५ से Shamna Vol.293. pp. 97 22-3-2 &98 on 30.3.21. २४४६)। एक सालके करीब हो चुका, किन्तु जैन जनताने इस विषयमें अभी ___ * इस रुपएकी रसीद नं० २५० है जो श्रीमान् तककुछ निर्णय नहीं किया। अतः इस ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद, अजितप्रसाद और पण्डित भारसे हलके होनेके हेतुमें इस विश्वास- जुगलकिशोर के नाम है। Witness For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। [भाग १५ औ मणमें मेरे लिए जो इस तरहके कृपानयचक्र और देवसेनसूरि । मण वाक्य लिखे हैं कि-'प्रेमीजीने जनताकी (ले०-श्रीयुत् पं० नाथूरामजी प्रेमी।) आँखों में धूल झोंकनेका प्रयास किया है।" माणिकचन्द्र ग्रन्थमालाके १६ वें 'प्रेमीजीको श्वेताम्बरोंसे अधिक प्रेम है।" प्रन्थ 'नयचक्र संग्रह के भूमिका-स्वरूप उनका तो मैं क्या उत्तर दूं। मेरे लेखोंके मैंने एक लेख लिखा था। उसमें मैंने यह पढ़नेवाले विचारशील पाठक स्वयं इनसिर किया था कि श्लोकवार्तिकों का उत्तर दे लेंगे। परन्तु कुछ बातें ऐसी विद्यानन्दस्वामीने जिस नयचक्रका उल्लेख हैं कि उनका उत्तर दे देना आवश्यक किया है, वह नयचक्र देवसेनसूरिके इस प्रतीत होता है। नयचक्रसे कोई जदा ग्रन्थ होना चाहिए। १-पं० पन्नालालजी सोनीका कथन क्योंकि विद्यानन्दस्वामी देवसेनसूरिसे है कि देवसेनसूरिने अपना 'दर्शनसार' पहले हुए हैं, अतएव वे देवसेनके नय- वि० संवत् ६०६ में बनाया है, 880 में चक्रका उल्लेख नहीं कर सकते। श्वेताम्बर नहीं । परन्तु वास्तवमें यह उनकी भूल सम्प्रदायके मल्लवादि प्राचार्यका बनाया है। दर्शनसारमें माथुरसंघकी उत्पत्तिका दुमा भी एक 'नयचक्र' नामका ग्रन्थ है। समय वि० सं०६५३ लिखा है (गाथा वह श्लोकवार्तिकसे पहलेका बना हुआ ४.)। यदि दर्शनसार ६०६ में बना होता । है। सम्भव है कि विद्यानन्दस्वामीने तो उसमें 8५३ में होनेवाले माथुरसंघकी उसीका उल्लेख किया हो। अथवा "यह उत्पत्ति कैसे लिखी जाती ? दर्शनसारकी भी सम्भव है कि देवसेनके अतिरिक्त वह विवादग्रस्त गाथा इस प्रकार है:अन्य किसी दिगम्बराचार्यका भी कोई रइओ दंसणसारो हारो मयचक्र हो और विद्यानन्द स्वामीने उसीका उल्लेख किया हो।" इन वाक्योंसे . भव्वाण णवसए जवए । विचारशील पाठक समझ सकते हैं कि सिरिपासणाहगेहे सुविसुद्धे मुझे यह सिद्ध करनेका जरा भी आग्रह - माहसुद्धदसमीए ॥५०॥ नहीं है कि मैं उस नयचक्रको श्वेताम्बरा- दर्शनसारकी पं० शिवजीलाल कृत चार्यकृत ही सिद्ध करूँ। मुझे एक बात एक भाषावचनिका है। उसमें भी इस मालूम थी कि मलवादिका भी एक नय- गाथाका अर्थ यही किया गया है कि चक्र है, अतएव उसका उल्लेख कर दिया वि० संवत् 880 में यह ग्रन्थ रचा गया। था कि शायद उससे इस प्रश्नके हल 'णावसए णवए' की छाया 'नवशते नवके' . करने में कुछ सहायता मिल जाय कि न करके 'नवशते नवतौ करनेसे यह अर्थ श्लोकवार्तिकोल्लिखित नयचक्र दरअसल ठीक बैठ जाता है । यदि 'नवति' का कौनसा ग्रन्थ है। परन्तु हमारे पण्डित सप्तम्यन्त प्राकृतरूप 'णवए' नहीं बनता महाशयोको यह बात कैसे सहन हो तो मूल पाठ 'णवदीए' या 'णवईए' सकती थी कि मैं एक श्वेताम्बराचार्यके होगा। दो चार प्राचीय प्रतियोके देखने- ' प्रन्थका उल्लेख कर जाऊँ और वे उसका से इसका निश्चय हो जायगा* । परन्तु प्रतिवाद न करें। बस, मुझपर सदय * पारा जैनसिद्धान्त भवनकी एक प्रतिमें 'णवसए दय होकर कई धुरन्धर पण्डितोंने एक उए' ऐसा पाठ है मो नौ सो नब्वेका ही वाचक मालूम साथ भाक्रमण कर दिया है । इस आक्र- होता है। 'णवदीप' और 'णयाए। ये दोनों पाठ यहाँ For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रङ्क ६ ] यह बिलकुल स्पष्ट है कि जब दर्शनसारमें माथुरसंघकी उत्पत्तिका समय ६५३ लिखा है तब वह उसके ३०-४० वर्ष बाद ही बना होगा। मैंने अपने 'दर्शनसार' के अन्तिम पृष्ठ पर 'भ्रमसंशोधन' शीर्षक - के नीचे इस बातका उल्लेख कर भी दिया है; परन्तु मालूम नहीं सोनीजीने ग्रन्थको कैसे पढ़ा है जो यह लिख दिया कि मैंने दर्शसारमें उसके कर्त्ताका समय सं० 808 लिखा है । नयचक्र और देवसेनसूरि । २ - श्लोकवार्तिकके कर्त्ता विद्यानन्दस्वामी किस समय हुए हैं, इसका निर्णय मैंने जैनहितैषी भाग ६ पृष्ठ ४३६-५५ में किया है और उसीका सारांश युक्त्यनुशा सनकी भूमिका में दिया गया है। उसके अनुसार विद्यानन्दस्वामीका ग्रन्थ-रचना काल वि० सं० ८४० से ८६५ के बीच निश्चित होता है । ८४० के बाद कहनेका कारण यह है कि हरिवंशपुराण में - जो वि० सं० ६४० में समाप्त हुआ है-उस समयके प्रायः सभी दाक्षिणात्य जैना नहीं बन सकते, क्योंकि इनमें से किसीके स्वीकार करनेपर छन्दमें दो मात्राएँ बढ़ जाती है। भले ही भजैन और श्रनार्थं प्राकृत में 'नवति' शब्दका सप्तम्यन्तरूप 'एवदीए' या 'वईए' बनता हो, परन्तु श्रार्य प्राकृत में उसका रूप 'ए' या 'वर' होना भी बहुत अधिक संभव है; क्योंकि भार्ष प्राकृत 'बहुल' रूपसे होती है और उसमें संपूर्ण विधियोंका विकल्प किया जाता है जैसा कि हेमचन्द्राचार्य के निम्न वाक्योंसे प्रकट है-"आर्ष प्राकृतं बहुलं भवंति । श्रर्षेहि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते ।" त्रिवि - क्रम नामके दि० जैनकषि भी इस विषय में प्रायः ऐसा ही सूचित करते हैं और भार्ष प्राकृत का कोई खास नियम ( लक्षण ) न बतलाकर सम्प्रदायको ही उसका बोधक ठहराते हैं। यथा देश्यमार्ष च रूढत्वात्स्वतन्त्रत्वाच्च भूयसा । लक्ष्म नापेचते तस्य संप्रदायोहि बोधकः ॥ इसलिए प्राकृत में उक्त 'उए' या 'एवए' रूपका होना जरा भी अप्राकृतिक नहीं मालूम होता । -सम्पादकं । १७१ चार्योंका स्मरण किया गया है, परन्तु उनमें विद्यानन्दका नाम नहीं है। इसके सिवा दो कारण और हैं जिनसे वे =४० के बादके ही मालूम होते हैं। एक तो, यह कि प्रसिद्ध मीमांसक विद्वान् कुमारिलभट्टका समय वि० सं० ७५७ से ८१७ तक निश्चित है और वे अकलंकदेवके समकालीन विद्वान् हैं, बल्कि श्रकलंकदेवके बाद भी कुछ समयतक जीते रहे हैं। क्योंकि उन्होंने अपने श्लोकवार्तिक में अष्टशतीके अनेक वाक्योंको उद्धृत करके उनका खण्डन किया है और अकलंकदेवके स्वर्गवास के बाद उसका प्रतिखण्डन विद्यानन्दस्वामीने अष्टसहस्रीमें किया है । दूसरे, राठौर राजा साहसतुंग या शुभतुङ्गका राज्यकाल वि० सं० ८१० से ८३२ तक है और भट्टाकलंकदेव उसकी सभा में शास्त्रार्थ करने गये थे । विद्यानन्दस्वामी अकलंकदेवके पश्चाद्वर्ती हैं, अतः उनका समय ८३२ के बाद मानना अनुचित नहीं जान पड़ता । वि० सं० ८६५ के पहले माननेका कारण यह है कि श्रादिपुराण में विद्यानन्दस्वामी ( पात्र केसरी) का स्मरण किया गया है, जिससे मालूम होता है कि उस समय उनकी खूब ख्याति हो चुकी थी । ३- परन्तु यह वि० संवत् ८६५ उनके अस्तित्वका अधिक से अधिक पिछला समय हो सकता है। इसके बाद तो उन्हें मान ही नहीं सकते । क्योंकि पूर्वोक श्रादिपुराण में चन्द्रोदयके कर्त्ता आचार्य प्रभाचन्द्र ने अपने प्रमेयकमलमार्तण्ड में विद्यानन्दस्वामीका उल्लेख किया है । ऐसी अवस्थामें विद्यानन्दस्वामीको प्रभाचन्द्रका उल्लेख करनेवाले श्रादिपुराणसे यदि ३०-४० वर्ष पहले माना जाय, तो कुछ अयुक्त न होगा । ४ - इस तरह दर्शनसारके कर्त्ता For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ देवसेनके और विद्यानन्द के समयमें लगभग १५० वर्षका अन्तर पड़ जाता है और इस कारण विद्यानन्दस्वामीके लिए उक्त देवसेनके नयचक्रका उल्लेख करना कदापि सम्भव नहीं है | यदि थोड़ी देरके लिए यह भी मान लिया जाय कि दर्शनसार ०६ में ही बना है, तो भी वह विद्यानन्दस्वामीका पूर्ववर्त्ती तो कदापि नहीं हो सकेगा । ५- सोनीजीका आक्षेप है कि हमने विद्यानन्द और देवसेन दोनों श्राचार्योंका समय जुदा जुदा स्थानोंमें 'चतुराईसे' 'चालाकीसे' जुदा जुदा बतलाया है । परन्तु मेरा निवेदन है कि वास्तव में ऐसा नहीं है। सोनीजीको अपनी घोर कट्टरताके कारण मैं जो कुछ लिखता हूँ, उसमें 'चतुराई' और 'चालाकी' ही दिखलाई देती है । दर्शनसारको विवेचनामें लिखा हुआ आप देवसेनका समय 'सं० ६०६' तो पढ़ लेते हैं; परन्तु उसीके अन्तिम पृष्ठपर छपा हुआ भ्रमसंशोधन नहीं पढ़ते जिसमें सूचना दी है कि ""वसप एवए' का अर्थ ६६० करना चाहिए ।" युक्त्यनुशासनकी भूमिका भी शायद आपने अच्छी तरह नहीं पढ़ी है । क्योंकि उसमें विद्यानन्दका समय वि० सं० ८६५ नहीं लिखा है, किन्तु यह लिखा है कि “विद्यानन्दका अस्तित्व वि० सं० ८३२ से 84 के बीचमें माना जाना चाहिए ।" दोनों बातोंमें बहुत अन्तर है । इसी तरह दर्शनसारकी विवेचनामें एक तो विद्यानन्दका समय 'वि० सं० ८००' नहीं किन्तु '८०० के लगभग' है और इतिहास में 'लगभग' का भी कुछ अर्थ होता है, इससे मैं पूर्वापरविरोध दोष से साफ बच जाता हूँ। दूसरे वहाँ भूलसे ८५७ की जगह ८०० लिखा गया है और यह भूल इस कारण हुई है जैनहितैषी । [ भाग १५ कि जैनहितैषी विद्यानन्दस्वामीका जो समय-निर्णय किया गया है, वह विक्रम संवत् नहीं किन्तु ईस्वी सन् के हिसाब से किया है और उसमें यही वाक्य दिया है कि" + + + + विद्यानन्दस्वामीका समय ईस्वी सन् ८०० के लगभग ही निश्चित किया है |" दर्शनलारकी विवेचना लिखते समय यह लेख मेरे सामने था, इस कारण उसमें भी ज्योंका त्यों लिखा गया । वास्तव में ईस्वी सन् ८०० की जगह वि० संवत् ८५s लिखना चाहिए। इस भूलको मैं स्वीकार करता हूँ; परन्तु यह भूल ही है, सोनीजी के हृदयमें बसी हुई 'चालाकी' या 'प्रतारणा' नहीं । ६- लोकवार्तिकमें जिसका उल्लेख किया गया है, वह नयचक्र श्वेताम्बराचार्यका ही होना चाहिए, ऐसा मेरा श्राग्रह नहीं है । परन्तु इस वातको मैं नहीं मानता कि हमारे सम्प्रदायके श्राचार्य श्वेताम्बर सम्प्रदाय या अन्य धर्मी विद्वानोंके ग्रन्थोंका उल्लेख कर ही नहीं सकते, अथवा उनके ग्रन्थोंके श्रव तरण देने या उनपर टीका लिखने में उनके सम्यक्त्वमें कोई बाधा श्रा जाती है । जो विद्वान होते हैं वे सभीके ग्रन्थोंको निष्पक्ष दृष्टिसे पढ़ते हैं और एक सीमातक उनका आदर भी करते हैं । " गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्गं न च वयः ।" यह उदारहृदय विद्वानोंका ही सिद्धान्त है । यद्यपि अभी तक हमारे सम्प्रदायके विद्वानोंका साहित्य बहुत ही कम प्रकाशित हुआ है और जो कुछ प्रकाशित हुआ है, उसका अभीतक अन्वेषिणी बुद्धिसे अध्ययन नहीं किया गया है, फिर भी उपलब्ध साहित्यमेंसे ही ऐसे अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं जिनसे मालूम होता है कि दिο जैन विद्वान भी विभिन्न सम्प्रदायके For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयचक और देवसेनसूरि । विद्वानोंके ग्रन्थों का उल्लेख करते थे, बँगला सं १३१७ के पहले अङ्कमें श्रीधनटीकाएँ लिखते थे और उनके प्रति माली चक्रवर्ती वेदान्ततीर्थ एम० ए० के अपना आदरभाव भी व्यक्त किया करते 'कातन्त्रव्याकरण' शीर्षक लेखको पढ़ना थे। यथा चाहिए । इसके कर्ताके जैन होनेका जैन(१) सुप्रसिद्ध विद्वान् पं० श्राशाधर- साहित्यमें कहीं उल्लेख भी नहीं मिलता। ने, जिनका उल्लेख सोनीजीने 'सूरिकल्प' () श्रादिपुराणके कर्ता भगवजिनविशेषणके साथ किया है. तीन अजैन सेनका पाभ्युदय काव्य कालिदासके ग्रन्थोंकी टीकाएँ लिखी हैं और इनका प्रति उनके आदर-भावका ही द्योतक उल्लेख उन्होंने अपने धर्मामृतशास्त्रकी है। इस किंवदन्तीका खण्डन अच्छी प्रशस्तिमें किया है। इन ग्रन्थों से एक तरह किया जा चुका है कि पाभ्युिदय तो है वाग्भटका सुप्रसिद्ध वैद्यकग्रन्थ काव्य कालिदासको अपमानित या तिर. अष्टाङ्गहृदय और दूसरा है अमरसिंहका स्कृत करने के लिए बनाया गया था। सुप्रसिद्ध अमरकोश । वाग्भट और (५) श्रीसोमदेवसूरिने अपने यशअमरसिंह ये दोनों ही बौद्ध विद्वान् थे। स्तिलकके द्वितीय श्राश्वास (पृष्ठ ३१७) में तीसरा ग्रन्थ है, आचार्य रुद्रटका काव्या- राजाको 'सुकविकाव्यकथाविनोददोहनलङ्कार । यह अलङ्कारका बहुत ही प्रसिद्ध माद्य' के विशेषणसे. सम्बोधित किया है ग्रन्थ है और इसके कर्ता वेदानुयायी और इस तरह पर्यायसे महाकवि माघथे । पाशाधरजीने 'अनगारधर्मामृत” की प्रशंसा की है। इसी आश्वासमें और की टीकामें एक स्थानपर (पृष्ठ १५०) अपने एक जगह (पृष्ठ २३६-३७) प्राचार्य पूज्यप्रतिपाद्य विषयके समर्थनार्थ नीचे लिखा पाद, अकलङ्क आदि जैन विद्वानोके साथ एक श्लोक उद्धृत किया है जो श्रीहर्षके पाणिनि (पणिपुत्र), शुक्राचार्य (कवि), 'नैषधचरित' के १७ वें सर्गका है-- नाट्याचार्य भरत आदि अजैन आचार्योंअनादाविह संसारे दुर्वारे मकरध्वजे। का उल्लेख किया है और वह उल्लेख कुले च कामिनीमूले काजातिपरिकल्पना ।। उनके गुणोंकी प्रशंसा करनेवाला ही है। ...(२) आचार्य पूज्यपादके शिष्य गङ्ग- . आजकलके कट्टर धर्मात्मा कह सकते वंशीय राजा दुर्विनीतने महाकवि भारवि- है कि हमारे श्राचार्य अन्य धर्मियोंका के किरातार्जुनीय काव्यके १५ सगौकी आदर भले ही करें, परन्तु श्वेताम्बरी कनड़ी टीका लिखी है और भारवि आदि जैनाभासोका तो कदापि नहीं कर अजैन थे। सकते । इसके लिए सोनीजीने बड़े बड़े (३) वादिपर्वतवज्र भावसेन विध- शास्त्रीय प्रमाण दिये हैं। परन्तु हम ऐसे देवने शालिवाहनके मन्त्री शर्ववर्माके भी अनेक प्रमाण दे सकते हैं जिनसे बनाये हुए सुप्रसिद्ध व्याकरणकलाप या पाठकोको यह निश्चय हो जायगा कि कातन्त्रको रूपमाला टीका लिखी है जो * यशस्तिलकमें सोमदेव सरिने कितने ही अजेन जैन पाठशालाओं में पढ़ाई जाती है। जो प्राचार्यों तथा विद्वानोंके वाक्योंको गौरवके साथ उद्धृत लोग यह समझते हो कि शर्ववर्मा जैन थे, किया है। और एक स्थानपर उर्व, भारवि, भवभूति, भर्तृहरि, भर्तृमेण्ठ, कण्ठ, गुणाढ्य, व्यास, भास, वोस, उन्हें डा० बेलवलकर एम० ए०, पीएच०. कालिदास, बाण, मयूर, नारायण, कुमार, माघ, राजडी० के 'सिस्टम्स श्राफ़ संस्कृत ग्रामर' शेखर आदि अजैन कवियोंको 'महाकवि' ऐसे गौरवान्वित को और 'बडीय साहित्यपरिषत्पत्रिका' के पदसे विभूषित किया है (चतुर्थ श्राश्वास) ---सम्पादक । For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ । जैनहितैषी। [ भाग १५ मूलसंघी दिगम्बरी विद्वानोंने जैनाभासों- पद्मनन्दिने मुनियों के मध्य पूजित हुए शाकके श्वेताम्बर, यापनीय, द्रविड़ और. टायनको 'मन्दरके समान धीर' विशेषणमाथुर सङ्घके ग्रन्थों का भी श्रादर किया है। से विभूषित किया था।" कहनेकी आव. (६) यह सिद्ध किया जा चुका है कि श्यकता नहीं कि ये पद्मनन्दि सिद्धान्त. शाकटायन या पाल्यकीर्ति यापनीय सङ्घ. चक्रवर्ती भी मूलसंघी आचार्य थे। 'के प्राचार्य थे और श्रीश्रुतसागरसूरिके (७)न्यायविनिश्चयालंकार, पार्श्वनाथ • कथनसे* तथा और भी अनेक प्रमाणोंसे काव्य, यशोधर चरित, श्रादिके कर्ता यह निश्चय हो गया है कि यापनीयसङ्घ वादिराजसूरि द्रविडसंघके प्राचार्य थे श्वेताम्बरोंके ही समान स्त्रीमुक्ति. केवलि. और इस संघकी गणना भी मिथ्यामुक्ति श्रादि मानता है। बल्कि स्वयं तियों में जैनाभासोंमें है। परन्तु इनके शाकटायन आचार्यका बनाया हुआ ग्रन्थोंपर भी अनेक मूलसंधी विद्वानोंने 'स्त्रीनिर्वाण-केवलिमुक्ति प्रकरण' नामका टीकाएँ प्रादि लिखी हैं और उनकी प्रशंसा ग्रन्थ मिला है जिसमें उन्होंने इन दोनों की है।पार्श्वनाथ-काव्यकी एक 'पंजिकाबातोका खूब जोरोसे प्रतिपादन किया टीका' षटभाषाकविचक्रवर्ती शुभचन्द्राहै। ऐसी दशामें भी उनके व्याकरणपर चार्य कृत और दूसरी प्रभाचन्द्राचार्य कृत अनेक मूलसङ्घी आचार्यों और विद्वानों है। यशोधरचरित पर भी प्रभाचन्द्रकी एक ने टीकाएँ लिखी हैं और किसी किसीने 'पंजिकाटीका' है। पं० रायमल्लने एकी. तो उनको नमस्कारतक किया है ! शाक- भावकी टीका लिखी है। श्रवणबेलगोलटायनकी एक टीका 'मणिप्रकाशिका' की मल्लिषेण प्रशस्तिमें-जो एक मूलनामकी है जो अजितसेनाचार्यकी लिखी संघी आचार्यकी लिखी हुई है-वादि. हुई है, दूसरी कातन्त्ररूपमालाके कर्ता राजसूरिकी निःसीम प्रशंसा की गई है। भावसेन त्रैविधदेवकी है, तीसरी प्राचार्य (E) हरिवंशपुराणके कर्ता जिनसेन प्रभाचन्द्रकी है, जिसका नाम 'अमोध. द्रविड़संघके और अमितगतिसूरि माथुरवृत्तिन्यास' है और चौथी अभयचन्द्र (निःपिच्छिक) संघके प्राचार्य थे । ये सूरिकी प्रक्रियासंग्रह है। ये चारों टीकाएँ दोनों ही जैनाभास हैं। फिर भी इनके मृलसंधी प्राचार्योंकी हैं। मुनि वंशाभ्यु ग्रन्थोंकी टीकाएँ और वचनिकाएँ मूलदय काव्यके कर्ता चारुकीर्ति पण्डितदेव संधियोंने लिखी हैं। प्राचार्य वसुनन्दिने (चिदानन्द) ने-जो मूलसंघीय प्राचार्य अपनी प्राचारवृत्ति टीका (= वे परिथे-लिखा है कि "शाकटायनने अपने च्छेद) में माथुरसंघी अमितगतिश्रावकाबुद्धिरूपमन्दराचलसेश्रुतसमुद्रका मन्थन चारके पाँच श्लोक 'उपासकाचारे उत्त:करके यशके साथ व्याकरणरूप उत्तम मास्ते' कहकर उद्धृत किये हैं । इससे तो अमृत निकाला । x x जगत्प्रसिद्ध शाक यहाँतक मालूम होता है कि खास धर्मटायन मुनिने सूत्र और वृत्ति बनाकर ग्रन्थों में भी हमारे प्राचार्य जैनाभासोंके एक प्रकारका पुण्य सम्पादन किया। ग्रन्थोके अवतरण दिया करते * . एक बार अविद्धकर्ण सिद्धान्तचक्रवर्ती ."यापनीयास्तु..."रलायं पूजयन्ति, कल्पंच और भी दि. जैन विद्वानों के बनाये हुए 'सम्पक्त्ववाचयन्ति, स्त्रीणां तद्भवेमोक्ष फेवलिजिनानां कवलाहारं कौमुदी' आदि बीसियों ग्रन्थ ऐसे है जिनमें स्वविषय परशासने सग्रन्थानां मोक्षं च कथयन्ति " समर्थनादिके लिए सैंकड़ों वाक्य अजैन तथा जैनाभास For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयचक और देवसेनसार ७–सोनीजीने इस बातको सिद्ध आपत्ति नहीं है कि देवसेनसूरिने जिस किया है कि श्लोकवार्तिककी अपेक्षा नयचक्रके नष्ट हो जानेका उल्लेख किया देवसेनसूरिके नयचक्रमें नयोंका कथन है, संभव है कि उसीके पढ़ने की सिफाविस्तारसे लिखा गया है। इस बातको रिश श्लोकवार्तिकमें की गई हो और वह हम मान लेते हैं और अपनी भूलको सुधार किसी दिगम्बराचार्यका ही बनाया हुभा लेते हैं; परन्तु इससे फिर भी यह सिद्ध हो । परन्तु फिर भी इस विषयमें कोई नहीं होता है कि देवसेनसूरिके इसी बात सर्वथा निश्चित रूपसे नहीं कही नयचक्रके पढ़नेकी सिफारिश श्लोकवा. जा सकती है। र्तिकमें की गई है। पं० वंशीधरजी शास्त्री- E-सिद्धसेनसूरिके सम्बन्धमें सोनी.. के इस कथनके मानने में भी हमें कोई जीने, पं० वंशीधरजीने और पं० राम र प्रसादजीने जो अनेक आक्षेप किये हैं, विद्वानोके ग्रन्थोंसे उधृत किये गये हैं और सोनीजीने त्रिवर्णाचारों तथा संहिताओंको मी प्रमाण माना है। उनके इस समय हम उनका उत्तर नहीं देना लिए और दूर जानेकी जरूरत ही क्या है ? उन्हें जिनसेन चाहते। इसके पहले कि उनके विषयमें त्रिवर्णाचार और भद्रबाहुसंहिताके परीक्षालेखोंको ही कुछ लिखा जाय, हम पण्डित महाशयोंसे देखना चाहिए। उनके देखने से मालूम हो जायगा कि यह प्रार्थना करते हैं कि वे पहले स्वयं ही इन ग्रन्थोंमें विवेकविलास (श्वे.), योगशास्त्र (श्वे०) सिद्धसेनहरिके सम्मतितर्क, न्यायावतार मुहूर्त चिन्तामणि, पीयूषधारा, याज्ञवल्क्यस्मृति, मिताक्षरा, और त्रिशंकासमूहको एक बार अच्छी प्राचारादर्श, विष्णुपुराण, वामनपुराण, मनुस्मृति, पराशरस्मृति. अत्रिस्मति आपस्तम्भ गद्यसत्र बहत्संहिता. तरह पढ़कर निश्चय कर ल कि उनकी बृहत्पाराशरीहोरा भादि कितने अजैन और जैनाभास रचनाओमें कोई बात, कोई सिद्धान्त ग्रन्थोंके वाक्योंको उठाकर रस्ता गया है और उन्हें अपने दिगम्बर सम्प्रदायके विरुद्ध तो नहीं है? प्रतिपाद्य विषयका एक अंग बनानेके लिए कितना अधिक और यदि है तो उसे किसी श्वेताम्बरी पसन्द किया गया है। कितनी ही जगह तो साफ तौरसे विद्वान्ने पीछेसे तो नहीं घुसेड़ दिया अजैन ग्रन्थों को देखनेकी प्रेरणा की गई है। यथा है ? सोनीजीको सन्देह है कि शायद वे "एतेच सतवैदेहिकचाण्डालमागध क्षत्रायोगवाः षट् प्रतिलोम जाः एतेषां च वृत्तयः ‘ौशनसे मानवे । पहले श्वेताम्बर रहे हों और पीछे दिग पहल द्रष्टभ्याः ।" (ग्रन्थपरीक्षा प्रथम भाग पृ. ७५) म्बरी हो गये हो। इसलिए यह भी निश्चय _ कितने ही वाक्योंके साथ 'इतिविशानेश्वरः' 'इत्यं- कर लेना चाहिए कि इनमेंसे कौन कौन गिराः, 'प्रचेताः' ऐसे अजैनाचार्योके नाम भी लगे हुए ग्रन्थ श्वेताम्बरी अवस्थाके हैं और कौन है। ऐसी हालतमें जो लोग सर्वथा यह समझते हैं कि दिगम्बर अवस्थाके। पण्डित महाशयोंके दिगम्बर आचायौंने अजैन तथा जैनाभास भाचार्योके द्वारा इन सब बातोंके प्रकट हो चुकनेपर वाक्यों को प्रमाण मानकर उनका उल्लेख अपने ग्रन्थों में नहीं किया, यह उनकी बड़ी भूल है और उससे ऐसा __ ही हमें उनके आक्षेपोंका समाधान करने है कि उनका जनसाहित्य विषयक अध्ययन में सुभीता होगा। हम यह कह देना भी अभी बहुत कम है और जो कुछ है भी वह तुलनात्मक उचित समझते हैं कि इन प्रन्थों के पढ़नेपद्धतिसे नहीं किया गया। ऐसी ही हालत जैनाभासोंके में जो परिश्रम किया जायगा वह व्यर्थ प्रमाणादि विषयकी है। सोनीजीने अभीतक उसका रहस्य न जायगा, क्योंकि ये सभी ग्रन्थ अनुनहीं समझा। वे स्वयं कितने ही जैनाभास प्राचार्यों के पम हैं। ग्रन्थोंको बड़ी पूज्य दृष्टिसे पढ़ते, प्रणाम करते और प्रमाण मानते हैं। उन्हें पहले ऐसे प्राचार्योकी एक सची सम्पादकीय नोट । तग्यार करनी चाहिए और फिर उससे जैनसाहित्यको पं० पन्नालालजी सोनीके जिस लेखबाँचना चाहिए। . सम्पादक। के उत्तरमें यह लेख लिखा गया है उसे . For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। [ भाग १५ हमने देखा है और साथ ही पं० नाथू- नहीं होती और न होनी चाहिए। ऐसी रामजी प्रेमीका वह मूल लेख भी इस भाषाके लेखोंके प्रत्युत्तरमें विचारकोंकी समय हमारे सामने है जिसकी भित्ति बहुत ही कम प्रवृत्ति पाई जाती है और पर सोनीजीको अपना लेख खड़ा करना उससे बहुत कुछ हानिकी सम्भावना है। पड़ा। प्रेमीजीके लेखमें 'सम्भव' आदि हमें सोनीजीके लेखके सम्बन्धमें कुछ शब्दोंसे प्रारम्भ होनेवाले उस प्रकारके अधिक लिखनेको जरूरत नहीं है। प्रेमीसब वाक्य मौजूद हैं जिनका उल्लेख जीने स्वयं अपने इस लेख में प्रकृत विषयका उन्होंने इस लेखके शुरू में किया है। दर्शन- बहुत कुछ स्पष्टीकरण कर दिया है और सारके अन्तमें उन्होंने साफ तौरसे ग्रन्थ- जहाँ कुछ विशेष सूचित करने की जरूरत के बननेका समय वि० सं०६80 सूचित समझी, वहाँ हमने फुटनोट लगा दिये किया है । दर्शनसारकी विवेचनामें सं० हैं, और इससे हम समझते हैं कि पाठकों८०० के साथ "लगभग" शब्द लगा हुआ का बहुत कुछ समाधान हो जायगा । हाँ, है और युक्त्यनुशासनकी भूमिकामें एक बात और प्रकट कर देना जरूरी है। विद्यानन्द स्वामीका अस्तित्वविषयक वह और वह यह है कि, यद्यपि हमें अभी वाक्यं भी मौजूद है जिसे प्रेमीजीने ऊपर तक इसमें कोई सन्देह नहीं कि 'दर्शनउद्धृत किया है। साथ ही एक स्थान पर सार' ग्रन्थ वि. सं.: 880 का बना हुआ वि० सं०८६५ के साथ 'लगभग' शब्द भी है, तो भी इसमें कुछ समेह जरूर है कि लगा हुश्रा है। इन सब बातोके मौजूद यह 'नयचक्र' ग्रन्थ उन्हीं देवसेन प्रार होते हुए, हमारी रायमें, उस प्रकारका का बनाया हुआ है जो कि दर्शनसारके लेख लिखे जानेकी कुछ भी जरूरत नहीं कर्ता थे। दोनों ग्रन्थ एक ही आचार्यके थी जिसके लिखनेका सोनीजीने कष्ट बनाये हुए हैं, इस बातको बतलानेवाला उठाया है। जान पड़ता है, सोनीजीको कोई भी पुष्ट प्रमाण अभी तक किसी अभी तक इस बातका परिशान नहीं है विद्वान्की ओरसे उपस्थित नहीं किया कि ऐतिहासिक पर्यालोचन किस तरहसे गया। यह कहा जा सकता है कि 'भावहुआ करता है, वह कितना कठोर और संग्रह' के कर्ता देवसेन श्राचार्यने अपनेनिर्मम विषय है, उसमें 'सत्यदेव' की को 'विमलसेन' गणधरका शिष्य लिखा कितने शुद्ध हृदयसे उपासना की जाती है और ग्रन्थके शुरूमें महावीर भगवानहै और ऐसे लेखोका कोई भी शब्द, व्यर्थ को नमस्कार किया है। इन दोनों ग्रन्थोंन होकर, कभी कभी कितने गहरे अर्थ- के आदिमें भी 'वीरजिनेन्द्र' को नमको लिये हुए होता है। यही वजह है कि स्कार किया गया है और साथ ही उनका आप उक्त लेख के आशयको नहीं समझ 'विमलणाणं' तथा 'विमलणाण संजुत्तं' सके और न उसके 'सम्भव' 'लगभग' ऐसा विशेषण दिया गया है। आराधनाआदि महत्त्वपूर्ण शब्दोंका आपको कुछ सारका भी ऐसा ही मंगलाचरण पाया अर्थ बोध हो सका । आपके लेखसे जाता है। इससे ये चारों ग्रन्थ एक ही कषायभाव टपका पड़ता है और कितनी विद्वान्के बनाये हुए हैं। परन्तु ये सब ही जगहपर उसकी भाषा दोषपूर्ण हो बातें 'दर्शनसार और 'नयचक्र' के कर्तागई है। एक ऐतिहासिक लेखकके उत्तर- की एकता सिद्ध करनेके लिए पर्याप्त में लिखे हुए लेखकी भाषा ऐसी कभी नहीं हैं। ऐसी समानताओंकी अन्यत्र भी For Personal & Private Use Only www.jainehbrary.org Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ६ ] बहुत कुछ सम्भावना हो सकती है। देवसेन नामके और भी कई श्राचार्य हो गये हैं । एक 'देवसेन' माथुरसंघी श्रमिगति (धर्मपरीक्षाके कर्ता) के पड़दादा गुरुके भी गुरु थे और इसलिए उनका समय ० की 8 वीं शताब्दी ब बैठता महासभा के कानपुरी अधि है । दूसरे देवसेन श्रादिपुराणके कर्ता जिनसेनाचार्य के समकालीन पाये जाते हैं, जैसा कि जयधवला टीकाकी प्रशस्तिके अन्तमें दिये हुए निम्न वाक्यके 'श्रीदेवसेनार्चिताः' पदसे ध्वनित होता है और यह भी पाया जाता है कि वे एक बड़े पूज्य श्राचार्य थे सर्वज्ञ प्रतिपादितार्थगण महासभा के कानपुरी अधिवेशनका कच्चा चिट्ठा । १७७ है । यह विषय और भी अच्छी तरहसे स्पष्ट हो जाय इसी लिए हमें इतना सूचित करने की जरूरत पड़ी है । भृत्सूत्रानुटीकामिमां । "येऽभ्यस्यन्ति बहुश्रुताः श्रुतगुरुं सम्पूज्यवीरं प्रभुं ॥ ते नित्योज्वल पद्मसेनपरमाः (?) श्रीदेवसेनार्चिताः । भासन्ते रविचन्द्रभासिसुतपाः श्रीपालसत्कीर्तयः ॥ श्री जिनसेनाचार्य ने पात्र केशरी (विद्यानन्द स्वामी ) का श्रादिपुराण में जिस ढङ्गसे उल्लेख किया है उससे विद्यानन्द खामी जिनसेनके समकालीन ही जान पड़ते हैं। जिनसेनाचार्य एक अच्छे वृद्ध श्राचार्य हुए हैं। सम्भव है कि नयचक्र उन्हीं देवसेनाचार्यका बनाया हुआ हो जो जिनसेनाचार्य तथा विद्यानन्द स्वामीके समकालीन थे । इनका भी समय विक्रमकी हवीं शताब्दी होता है । क्योंकि जयधवला टीका शक सं० ७५६ ( वि० २६४ ) में बनकर समाप्त हुई है । श्रतः विद्वानोंको अन्तरंग साहित्यकी जाँच मादिके द्वारा इस विषय की अच्छी खोज करनी चाहिए कि यह 'नयचक्र' ग्रन्थ कौनसे देवसेन श्राचार्यका बनाया हुआ ३ वेशनका कच्चा चिट्ठा | (लेखक – श्रीयुत् बाबू अजितप्रसादजी वकील, लखनऊ 1) भारतवर्षीय दि० जैन महासभाका पश्चीसवाँ अधिवेशन कानपुरमें हो चुका । इस अधिवेशन पर जैन जातिहितैषयोंकी बहुत बड़ी श्राशा लगी हुई थी और महीनों पहले से इसके दिन गिने जा रहे थे । इस अधिवेशन के सभापति थे, वयोवृद्ध, सौम्यमूर्ति साहु सलेखचन्दजी, नजीबाबाद । चैत्र बदी ७ को सभापति महोदय के स्वागतका दृश्य अपूर्व था । कानपुर निवासी जैन और श्रजैन जनताने एक मन होकर जिस प्रकार उनका सम्मान किया है, उससे प्रत्येक जैनको आनन्द और श्रात्मगौरवका अनुभव होता था । चैत्रबदी = का रथोत्सव बड़ी शान के साथ निकाला गया था और उससे जैन जातिके गौरवकी बहुत कुछ घोषणा होती थी । उत्सव की समाप्ति पर अभिषेक और पूजन हो जानेके बाद, दिल्ली निवासी श्रीयुत मिस्टर चम्पतरायजी, बैरिस्टर हरदोईने जैन साहित्य प्रदर्शनका द्वारोद्घाटन करते हुए जैनोंके दर्शन, न्याय और साहित्यका महत्व बड़े ही अच्छे ढंग से दर्शाया। रात्रिको फिर आपका व्याख्यान सभामण्डपमें, जो ८०x१०० फीट के साफ़ सुथरे शामियानेके नीचे बनाया गया था, रायबहादुर लाला द्वारिकाप्रसादजी, हढौरके सभापतित्वमें "जैनदर्शन" पर हुआ । इस व्याख्यानमें बैरिस्टर साहबने प्रायः घंटेतक, जैन सिद्धान्त For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ का महत्व ऐसे स्पष्ट शब्दों में दिखलाया कि जिससे उपस्थित जनताको यह विदित हो गया कि सनातन हिन्दूधर्म, जैनधर्म केही सिद्धान्तों की नीवार खड़े किये गये हैं और खोज करनेसे प्रतीत होता है कि सार्वधर्म जैनधर्म ही है, जो स्याद्वाद नयविवक्षासे सब मतान्तरोंके भेदों और विरोधको दूर कर देता है। आपके प्रभावशाली व्याख्यानकी श्रीमान् ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी तथा अन्य ब्रह्मचारियों और पण्डित महाशयोंने प्रशंसा करते हुए समालोचना की, और "जैनधर्मकी "जय" ध्वनिके साथ सभा रातके ११ बजे के करीब विसर्जित हुई । दूसरे दिन दो बजे से महासभाकी कार्यवाही प्रारम्भ हुई । सभा मण्डप भरा हुआ था। महिला समाज के वास्ते जो स्थान चिक और परदे डालकर नियत किया गया था वह संकुचित था और पीछेको था, जहाँ वक्ताकी आवाज़ स्पष्ट रूपसे नहीं पहुँचती थी, इस कारण कुछ चिकोको उठाकर श्रागेकी और महिला समाज को स्थान दिया गया और वह भी सब तुरन्त ही महिलामण्डल से भर गया । मंगलाचरणके पश्चात् श्रीमान् बाबू नवलकिशोरजी वकीलने स्वागतकारिणीसमितिकी ओर से महासभाका विवरण और कानपुर के अधिवेशन के विषयमें संक्षेप रूपसे कुछ प्रस्तावनामात्र कहा । फिर श्रीमान् लाला रामस्वरूपजी सभापति स्वागत का० समितिका व्याख्यान हुआ । इस भाषण में आपने यह भी कहा कि, 'जैनसमाज आधुनिक देशपरिवर्तनों से अपनेको विलग नहीं रख सकता, बल्कि उसका कर्तव्य और अधिकार है कि अपनी आध्यात्मिकताके द्वारा संसारके अनेक कष्टोंको दूर करनेका उचित प्रबन्ध करे । जैन व्यापारी बहुधा दलाल सरीखे जैनहितैषी । [ भाग १५ हैं और इस कारण देशकी वास्तविक उन्नति नहीं कर सकते, जैन शास्त्रोका प्रकाशन तथा प्रचार शृंखलाबद्ध रीतिसे होना उचित है, शिक्षाविभाग में धन और शक्तिका अपव्यय हो रहा है, एक जैन शिक्षाका प्रबन्ध केन्द्रस्थ हो सके, दिगम्बर श्वेताम्बर समाजके झगड़ोंका निबटारा होना श्रावश्यक है; और कुप्रथा सम्बन्धी प्रस्ताव कार्यरूपमें परिणत करने का समय आ गया है" । इसके बाद चुनाव हो जानेपर सभापति श्रीमान् साहू सलेखचन्दजीका भाषण पढ़ा गया जिसमें उन्होंने कहा कि " महासभा के नामके अनुसार उसकी व्यापकता नहीं है, बल्कि खण्डेलवाल, पद्मावती पुरवाल, जैसवाल, परवार श्रादि जातीय सभाएँ अलग अलग स्थापित हो रही हैं। ये महासभा के अधीन जातीय पंचायतके रूपमें कार्य करें तो अच्छा हो । महासभा सम्बन्धी दि० जैन महाविद्यालयका कार्य सामान्य पाठशालाका सा है. इसको स्याद्वाद महाविद्यालय काशीके साथ ही मिला देना उचित है; एक ऐसे परीक्षालयकी भी आवश्यकता है जिसका सम्बन्ध समस्त दि० जैन शिक्षासंस्थाओं से हो और जिसका प्रमाणपत्र सबके लिए मान्य हो; शिल्प, विज्ञान, कृषि, वैद्यक, कला-कौशल विषयोंके सार्वजनिक शिक्षालयोंमें पढ़नेवाले श्रसमर्थ जैन छात्रोंके वास्ते छात्रवृत्तियाँ स्थापित करना जैनसमाजका कर्तव्य है; छपे जैन ग्रन्थोंके प्रचार निषेधमें जो महासभाका सम्बत् १६५३ का प्रस्ताव है, वह रद किया जाना चाहिए# जैन * इस विषयका प्रतिपादन करते हुए आपने जो शब्द कहे थे वे इस प्रकार है "यहाँ पर मुझे महासभा के उस प्रस्ताबका उल्लेख कर देना जरूरी है जो छापे हुए जैन ग्रन्थोंके निषेधसे सम्बन्ध रखता है। यह प्रस्ताव सम्बत १९५३ में पास हुआ था । For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ६] महासभाके कानपुरी अधिवेशनका कच्चा चिट्ठा। १७६ मन्दिरों और तीर्थोंको लोगोंने अपनी सद तथा कार्यकर्ता न रह सके और एक जागीर बना रक्त्रा है, उनके हिसाबकी जैन बैंककी भी स्थापना होनी चाहिए।" जाँचके वास्ते निरीक्षक नियत होने सभापतिका भाषण समाप्त होनेपर चाहिएँ; मन्दिरोंके रुपयेको जीर्ण ग्रन्थों- रिपोर्ट पढ़ी गईं*जैन गज़टकी रिपोर्टके. की प्रतिलिपि कराने में, और एक मन्दिर- सम्बन्धमें ब्र. शीतलप्रसादजी अपने का रुपया आवश्यकतानुसार दूसरे जैनमित्रके गताङ्क २१ में यह प्रगट करते मन्दिरमें लगाना चाहिए; तीर्थक्षेत्र हुए कि, ६०६६)॥ का घाटा जैनगज़ट सम्बन्धी झगड़ोंके फैसलेके वास्ते ११ खातेमें है और करीब ३०००) का घाटा सदस्योकी कमेटी पूर्ण अधिकार सहित गत वर्षका है, शोकके साथ लिखते हैं बनाई जाय; गौने (द्विरागमन) की रसम- कि “गज़टकी लेखनशैली उत्तम न होनेको उठा देना चाहिए; महासभाके सभा- पर भी इसकी सम्पादकीका कोई यथोसद और कार्यकर्ता उसके प्रस्तावोंपर चित प्रबन्ध न किया गया, जिससे यह अमल नहीं करते, अतः ऐसा नियम होना भारी घांटा बन्द हो जाता ।” अस्तु । चाहिए कि ऐसे व्यक्ति महासभाके सभा- रिपोर्टोंके पश्चात् सब्जेकृ कमेटीका चुनाव हुआ और उसके सदस्योंकी सूची ब्रह्मउस समय जैन ग्रन्थोंका छापना प्रारम्भ हो हुआ था. चारा शातलप्रसादजान पढ़कर सुनाई। और शायद यह सोचा गया था कि वह इस प्रकारकी ६११ सद कार्रवाहिवों द्वारा रुक जायगा, परन्तु ऐसा नहीं हो सका, महिला-रत्न श्रीमती मगनबाई और और प्रस्ताव पूर्ण रूपसे असफल रहा। पण्डिता चन्दाबाईजीके नाम पढ़े जानेपर ___ अब जब कि छपे हुए ग्रन्थोंका आम तौरसे खुला सभाने हर्ष प्रकट किया।सब्जेकृ कमेटीका प्रचार हो रहा है, सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, कार्य - बजे प्रारम्भ होना निश्चित हुना अष्टसहस्री, प्रमेयकमलमार्तण्ड, पचाध्यायी, समयसार, बाध्यायी, समयसार, था, किन्तु ६ बजे रात्रिके भी पीछे कामप्रबचनसार, पंचस्तिकाय, गोम्मटसारादि जैसे बड़े बड़े का प्रारम्भ हुश्रा। पहले ही ब्रह्मचारी और महान् ग्रन्थ भी छप चुके हैं। अच्छे अच्छे विद्वान् पंडित लोग ग्रन्थोंके छपानेका कार्य कर रहे हैं। कुछ सेठ शीतलप्रसादजीने कहा कि सब्जेक कमेटीलोग भी अन्योंके उद्धारमें लगे हुए हैं। माणिकचन्द ग्रन्थ- में दो महिलाओके चुने जानेसे समाजके माला, अनन्तकीर्ति ग्रन्थमासा, जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्या- कुछ लोग असन्तुष्ट हैं; यद्यपि स्वयं लय बम्बई, जैनसिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था कलकत्ता, उनके विचारमें उक्त दो महिलाओंका दी सेंटल पबलिशिंग हाउस आरा आदि कितनी ही सदस्य होना अनुचित नहीं है, किन्तु संस्थाएँ ग्रन्थोंको छापकर उनका उद्धार कर रही हैं, मन्दिरों। तकमें छपे ग्रन्थ विराजमान किये जाते हैं. लोग प्रेमसे समाजकी असन्तुष्ट अवस्थाको देखते हुए उन्हें पढ़ते, खरीदते तथा वितरण करते है। और इस यदि उनका चुनाव यदि उनका चुनाव न होता तो अच्छा समय महासभाके साहित्य प्रदर्शनमें भी उनका एक होता। और उन्होंने फिर यह भी कहा अलग विभाग रक्खा गया है। तब ग्रन्थोंके छापने और कि सब्जेकृ कमेटीका चुनाव नियमबपे ग्रन्थोंको पढ़ने तथा खरीदनेके निषेध सम्बन्धी उक्त विरुद्ध होनेके कारण ठीक नहीं है, क्योंकि प्रस्तावको स्थिर रखनेका कुछ भी अर्थ नहीं रहता। दोनों महिलाएँ न महासभाकी सदस्य हैं उलटे सुननेवालोंके लिए यह एक हास्यका विषय बन नाता है। और उससे महासभाके गौरवको धक्का पहुँचता | इसलिए मेरी सम्मतिमें वह प्रस्ताव अब अनावश्यक * जैनप्रदोपसे मालूम हुआ कि रिपोटों की मंजूरोपर और अव्यवहरणीय समझा जाकर २६ किया जाना कई व्यक्तियों ने आपत्ति की थी, परन्तु फिर भी वे भींगा भीगीसे पाम हो ही गई।----सम्पादक। For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० न प्रतिनिधि और इस कारण सब्जेकृ कमेटीमें नहीं चुनी जा सकतीं; और जबतक नई सब्जेकृ कमेटी (विषय निर्धारण समिति) नियत न हो, काम नहीं हो सकता । इसपर कहा गया कि यह असङ्गत विषय है, इस कमेटीको इस प्रश्न उठानेका अधिकार नहीं है, यह कमेटी महासभाकी बनाई हुई है और यह प्रश्न यदि हो सकता है तो महासभा के अधिवेशन में उपस्थित हो सकता है । सभापति महोदयने इस युक्तिसे सहमत होकर यह निर्णय किया कि यह प्रश्न नहीं उठाया जा सकता और काम प्रारम्भ होना चाहिए; किन्तु पण्डित धन्नालाल - जी काशलीवाल, पण्डित वंशीधर और एक दो और सदस्य, उच्च स्वरसे, बोलते ही रहे और कभी अनुचित शब्दोंका व्यवहार भी करते रहे । सभापति महोदयके बारम्बार सविनय प्रार्थना करनेपर भी चुप नहीं हुए और पण्डित वंशीधर ने सभापति महोदयको यहाँतक कहने पर मजबूर कर दिया, कि यदि पण्डित वंशीधरजीको इस विषय में इतना हठ है और वह सभापतिका फैसला और सभापतिकी प्रार्थनाको भी नहीं मानते तो वह सभाको छोड़ दें और आगे कामको चलने दें। इसपर पण्डित धन्नालाल और उनके आठ दस अनुयायी कोलाहल करते हुए खड़े हो गये और वहीं खड़े रहकर देरतक शोर मचाते रहे। बादको दूसरे कमरेमें जहाँ पण्डित धन्नालाल ठहरे हुए थे, चले गये। उनके पीछे महामन्त्री लाला भगवानदासजी और शनैः शनैः उनके दफ़रके लोग भी पण्डित धन्नालालजी के स्थानपर चले गये; और सभापति महोदय के बुलानेपर भी नहीं श्रये । रूठको मनाने और फिर बुलाने का कार्य घटोतक होता रहा । सभापति जैनहितैषी । [ भाग १५ के अतिरिक्त अन्य प्रतिष्ठित महाशय कई बार इस रुष्ट मण्डलको मनाने गये किन्तु वे लोग नहीं आये । जहाँतक याद पड़ता है, इस काम में रायबहादुर लाला घमण्डीलाल, लाला रामस्वरूपजी सभापति स्वागतकारिणी समिति, लाला तिलोकचन्द दिल्लीवाले, लाला शिब्बामल अम्बालेवाले, हकीम कल्याणराय और ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने भी भाग लिया था । इस प्रकार जब रातके करीब दो बज गये तब ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीसे व्यवस्था माँगी गई और उनका यह आदेश होनेपर कि महासभा के अधिवेशनमें सब्जे कमेटीका चुनाव फिरसे किया जाय, सब लोग अपने अपने खानपर चले गये । दूसरे दिन महासभा साहू जुगमन्दिरदासजीने, जो गत रात्रिको सभापति महोदय के सहायकरूपसे सब काम करते रहे थे, रात्रिका विवरण संक्षेपसे सुनाया और कहा कि सब्जेकृ कमेटी नई चुनी जाय । लाला जग्गीमलजी दिल्ली निवासीने इसका अनुमोदन किया । लाला जुग्गीमलजी उसी दिन दिल्लीसे पधारे थे और गत दिवसकी कार्यवाहीमें उपस्थित न थे । अनुमोदन होते ही एक ब्रह्मचारी महाशयने खड़े होकर जैनधर्मकी जयध्वनिके साथ यह कह दिया कि यह प्रस्ताव स्वीकृत हुआ, और उपस्थित प्रतिनिधि समाजको यह अवसर ही नहीं दिया गया कि कोई इस विषयमें कुछ कह सके ! हमारे इस प्रश्न करने पर कि यह बतला दिया जाय कि सब्जेकृ कमेटी में महासभा के सदस्य और प्रतिनिधि ही चुने जायँगे या अन्य उपस्थित महाशय भी, महामन्त्रीजीने उत्तर दिया कि अन्य प्रतिष्ठित महाशय भी चुने जा सकते हैं। तब हमने कहा कि यह बात For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ६] महासभाके कानपुरी अधिवेशनका कच्चा चिट्ठा। ११ इस स्थानपर सभाकी कार्यवाहीमें लिख गया । श्रीयुत कुमार देवेन्द्रप्रसादजी ली जाय और सभापति महोदयने हुक्म द्वारा स्थापित “दि सेंट्रल जैन पब्लिशिंग दिया कि ऐसा किया जाय। इसके बाद हाउस" नामकी संस्थाको चिरस्थायी हमने यह निवेदन किया कि जो सब्जेक बनाने और उसकी सब सम्पत्ति खरीद कमेटी आज चुनी जाय उसकी नामावली- लेनेके विषयमें एक प्रस्ताव लाला रूप. के साथ साथ गत दिवसकी चुनी हुई चन्दजीके सुपुत्र लालारामस्वरूपजीसभासम्जेक कमेटीकी नामावली भी लगा दी पति स्वा० का० समितिने उपस्थित कराया जाय; इस कहनेपर कोलाहलसा हो जिसका पण्डित धन्नालालजीने विरोध गया और कोई निर्णय नहीं हुआ। फिर किया और कहा कि जैनशास्त्र छपानेका नामावली पढ़ी गई । उसमें श्रीयुत काम महासभाके उद्देश्यके विरुद्ध है और विश्वम्भरदासजी गार्गीय सम्पादक इसलिए यह प्रस्ताव गिरा दिया गया। 'जाति प्रबोधक' का नाम न था, जो पहले ३ घण्टेमें कुल छः प्रस्तावोंका निर्णय दिन सब्जेक कमेटी में लिये गये थे और हुआ-इनमें दो प्रस्ताव कुछ सजनोंकी रात्रिको बराबर उसमें उपस्थित रहे थे। मृत्युपर शोक और कुटुम्बसे सहानुभूतिसाथ ही कुछ नाम बढ़ा दिये गये थे। सम्बन्धी थे, शेष चार प्रस्ताव स्वदेशी उपर्युक्त दोनों विदुषी महिलाओंने वस्तु व्यवहार, धवलत्रयकी प्रतिलिपि, सब्जेकृ कमेटीकी सदस्यतासे अपना संयुक्त प्रान्तीय सभा और महाविद्यालय त्यागपत्र पहले ही भेज दिया था और कमेटीसे सम्बन्ध रखते थे। ये सब वे गत रात्रिकी सब्जेकृ कमेटीमें उपस्थित प्रस्ताव रात्रिके अधिवेशनमें स्वीकृत भी नहीं थी। वास्तविक फल इस सात हो गये। माठ घण्टेके खर्च होनेका यह हुआ कि ३ अप्रेलको फिर सब्जेकृ कमेटीको श्रीयुत विश्वम्भरदासजी गार्गीय सम्पा- बैठक बैठी और वह = से ११ और फिर दक 'जाति प्रबोधक' का नाम सब्जेक २ से ५ बजे दिन तक हुई । पहले ही कमेटीके सदस्योंकी श्रेणीसे निकाल दिया महामन्त्रीजीने प्रस्ताव उपस्थित किया कि गया और कुछ नये महाशयोंके नाम बाबू नवलकिशोरजी वकीलको कोषाबढ़ा लिये गये। फिर नई सब्जेकृ कमेटी. ध्यक्षके पदसे पृथक् किया जाय, उनको की बैठक प्रारम्भ हुई। देवगढ़के पुराने अवकाश नहीं है और न वे हिसाब देते जैन मन्दिरों और प्रतिबिम्बके रक्षार्थ हैं। बाबू नवलकिशोर कोषाध्यक्ष तो हैं, करनेका प्रस्ताव पेश हुआ। उस परन्तु महासभाकी आमदनीका रुपया समय विश्वम्भरदास गार्गीयकी आव- उनके पास जमा नहीं होता और न उनके श्यकता जान पड़ी कि इस विषयमें सम- पास आमदनी-खर्चका हिसाब रहता है। भावे कि क्या हुआ और क्या होना महासभाकी आमदनी और उसका खर्च पाहिए, क्योंकि उन्होंने इस सम्बन्धमें • जैनप्रदीपके सम्पादक महाशय लिखते हैं कि महापड़ा परिश्रम किया था। परन्तु उनको सभाके नियम नं. ६२ के अनुसार किसी भी प्रस्तावका सम्जेकृ कमेटीकी सभासदीसे पहले ही पेश करनेवाला सम्जेकृ कमेटीका मेम्बर जरूर रहेगा। परन्तु अफसोस है कि कुछ मनमौजो लोगोंने इसके विरुद्ध पृथक कर दिया गया था इससे वे नहीं पाचरण किया और विश्वम्भरदासजी गार्गीयका नाम दुनाये गये और प्रस्ताव उठा लिया बिना वजह ही दूसरे दिन सम्जेक कमेटीसे निकाल दिया। For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ नहितैषी [भाग १५ सब महामन्त्रीजीके अधिकार में है और प्रसादजी स्वतः खड़े होकर कहें। पण्डित . वे ही उसका हिसाब रखते हैं। बाबू दुर्गाप्रसादजीने ऐसा भी किया। तब नवलकिशोर कोषाध्यक्ष इस कारण कह- धन्नालालजीने कहा-"तुम जैनधर्म के लाते हैं कि महाविद्यालयके ध्रुवकोष अविरुद्ध लेख इसमें लिखोगे और जो सम्बन्धी रुपयोंके सरकारी प्रामिसरी धर्मविरुद्ध लेख अन्य समाचारपत्रों में नोट जो उनके पूज्यपिता श्रीमान् जैन प्रकाशित होंगे, उनका खण्डन करोगे।" जातिभषण डिप्टी चम्पतरायजीके नाम उन्होंने यह भी स्वीकार किया। फिर कहा थे, वे उनके देहान्त पर बाबू नवल- गया कि एक वर्ष नहीं बल्कि ३ वर्षका किशोरजीके नामपर कोषाध्यक्ष महा- ठेका जैनगजटका कानपुरके भाई ले लें। सभाकी हैसियतसे हैं। उनका सूद इससे कानपुरके जैनसमाजका एक प्रकारसरकारी खजानेसे छठे महीने नियत दर- से अपमान और निरादर हुआ और वे से दिया जाता है और नोटोपर लिख इस विषयमें उदासीन हो गये। ब्रह्मचारी दिया जाता है। इन नोटोंके नम्बर और शीतलप्रसादजीने जैनगजट सम्पादक सुदकी दर महासभाके कार्यालयमें है। पं० रघुनाथदासजी सरनऊ निवासीके महामन्त्री जो रुपया बाबू नवलकिशोर- सुसम्पादनकी प्रशंसा की और जैनगजट. जीसे पाते हैं उसकी रसीद भी उनको को सालाना घाटा देकर भी उन्हीं की नहीं देते। यह प्रस्ताव सब्जेकृ कमेटीसे सम्पादकीमें रखनेका परामर्श दिया !* नामंजूर हुश्रा परन्तु इसके वादविवादमें और इस घाटेकी पूर्तिके पुण्यकार्यमें कमेटीका एक घण्टे के करीब समय लग कितने ही धर्मात्माओंने भाग लिया और गया। जैन गजटके गत वर्षसम्बन्धी लग. १२५-१२५ रुपये देना स्वीकार किया। भग ३०००) रुपये घाटेकी पूर्ति और २४८००)का बजट पसन्द किया गया और आगामी सुप्रबन्ध तथा योग्य सम्पादक- हमारे यह पूछनेपर कि गत वर्ष १००). की योजना-विषयक प्रस्तावपर बहुत जो युवराजके ऐड्रेममें खर्च होना बतलाये • विवेचन हुआ |* लाला रामस्वरूपजी . गये हैं वे किस बातमें खर्च हुए; क्योंकि कानपुर निवासीने कहा कि आगामी युवराज नहीं पधारे और ऐड्रेस नहीं वर्षके वास्ते कानपुर जैनसमाज, जैन दिया गया, उत्तर दिया गया कि १००) गजटके सम्पादन और खचेका भार रु. एक वकीलको मानपत्र (ऐड्रेस) का अपने ऊपर लेता है। पं० धन्नालालजीने मसविदा करनेके उपलक्ष्य में दिये गये हैं। पछा, सम्पादन कौन करेगा? कहा गया इसपर हमने कहा कि महामन्त्रीजीके कि, पण्डित दुर्गाप्रसादजी। इसपर पं० इच्छानुसार हमने जो एक ऐड्रेस तय्यार धन्नालालजीने कहा कि पण्डित दुर्गा करके उनके पास भेजा था, उसका क्या ० इस विवेचनमें स्वागतकारिणी सभाके उपमन्त्री .परन्तु ब्र० शीतलप्रसादजी जैनमित्रके गतांक बाक रूपचन्दजीने यह भी कहा कि नगजटके वर्तमान नं०२१ में जैनगजटकी सम्पादकीपर अपना निम्न प्रकारसे सम्पादक अपने कर्तव्यको नहीं समझते और न जिम्मे- असन्तोष प्रगट करते हैं, यह बड़ी ही विचित्र बात है। दारियों को पहचानते हैं उन्हें सम्पादकाय कर्तव्योंका ज्ञान मालूम न इसमें क्या रहस्य है-"शोक है कि गजटकी करानेके लिए उनके ऊपर एक हेड सम्पादककी भी जरू- लेखनशैली नत्तम न होनेपर भी इसकी सम्पादकोका रत है, ऐसा जैनप्रदीपके सम्पादक महाशय सूचित करते कोई यथोचित प्रबन्ध न किया गया जिससे यह भारी है। सम्पाटक। घाटा बन्द हो जाता।"..--अम्पादक' . For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ६ ] हुआ। इसका कोई उत्तर नहीं दिया गया ! महासभा के परीक्षालय सम्बन्धमें बहुमत उसको कायम रखनेके विरुद्ध था । सभापति महोदय और प्रबल बहुमतकी समझ में परीक्षालयको जारी रखना व्यर्थ व्यय समझा गया ! कुरीतिसम्बन्धी प्रस्ताव उपस्थित होनेपर हमने कहा कि बहुविवाहकी कुप्रथा भी इसमें जोड़ दी जाय और यह भी प्रस्ताव किया जाय कि जो व्यक्ति इन कुप्रथाओं में से किसीको करे उससे पञ्चायत सम्बन्ध न रक्खे और न उसके ऐसे कार्योंमें सम्मिलित हो । इसपर पं० धन्नालालजीने बहुत क्रोध प्रकट किया और कहा कि वह और उनके मित्रमण्डल ऐसे प्रस्तावका विरोध करेंगे, ऐसे प्रस्तावके होनेसे परिणाम बुरा होगा, धर्म और जातिको हानि पहुँचेगी, स्थानीय पञ्चायतीयों को अपने अपने प्रान्त में ऐसे विषयोंका पूर्ण अधिकार है और महासभाको उस अधिकारमें हस्तक्षेप न करना चाहिए । इसपर हमें कहना पड़ा कि यदि महासभा २५ वर्ष तक भी ऐसे प्रस्तावको प्रति वर्ष पास करते करते उसपर अमल करने के लिए पूर्णतया तय्यार नहीं है, तो ऐसे व्यर्थके शब्दा डम्बरमात्र प्रस्तावको न रखना ही अच्छा है। * महासभा के कानपुरी अधिवेशनका कच्चा चिट्ठा । शामतक सब्जेकृ कमेटीमें फिर भी ६ ही प्रस्ताव तैयार हुए। सब्जेकृ कमेटीकी १२ घण्टेकी ३ बैठकोंमें कई बातें नोखी और पूर्व देखने में आई । एक * जैनप्रदीपके सम्पादक महाशय लिखते हैं कि बहुविवाह निषेध के सम्बन्ध में यह भी कहा गया था कि उस विषयका प्रस्ताव पहले से महासभा में पास हो चुका है। ' परन्तु फिर भी पं० धन्नालालजीके विरोध करनेपर बहुविवाहके शब्द इस प्रस्ताव में नहीं रक्खे गये, यह श्राश्वर्यकी बात है! बालविवाहादि सम्बन्धी प्रस्ताव भी तो कई बार पास हो चुका |--सम्पादक १८३ तो यह कि जब कोई बात महामन्त्रीजी के मन्तव्यसे विरुद्ध होती थी तब तो वे और उनके क्लार्क जोर जोरसे यह पुकारते थे कि सभापति महोदयकी स्वीकरता लिए बिना कोई न बोले, बल्कि कभी कभी तो वे यह भी कह देते थे कि लिखितपत्र भेजकर और लिखित स्वीकारता लेकर बोला जाय, किन्तु महामन्त्रीजी और उनके क्लार्क, पं० धन्नालालजी, पं० वंशीधरजी, और कुछ और व्यक्ति कभी भी सभापतिकी अनुमति या इयत लेकर नहीं बोलते थे बल्कि सभापति पके मना करने और प्रार्थना करनेपर भी चुप नहीं होते थे। दूसरी बात यह कि, सिवाय जैनगज़टकी सम्पादकीके प्रस्तावके और किसी भी प्रस्तावपर बहुमत से निर्णय नहीं किया गया, बल्कि बहुमत से निर्णय किये जानेके लिए बारम्बार प्रार्थना होनेपर भी सभापति महोदय मुसकराकर यह कह देते थे कि बहुमत तो प्रकट ही है, किन्तु बहुमतसे निर्णय करना मुझको अभीष्ट नहीं है ! और जैनगज़टकी सम्पादकीके प्रस्तावके समय दोपहर हो जाने से और पण्डित दुर्गाप्रसाद तथा अलकापुर निवासी महानुभावोंके प्रति इस विषयमें योग्य व्यवहार न होनेसे बहुत लोग उठ गये थे, पण्डित धन्नालालजीके कमरे के लोग समीप ही थे, और बहुमत उस समय स्पष्टतया कानपुरवालोंके विरुद्ध था । परन्तु इस स्थितिपर कुछ ध्यान नहीं दिया गया ! तीसरी बात यह कि महामन्त्रीजीने जो प्रस्ताव जिस समय चाहा, उपस्थित किया; किसी सदस्यको अपना प्रस्ताव उपस्थित करानेका श्रव सर नहीं दिया गया। चौथी बात, यह कहा गया था कि अनुमान २०० प्रस्ताव दफ़र महासभा में आये हुए हैं किन्तु उन प्रस्तावोंकी सूचीतक सदस्योंके For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जैनहितैषी। [भाग १५ सामने उपस्थित नहीं की गई। किसीको रात्रिको महासभाकाफिर अधिवेशन यह भी ज्ञात नहीं हुआ कि जैनसमाजले हुआ । जैनगज़टके घाटेका प्रास्तव उपअनेक प्रकार रुपया खर्च करने की स्वीका. स्थित होनेपर हमने सखेद उसका विरोध रता प्राप्त करनेके अतिरिक्त महासभाके किया और कहा कि यह प्रस्ताव स्वीकार इस अधिवेशनका और क्या प्राशय था। न किया जाय और यदि स्वीकार हो तो धवलत्रयके जीर्णोद्धारका प्रस्ताव तो मूड़ इस शब्द-परिवर्तनके साथ कि, "लिए" विद्री में अभिषेकोत्सव पर दिल्लीके संघ- के स्थान में "विषय में" पढ़ा जाय और की उपस्थितिमें पहले ही हो चुका था। "कि घाटेके दस हिस्से" आदि शब्दोके प्रान्तिक सभाकी स्थापनाके वास्ते कान- स्थानमें "कि जैन गज़टमें केवल महा. पुरके भाई तथा अन्य युक्त मान्तस्य लोग सभाके कार्योंकी रिपोर्ट छपा करें, महीने. उत्सुक ही थे । स्वदेशी वस्तु प्रचारका में एक दफ़ा निकाला जाय, कोई विवा. प्रस्ताव जिन शब्दोंमें लिखा गया। उनका दग्रस्त विषय उसमें न हो, और जो रुपया प्रयोग बड़े सोच विचार और संकोचके इस खातेमें बचे, उससे छोटी छोटी साथ किया गया है। कुरीति निवारण पुस्तकें जैनधर्मकी सिद्धान्त-निरूपक छापी प्रस्ताव केवल एक मङ्गल कामना रूप था। जायँ, और लागतके दामपर बेची जायँ।" और पाँचवीं बात यह है कि जो भाव- ऐला करनेसे घाटेका नाम उड़ जायगा। श्यक बातें स्वागत का० स० के सभापति- यह ध्यान रखना चाहिए कि जैन समाजके भाषणमें, अथवा महासभाके सभापति में और कोई भी ऐसा पत्र नहीं है जिसमें महोदयके व्याख्यानमें लिखी गई थी, इतना घाटा होता हो और जिसके घाटेउनका कथनमात्र भी सब्जेकृ कमेटीमें का पचड़ा सभामें पेश होकर उसके वास्ते नहीं हुआ, और साधारण व्यक्तियोंके जनतासे चन्दा लिया जाता हो। हमारे भेजे हुए प्रस्तावोंका तो किसीको पता इस संशोधनका विरोध पं. धन्नालालतक भी नहीं लगा । सभापति महोदय. जी, पं० वंशीधर जी और कुछ अन्य का बराबर यह प्रयत्न रहा, कि महा- महाशयोने किया । और इसलिए यह सभा जिस रूपमें उनके सामने आई है सातवाँ प्रस्ताव ज्योंका त्यों स्वीकृत उसी सपमें कानपुरसे सही सलामत हुआ । प्रस्ताव न08 में परीक्षालयके वापस चली जाय, उनके सभापतित्वमें सम्बन्धमे यद्यपि सभापति महोदय और किंचित्मात्र भी परिवर्तन न हो। और जैन जनता चाहती थी कि यह व्यर्थ इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने बड़ी व्ययका खाता बन्द किया जाय और सहनशीलता, वचनगुप्ति,मनोगुप्ति, और माणिकचन्द दि. जैन परीक्षालय मुम्बईविचारगुप्तिसे काम लिया और बड़ा से ही परीक्षा लिवाई जाय, किन्तु इस कष्ट उठाया । इस सभा-चातुर्यताके खातेके खर्चका अधिकार भी महामन्त्रीलिए उनके सुपौत्र साहू जुगमन्दिरदास- जीके हाथमें ही रहा, लखनऊका न्योता जीकी जितनी भी सराहना की जाय स्वीकार न होने में भी पं० धन्नालालजी, वह कम है; क्योंकि सभाका काम सभा- पं० वंशीधरजी और कुछ अन्य लोगोंने पतिक नामसे सदा व सर्वथा वे ही हर प्रकार बाधा डाली, किन्तु अवध करते थे और उन्होंने ही सभापतिका प्रान्तके मुखिया भाइयोंके धर्मप्रेम, और भाषण पढकर सुनाया था। जातिहितैषिताके प्रवाहवश महासभाको For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवत्कुन्दकुन्द और श्रुतसागर । १८५ उनका न्योता. स्वीकार करना ही उचित चय दिया गया है, उसे हम उपयोगी जान पड़ा। समझकर यहाँ उद्धृत किये देते हैं। ___ कानपुरकी स्वागतकारिणी समिति -सम्पादक की सेवा और अतिथि-सत्कारकी जितनी भगवत्कुन्दकुन्द ।। सराहना की जाय,थोड़ी है। उनका प्रबन्ध दिगम्बर जैन सम्प्रदायमें प्राचार्य ऐसा था जैसा अबतक महासभाके किसी कुन्दकुन्द सबसे प्रसिद्ध और सबसे भी अधिवेशनमें न हुआ होगा। इतना अधिक पूज्य आचार्य गिने जाते हैं। बड़ा विशाल बगीचा, इतना विशाल पिछले अधिकांश प्राचार्योने आपको भवन (जिसमें श्री देवाधिदेवकी प्रतिमा उन्हींके अन्वय या पानायका बतलाया विराजमान थी), इतना साफ़ सुथरा नये । है। उनकी रचना जैनसाहित्य भरमें कपड़ेका बना हुआ विशाल सभामण्डप, अपनी तुलना नहीं रखती। रथयात्राका ऐसा स्वच्छ दृश्य, सेवा- अबसे लगभग ६ वर्ष पहले हम उनके समितिका रात्रि भर "वन्देमातरम" की सम्बन्धमें एक विस्तृत लेख प्रकाशित पुकारपर पहरा, इतने अच्छे और सुन कर चुके हैं ।* वे द्रविड़ देशके 'कोएड. प्रद डेरे, मकान, धर्मशाला आदि सबका कुण्ड' नामक स्थानके रहनेवाले थे और प्रवन्ध ऐसा था कि इतनी सब उत्तमो. इस कारण 'कोण्डकुण्ड' नामसे प्रसिद्ध त्तम बातोंका समुदाय इस अधिवेशनसे थे। 'कोण्डकुण्ड, का ही श्रतिमधुर पहले शायद ही कहीं हुआ हो। संस्कृतरूप'कुन्दकुन्द' हो गया है। 'एलामहासमाकी शेष कार्यवाही तो और चार्य के नामसे भी ये प्रसिद्ध थे। तामिल समाचारपत्रों में प्रकाशित होगी और हो भाषाके सुप्रसिद्ध महाकाव्य 'कुरल' के रही है, किन्तु यह कच्चा चिट्ठा जैन- विषयमें महाराजा कालेज विजयानगरम. हितैषीके वास्ते उसके सम्पादककी के इतिहासाध्यापक श्रीयुत एम० ए० प्रार्थनापर लिखा गया है। रामस्वामी श्रायंगरने लिखा है कि "जैनिलखनऊ १८-४-२१ योके मतसे उक्त ग्रन्थ 'एलाचार्य' नामक जैनाचार्यकी रचना है और तामिल काव्य भगवत्कुन्दकुन्द और 'नीलकेशी' के टीकाकार समयदिवाकर श्रुतसागर । नामक जैनमुनि कुरलको अपना पूज्य ग्रन्थ बतलाते हैं। * इससे आश्चर्य नहीं माणिकचन्द जैन-ग्रन्थ-मालाका १७ कि करलके रचयिता भगवत्कुन्दकुन्द ही वाँ ग्रन्थ 'षट्प्राभृतादि संग्रह' हालमें ही नोकर पलाचार्यने इसे रचकर प्रकाशित हुआ है। उसमें कुन्दकुन्द अपने एक शिष्यको इसलिए दे दिया स्वामीके षट्प्राभृत, रयणसार, बारह था कि वह मदुराके कविसङ्घमें जाकर अनुवेक्खा, लिंगप्राभृत और शीलप्राभृत पेश करे। ये पाँच ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। इनमेसे नन्दिसबकी गुर्वावलीमें लिखा है पहला श्रीश्रुतसागराचार्यकृत संस्कृत कि भगवत्कुन्दकुन्दको वि० संवत् ४६ में टीका सहित और शेष सब संस्कृतच्छाया प्राचार्यपद मिला और १०१ में उनका सहित हैं। इस ग्रन्थकी भूमिकामें भग- . चित्कुन्दकुन्द और श्रुतसागरका जो परि.. • देखो जैनहितैषी भाग १०, अंक ६-७ । ४ For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। . [भाग १५ वर्गवास हुआ। तामिल देशके विद्वानोंने स चैतद्विषये श्रीमान् कुरल काव्यका रचना-काल भी ईसाकी _ . शामलीग्राममाश्रितः ।। पहली शताब्दि निश्चित किया है। यदि निराकृततमोऽरातिः सचमच ही वह इन्हीं एलाचार्यका बनाया स्थापयन् सत्पथे जनान् । दुना है, तो पट्टावलीके समयके साथ स्वतेजोद्योतितक्षौणि. उसका रचनाकाल मिल जाता है। ___हमने अपने पूर्वोल्लिखित लेख में भग ___ श्चण्ड चिरित्र यो बभौ ॥ वत्कुन्दकुन्दका समय विक्रमकी तीसरी तस्याभू-पुरुएनन्दी तु शताब्दि निश्चित किया था। शिष्यो विद्वानगणाग्रणीः । __उसके बाद जैनसिद्धान्त-प्रकाशिनी तच्छिष्यश्च प्रभाचन्द्रस्तस्येयं संसाद्वारा प्रकाशित 'समयप्राभृत' की वसातः कृता ।। भूमिकामें दक्षिणके सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ इन दोनों लेखोंका अभिप्राय यह है प्रो०के०बी० पाठकका यह मत प्रकाशित कि कोएड कोन्दान्वयके तोरणाचार्य नामहुमा है कि कुन्दकुन्दाचार्य वि० संवत के मुनि इस देश में शाल्मली नामक ग्राम५५ के लगभग हुए हैं। अपने मतकी में आकर रहे। उनके शिष्य पुष्पनन्दि पुष्टिमें उन्होंने लिखा है कि जिस समय और पुष्पनन्दिके शिष्य प्रभाचन्द्र हुए। राष्ट्रक्ट-वंशीय राजा तृतीय गोविन्द पाठक महोदयका कथन है कि राज्य करता था उस समय, शक संवत पिछला ताम्रपत्र जब शक संवत् ७१६ का ७२४ का लिखा हुआ एक ताम्रपत्र मिला है तो प्रभाचन्द्र के दादा-गुरु तोरणाचार्य है। उसमें निम्नलिखित पद दिये हुए हैं:- शक संवत् ६०० के लगभग रहे होंगे और कोण्डकोन्दान्वयोदारो गणोऽभवतः। तोरणाचार्य कुन्दकुन्दान्वयमें हुए हैंतदैतद्विषयविख्यातं शाल्मलीग्राममावसन् ॥ अतएव कुन्दकुन्दका समय उनसे १५० बासीद(?)तोरणाचार्यस्तपःफलषरिग्रहः। . वर्ष पूर्व अर्थात् शक संवत् ४५० के लगभग तत्रोपशमसंभूतभावनापास्तकल्मषः ॥ ' मान लेने में कोई हानि नहीं है। पण्डितः पुष्पनन्दीति बभूव भुवि विश्रुतः। दामी नगरमें शक संवत् ५०० में प्राचीन चालुक्यवंशी कीर्तिवर्म महाराजने बा. अंतेवासी मुनेस्तस्य सकलश्चन्द्रमा इव ।। कदम्बवंशका नाश किया था और इलप्रतिदिवसभववृद्धिनिरस्त लिए इससे लगभग ५० वर्ष पूर्व कदम्बदोषो व्यपेतहृदयमलः । वंशी महाराज शिवमृगेशवर्म राज्य करते परिभूतचन्द्रबिम्बतच्छिष्योऽभूत्प्रभाचन्द्रः॥ थे, ऐसा निश्चित होता है। पंचास्तिकाय. उक्त तृतीय गोविन्द महाराजके ही के कनडी-टीकाकार बालचन्द्र और समयका शक संवत् ७१६ का एक और संस्कृत-टीकाकार जयसेनाचार्यने लिखा ताम्रपत्र मिला है, जिसमें नीचे लिखे है कि यह ग्रन्थ प्राचार्य कुन्दकुन्दने शिवपच हैं: कुमार महाराजके प्रतिबोधके लिए रचा आसीद (?) तोरणाचार्यः था और ये शिवकुमार शिवमृगेशवर्म ही कोण्डकुन्दान्वयोद्भव। जान पडते हैं। अतएव भगवत्कुन्दकुन्दका समय शक संवत् ४५० (वि० ५८५) ही .देखो जैनहितैषी भाग १५ अंक १-२। सिद्ध होता है। For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अङ्क ६] भगवत्कुन्दकुन्द और श्रुतसागर । परन्तु हमारी समझमें भगवत्कुन्द उसका अवस्थि-तिकाल विक्रमकी प्रथम कुछ इतने पीछेके प्राचार्य नहीं हैं । जब शताब्दि है। तक शिवकुमार और शिवभृगेशवर्माके - श्रीश्रुतिसागरसूरि । एक होनेके एक दो पुष्ट प्रमाण न दिये जायें तब तक इस समयको ठीक मान लेनेकी षमाभृत या षट्पाहुड़के टीकाकार इच्छा नहीं होती। तोरणाचार्य कुन्दकुन्दके आचार्य श्रुतसागर बहुश्रुत विद्वान थे। अन्वयमें थे, अतएव यह नहीं कहा जा इस टीकासे और यशस्तिलक-चन्द्रिकासकता कि वे उनके १५० वर्ष बाद ही हुए टीकासे मालूम होता है कि वे कलिकालहोंगे। तीन सौ चार सौ वर्ष या इससे भी सर्वज्ञ, कलिकाल गौतमस्वामी, उभवअधिक पहले हो सकते हैं। भाषाकविचक्रवर्ती आदि महती पदवियों इस भूमिकाका कम्पोज हो चुकनेपर से अलंकृत थे। उन्होंने 'नवनवति' (88) हमें मालूम हुआ कि पंचास्तिकायके महावादियोको पराजित किया था! अगरेजी टीकाकार प्रो० ए० चक्रवर्ती वे मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ औरबलामायनार एम० ए०, एल० टी० ने भग त्कारगणके प्राचार्य और विधानन्दि वत्कुन्दकुन्दके समयके सम्बन्धमें एक भट्टारकके शिष्य थे। उनकी गुरुपरम्परा विस्तृत लेख लिखा है । उसमें उन्होंने इस प्रकार थी-पानन्दि-देवेन्द्रकीर्तिप्रो० पाठकके मतका विरोध करते हुए विद्यानन्दि। यह सिद्ध किया है कि शिवकुमार महा ___ परन्तु विद्यानन्दि भट्टारकके पट्टपर, राज कदम्बवंशी शिवमृगेशवर्मा नहीं, जान पड़ता है, उनकी स्थापना नहीं हुई किन्तु पल्लववंशी शिवस्कन्दवर्मा होने थी। क्योंकि विद्यानन्दिके बाद की गुरुचाहिएँ । स्कन्द, कुमार और कार्तिकेय परम्परा इस प्रकार मिलती है-विद्याषडाननके नामान्तर हैं। अतएव शिव नन्दि-मल्लिभूषण-लक्ष्मीचन्द्र । . स्कन्द और शिवकुमार दोनों निस्सन्देह स्वर्गीय दानवीर सेठ माणिकन्दजीके एक हो सकते हैं । पल्लववंशी राजाओंकी ग्रन्थभण्डारमें पं० पाशाधरके महाभिषेक राजधानी काञ्चीपुर या वर्तमान काँजी. नामक ग्रन्थकी टीका है। उसके अन्तमें वरम् थी। विद्या और कलाओंके लिए इस प्रकार लिखा है:यह स्थान बहुत ही प्रसिद्ध था। दूर दूरके "श्रीविद्यानन्दिगुरोर्बुद्धिगुरोः विद्वान् और कवि यहाँके दरबारमें आते पादपंकजभ्रमरः । थे। धार्मिक वादविवाद भी वहाँ होते श्रीश्रुतसागर इति देशव्रती थे । पल्लव राजा जैनी या जैनधर्मके तिलकष्टीकते स्मेदं ॥ आश्रयदाता थे, इसके भी प्रमाण मिलते इति ब्रह्मश्रीश्रुतसागरकता हैं। उनकी दरबारी भाषा भी शायद महाभिषेकटीका समाप्ता ॥ प्राकृत थी । 'मायिडाबोली' नामका श्रीरस्तु लेखकपाठकयोः । सुप्रसिद्ध अन्य उसी समयका बना दुमा है और प्राकृतमें है। प्राचार्य शुभं भवतु ॥ श्री ॥ कुन्दकुन्द द्रविड देशके थे, इसके अनेक संवत् १५८२ वर्षे चैत्रमासे शुक्लपक्षे प्रमाण है। अतएव उनका शिष्य शिव- पंचम्यां तिथौ रवी श्रीआदिजिन चैत्याकुमार यही शिवस्कन्दवर्मा होगा और लये श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कार For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। [ भाग १५ गणे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारकश्री. स्थित थे और मल्लिभूषणका शायद स्वर्गपचनन्दिदेवास्तत्पट्टे भट्टारकश्रीदेवेन्द्रकी- वास हो चुका था। र्तिदेवास्तत्पट्टे भट्टारकाश्रीविद्यानन्दिदेवा (अपूर्ण) स्तपट्टे भट्टारकश्रीमल्लिभूषणदेवास्तपट्टे भट्टारकश्रीलक्ष्मीचन्द्रदेवास्तेषां शिष्यवरब्रह्मश्रीज्ञानसागरपठनार्थ ।। आर्या श्रीविमल. विविध विषय । श्री चेली भट्टारक श्रीलक्ष्मीचद्रन्दीक्षिता १-अधिवेशन सफल हुआ विनयश्रिया स्वयं लिखित्वा प्रदत्तं महा. भिषेकभाष्यं ॥ शुभं भवतु ॥ कल्याणं या असफल । भूयात् ।। श्रीरस्तु ॥ भारतवर्षीय दि० जैन महासभाके इससे मालूम होता है कि विद्यानन्दि- जिस अधिवेशनकी अ... बड़ी धूम थी के पट्टपर मल्लिषेणकी और उनके पट्टपर और बहुत शोर था वह कानपुरमें गत लक्ष्मीचन्द्रको स्थापना हुई थी। यशस्ति- १, २, ३ अप्रेल को हो गया। इस अधिलकटीकामें श्रुतसागरने मल्लिभूषणको वेशनकी जो रिपोर्ट जैनगजट, जैनमित्र अपना गुरुभ्राता लिखा है। इससे भी और जैनप्रदीप आदि पत्रोंमें प्रकाशित मालूम होता है कि विद्यानन्दिके उत्तरा- हुई हैं, उन्हें हमने साद्यंत पढ़ा है और धिकारी मल्लिभूषण ही हुए होंगे। यश- बाबू अजितप्रसादजी वकील, लखनऊका स्तिलकचन्द्रिका टीकाके तीसरे पाश्वास- लिखा हुआ कश्या चिढ़ा इस अङ्कमें के अन्तमें लिखा है अन्यत्र प्रकाशित ही है। इसमें सन्देह इतिश्रीपग्रनन्दिदेवेन्द्रकीतिविद्यान नहीं कि महासभाके सभापति श्रीमान साहु सलेखचन्दजी और स्वागतकारिणी न्दिमल्लिभूषणाम्नायेन भट्टारकश्रीमल्लिभूष - सभाके सभापति लाला रामस्वरूपजीके णगुरुपरमाभीष्टगुरुभ्रात्रा गुर्जरदेशसिंहा व्याख्यान समयानुकूल बहुत कुछ अच्छे सनभट्रारकश्रीलक्ष्मीचन्द्रकाभिमतेन मालव- हुए और उनमें कितनी ही बातें बडे देशभट्रारकश्रीसिंहनंदिप्रार्थनया यतिश्री महत्त्वकी और कामको कही गई थीं। सिद्धान्तसागरव्याख्यातिनिमित्तं नवन- परन्तु महासभामें उनपर विचार होकर वतिमहामहावादिस्याद्वादलब्धविजयेन तर्क- किसी प्रस्तावका पास होना तो दूर रहा, व्याकरणछन्दोऽलंकारसिद्धान्तसाहित्यादि- वे सब्जेक कमेटीमें प्रायः उठाईतक भी शास्त्रनिपुणमतिना प्राकृतःशकरणाद्यनेक- नहीं गई और इसलिए ऐसी कामकी शास्त्रचञ्चुना सूरिश्रीश्रुतसागरेण विरचि. बातें महासभाके इस अधिवेशनमें एक प्रकारसे ऊँटका पादही रही ! महासभाके तायां यशस्तिलचन्द्रिकााभधानायां यशो जिल सङ्गठनकी अर्सेसे शिकायत चली धरमहाराजचरितचम्पुमहाकाव्यटीकायां जाती है, जिसके सम्बन्धमें जैनसिद्धान्तयशोधरमहाराजराजलक्ष्मीविनोदवर्णनं विद्यालय मुरैनाकी कमेटीने, महासभाके नाम तृतीयाश्वासचन्द्रिका परिसमाप्ता।" पत्रोपर, अपना यह निश्चय प्रकट किया __ इससे मालूम होता है कि उस समय कि “महासभाका जबतक योग्य सङ्गठन गुर्जर देशके पट्टपर भट्टारक लक्ष्मीचन्द्र न हो आय तबतक उसकी अधीनता For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . विविध विषय। - 18 करना उचित नहीं है, और जो इस चन्देका उल्लेख करते हुए ब्रह्मचारी संगठन ही उन्नति अवनतिका मूल होता शीतलप्रसाद जी, जैनमित्र अंक २१ में है, उसपर भी कुछ ध्यान नहीं दिया गया लिखते हैं कि- "सभाके कार्यों में किसी और न उसकी महासभामें चर्चा ही महाशय द्वारा कठोर भाषण होनेके कारण उठाई गई । जैनमित्रसे मालूम होता है दिलोंमें उत्साहकी कमी हो गई जिससे कि महासभामें अनेक प्रान्तोंकी उपस्थित भी चन्दा बहुत कम दुना।" और एक जनता चार हज़ारसे ऊपर थी, और यह दूसरे स्थानपर आप यह भी सूचित करते सब इसके अन्दोलनका फल है। परन्तु हैं कि- “यदि महासभामें पधारे हुए । फण्डके लिए अपील किये जानेपर मुश- पण्डित और बाबूदल में पूर्ण विश्वास किलसे पन्द्रह सौ या सोलह सौ रुपये होता तो कई महत्वके काम हो जाते। पर से अधिकका चन्दा नहीं हो सका, अन्ध अविश्वासने बहुत सी बातोका जिसमें एक हज़ार रुपये केवल सभापति सुधार होते होते रोक दिया।" लाला साहबके दिये हुए हैं। बाकी पाँच सौ छः ज्योतिप्रसादजी अपने 'जैनप्रदीप' में, सौ रुपये शेष जनतासे बहुत कुछ कोशिश पण्डितोंकी धींगाधींगी* और उनके और प्रेरणाके साथ वसूल किये गये! अशिष्ट तथा कषायपूर्ण व्यवहारका बहुत इस चन्देमें चार आनेका हिस्सा दूसरी कुछ उल्लेख करते हुए लिखते हैं किचार संस्थाओंका भी था और इसलिए "अगर दरअसल यह प्रदर्शिनी न खोली महासभाको अपनी इस अपीलसे ज्यादासे जाती तो महासभाकी धींगाधागी और ज्यादा बारह सौ रुपयेकी ही प्राप्ति हुई है। नाकामयाबीको देखकर आनेवाले भाइयों इतनी भारी जनता और ऐसे ऐसे को बहुत कुछ पश्चात्ताप करना पड़ता।" प्रतिष्ठित श्रीमानोंकी उपस्थितिमें एक और बाबू अजितप्रसादजी वकील अपने भारतवर्षीय जैसी संस्थाको उसके धनिक- को चिद्वेमें यह लिखते ही हैं किसमाजसे इतनी तुच्छ रकम प्राप्त होना, "किसीको यह भी ज्ञात नहीं हुआ कि निःसन्देह बहुत ही सकता है: और जैनसमाजसे अनेक प्रकार रुपया खर्च इससे पाठक इस मा अनुत कुछ करनेकी स्वीकारता प्राप्त करनेके अतिअनुभव कर सकते हैं. सभाके रिक्त महासभाके इस अधिवेशनका और ऊपर समाजकी किता नक्ति क्या प्राशय था।" है और उसे समाजपर - प्रभुत्र इन सब बातोंसे पाठक स्वयं समझ थापित करने-प्रभाव जमाने से इसके सकते हैं कि महासभाका यह अधिवेशन हृदयको अपने काबूमें लानेके लिए सफल हुत्रा या असफल । महासभाके अधिक योग्यता और सुसङ्गठनकी ज़ प्रजातोकी सूची देखनेसे मालूम होता है है। सभापति महोदयने ठीक ही का, कि इस साल उसके द्वारा कोई भी खास कि 'महासभाके नामके अनुसार उस । महत्व का प्रस्ताव पास नहीं हुआ। हमारी व्यापकता नहीं है और इसलिए यह नाम रायमें महासभाको यदि कुछ सफलता मात्रकी ही महासभा बनी हुई है।' अस्तु, - . "जैनसमाजके ऊपर पण्डितोंकी योगाधाँगीका • देखो जैनमित्र अंक २१ पृ० ३१८ । हाल बखूबी रोशन हो गया और उनकी मनमानी कार+ जैनगमट पन्द्रह सौ और जैनमित्र सोलह सौ वाइयोंका खूनही भण्डार फूर निकला।" लिखता है। --जैनप्रदीप For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० प्राप्त हुई है तो वह इतनी ही है कि महासभा जिस रूपमें कानपुर आई थी वह उसी रूपमें सहीसलामत वहाँसे वापस चली गई उसमें कुछ परिवर्तन होने नहीं पाया और न सुरतकी काँग्रेस जैसा दृश्य ही उपस्थित हुन । महासभा के इस अधिवेशनका जैसा कुछ शोर था, लोगोंकी जैसी कुछ आशाएँ इसपर लगी हुई थीं और इसका जैसा कुछ परिणाम निकला है, उसे देखते हुए कविका यह वाक्य याद आये बिना नहीं रहता कि" बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिलका । जो चीरा तो एक क़तरए + खून निकला ।” 'महासभा यदि जीना चाहती है और अच्छी तरह से जीना चाहती है तो उसे देशकालानुसार कुछ उदार धनकर अपनी हातको सुधारना और अपने सङ्गठनको ठीक बनाना चाहिए । नहीं तो भविष्य में उसे और भी अधिक अधिक असफलताओं का सामना करना पड़ेगा । जैनहितैषी । २- महिला परिषद् | इस परिषद्का वार्षिक अधिवेशन भी महासभा के अवसर पर कानपुर में ता० २, ३ अप्रेलको हो गया। परिषद् के सभापतिका आसन श्रीमती पडिता चन्दाबाईजी आराने ग्रहण किया था। आपके छपे हुए भाषणकी एक कापी हमें प्राप्त हुई है जिसके देखनेसे मालूम हुआ कि भाषण अच्छा हुआ है और उसमें समयानुकूल कितनी ही बातें स्त्रीजातिके लिए अच्छी कही गई हैं। ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी सूचित करते हैं कि इस परिषद्ने कन्या महाविद्यालय और महिला उदासीन मन्दिरके स्थापना सम्बन्धी दो उपयोगी प्रस्ताव पास किये हैं । अपील होने पर परिषद्के फण्डमें १५०८ll) की और * नँद विन्द [ भाग १५ श्राविकाश्रम बम्बई के फण्डमें २२६१ ) रुपये की आमदनी हुई । श्राविकाश्रमके श्रव्य फण्डमें श्रीमती पण्डिता चन्दाबाई ने १००१) और श्रीमती कंकुबाई शोलापुरने २००१) रुपये प्रदान किये। जैनस्त्रीसमाजके इस बढ़ते हुए उत्साहको देखकर हमें बहुत प्रसन्नता होती है और हम उसके भावी उत्कर्ष के लिए हृदयसे भावना करते हैं । हमारी रायमें स्त्रीजाति स्वावलम्बनके द्वारा ही अपना उद्धार कर सकेगी और उसके उद्धारपर ही देश, धर्म तथा समाजका उद्धार निर्भर है । ३ - जैनहितैषी से प्रेम I कोल्हापुरके एक पण्डित महाशय जैन हितैषीसे बड़ा प्रेम रखते हैं । हालमें आपने इस पत्र के सहायतार्थ ३० रुपये भेजे हैं और इस तरहपर अपने प्रेमका विशेष परिचय दिया है। हम आपकी इस उदारता और गुणग्राहकताका हृदयसे अभिनन्दन करते हैं। ४ - आश्चर्य की बात । हमारे पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि समाजमें सत्योदय, जातिप्रबोधक और जैनहितैषीके बहिष्कारकी जो चर्चा चल रही थी वह कानपुरमें जाकर कुछ शान्त हो गई है । यद्यपि महासभा के सभापति श्रीमान् साहुस लेखचन्द्रजीने जैनहितैषीको बहिष्कार के योग्य न बतला कर सिर्फ दो पत्रोंको ही बहिष्कार के योग्य बतलाया था और शास्त्र-परिषद् के बहिष्कार की प्रेरणा की थी, परन्तु बहिसभापति पं० लालारामने तीनोंके ही Eareकी ये सब बातें सभापतियोंके भाषणों तक ही रहीं और वह भी शायद किसी खास गरजसे । महासभाकी सब्जेकृ कमेटीमें इस विषयकी चर्चा नहीं ठाई गई और न महासभा तथा शास्त्रपरिषद्के द्वारा इन पत्रोंके विरुद्ध कोई For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क ६ ] प्रस्ताव ही पास किया गया । कलकत्तेके षड्यन्त्रको देखते हुए और उसी वक्त से महासभा के द्वारा भी उक्त प्रकारके प्रस्ताव को पास कराने के इरादों को सुनते हुए, यह कभी श्राशा नहीं होती थी कि महासभाकी सब्जेकृ कमेटीमें जहाँ शास्त्रिमण्डलका पूरा जोर था, इन पत्रोंके बहिकारकी चर्चा तक न उठेगी और खासकर शास्त्रिपरिषद् द्वारा इनके बंहि कारका कोई प्रस्ताव भी पास न किया जायगा और इसलिए ऐसा होना निःस न्देह एक आश्चर्य की बात जरूर है । अवश्य ही इसमें कोई गुप्त रहस्य है । शायद यही सोचा गया हो कि जब बहिsareके विधाता पण्डित लोग ही इन पत्रको पढ़ने, इनसे लाभ उठाने और इनके लेखों पर विचार प्रकट करनेकी अपनी प्रबल इच्छाओंका संवरण नहीं कर सकते और न स्वयं अपने विषयमें प्रामाणिक रह सकते हैं— उन्हें वास्तव में बहिष्कार स्वीकार ही नहीं - तब परोपदेश कुशल बनकर दूसरोंको उनके पढ़नेसे रोकनेका उन्हें अधिकार ही क्या है और दूसरे लोग एक तरफ लेखोंको माननेके लिए बाध्य भी कैसे किये आ सकते हैं। सच है ऐसे लोगोंके वचनोंका जनतापर कोई असर नहीं होता जो अपने कथनपर स्वयं ही श्रमल न करते हों । । • पुस्तक परिचय | ५-समाजका दुर्भाग्य । अभी कुमार देवेंद्रप्रसादजी के वियोग से हृदय संतप्त ही हो रहा था और शोका सूखने भी नहीं पाये थे कि आज हम दूसरा हृदयविदारक दुःसमाचार सुन रहे हैं ! हमें दुःख और शोकके साथ लिखना पड़ता है कि श्राज श्रीॠषभब्रह्मचर्याश्रम के संस्थापक, उसके लिए अपना तन, मन, धन अर्पण करनेवाले १६१ और उसके बच्चोंको माताकी तरह प्रेमले पालनेवाले, समाजके निःस्वार्थ सेवक और उस सेवा के लिए अपनी नौकरीको भी छोड़ देनेवाले वीर पुरुष ला० गेंदनलालजी श्राज इस संसार में नहीं हैं !! आप कुछ अर्से से श्रीसम्मेद शिखरजी गये हुए थे और वहाँ भीलोंसे मद्यादिक छुड़ाकर उन्हें सन्मार्ग में लगा रहे थे । सुनते हैं कि आपने कई हजार भीलोंको ठीक किया था और आप उनकी स्त्रियोंमें चर्खेका प्रचार कराकर उनके जीवनको सुधारना चाहते थे । इस सेवा कार्यको करते हुए रोगपीड़ित हो जाने के कारण आप वहाँ से वापस लौट रहे थे । रास्तेमें श्रापकी तबियत कुछ ज्यादा खराब मालूम हुई और इसलिए श्राप रायबरेली उतर गये जहाँ कि आपकी लड़की मौजूद थी। वहीं पर गत १६ अप्रैल को आपका शरीर एकाएक छूट गया ! श्रापके हृदयमें जातिसेवाका बड़ा प्रेम था और श्राप बड़े ही परोपकारी और उत्साही पुरुष थे। ऐसे परोपकारी और उत्साही पुरुषका एकाएक समाजसे उठ जाना निःसन्देह समाजका बड़ा ही दुर्भाग्य है ! मृत्युके समय आपके दोनों पुत्रोंमेंसे कोई भी पास नहीं था। एक पुत्र बाबू दीपचन्दजी बी० ए० सहारनपुरमें वकालत करते हैं और दूसरे पुत्र बड़ोदा के कलाभवनमें शिक्षा पा रहे हैं । हम आपके कुटुम्बीजनोंके इस दुःखमें समवेदना प्रकट करते हुए हृदयसे इस बातकी भावना करते हैं कि ला० गेंदनलालजी की आत्माको सद्गतिकी प्राप्ति हो । पुस्तक परिचय | जैनदर्शन - मूल लेखक श्व० मुनि श्रीम्यायविजयजी । अनुवादक, कृष्णलाल For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी। . [भाग १५ वर्मा । प्रकाशक, श्रीजैन सरस्वती भवन, "विंशत्यंगुलमानंतु त्रिंशदंगुलमायतम् । अहमदाबाद। पृष्ठ-संख्या १५० के करीब। तद्वस्त्रं द्विगुणीकृत्य गालयित्वा पिबेजलम् ।। मूल्य, दस पाने। तम्मिन वस्नेस्थितान् जीवान्स्थापयेजलमध्यत यह इस नामकी गुजराती पुस्तकका एवं कृत्वा पिबेत्तोयं स याति परमां गतिम् ।। हिन्दी अनुवाद है। मूल पुस्तक भी इस इन श्लोकों में यह बतलाया है कि समय हमारे सामने मौजूद है। उसे श्री- २० अंगल चौड़े और ३० अंगुल लम्बे यशोविजय जैनग्रन्थमालाके व्यवस्थापक बाग करके उसमें पानी छानमण्डलने भावनगरसे प्रकाशित किया कर गोरः .. .. और उस वस्त्रमें स्थित है। मूल्य पुस्तक पर लिखा नहीं। हाँ, जायों को स्थापित कर देना उसकी एक हजार प्रतियाँ दोसी त्रिभु- चाहिए। इन छानकर जो वनदास ताराचन्दकी ओरसे बिना मूल्य पीता है ६ १० कम होता है।" वितरण की गई हैं। यह बिल पाई और इस पुस्तकमे जीवादि नवपदार्थ, इसमें जैन और दयानत्व पंचास्तिकाय, षड़द्रव्य, सम्यग्दर्शनादि- भरा हुश्रा है मन भारतके मोक्षमार्ग,गुणस्थान,अध्यात्म, जैनाचार, किस अध्याय भाग क हैं। न्यायपरिभाषा, स्याद्वाद, सप्तभंगी, नय पुस्तकमे एक र निज पद्य हरिभद्रऔर जैन दृष्टिकी उदारता, इतने विषयो- सूरिके नामसे रद्द किया गया हैका सामान्य रूपसे संक्षिप्त परिचय दिया पया व्रतो न दध्यत्ति न पयोत्ति दधिवतः गया है । पुस्तक आम तौरपर अच्छी अगोरस व्रतो नोत्रे तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम्।। और उपयोगी है। इसके 'जैनाचार' यह पद्य वास्तवमें खामिसमन्तभद्रके प्रकरणमें अजैन ग्रन्थोसे जो तुलनात्मक प्राप्तमीमांसा ग्रन्थका है और वहाँ 'वस्तु' वाक्य दिये हैं. उनसे पस्तककी उपयो- की जगह 'तत्वं पद दिया हश्रा है। हरिगिता अनेक अंशोंमें बढ़ गई है। परन्तु भद्रसूरिने अपने 'शास्त्रावार्तासमुच्चय' ऐसे कितने ही वाक्योंके सम्बन्धमें यह ग्रन्थमें इसे उद्धृत किया था और "अन्येत्रुटि भी पाई जाती है कि पुस्तकमें उनका स्वाहुः" इस वाक्यके द्वारा अपने ऐसा पूरा पता नहीं दिया। यह नहीं लिखा कि करनेको सूचित भी कर दिया था । वे उल्लिखित ग्रन्थके कौनसे अध्यायमें संवत् १६६४ में, भावनगरसे हरिभद्रसूरि और किस पद्य नम्बर पर स्थित हैं। कृत ग्रन्थमालामें जो ग्रन्थ प्रकाशित हुआ अच्छा होता, यदि ऐसा कर दिया जाता। उसमें भी 'वस्तु' की जगह 'तत्वं' पद ही हमारी रायमें अब भी मुनि न्यायविजय- दिया हुआ है । मुनि न्यायविजयजीने जीको ऐसे श्लोकोके पूरे पतेका एक परि- 'आप्तमीमांसा' को ज़रूर देखा शिष्ट पुस्तकमें लगा देना चाहिए और या ऐसी हालतमें उन्हें इस पद्यको उसी दूसरे संस्करणमें ऐसे पद्योंके नीचे ही रूपमें स्वामी समन्तभद्र अथवा प्राप्तउनका पूरा पता दे देना चाहिए । जल मीमांसाके नामसे ही उद्धृत करना छानकर पीनेके सम्बन्धमें जो श्लोक चाहिए था। अस्तु; हिन्दी और गुजराती. उत्तरमीमांसा और महाभारतके नामसे, की दोनों पुस्तकें छपाई, सफाई तथा विना पतेके, उद्धृत किये गये हैं उनमेंसे कागजकी दृष्टि से भी अच्छी हैं और पढ़ने महाभारतवाले श्लोक इस प्रकार हैं- तथा संग्रह किये जाने के योग्य हैं। For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतके प्राचीन राजवंश। उत्तमोत्तम जैन ग्रन्थ । हिन्दीमें इतिहासका एक अपूर्व ग्रन्थ। इस देशम पहले जो अनेक वंशोके बड़े नीचे लिखी आलोचनात्मक पुस्तके बड़े प्रतापी, दानी और विद्याव्यवसनी विचारशीलोंको अवश्य पढ़नी चाहिएं। राजा महाराज हो गये हैं उनके सच्चे साधारण बुद्धिके गतानुगतिक लोग इन्हें इतिहास हम लोग बिलकुल नहीं जानते। न मँगावें। बहुतोंके विषयमें हमने तो झूठी, ऊटपटाँग किम्वदन्तियाँ सुन रक्खी हैं और बहुतोको हम भूल ही गये हैं । इस ग्रन्थमें क्षत्रपवंश, १ग्रंथपरीक्षा प्रथम भाग । इसहैहयवंश (कलचुरि) परमारवंश (जिसमे में कुन्दकुन्द श्रावकाचार, उमास्वातिराजा भोज, मुंज, सिन्धुल आदि हुए है), श्रावकाचार और जिनसेन त्रिवर्णाचार इन चौहानवंश (जिसमें प्रसिद्ध महाराज तीन ग्रन्थों की समालोचना है । अनेक पृथ्वीराज हुए हैं ), सेनवंश और पाल प्रमाणोंसे सिद्ध किया है कि ये असली वंश तथा इन वंशोकी प्रायः सभी शाखा- जैनग्रन्थ नहीं हैं-भेषियोंके बनाये हुए ओके राजाओका सिलसिलेवार भार का सच्चा इतिहास प्रमाणोसहित संग्रह किया गया है। शिलालेखों, ताम्रपत्रों, ग्रन्थप्रशस्तियों, फारसी-अरबीकी तवारीखों २ ग्रंथपरीक्षा द्वितीय भाग । शीना कितथा अन्य अनेक साधनोंसे बड़े ही परि यह भद्रबाहुसंहिता नामक ग्रन्थकी श्रमपूर्वक यह ग्रन्थ रचा गया है। प्रत्येक विस्तृत समालोचना है। इसमें बतलाया इतिहासप्रेमीको इसकी एक पक प्रति है कि यह परमपूज्य भद्रबाहु श्रुतकेवलीमँगाकर रखनी चाहिए। इसमें अनेक का बनाया हुआ ग्रन्थ नहीं है, किन्तु जैन विद्वानों तथा जैन धर्मप्रेमी राजाओंका ग्वालियरके किसी धूर्त भट्टारकने १६ १७ भी उल्लेख है । लगभग ४०० पृष्ठोंका वीं शताब्दिमें इस जाली ग्रन्थको उनके कपड़ेकी जिल्द सहित ग्रन्थ है । मूल्य ३) नामसे बनाया है और इसमें जैनधर्मके रु०। आगेके भागोंमें गुप्त, राष्ट्रकूट आदि विरुद्ध सैंकड़ों बातें लिखी गई हैं। इन घंशोके इतिहास निकलेंगे। दोनों पुस्तकों के लेखक श्रीयुक्त बाबू नकली और अमली धर्मात्मा।। जुगुलकिशोरजी मुख्तार हैं । मूल्य ।) श्रीयुत बाबू सूरजभानुजी वकीलका लिखा हुआ सर्वसाधारणोपयोगी सरल उपन्यास । ढोंगियोंकी बड़ी पोल खोली ३ दर्शनसार । प्राचाय देवसेनका : गई है । मूल्य ॥) मूल प्राकृत ग्रन्थ, संस्कृतच्छाया, हिन्दी __ नया सूचीपत्र । अनुवाद और विस्तृत विवेचना। इतिउत्तमोत्तम हिन्दी पुस्तकोंका १२ हासका एक महत्वका ग्रन्थ है। इसमें 'पृष्ठोंका नया सूचीपत्र छपकर तैयार है। श्वेताम्बर, यापनीय, काष्ठासंघ; माथुर. पुस्तक-प्रेमियों को इसकी एक कापी मँगा संघ, द्राविड़संघ श्राजीवक (अज्ञानमत) कर रखनी चाहिए। मैनेजर, और वैनेयिक आदि अनेक मतोंकी उत्पत्ति हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय, और उनका स्वरूप बतलाया गया है। हीराबाग, पो. गिरगाँव, बम्बई। बड़ी खोज और परिश्रमसे इसकी रचना For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Reg. No. A. श्रात्मानुशासन / - पावपुराण भाषा / कविवर भूधरदासजीका यह अपूर्व भगवान् गुणभद्राचार्यका बनाया हुश्रा यह ग्रन्थ प्रत्येक जैनीके स्वाध्याय करने ग्रन्थ दूसरी बार छपाया गया है / इसकी योग्य है। इसमें जैनधर्मके असली उद्देश्य कविता बड़ी ही मनोहारिणी है। जैनियोंशान्तिसुखकी ओर आकर्षित किया गया के कथाग्रन्थों में इससे अच्छी और सुन्दर कविता आपको और कहीं न मिलेगी। है। बहुत ही सुन्दर रचना है। आजकल. विद्यार्थियोंके लिये भी बहुत उपयोगी है। की शुद्ध हिन्दीमें हमने न्यायताथ न्याय शास्त्रसभाओं में बाँचनेके योग्य है। बहुत शास्त्री पं० वंशीधरजी शास्त्रीसे इसकी सुन्दरतासे छपा है / मूल्य सिर्फ 1) रु.। टीका लिखवाई है और मूलसहित छपवाया है। जो जैनधर्मके जाननेकी इच्छा कथामें जैनसिद्धान्त / रखते हैं, उन अजैन मित्रोंको भेटमें देने योग्य भी यह ग्रन्थ है / मूल्य 2) की गूढ़ कर्म-फिलासफीको सरलतासे समझना हो और एक बढ़िया काव्यका षट्माभृतादिसंग्रह। प्रानन्द लेना हो तो प्राचार्य सिद्धर्षिके बनाये हुए 'उपमितिभवप्रपचाकथा' यह माणिकचन्द ग्रन्थमालाका १७वाँ नामक संस्कृत ग्रन्थके हिन्दी अनुवादको ग्रन्थ है। इसमें प्राचार्य कन्दकन्दके अवश्य पढिये।अनुवादक श्रीयुत नाथूराम - पाहुड़ और रयणसार, द्वादशानुप्रेक्षा प्रेमी / मूल्य प्रथम भागका॥)और द्वितीय ये दस ग्रन्थ छपे हैं। पहलेके 6 पाहुडोकी भागका / -) जैन साहित्यमें अपने ढंगका आचार्य श्रुतसागरकृत संस्कृत टीका भी है, यही एक ग्रन्थ है। जो बहुत विस्तृत है। अन्य ग्रन्थ मूल संस्कृत ग्रंथ। और संस्कृत छाया सहित छपे हैं। प्रत्येक 1 जीवन्धर चम्पू-कवि हरिचन्द्रकृत। 11) भंडारमें इसकी एक एक प्रति रहनी 2 गद्यचिन्तामणि-वादीभसिंहकृत / ) चाहिए / मूल्य लागत मात्र तीन रुपया। 3 जीवन्धरचरित-गुणभद्राचार्यकृत / 1) 4 क्षत्रचूड़ामणि-वादीभसिंहकृत। मू०१) 5 यशोधरचरित-वादिराजकृत। मू० // ) भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यका यह बिलकुल चरचा समाधान / पं. भूधरमिश्र ही अप्रसिद्ध ग्रन्थ है। लोग इसका नाम कृत / भाषाका नया ग्रन्थ। हालही में छपा है। मूल्य 2 // -) भी नहीं जानते थे। बड़ी मुश्किलसे प्राप्त करके यह छपाया गया है / नाटक समय जन ग्रन्थों का सूचीपत्र सार आदिके समान ही इसका भी प्रचार अभी हाल में ही छपकर तैयार हुआ होना चाहिए / मूल प्राकृत,संस्कृतच्छाया, है। मिलनेवाले तमाम ग्रन्थोंकी सूची है। भाचार्य पद्मप्रभमलधारि देवकी संस्कृत जिन सजनोंको चाहिए वे एक कार्ड टीका और श्रीयुत शीतलप्रसादजी बन. लिखकर मॅगा ले। चारीकृत सरल भाषाटीकासहित यह - मैनेजरछपाया गया है। अध्यात्मप्रेमियों को अवश्य जैन-ग्रन्थ-रत्नाकर काय्यालय, स्वाध्याय करना चाहिए। मूल्य 2) दोरु०। हीराबाग, पो० गिरगाँव, बम्बई / Printed & Published by G.K. Gurjar at Sri Lakshmi Narayan Press, Jatanbar, Benaie: City, for the Proprietor Nathuran Premi of Bombay 114.21. For Personal & Private Use Only