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________________ अङ्क ६ ] हुआ। इसका कोई उत्तर नहीं दिया गया ! महासभा के परीक्षालय सम्बन्धमें बहुमत उसको कायम रखनेके विरुद्ध था । सभापति महोदय और प्रबल बहुमतकी समझ में परीक्षालयको जारी रखना व्यर्थ व्यय समझा गया ! कुरीतिसम्बन्धी प्रस्ताव उपस्थित होनेपर हमने कहा कि बहुविवाहकी कुप्रथा भी इसमें जोड़ दी जाय और यह भी प्रस्ताव किया जाय कि जो व्यक्ति इन कुप्रथाओं में से किसीको करे उससे पञ्चायत सम्बन्ध न रक्खे और न उसके ऐसे कार्योंमें सम्मिलित हो । इसपर पं० धन्नालालजीने बहुत क्रोध प्रकट किया और कहा कि वह और उनके मित्रमण्डल ऐसे प्रस्तावका विरोध करेंगे, ऐसे प्रस्तावके होनेसे परिणाम बुरा होगा, धर्म और जातिको हानि पहुँचेगी, स्थानीय पञ्चायतीयों को अपने अपने प्रान्त में ऐसे विषयोंका पूर्ण अधिकार है और महासभाको उस अधिकारमें हस्तक्षेप न करना चाहिए । इसपर हमें कहना पड़ा कि यदि महासभा २५ वर्ष तक भी ऐसे प्रस्तावको प्रति वर्ष पास करते करते उसपर अमल करने के लिए पूर्णतया तय्यार नहीं है, तो ऐसे व्यर्थके शब्दा डम्बरमात्र प्रस्तावको न रखना ही अच्छा है। * महासभा के कानपुरी अधिवेशनका कच्चा चिट्ठा । शामतक सब्जेकृ कमेटीमें फिर भी ६ ही प्रस्ताव तैयार हुए। सब्जेकृ कमेटीकी १२ घण्टेकी ३ बैठकोंमें कई बातें नोखी और पूर्व देखने में आई । एक * जैनप्रदीपके सम्पादक महाशय लिखते हैं कि बहुविवाह निषेध के सम्बन्ध में यह भी कहा गया था कि उस विषयका प्रस्ताव पहले से महासभा में पास हो चुका है। ' परन्तु फिर भी पं० धन्नालालजीके विरोध करनेपर बहुविवाहके शब्द इस प्रस्ताव में नहीं रक्खे गये, यह श्राश्वर्यकी बात है! बालविवाहादि सम्बन्धी प्रस्ताव भी तो कई बार पास हो चुका Jain Education International |--सम्पादक १८३ तो यह कि जब कोई बात महामन्त्रीजी के मन्तव्यसे विरुद्ध होती थी तब तो वे और उनके क्लार्क जोर जोरसे यह पुकारते थे कि सभापति महोदयकी स्वीकरता लिए बिना कोई न बोले, बल्कि कभी कभी तो वे यह भी कह देते थे कि लिखितपत्र भेजकर और लिखित स्वीकारता लेकर बोला जाय, किन्तु महामन्त्रीजी और उनके क्लार्क, पं० धन्नालालजी, पं० वंशीधरजी, और कुछ और व्यक्ति कभी भी सभापतिकी अनुमति या इयत लेकर नहीं बोलते थे बल्कि सभापति पके मना करने और प्रार्थना करनेपर भी चुप नहीं होते थे। दूसरी बात यह कि, सिवाय जैनगज़टकी सम्पादकीके प्रस्तावके और किसी भी प्रस्तावपर बहुमत से निर्णय नहीं किया गया, बल्कि बहुमत से निर्णय किये जानेके लिए बारम्बार प्रार्थना होनेपर भी सभापति महोदय मुसकराकर यह कह देते थे कि बहुमत तो प्रकट ही है, किन्तु बहुमतसे निर्णय करना मुझको अभीष्ट नहीं है ! और जैनगज़टकी सम्पादकीके प्रस्तावके समय दोपहर हो जाने से और पण्डित दुर्गाप्रसाद तथा अलकापुर निवासी महानुभावोंके प्रति इस विषयमें योग्य व्यवहार न होनेसे बहुत लोग उठ गये थे, पण्डित धन्नालालजीके कमरे के लोग समीप ही थे, और बहुमत उस समय स्पष्टतया कानपुरवालोंके विरुद्ध था । परन्तु इस स्थितिपर कुछ ध्यान नहीं दिया गया ! तीसरी बात यह कि महामन्त्रीजीने जो प्रस्ताव जिस समय चाहा, उपस्थित किया; किसी सदस्यको अपना प्रस्ताव उपस्थित करानेका श्रव सर नहीं दिया गया। चौथी बात, यह कहा गया था कि अनुमान २०० प्रस्ताव दफ़र महासभा में आये हुए हैं किन्तु उन प्रस्तावोंकी सूचीतक सदस्योंके For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522889
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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