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________________ १८४ जैनहितैषी। [भाग १५ सामने उपस्थित नहीं की गई। किसीको रात्रिको महासभाकाफिर अधिवेशन यह भी ज्ञात नहीं हुआ कि जैनसमाजले हुआ । जैनगज़टके घाटेका प्रास्तव उपअनेक प्रकार रुपया खर्च करने की स्वीका. स्थित होनेपर हमने सखेद उसका विरोध रता प्राप्त करनेके अतिरिक्त महासभाके किया और कहा कि यह प्रस्ताव स्वीकार इस अधिवेशनका और क्या प्राशय था। न किया जाय और यदि स्वीकार हो तो धवलत्रयके जीर्णोद्धारका प्रस्ताव तो मूड़ इस शब्द-परिवर्तनके साथ कि, "लिए" विद्री में अभिषेकोत्सव पर दिल्लीके संघ- के स्थान में "विषय में" पढ़ा जाय और की उपस्थितिमें पहले ही हो चुका था। "कि घाटेके दस हिस्से" आदि शब्दोके प्रान्तिक सभाकी स्थापनाके वास्ते कान- स्थानमें "कि जैन गज़टमें केवल महा. पुरके भाई तथा अन्य युक्त मान्तस्य लोग सभाके कार्योंकी रिपोर्ट छपा करें, महीने. उत्सुक ही थे । स्वदेशी वस्तु प्रचारका में एक दफ़ा निकाला जाय, कोई विवा. प्रस्ताव जिन शब्दोंमें लिखा गया। उनका दग्रस्त विषय उसमें न हो, और जो रुपया प्रयोग बड़े सोच विचार और संकोचके इस खातेमें बचे, उससे छोटी छोटी साथ किया गया है। कुरीति निवारण पुस्तकें जैनधर्मकी सिद्धान्त-निरूपक छापी प्रस्ताव केवल एक मङ्गल कामना रूप था। जायँ, और लागतके दामपर बेची जायँ।" और पाँचवीं बात यह है कि जो भाव- ऐला करनेसे घाटेका नाम उड़ जायगा। श्यक बातें स्वागत का० स० के सभापति- यह ध्यान रखना चाहिए कि जैन समाजके भाषणमें, अथवा महासभाके सभापति में और कोई भी ऐसा पत्र नहीं है जिसमें महोदयके व्याख्यानमें लिखी गई थी, इतना घाटा होता हो और जिसके घाटेउनका कथनमात्र भी सब्जेकृ कमेटीमें का पचड़ा सभामें पेश होकर उसके वास्ते नहीं हुआ, और साधारण व्यक्तियोंके जनतासे चन्दा लिया जाता हो। हमारे भेजे हुए प्रस्तावोंका तो किसीको पता इस संशोधनका विरोध पं. धन्नालालतक भी नहीं लगा । सभापति महोदय. जी, पं० वंशीधर जी और कुछ अन्य का बराबर यह प्रयत्न रहा, कि महा- महाशयोने किया । और इसलिए यह सभा जिस रूपमें उनके सामने आई है सातवाँ प्रस्ताव ज्योंका त्यों स्वीकृत उसी सपमें कानपुरसे सही सलामत हुआ । प्रस्ताव न08 में परीक्षालयके वापस चली जाय, उनके सभापतित्वमें सम्बन्धमे यद्यपि सभापति महोदय और किंचित्मात्र भी परिवर्तन न हो। और जैन जनता चाहती थी कि यह व्यर्थ इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने बड़ी व्ययका खाता बन्द किया जाय और सहनशीलता, वचनगुप्ति,मनोगुप्ति, और माणिकचन्द दि. जैन परीक्षालय मुम्बईविचारगुप्तिसे काम लिया और बड़ा से ही परीक्षा लिवाई जाय, किन्तु इस कष्ट उठाया । इस सभा-चातुर्यताके खातेके खर्चका अधिकार भी महामन्त्रीलिए उनके सुपौत्र साहू जुगमन्दिरदास- जीके हाथमें ही रहा, लखनऊका न्योता जीकी जितनी भी सराहना की जाय स्वीकार न होने में भी पं० धन्नालालजी, वह कम है; क्योंकि सभाका काम सभा- पं० वंशीधरजी और कुछ अन्य लोगोंने पतिक नामसे सदा व सर्वथा वे ही हर प्रकार बाधा डाली, किन्तु अवध करते थे और उन्होंने ही सभापतिका प्रान्तके मुखिया भाइयोंके धर्मप्रेम, और भाषण पढकर सुनाया था। जातिहितैषिताके प्रवाहवश महासभाको Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522889
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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