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________________ अङ्क ६ ] प्रस्ताव ही पास किया गया । कलकत्तेके षड्यन्त्रको देखते हुए और उसी वक्त से महासभा के द्वारा भी उक्त प्रकारके प्रस्ताव को पास कराने के इरादों को सुनते हुए, यह कभी श्राशा नहीं होती थी कि महासभाकी सब्जेकृ कमेटीमें जहाँ शास्त्रिमण्डलका पूरा जोर था, इन पत्रोंके बहिकारकी चर्चा तक न उठेगी और खासकर शास्त्रिपरिषद् द्वारा इनके बंहि कारका कोई प्रस्ताव भी पास न किया जायगा और इसलिए ऐसा होना निःस न्देह एक आश्चर्य की बात जरूर है । अवश्य ही इसमें कोई गुप्त रहस्य है । शायद यही सोचा गया हो कि जब बहिsareके विधाता पण्डित लोग ही इन पत्रको पढ़ने, इनसे लाभ उठाने और इनके लेखों पर विचार प्रकट करनेकी अपनी प्रबल इच्छाओंका संवरण नहीं कर सकते और न स्वयं अपने विषयमें प्रामाणिक रह सकते हैं— उन्हें वास्तव में बहिष्कार स्वीकार ही नहीं - तब परोपदेश कुशल बनकर दूसरोंको उनके पढ़नेसे रोकनेका उन्हें अधिकार ही क्या है और दूसरे लोग एक तरफ लेखोंको माननेके लिए बाध्य भी कैसे किये आ सकते हैं। सच है ऐसे लोगोंके वचनोंका जनतापर कोई असर नहीं होता जो अपने कथनपर स्वयं ही श्रमल न करते हों । । • पुस्तक परिचय | ५-समाजका दुर्भाग्य । अभी कुमार देवेंद्रप्रसादजी के वियोग से हृदय संतप्त ही हो रहा था और शोका सूखने भी नहीं पाये थे कि आज हम दूसरा हृदयविदारक दुःसमाचार सुन रहे हैं ! हमें दुःख और शोकके साथ लिखना पड़ता है कि श्राज श्रीॠषभब्रह्मचर्याश्रम के संस्थापक, उसके लिए अपना तन, मन, धन अर्पण करनेवाले Jain Education International १६१ और उसके बच्चोंको माताकी तरह प्रेमले पालनेवाले, समाजके निःस्वार्थ सेवक और उस सेवा के लिए अपनी नौकरीको भी छोड़ देनेवाले वीर पुरुष ला० गेंदनलालजी श्राज इस संसार में नहीं हैं !! आप कुछ अर्से से श्रीसम्मेद शिखरजी गये हुए थे और वहाँ भीलोंसे मद्यादिक छुड़ाकर उन्हें सन्मार्ग में लगा रहे थे । सुनते हैं कि आपने कई हजार भीलोंको ठीक किया था और आप उनकी स्त्रियोंमें चर्खेका प्रचार कराकर उनके जीवनको सुधारना चाहते थे । इस सेवा कार्यको करते हुए रोगपीड़ित हो जाने के कारण आप वहाँ से वापस लौट रहे थे । रास्तेमें श्रापकी तबियत कुछ ज्यादा खराब मालूम हुई और इसलिए श्राप रायबरेली उतर गये जहाँ कि आपकी लड़की मौजूद थी। वहीं पर गत १६ अप्रैल को आपका शरीर एकाएक छूट गया ! श्रापके हृदयमें जातिसेवाका बड़ा प्रेम था और श्राप बड़े ही परोपकारी और उत्साही पुरुष थे। ऐसे परोपकारी और उत्साही पुरुषका एकाएक समाजसे उठ जाना निःसन्देह समाजका बड़ा ही दुर्भाग्य है ! मृत्युके समय आपके दोनों पुत्रोंमेंसे कोई भी पास नहीं था। एक पुत्र बाबू दीपचन्दजी बी० ए० सहारनपुरमें वकालत करते हैं और दूसरे पुत्र बड़ोदा के कलाभवनमें शिक्षा पा रहे हैं । हम आपके कुटुम्बीजनोंके इस दुःखमें समवेदना प्रकट करते हुए हृदयसे इस बातकी भावना करते हैं कि ला० गेंदनलालजी की आत्माको सद्गतिकी प्राप्ति हो । पुस्तक परिचय | जैनदर्शन - मूल लेखक श्व० मुनि श्रीम्यायविजयजी । अनुवादक, कृष्णलाल For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.522889
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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