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________________ जैनहितैषी। [भाग १५ औ मणमें मेरे लिए जो इस तरहके कृपानयचक्र और देवसेनसूरि । मण वाक्य लिखे हैं कि-'प्रेमीजीने जनताकी (ले०-श्रीयुत् पं० नाथूरामजी प्रेमी।) आँखों में धूल झोंकनेका प्रयास किया है।" माणिकचन्द्र ग्रन्थमालाके १६ वें 'प्रेमीजीको श्वेताम्बरोंसे अधिक प्रेम है।" प्रन्थ 'नयचक्र संग्रह के भूमिका-स्वरूप उनका तो मैं क्या उत्तर दूं। मेरे लेखोंके मैंने एक लेख लिखा था। उसमें मैंने यह पढ़नेवाले विचारशील पाठक स्वयं इनसिर किया था कि श्लोकवार्तिकों का उत्तर दे लेंगे। परन्तु कुछ बातें ऐसी विद्यानन्दस्वामीने जिस नयचक्रका उल्लेख हैं कि उनका उत्तर दे देना आवश्यक किया है, वह नयचक्र देवसेनसूरिके इस प्रतीत होता है। नयचक्रसे कोई जदा ग्रन्थ होना चाहिए। १-पं० पन्नालालजी सोनीका कथन क्योंकि विद्यानन्दस्वामी देवसेनसूरिसे है कि देवसेनसूरिने अपना 'दर्शनसार' पहले हुए हैं, अतएव वे देवसेनके नय- वि० संवत् ६०६ में बनाया है, 880 में चक्रका उल्लेख नहीं कर सकते। श्वेताम्बर नहीं । परन्तु वास्तवमें यह उनकी भूल सम्प्रदायके मल्लवादि प्राचार्यका बनाया है। दर्शनसारमें माथुरसंघकी उत्पत्तिका दुमा भी एक 'नयचक्र' नामका ग्रन्थ है। समय वि० सं०६५३ लिखा है (गाथा वह श्लोकवार्तिकसे पहलेका बना हुआ ४.)। यदि दर्शनसार ६०६ में बना होता । है। सम्भव है कि विद्यानन्दस्वामीने तो उसमें 8५३ में होनेवाले माथुरसंघकी उसीका उल्लेख किया हो। अथवा "यह उत्पत्ति कैसे लिखी जाती ? दर्शनसारकी भी सम्भव है कि देवसेनके अतिरिक्त वह विवादग्रस्त गाथा इस प्रकार है:अन्य किसी दिगम्बराचार्यका भी कोई रइओ दंसणसारो हारो मयचक्र हो और विद्यानन्द स्वामीने उसीका उल्लेख किया हो।" इन वाक्योंसे . भव्वाण णवसए जवए । विचारशील पाठक समझ सकते हैं कि सिरिपासणाहगेहे सुविसुद्धे मुझे यह सिद्ध करनेका जरा भी आग्रह - माहसुद्धदसमीए ॥५०॥ नहीं है कि मैं उस नयचक्रको श्वेताम्बरा- दर्शनसारकी पं० शिवजीलाल कृत चार्यकृत ही सिद्ध करूँ। मुझे एक बात एक भाषावचनिका है। उसमें भी इस मालूम थी कि मलवादिका भी एक नय- गाथाका अर्थ यही किया गया है कि चक्र है, अतएव उसका उल्लेख कर दिया वि० संवत् 880 में यह ग्रन्थ रचा गया। था कि शायद उससे इस प्रश्नके हल 'णावसए णवए' की छाया 'नवशते नवके' . करने में कुछ सहायता मिल जाय कि न करके 'नवशते नवतौ करनेसे यह अर्थ श्लोकवार्तिकोल्लिखित नयचक्र दरअसल ठीक बैठ जाता है । यदि 'नवति' का कौनसा ग्रन्थ है। परन्तु हमारे पण्डित सप्तम्यन्त प्राकृतरूप 'णवए' नहीं बनता महाशयोको यह बात कैसे सहन हो तो मूल पाठ 'णवदीए' या 'णवईए' सकती थी कि मैं एक श्वेताम्बराचार्यके होगा। दो चार प्राचीय प्रतियोके देखने- ' प्रन्थका उल्लेख कर जाऊँ और वे उसका से इसका निश्चय हो जायगा* । परन्तु प्रतिवाद न करें। बस, मुझपर सदय * पारा जैनसिद्धान्त भवनकी एक प्रतिमें 'णवसए दय होकर कई धुरन्धर पण्डितोंने एक उए' ऐसा पाठ है मो नौ सो नब्वेका ही वाचक मालूम साथ भाक्रमण कर दिया है । इस आक्र- होता है। 'णवदीप' और 'णयाए। ये दोनों पाठ यहाँ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522889
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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