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________________ श्रङ्क ६ ] है । उनके अनुमानोंके सत्य होनेकी जितनी सम्भावना होती है, श्रसत्य और निर्मूल होने की भी उससे कम नहीं होती । बुद्धिकी कमी और गहरा अध्ययन न होनेके कारण उनके प्रमाण भी कभी कभी पतिगण और इतिहास । प्रमाण ठहर जाते हैं । परन्तु यह सब कुछ होनेपर भी इतिहास-लेखकोंपर यह अपराध नहीं लगाया जा सकता कि उनकी दयानत - उनका अभिप्राय अच्छा नहीं है । जो उनसे अधिक अध्ययनशील और विद्वान् होते हैं, वे उनकी भूलें बतलाते हैं और वे उन्हें सादर स्वीकार कर लेते हैं । भूलें होती हैं, इस कारण किसीको इतिहासकी चर्चा ही न करनी चाहिए, ऐसा नादिरशाही हुक्म निकाला भी जाय तो उसका अर्थ यही होगा कि हमें इतिहासकी कोई आवश्यकता ही नहीं है ।. पण्डितजनों को यह समझा देना भी हमारी शक्तिसे परे है कि परम्परासे चले आये हुए सभी विश्वास, सभी किंवदन्तियाँ और कथा-कहानियाँ इतिहास नहीं हैं । इनके भीतर इतिहासका श्रंश हो सकता है; परन्तु वे सर्वांश में सत्य नहीं मानी जा सकतीं। और जबतक वे यह नहीं समझ लेते हैं, तबतक उनका भय दूर हो भी कैसे सकता है ? दुर्भाग्य से जैनधर्म और जैनसाहित्यका इतिहास अभीतक बहुत ही अन्धकार में पड़ा हुआ है। ज्ञानके इस बड़े भारी श्रावश्यक साधनको खड़ा करने के लिए अभीतक जो कुछ प्रयत्न हुए हैं वे प्रायः न होनेके ही बराबर हैं । उचित तो यह था कि ये पण्डित लोग — जिन्हें जैनसमाजने बड़ी बड़ी श्राशायें बाँधकर तैयार किया है— इस साधनके तैयार करने में सबसे अधिक हाथ बँटाते और अपने परिश्रम तथा अध्ययनशीलताके Jain Education International १६७ द्वारा इस अन्धकारपूर्ण मार्गको प्रकाशित करते । सो न करके उलटे ये पण्डित उन लोगोंके मार्ग में रोड़े अटकाते हैं जो अपनी थोड़ीसी शक्ति और योग्यताके बलपर जो कुछ बन सकता है, शुद्ध भावनाओसे किया करते हैं। अपनी उक्त 'ate भृङ्गकी नाई' मतिके कारण इन्हें इतिहास के इस शुद्ध और सरल मार्गमें भी वही 'भयका भूत' दिखलाई देता है और ये बीच बीचमें चीख उठते हैं कि “देखो ये बड़े चालाक हैं, तुम्हारी आँखोंमें धूल झोंक देंगे, ये श्वेताम्बरोंसे विशेष प्रेम रखते हैं, इनकी बातोंपर विश्वास मत करो ।" इत्यादि । पण्डितोंके इस भयको दूर करनेका केवल एक ही उपाय हो सकता है और वह यह कि हम लोग इस कामको करना छोड़ दें और इनके धर्ममार्गको निष्कएटक बना दें। परन्तु दुःख तो यह है कि अभीतक ये बेचारे इतिहासका 'श्रीगणेश' भी नहीं जानते हैं और इतिहासकी एक पंक्ति और एक वाक्यके लिखनेके लिए कितना परिश्रम और कितनी ढूँढ़-खोज करनी पड़ती है, उसकी इन्हें कल्पना भी नहीं है । गत बीस वर्षोंमें दिगम्बर जैनसाहित्य के इतिहासके सम्बन्धमें जो कुछ थोड़ा बहुत काम हुआ है, उसमें इनका शायद ही कहीं कोई हाथ हो। और आगे भी हमें यह श्राशा नहीं है कि इतिहास के मार्गमें धींगाधींगी करनेके सिवा इनके द्वारा कोई वास्तविक काम होगा । अभी श्रभी गन्धहस्तिमहाभाष्य, सिद्धसेन दिवाकर, सूक्तमुक्तावली और नयचक्र श्रादिके सम्बन्धमें कुछ पण्डित महाशयोंके द्वारा जिस ढंग और जिस शैलीसे लिखे हुए उत्तर लेख प्रकाशित हुए हैं, उन्हें पढ़कर निष्पक्ष पाठक यह अच्छी तरह जान लेंगे कि उनमें इतिहास For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522889
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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