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जैनहितैषी।
[भाग १५ नहीं होता और न सर्वथा उसीके आधार पण्डितगण और इतिहास । पर रहा जा सकता है-खासकर इस कलिकालमें जब कि भ्रष्टचरित्र पण्डितों
लेखक-पण्डित नाथूरामजी प्रेमी ] . और धूर्त मुनियों के द्वारा जैनशासन बहुत इधर कुछ पण्डित महाशयोकी कृपाकुछ मैला (मलिन) किया जा चुका है। दृष्टि हम लोगोंके पीछे खुफिया पुलिसके
आजकल हिन्दू साधुओं में कितना समान रहने लगी है। हम लोगोंकी प्रत्येक अत्याचार बढा हश्रा है और वे अपने हरकतपर और प्रत्येक बातपर उन्हें साधधर्मसे कितने पतित हो रहे हैं! सन्देह होने लगा है। दुर्भाग्यसे हम उनकी चरित्रशुद्धि और उत्थानके लिए लोगोंका नाम 'बावू-दल' के रजिस्टरमें अथवा दूसरोंको सन्मार्ग दिखलानेके लिख लिया गया है और पण्डितशाही लिए, क्या किसी गृहस्थको यह समझकर इस दलको उसी भयभीत दृष्टिसे देखती उनके दोषोंकी मालोचना नहीं करनी है जिससे 'नौकरशाही' असहयोगचाहिए कि वे साधु हैं और हम गृहस्थ,
वादियों को देखती है। उसे भय हो गया हमें गुरुजनोंकी समालोचना करनेका
का है कि हम लोगोंकी प्रत्येक बात और अधिकार नहीं? और क्या ऐसी समा- प्रत्येक चर्चा जैनधर्मको मिट्टीमें मिला लोचना करनेवाला हिन्दू नहीं रहेगा ?
देनेवाली है, इसलिए वह हमसे सदा यदि सेठ साहब ऐसा कुछ नहीं मानते,
सावधान रहना चाहती है। इस निर्मूल बल्कि देश, धर्म और समाजकी उन्नतिके
भयने उसकी मतिको गुसाई तुलसीलिए वैसी समालोचनाओंका होना दासजीके शब्दों में 'कीट-भृगकी नाई। आवश्यक समझते हैं तो उन्हें जैन-समा- बना दिया है। यही कारण है जो उसे लोचकोंको भी उसी दृष्टिसे देखना हम लोगों के इतिहास-सम्बन्धी लेखों में चाहिए। कोई वजह नहीं है कि क्यों त्रुटि- भी उक्त भय मुँह फाड़े हुए नज़र आने पूर्ण साधुओं और त्रुटिपूर्ण ग्रन्थोंकी, लगा है। हमें उसकी इस अवस्था पर बड़ी सम्यक् आलोचनाद्वारा, त्रुटियाँ दिखला- दया भाती है; परन्तु ऐसा कोई उपाय कर जनताको उनसे सावधान न किया नहीं सूझता जिससे वह इस भयसे मुक्त जाय और क्यों इस तरहपर उन्नतिके हो जाय । मार्गको अधिकाधिक प्रशस्त बनानेका पण्डित महाशयोको यह हम कैसे यत्न न किया जाय।
समझा कि इतिहास बहुत ही कठोर आशा है, वस्तुस्थितिका दिग्दर्शन और निर्मम सत्यका उपासक है। वह करानेवाले हमारे इस नोटपर सेठ साहब न वेदशास्त्रों का लिहाज करता है और न शान्तिके साथ विचार करेंगे और बन परम्परासे चले आये हुए विश्वासोका । सकेगा तो, संयत* भाषामें, योग्य उत्तर- वह उसी ओरको अपना मस्तक झुकाता से भी कृतार्थ करनेकी कृपा करेंगे। है जिस ओर 'सत्यदेव' अपने निर्विकारसरसावा । वैशाख कृष्ण ६ सं १६७। रूपमें विराजमान दिखलाई देते हैं। यह
बात भी उनके गलेमें कैसे उतारी जाय कि ऐसे लेखोंपर यहाँ प्रायः कोई विचार नहीं किया
इतिहासके लेखक या खोज करनेवाले जाता जो असंयत, असभ्ब अथवा द्वेषपूर्ण भाषामें सवेश नहीं होते और इसलिए उनसे लिखे हों।-सम्पादक ।
भूलें होना कुछ अस्वाभाविक बात नहीं
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