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________________ अङ्क ६ ] सुनने में जितना सुगम और रुचिकर मालूम होता है, अनुष्ठानमें उतना सुगम और रुचिकर नहीं है । बहुतसे गुरुश्रोंके वचनोंमें परस्पर भेद पाया जाता हैहर एक विषय में सब श्राचार्योंकी एक राय नहीं है । जब पूर्वाचार्योंके परस्पर विभिन्न शासन और मत सामने आते हैं तब श्रच्छे अच्छे श्राशाप्रधानियोंकी बुद्धि चकरा जाती है और वे 'किं कर्तव्य विमूढ़' हो जाते हैं । उस समय परीक्षाप्रधानता और अपने घरकी अकलसे काम लेनेसे ही काम चल सकता है । अथवा यो कहिये कि ऐसे परीक्षाप्रधानी और खोजी विद्वानोंकी बातोंपर ध्यान देनेसे ही कुछ नतीजा निकल सकता है, केवल 'गुरूणां श्रनुगमनं' के सिद्धान्तपर बैठे रहने से नहीं । हम सेठ साहबसे पूछते हैं कि, (१) एक आचार्य सीताको रावण की पुत्री और दूसरे जनककी पुत्री बतलाते हैं, (२) जम्बू स्वामीका समाधि स्थान एक मथुरामें, दूसरे विपुलाचल पर्वतपर और तीसरे कोटिकपुरमें ठहराते हैं; (३) भद्रबाहु के समाधि-स्थानको एक श्रवण वेल्गोलके चन्दगिरि पर्वतपर और दूसरे उज्जयिनीमें बतलाते हैं:(४) श्रावक - के अष्ट मूल गुणोंके निरूपण करनेमें एक प्राचार्य कुछ कहते हैं, दूसरे कुछ और तीसरे चौथे कुछ और ही (५) कुछ आचार्य छठी प्रतिमाको 'दिवामैथुन त्याग' बतलाते हैं और कुछ 'रात्रिभोजन विरति', (६) कोई गुरु रात्रि भोजनविरति को छठा अणुव्रत करार देते हैं और कोई नहीं; (9) गुणवत और शिक्षावतके कथनमें भी चाय में परस्पर मतभेद है*; (E) कितने ही श्राचार्य ब्रह्मावतीके लिए नया संदेश | ● देखो हमारे शासनभेद सम्बन्धी लेख, जैन हितैषी भाग १४ अंक १,२-३, ७-८०६ । Jain Education International १६५ वेश्याका निषेध करते हैं और कुछ सोमदेव जैसे श्राचार्य उसका विधान करते हैं। इसी तरहके और भी सैकड़ो मतभेद हैं; इनमें से प्रत्येक विषयमें कौनसे गुरुकी बात मानी जाय और कौनसे की नहीं ? जिसकी बात न मानी जाय उसकी श्राज्ञा भङ्ग करनेका दोष लगेगा या नहीं ? और तब क्या उक्त 'गुरूणांमनुगमनं' के सिद्धान्तमें बाधा नहीं श्रावेगी ? आप उस गुरुको गुरुत्वसे ही च्युत कर देंगे ? परीक्षा, जाँच-पड़ताल और युक्तिवादको छोड़कर, आपके पास ऐसी. कौनसी गारंटी है जिससे एक 'गुरुकी बात मानी जाय और दूसरेकी नहीं ? कृपाकर यह तो बतलाइये कि जितने श्राचार्यों, भट्टारको आदि गुरुश्रोंके वचन (शास्त्र) समाजमें इस समय प्रचलित हैं, अथवा सुने जाते हैं उनमें से आपको कौन कौनसे गुरुओोंके वचन मान्य हैं, जिससे आपके 'गुरूणां अनुगमनं सिद्धान्तका कुछ फलितार्थ तो निकले - लोगोंको यह तो मालूम हो जाय कि श्राप श्रमुक अमुक गुरुश्रों, ग्रन्थकारोंकी सभी बातोंको आँख बन्द कर मान लेनेका परामर्श दे रहे हैं। साथ ही यह भी बतलाइये कि यदि उनके कथनों में भी परस्पर विरोध पाया जाय तो फिर आप उनमें से कौनसेको गुरुत्वसे च्युत करेंगे और क्योंकर । केवल एक सामान्य वाक्य कह देनेसे कोई नतीजा नहीं निकल सकता । भले ही साक्षात् गुरुश्रोंके सम्बन्धमें आपके इस सिद्धान्त वाक्य का कुछ अच्छा उपयोग हो सके, परन्तु परम्परा गुरुओं और विभिन्न मतोंके धारक बहुगुरुओके सम्बन्धमें वह बिलकुल निरापद मालूम 1 * • वधूवितस्त्रियो मुक्त्वा सर्वत्रोन्यत्रतजने । मातास्वसातनूजेति मतिर्ब्रह्म गृहाश्रमे || ( यशस्तिलक) For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522889
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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