SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६८ जैनहितेषी। [ भाग १५ चर्चा करनेकी कितनी योग्यता है और की है और इस तरह इतिहास जैसे हम लोगोंके इतिहाससम्बन्धी प्रयनोंकी आनन्दप्रद विषयको अतिशय कटुक्लेश ओर वे कैसी भीत और सशंक दृष्टिसे कर बना दिया है । पण्डित बंशीधरजी देखते हैं। __ शास्त्रीने तो बाबू जुगलकिशोरजी पर "जो लोग इतिहास और पुरातत्व यहाँतक इलज़ाम लगाया है कि वे गन्ध. सम्बन्धी पत्रोंको पढ़ते हैं, वे जानते हैं हस्तिमहाभाष्यके अस्तित्वका लोप इस कि एक इतिहासकी भूलको दूसरा इति-: कारण कर रहे हैं कि “कहीं ऐसा न हो हासज्ञ कैसी सभ्यता, शिष्टता और भाषा- कि अधिक प्राचीन एक महाग्रन्थ उपसमितिकी रक्षा करता हुआ प्रकट करता लब्ध हो जाय और उससे उपलब्ध है। और फिर उसका विरोध करनेवाला प्रागमोकी जड़ और भी पक्की हो जाय । अपना दूसरा मत कैसी अच्छी शैलीसे नास्तिकोंका जो डर है उसका एक मात्र स्थापित करता है। उसमें न कटाक्षोंका यही कारण है और इसलिये उक्त ग्रन्थकाम पड़ता है और न कटूक्तियोंका, और राजकी खोजमें लगनेसे लोगोंको विमुख इस तरह इतिहासके बड़ेसे बड़े गूढ़ करनेका प्रयत्न किया जा रहा है।" धन्य प्रश्न हल हो जाते हैं। परन्तु यहाँ तो यह है इस पाण्डित्यको और धन्य है उस हाल है कि हम लोगोंने कोई नई बात मस्तिष्कको जिसमेंसे ऐसे पवित्र विचार लिखी और पण्डित महाशयोको उसमें निकलते हैं ! हमारी दुरभिसन्धिकी-चालाकीकी- उक्त जमा-खोकोपकाया करयहइच्छा व भाई ! नहीं होती कि उनके प्रतिवादमें कुछ उक्त विषय, जिन पर पण्डित महा- लिखा जाय । लिखने में हम लोग पेश शयोंके विरोधी लेख निकले हैं, इतने भी नहीं पा सकते। परन्तु फिर भी महत्वके और मनोरंजक हैं कि उनपर यह आवश्यक प्रतीत होता है कि कमसे बड़े अच्छे ढंगसे बरसों चर्चा चल कम उन बातोंका प्रत्युत्तर अवश्य दे दिया सकती थी। उनमें कटूक्तियों और व्यक्ति- जाय, जो केवल इतिहाससे सम्बन्ध गत भाक्षेपोंके लिए तो कोई स्थान ही रखती हैं और जिनके कारण लोग भ्रममें नहीं था। जो बातें हम लोगोंने लिखी है, पड़ सकते हैं। वे यदि भ्रमयुक्त हैं तो उनके विरुद्ध इस अङ्कमें मैंने 'नयचक्र' सम्बन्धी प्रमाणोंके पाते ही हम उन्हें मान लेते; लेखका उत्तर दे दिया है। अन्यान्य लेखोंऔर यदि हम दुराग्रहसे या हठसे न का उत्तर भी यथावकाश देनेका प्रयत मानते, तो कमसे कम जो विचारशील हैं किया जायगा। उन्हें तो मानना ही पड़ता। सो न करके पण्डित महाशयोंने प्रतिपाद्य विषयोंकी अपेक्षा स्वयं हम लोगोंपर ही विशेष कृपा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522889
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy