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________________ नयचक और देवसेनसूरि । विद्वानोंके ग्रन्थों का उल्लेख करते थे, बँगला सं १३१७ के पहले अङ्कमें श्रीधनटीकाएँ लिखते थे और उनके प्रति माली चक्रवर्ती वेदान्ततीर्थ एम० ए० के अपना आदरभाव भी व्यक्त किया करते 'कातन्त्रव्याकरण' शीर्षक लेखको पढ़ना थे। यथा चाहिए । इसके कर्ताके जैन होनेका जैन(१) सुप्रसिद्ध विद्वान् पं० श्राशाधर- साहित्यमें कहीं उल्लेख भी नहीं मिलता। ने, जिनका उल्लेख सोनीजीने 'सूरिकल्प' () श्रादिपुराणके कर्ता भगवजिनविशेषणके साथ किया है. तीन अजैन सेनका पाभ्युदय काव्य कालिदासके ग्रन्थोंकी टीकाएँ लिखी हैं और इनका प्रति उनके आदर-भावका ही द्योतक उल्लेख उन्होंने अपने धर्मामृतशास्त्रकी है। इस किंवदन्तीका खण्डन अच्छी प्रशस्तिमें किया है। इन ग्रन्थों से एक तरह किया जा चुका है कि पाभ्युिदय तो है वाग्भटका सुप्रसिद्ध वैद्यकग्रन्थ काव्य कालिदासको अपमानित या तिर. अष्टाङ्गहृदय और दूसरा है अमरसिंहका स्कृत करने के लिए बनाया गया था। सुप्रसिद्ध अमरकोश । वाग्भट और (५) श्रीसोमदेवसूरिने अपने यशअमरसिंह ये दोनों ही बौद्ध विद्वान् थे। स्तिलकके द्वितीय श्राश्वास (पृष्ठ ३१७) में तीसरा ग्रन्थ है, आचार्य रुद्रटका काव्या- राजाको 'सुकविकाव्यकथाविनोददोहनलङ्कार । यह अलङ्कारका बहुत ही प्रसिद्ध माद्य' के विशेषणसे. सम्बोधित किया है ग्रन्थ है और इसके कर्ता वेदानुयायी और इस तरह पर्यायसे महाकवि माघथे । पाशाधरजीने 'अनगारधर्मामृत” की प्रशंसा की है। इसी आश्वासमें और की टीकामें एक स्थानपर (पृष्ठ १५०) अपने एक जगह (पृष्ठ २३६-३७) प्राचार्य पूज्यप्रतिपाद्य विषयके समर्थनार्थ नीचे लिखा पाद, अकलङ्क आदि जैन विद्वानोके साथ एक श्लोक उद्धृत किया है जो श्रीहर्षके पाणिनि (पणिपुत्र), शुक्राचार्य (कवि), 'नैषधचरित' के १७ वें सर्गका है-- नाट्याचार्य भरत आदि अजैन आचार्योंअनादाविह संसारे दुर्वारे मकरध्वजे। का उल्लेख किया है और वह उल्लेख कुले च कामिनीमूले काजातिपरिकल्पना ।। उनके गुणोंकी प्रशंसा करनेवाला ही है। ...(२) आचार्य पूज्यपादके शिष्य गङ्ग- . आजकलके कट्टर धर्मात्मा कह सकते वंशीय राजा दुर्विनीतने महाकवि भारवि- है कि हमारे श्राचार्य अन्य धर्मियोंका के किरातार्जुनीय काव्यके १५ सगौकी आदर भले ही करें, परन्तु श्वेताम्बरी कनड़ी टीका लिखी है और भारवि आदि जैनाभासोका तो कदापि नहीं कर अजैन थे। सकते । इसके लिए सोनीजीने बड़े बड़े (३) वादिपर्वतवज्र भावसेन विध- शास्त्रीय प्रमाण दिये हैं। परन्तु हम ऐसे देवने शालिवाहनके मन्त्री शर्ववर्माके भी अनेक प्रमाण दे सकते हैं जिनसे बनाये हुए सुप्रसिद्ध व्याकरणकलाप या पाठकोको यह निश्चय हो जायगा कि कातन्त्रको रूपमाला टीका लिखी है जो * यशस्तिलकमें सोमदेव सरिने कितने ही अजेन जैन पाठशालाओं में पढ़ाई जाती है। जो प्राचार्यों तथा विद्वानोंके वाक्योंको गौरवके साथ उद्धृत लोग यह समझते हो कि शर्ववर्मा जैन थे, किया है। और एक स्थानपर उर्व, भारवि, भवभूति, भर्तृहरि, भर्तृमेण्ठ, कण्ठ, गुणाढ्य, व्यास, भास, वोस, उन्हें डा० बेलवलकर एम० ए०, पीएच०. कालिदास, बाण, मयूर, नारायण, कुमार, माघ, राजडी० के 'सिस्टम्स श्राफ़ संस्कृत ग्रामर' शेखर आदि अजैन कवियोंको 'महाकवि' ऐसे गौरवान्वित को और 'बडीय साहित्यपरिषत्पत्रिका' के पदसे विभूषित किया है (चतुर्थ श्राश्वास) ---सम्पादक । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522889
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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