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________________ १७२ देवसेनके और विद्यानन्द के समयमें लगभग १५० वर्षका अन्तर पड़ जाता है और इस कारण विद्यानन्दस्वामीके लिए उक्त देवसेनके नयचक्रका उल्लेख करना कदापि सम्भव नहीं है | यदि थोड़ी देरके लिए यह भी मान लिया जाय कि दर्शनसार ०६ में ही बना है, तो भी वह विद्यानन्दस्वामीका पूर्ववर्त्ती तो कदापि नहीं हो सकेगा । ५- सोनीजीका आक्षेप है कि हमने विद्यानन्द और देवसेन दोनों श्राचार्योंका समय जुदा जुदा स्थानोंमें 'चतुराईसे' 'चालाकीसे' जुदा जुदा बतलाया है । परन्तु मेरा निवेदन है कि वास्तव में ऐसा नहीं है। सोनीजीको अपनी घोर कट्टरताके कारण मैं जो कुछ लिखता हूँ, उसमें 'चतुराई' और 'चालाकी' ही दिखलाई देती है । दर्शनसारको विवेचनामें लिखा हुआ आप देवसेनका समय 'सं० ६०६' तो पढ़ लेते हैं; परन्तु उसीके अन्तिम पृष्ठपर छपा हुआ भ्रमसंशोधन नहीं पढ़ते जिसमें सूचना दी है कि ""वसप एवए' का अर्थ ६६० करना चाहिए ।" युक्त्यनुशासनकी भूमिका भी शायद आपने अच्छी तरह नहीं पढ़ी है । क्योंकि उसमें विद्यानन्दका समय वि० सं० ८६५ नहीं लिखा है, किन्तु यह लिखा है कि “विद्यानन्दका अस्तित्व वि० सं० ८३२ से 84 के बीचमें माना जाना चाहिए ।" दोनों बातोंमें बहुत अन्तर है । इसी तरह दर्शनसारकी विवेचनामें एक तो विद्यानन्दका समय 'वि० सं० ८००' नहीं किन्तु '८०० के लगभग' है और इतिहास में 'लगभग' का भी कुछ अर्थ होता है, इससे मैं पूर्वापरविरोध दोष से साफ बच जाता हूँ। दूसरे वहाँ भूलसे ८५७ की जगह ८०० लिखा गया है और यह भूल इस कारण हुई है जैनहितैषी । Jain Education International [ भाग १५ कि जैनहितैषी विद्यानन्दस्वामीका जो समय-निर्णय किया गया है, वह विक्रम संवत् नहीं किन्तु ईस्वी सन् के हिसाब से किया है और उसमें यही वाक्य दिया है कि" + + + + विद्यानन्दस्वामीका समय ईस्वी सन् ८०० के लगभग ही निश्चित किया है |" दर्शनलारकी विवेचना लिखते समय यह लेख मेरे सामने था, इस कारण उसमें भी ज्योंका त्यों लिखा गया । वास्तव में ईस्वी सन् ८०० की जगह वि० संवत् ८५s लिखना चाहिए। इस भूलको मैं स्वीकार करता हूँ; परन्तु यह भूल ही है, सोनीजी के हृदयमें बसी हुई 'चालाकी' या 'प्रतारणा' नहीं । ६- लोकवार्तिकमें जिसका उल्लेख किया गया है, वह नयचक्र श्वेताम्बराचार्यका ही होना चाहिए, ऐसा मेरा श्राग्रह नहीं है । परन्तु इस वातको मैं नहीं मानता कि हमारे सम्प्रदायके श्राचार्य श्वेताम्बर सम्प्रदाय या अन्य धर्मी विद्वानोंके ग्रन्थोंका उल्लेख कर ही नहीं सकते, अथवा उनके ग्रन्थोंके श्रव तरण देने या उनपर टीका लिखने में उनके सम्यक्त्वमें कोई बाधा श्रा जाती है । जो विद्वान होते हैं वे सभीके ग्रन्थोंको निष्पक्ष दृष्टिसे पढ़ते हैं और एक सीमातक उनका आदर भी करते हैं । " गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्गं न च वयः ।" यह उदारहृदय विद्वानोंका ही सिद्धान्त है । यद्यपि अभी तक हमारे सम्प्रदायके विद्वानोंका साहित्य बहुत ही कम प्रकाशित हुआ है और जो कुछ प्रकाशित हुआ है, उसका अभीतक अन्वेषिणी बुद्धिसे अध्ययन नहीं किया गया है, फिर भी उपलब्ध साहित्यमेंसे ही ऐसे अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं जिनसे मालूम होता है कि दिο जैन विद्वान भी विभिन्न सम्प्रदायके For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522889
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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