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________________ . विविध विषय। - 18 करना उचित नहीं है, और जो इस चन्देका उल्लेख करते हुए ब्रह्मचारी संगठन ही उन्नति अवनतिका मूल होता शीतलप्रसाद जी, जैनमित्र अंक २१ में है, उसपर भी कुछ ध्यान नहीं दिया गया लिखते हैं कि- "सभाके कार्यों में किसी और न उसकी महासभामें चर्चा ही महाशय द्वारा कठोर भाषण होनेके कारण उठाई गई । जैनमित्रसे मालूम होता है दिलोंमें उत्साहकी कमी हो गई जिससे कि महासभामें अनेक प्रान्तोंकी उपस्थित भी चन्दा बहुत कम दुना।" और एक जनता चार हज़ारसे ऊपर थी, और यह दूसरे स्थानपर आप यह भी सूचित करते सब इसके अन्दोलनका फल है। परन्तु हैं कि- “यदि महासभामें पधारे हुए । फण्डके लिए अपील किये जानेपर मुश- पण्डित और बाबूदल में पूर्ण विश्वास किलसे पन्द्रह सौ या सोलह सौ रुपये होता तो कई महत्वके काम हो जाते। पर से अधिकका चन्दा नहीं हो सका, अन्ध अविश्वासने बहुत सी बातोका जिसमें एक हज़ार रुपये केवल सभापति सुधार होते होते रोक दिया।" लाला साहबके दिये हुए हैं। बाकी पाँच सौ छः ज्योतिप्रसादजी अपने 'जैनप्रदीप' में, सौ रुपये शेष जनतासे बहुत कुछ कोशिश पण्डितोंकी धींगाधींगी* और उनके और प्रेरणाके साथ वसूल किये गये! अशिष्ट तथा कषायपूर्ण व्यवहारका बहुत इस चन्देमें चार आनेका हिस्सा दूसरी कुछ उल्लेख करते हुए लिखते हैं किचार संस्थाओंका भी था और इसलिए "अगर दरअसल यह प्रदर्शिनी न खोली महासभाको अपनी इस अपीलसे ज्यादासे जाती तो महासभाकी धींगाधागी और ज्यादा बारह सौ रुपयेकी ही प्राप्ति हुई है। नाकामयाबीको देखकर आनेवाले भाइयों इतनी भारी जनता और ऐसे ऐसे को बहुत कुछ पश्चात्ताप करना पड़ता।" प्रतिष्ठित श्रीमानोंकी उपस्थितिमें एक और बाबू अजितप्रसादजी वकील अपने भारतवर्षीय जैसी संस्थाको उसके धनिक- को चिद्वेमें यह लिखते ही हैं किसमाजसे इतनी तुच्छ रकम प्राप्त होना, "किसीको यह भी ज्ञात नहीं हुआ कि निःसन्देह बहुत ही सकता है: और जैनसमाजसे अनेक प्रकार रुपया खर्च इससे पाठक इस मा अनुत कुछ करनेकी स्वीकारता प्राप्त करनेके अतिअनुभव कर सकते हैं. सभाके रिक्त महासभाके इस अधिवेशनका और ऊपर समाजकी किता नक्ति क्या प्राशय था।" है और उसे समाजपर - प्रभुत्र इन सब बातोंसे पाठक स्वयं समझ थापित करने-प्रभाव जमाने से इसके सकते हैं कि महासभाका यह अधिवेशन हृदयको अपने काबूमें लानेके लिए सफल हुत्रा या असफल । महासभाके अधिक योग्यता और सुसङ्गठनकी ज़ प्रजातोकी सूची देखनेसे मालूम होता है है। सभापति महोदयने ठीक ही का, कि इस साल उसके द्वारा कोई भी खास कि 'महासभाके नामके अनुसार उस । महत्व का प्रस्ताव पास नहीं हुआ। हमारी व्यापकता नहीं है और इसलिए यह नाम रायमें महासभाको यदि कुछ सफलता मात्रकी ही महासभा बनी हुई है।' अस्तु, - . "जैनसमाजके ऊपर पण्डितोंकी योगाधाँगीका • देखो जैनमित्र अंक २१ पृ० ३१८ । हाल बखूबी रोशन हो गया और उनकी मनमानी कार+ जैनगमट पन्द्रह सौ और जैनमित्र सोलह सौ वाइयोंका खूनही भण्डार फूर निकला।" लिखता है। --जैनप्रदीप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522889
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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