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________________ १६२ और त्रुटियोंका अनुभव ऐसे लोगोंको हो जाया करता है जो ज्ञानादिकमें अपने बराबर नहीं होते और बहुत कम दर्जा रखते हैं। और यह सब आत्मशक्तियोंके विकाशका माहात्म्य है— किसीमें कोई शक्ति किसी रूप से विकसित होती है और किसीमें कोई किसी रूपसे । ऐसा कोई भी नियम नहीं हो सकता कि पूर्वजोंके सभी कृत्य अच्छे हों, उनमें कोई त्रुटि न पाई जाती हो और गुरुओंसे कोई दोष ही न बनता हो । पूर्वजोंके कृत्य बुरे भी होते हैं और गुरुओं तथा श्राचार्योंसे भी दोष बना करते हैं अथवा त्रुटियाँ और भूलें हुआ करती हैं । यही वजह है कि शास्त्रोंमें अनेक पूर्वजोंके कृत्योंकी निन्दा की गई है और श्राचार्यों तक के लिए भी प्रायश्चित्तका विधान पाया जाता है । इसलिए चाहे कोई गुरु हो या शिष्य, पूज्य हो या पूजक और प्राचीन हो या श्रर्वाचीन, सभी अपने अपने कृत्यों द्वारा आलोचनाके विषय हैं और सभीके गुण-दोषोंपर विचार करनेका जनताको अधिकार है । नीतिकारोंने भी साफ लिखा है कि I जैनहितैषी । "शत्रोरपि गुणावाच्या दोषावाच्या गुरोरपि । अर्थात् - शत्रुके भी गुण और गुरुके भी दोष कहने -- आलोचना किये जानेके योग्य होते हैं । अतः जो लोग अपना हित चाहते हैं, अन्धश्रद्धा के कूपमें गिरनेसे बचने के इच्छुक हैं और जिन्होंने परीक्षाप्रधानता के महत्त्व को समझा है उन्हें खूब 'जाँच पड़ताल से काम लेना चाहिए, किसी भी विषय के त्याग अथवा ग्रहणसे पहले उसकी अच्छी तरहसे आलोचना प्रत्यालोचना कर लेनी चाहिए और केवल 'बाबा वाक्यं प्रमाणं' के आधार Jain Education International [ भाग १५ पर न रहना चाहिए । यही उन्नतिमूलक शिक्षा हमें जगह जगह पर जैनशास्त्रों में दी गई हैं और ऐसे सारगर्भित उदार उपदेशोंसे जैनधर्म श्रबतक गौरवशाली बना हुआ है । परन्तु हमारे पाठकोंको आज यह जानकर आश्चर्य होगा कि शोलापुर के सेठ रावजी सखाराम दोशीने जैनसिद्धान्त विद्यालय मोरेनाके वार्षिकोत्सव पर सभापतिकी हैसियतसे भाषण देते हुए, उक्त शिक्षासे प्रतिकूल, जैनसमाजको हालमें एक नया सन्देश सुनाया है; और वह संक्षेपमें यह है कि जो विद्वान् लोग जैनग्रन्थोंकी समालोचना करते हैं - उनके गुण-दोषोंको प्रकट करते हैं - वे जैनी नहीं हैं ! इस सम्बन्धमें आपके कुछ खास वाक्य इस प्रकार हैं: " अब थोड़े दिनोंसे कुछ पढ़े-लिखे लोगों में एक तरहका भ्रम होकर वे परम पूज्य आचायोंके ग्रन्थोंकी समालोचना कर रहे हैं। जो जैनी हैं वे आचायोंकी समालोचना करते हैं, यह वाक्य कहने में विपरीतता दिखाई देती है । आचायोंकी समालोचना करनेवाला जैनी कैसे कहला सकता है ?" श्रमझमें नहीं श्राता कि जैनी होने और • श्राचाय्यकी समालोचना करनेमें परस्पर क्या विपरीतता है । क्या सेठ साहबका इससे यह श्रभिप्राय है कि, जो स्वयं श्राचार्य नहीं वह श्राचार्य के गुण-दोषों का विचार नहीं कर सकता अथवा उसे वैसा करनेका अधिकार नहीं ? यदि ऐसा है तो सेठ साहबको यह भी कहना होगा कि जो श्राप्त नहीं है, अनीश्वर है उसे श्राप्त भगवान्की, ईश्वर-परमात्मा की मीमांसा और परीक्षा करनेका भी कोई अधिकार नहीं है, न वह कर सकता है । औरत को स्वापी समन्तभद्र और For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522889
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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