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________________ नया संदेश। विद्यानन्दादि जैसे महान् प्राचार्योंको भी परम प्राचार्य और मुनीन्द्रतक नहीं कलङ्कित करना होगा और उन्हें अजैन लिखा ? क्या बहुतसे ग्रन्थों में अज्ञान, ठहराना पड़ेगा; क्योंकि स्वयं प्राप्त, ईश्वर कषाय और भूल आदिके कारण पीछेसे या परमात्माके पदपर प्रतिष्ठित न होते। कुछ मिलावट नहीं हुई ? क्या जिनसेन हुए भी उन्होंने प्राप्त-परमात्माकी त्रिवर्णाचार और कुन्दकुन्दश्रावकाचार मीमांसा और परीक्षातक कर डालनेका जैसे कुछ ग्रन्थ बड़े प्राचार्यों के नामसे साहस किया है। स्वामी समन्तभद्रने तो जाली बने हुए नहीं? और क्या अने भगवान् महावीर स्वामीकी भी परीक्षा कर विषयोंमें श्रज्ञानादि किसी भी कारणसे, डाली है और यहाँतक लिखा है कि देवों- बहुतसे प्राचार्योंमें परस्पर मतभेद नहीं का आगमन, आकाशमें गमन और छत्र रहा है ? यदि यह सब कुछ हुआ है तो चवरादि विभूतियोंकी वजहसे मैं आपको फिर सत्यकी जाँचके लिए ग्रन्थकी महान्-पूज्य नहीं मानता, ये बातें तो परीक्षा, मीमांसाऔर समालोचना श्रादिमायावियों-इन्द्रजालियों में भी पाई जाती के सिवा दूसरा और कौनसा अच्छा हैं* | क्या सेठ साहब स्वामी समन्तभद्र साधन है जिससे यथेष्ट लाभ उठाया जैसे महान् प्राचार्योपर इस प्रकारका जा सके ? शायद इसी स्थितिका अनुभव दोष लगाने और उन्हें अजैन ठहरानेके करके किसी कविने यह वाक्यं कहा हैलिये तय्यार हैं ? यदि नहीं तो आपको जिनमत महल मनोज्ञ अति यह मानना होगा कि नीचे दर्जेवाला भी कलियुग छादित पन्थ । ऊँचे दर्जेवालेकी परीक्षा और उसके गुण- समझ बूझके परखियो। दोषोंकी जाँच, अपनी शक्तिके अनुसार, चर्चा निर्णय ग्रन्थ ।। कर सकता है। और इसलिए श्रावकोंका इस वाक्यमें साफ़ तौरसे हमें जैन मुनियों तथा प्राचार्योंके कुछ कृत्योंकी समा ग्रन्थोकी अच्छी तरहसे परीक्षा और लोचना करना, उनके गुणदोष जतलाना, समालोचना करके उनके विषयको ग्रहण अधिकारकी दृष्टिसे कोई अनुचित कार्य करनेकी सलाह दी गई है और उसका नहीं है। इसके सिवा हम सेठसाहबसे कारण यह बतलाया गया है कि जैनधर्मपूछते हैं कि क्या साधु सम्प्रदायमें कपट का वास्तविक मार्ग आजकल पाच्छावेषधारी, द्रयलिंगी, शिथिलाचारी अल्प दित हो रहा है-कलियुगने उसमें तरह शानी,और अनेक प्रकारके दोषोंको लगाने तरहके काँटे और झाड़ खड़े कर दिये हैं : वाले साधु तथा आचार्य नहीं हुए हैं ? जिनको साफ करते चलनेकी जरूरत है। क्या आचार्यों में मठाधिपति (गहीनशीन) पं० आशाधरजीने 'अनगारधर्मामृत' की भहारक लोग शामिल नहीं हैं ? क्या ऐसे टीकामें किसी विद्वान्का जो निम्नलिखित प्राचार्योंके बनवाये हुए सैकड़ों ग्रन्थ वाक्य उद्धृत किया है वह भी ध्यानमें जैनसमाजमें प्रचलित नहीं हैं ? क्या इन रखे जानेके योग्य है - प्रन्थों में श्रमणाभास भट्टारकोंने अपनेको पण्डितैर्धष्ट चारित्रैबठरैश्च तपोधनैः । * देवागमनभोयान चामरादि विभूतयः । मायाविष्वपि शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मालिनी कृतम् ।। दृश्यते नातस्त्वमासिनो महान् ॥–श्राप्तमीमांसा । · + ऐसे ही साधुओको लक्ष्य करके 'सजनचित्तवल्लम' . इस बातमें सखेद यह बतलाया गया आदि ग्रन्थों में उनकी कडी आलोचना की गई है। है कि जिनेन्द्र भगवानके निर्मल शासन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522889
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size6 MB
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