Book Title: Hastinapur
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्तिनापुर MILAINTIMVPATAPAIMAHIHMHILA 1000000 900DDD DO विजयेन्द्रमूरि Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि पत्र अशुद्ध . अर्हम् आर्यदेश **** com १६ वि अईम् अर्यदेश दिप्रपञ्च गंगा सुकृत पपंच गंग १० ११ सुव्रत Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्तिनापुर विद्याभूषण-विद्यावल्लभ-हिन्दीविनोद इतिहासतस्वमहोदधि जैनाचार्य-विजयेन्द्रसरि प्राप्तिस्थान काशीनाथ सराक; यशोधर्मन्दिर, २ डी लाईन, दिल्ली क्लाथ मिल्स, दिल्ली। वि० सं २००३ ] वीर संवत् २४७३ [ धर्म सं० २४ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: श्रीविजयधर्मसूरि-समाधिमंदिर शिवपुरी ( ग्वालियर राज्य ) । प्रथमावृत्ति १००० मूल्य 1) मुद्रक: त्यागी प्रेस, कटरा खुशालराव, देहली। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी बात हमने गत कुछ वर्षों से जो साहित्यप्रकृति प्रारम्भ की हुई है । उस में हमारी यह भावना रही है कि हम शीध से शीघ्र श्रीमहावीरस्वामी के ऐतिहासिक जीवनको प्रारम्भ करें; तथा जैतइतिहास, नैनधर्म, कथासंग्रह और कल्पसूत्र का शुद्ध हिन्दी अनुवाद आदि भी प्रकाशित करें। इस समय तक हमारी दो पुस्तकें वैशाली' और 'वीरविहारमीमांसा' प्रकाशित हो चुकी हैं। इन पुस्तकों के प्रकाशित होने पर विद्वानों ने उन ग्रन्थों को ऐतिहासिकता और प्रामाणिकता की बहुत प्रशंसा की तथा उसी पद्धति से अन्य प्रसिद्धस्थानों के सम्बन्ध में लिखने के लिये प्रोत्साहित किया। हमने इसी को लक्ष्य में रख कर 'हस्तिनापुर' लिखा है। इसी बीच में हमने 'प्राचीन भारतवर्ष-समीक्षा' लिख डाली है तथा 'मृगांकचरित' भी लिख लिया है, परन्तु मुद्रणालय की अव्यवस्था के कारण हम इन ग्रन्थों को शीघ्र प्रकाशित करने में असमर्थ रहे हैं। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत ग्रन्थ के सम्बन्ध में इस पुस्तिका में हमने भारतवर्ष की उत्पत्ति, कुरुदेश का नामकरण और हस्तिनापुर स्थापना के सम्बन्ध में प्रकाश डाला है; और प्राकृत तथा संस्कृत में हस्तिनापुर सम्बन्धि उल्लेखों को भी प्रस्तुत किया गया है। श्री जिनप्रभसूरि के समय की स्थिति और हस्तिनापुर तीर्थ में श्वेताम्बरों और दिगम्बरों की वर्तमानस्थिति को भी समाविष्ट कर लिया गया है। इस में जैनों को वैशाख शुदि-तीज के वार्षिकतप के पारणे को हस्तिनापुर में सम्पन्न करने का अनुरोध किया गया है और अन्त में पुरातत्त्व विभाग को अन्वेषण करके नया प्रकाश डालने की भी सूचना दी है। इन सब के साथ हस्तिनापुर जाने के मार्ग का भी उल्लेख कर दिया है। हमारा गत चातुर्मास चीराखाना के श्रीचन्तामणिपाच नाय श्वोताम्बर जैनमन्दिर में हुआ था, वह सर्वश्रीधनपतसिंह जी भंसाली, श्रीरामचन्द्र जो भंसाली, बाबू सुमतिदास जी जैन और कन्हैयालाल आदि की Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध भक्ति के कारण निर्विघ्न समाप्त हो गया और हम निश्चिन्तता पूर्वक अपने साहित्यकार्य में प्रवृत्त रहे । राष्ट्रसेवक श्रीयुत गुलाबचन्द जी और समयज्ञ लाला दलेल सिंह जी सुराणा के साथ ही साथ भावनगर के • i श्रीयुत कान्तिलाल भाई, धीरजलाल भाई का भी उल्लेख आवश्यक है जिन्हों ने हमारे कार्य में सहायता प्रदान I की है । श्रीबाबू पूर्णचन्द अबरोल इंजीनियर को भी नहीं भूल सकता कि जिन्होंने भक्तिभाव पूर्वक सामग्री जुटाने में समय समय पर सहायता दी है । अन्त में श्रीयुत विद्यासागर विद्यालंकार को भी नहीं भूल सकता जिन्होंने यथाशक्य इस पुस्तक को रंगरूप देने में सहायता प्रदान की है। श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ श्वेताम्बर जैन उपाश्रय चीराखाना, दिल्ली । कार्तिक शुद्धि पूर्णिमा विक्रम सं० २००३, धर्म सं० २५ विजयेन्द्रसूरि. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥अईम्॥ जगत्पूज्य गुरुदेव-श्रीविजयधर्मसूरीश्वरेभ्यो नमः । हस्तिनापुर अपने देश के नाम 'भारतवर्ष से प्रायः सभी लोग परिचित हैं। सामान्य ख्याति यह है कि 'भारतवर्ष नास दुष्यन्त के पुत्र भरत के कारण पड़ा है, परन्तु भागवत पुराण में कहा है कि स्वायम्भुव मनु के पुत्र प्रियव्रत थे, प्रियव्रत के पुत्र अग्नीध्र, अग्नीध्र के पुत्र नाभि और नाभि के पुत्र ऋषभ थे, ऋषभ वासुदेव के अंश थे और इनमें सौ पुत्र थे, इन सौ पुत्रों में ज्येष्ठ भरत थे, इन्हीं भरत के नाम से 'भारतवर्ष' नाम पड़ा। १ भागवतपुराण के इस मन्तव्य को वसुदेवहिडि से भी १. प्रियव्रतो नाम सुतो मनोः स्वायंभुवस्य यः । तस्थाग्नीध्रस्ततो नाभिऋषभस्थ सुतः स्मृतः ॥ तमाहुर्वासुदेवाशं मोक्षधर्मविवक्षया । अवतीर्ण सुतशतं तस्यासीद् ब्रह्मपारगम् ॥ तेषां वै भरतो ज्येष्ठो नारायणपरायणः । विख्यातं वर्षमेतद्यन्नाम्ना भारतमुत्तमम् ॥ भागवत, स्कन्ध ११, अध्याय २. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्थन होता है, वहां भी भारतवर्ष नाम पड़ने का कारण ऋषभदेव के ज्येष्ठपुत्र भरत को बताया गया है । २ इन्हीं नाभिपुत्र श्री ऋषभदेव के सौ पुत्रों में इक्कीसवें पुत्र३ कुरु थे। इन्हीं कुरु के नाम से कुरु नाम का राष्ट्र विख्यात हुआ । प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार इस राष्ट्र की राजधानी गजपुर अथवा हस्तिनापुर थी ।५ २. हं सुरासुरेंद विदद्वंदियचलणारविंदो उसभो नाम पढमो राया जगप्पियामहो श्रासी । तस्स पुत्तसमं । दुबे पहाणाभरहो बाहुबली व उसभसिरी पुत्तसथस्स पुरसयं जणवयस च दाऊण पव्वो । तत्थ भरहो भरहवासचूडामणी, तस्सेव नामेण इहं 'भरहवासं' ति पवुच्चति । - वसुदेवद्दिरिड प्रथम खण्डम् पृष्ठ १८६. ३. कल्पसूत्र- सुबोधिका टीका सहित पत्र १७४. ४. शतपुत्र्यामभून नाभिसूनोः सूनुः कुरुनृपः । कुरुक्षेत्रमिति स्थातं राष्ट्रमेतन्तदास्यया ॥ - विविध तीर्थकल्प जिनप्रभसूरि विरचित, हस्तिनापुरस्त वन कल्प पृष्ठ ६४. ( यह हस्तिनापुरस्तवन कल्प विक्रम संवत् १३८६ वैशाख शुदी ६ को लिखा गया था । ) ५. गढ़पुरं च कुरु; अभिधानराजेन्द्र भाग २ पृष्ठ ३३६. । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठाणांगसूत्र में भारतवर्ष की प्रसिद्ध दस राजधानियों की नाम गिनाते हुए हस्तिनापुर का नाम भी उस में गिनाया गया है।६ जैनग्रन्थों में आर्यक्षेत्र के जिन २५ ॥ आर्यदेशों की गिनती की गई है उस में भी कुरु. एक अर्यदेश है और उसकी राजधानी गजपुर ( हस्तिनापुर ) गिनायी गई है। विविधतीर्थकल्प में हस्तिनापुर का संस्थापक कुरु के पुत्र हस्ती को बताया गया है । इस नगर को प्राकृत ग्रन्थों में हथिणउर, हत्थिणपुर, हथियाउर, हत्थिणापुर, गयउर, गयपुर, गयनगर नामों से स्मरण किया है तथा संस्कृत में गजाह्वय, गजसाह्वय, गजनगर, ६. जंबुद्दीवे भरहवासे दस राबहाणीयो पं० तं० चंपा, मारा, वाणारसी, य सावत्थी, तहथ सातेतं, हत्तिउर ३२ कपिल्लं, मिहिला, कोसंबि, रायगिहं। -ठाणांगसूत्र (वृत्तिसहित) पत्र ४५३. ७. वैशाली (विजयेन्द्रसूरि कृत ) पृष्ठ १ ८. कुरोः पुत्रोऽभवद् हस्ती तदुपमिदं पुरम् । हस्तिनापुरमित्याहुरनेकाश्चर्यसेवधिम् ॥ -दिविधतीर्थकल्प पृष्ठ ६४. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग़जपुर, हस्तिनपुर, हस्तिनापुर हस्तिनीपुर, नागाह्वय, नागसाह्वय नागपुर आदि नाम प्रसिद्ध हैं । वसुदेवहिण्डि में भी भारतवर्ष के कुरुजनपद में हस्तिनापर नगर बताया है और उसका राजा विश्वसेन उल्लिखित है।१० राजा विश्वसेन १६वें जैन तीर्थकर भगवान शान्तिनाथ के पिता थे। इन स्थापनाओं का प्रत्यक्ष रूप से समर्थन श्रीदेवेन्द्रसूरि विरचित स्वोपज्ञ श्राद्ध दिनकृत्य वृत्ति में किया गया है ।११ बौद्धों के १६ महाजनपदों में कुरु को भी एक महाजनपद गिनाया है। पालिसाहित्य में इस महाजनपद का विस्तार ८००० योजन बताया है पपञ्चसूदनी ६. देखो ट्राइब्स इन एंशिवएट इण्डिया पृष्ठ ३६६. अभिधानचिन्तामिण पृष्ठ ३६० 'हस्थिणपुरं' ति 'नागपुरं' कुरुजनपदे, (ठाणांगसूत्र-वृत्तिस. हित, पत्र ४५४) १०.इहेव भरहे कुरुजणवए हथिणउरे नवरे विस्संसेणो राया;वसुदेवहिडि प्रथम खण्डम्, पृष्ठ३४०. ११. श्रह प्रालि रिसहपुत्तो कुरुति तन्नामश्रोध कुरुमित्तं तस्स वि पुत्तो जानो हत्थी हथिगपुराहिवई । -स्वोपक्षश्राद्धदिनकृत्य वृत्ति प्रथम विभाग पृष्ठ ११७. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं कुरु महाजनपद के उत्पत्ति के सम्बन्ध में कहा गया है कि जम्बुद्वीप के चक्रवर्ती राजा मान्धाता ने देवलोक के अतिरिक्त पुच्चविदेह, अपरगोयान, उत्तरकुरु को जीता उत्तरकुरु से लौटते हुए उस प्रदेश के बहुत से लोग मान्धाता के साथ जम्बूद्वीप में आ गये, जम्बुद्वीप के जिस प्रदेश में ये लोग बस गये उसे 'कुरुरडम्' नाम से पकारा जाने लगा । १२ । इस हस्तिनापुर को वसुदेवहिण्डि में भागीरथी गंगा के किनारे बताया गया है१३ और विविधतीर्थकम्प में भी इसी की पुष्टि की गई है । १४ परन्तु आजकल गंगा का रुख बदल जाने से यह गंगा की पुरानी धारा १२. ट्राइब्स इन एं शयण्ट इण्डिया ( बिमलचरण ला कृत ) पृष्ठ २३. जियोग्रफी ग्राफ बुद्धिज्म विमलचरण ला कृत ) पृष्ठ १७. १३. ततो भगीरही रहमारुहिय दण्डरय रोग नदि श्रगरिसति कुरुजणवयाणं मज्मेण फुसंती हत्थिणा उरं नीया. - वसुदेवहिण्डि प्रथमखण्डम् पृष्ठ ३०५. १४. भागीरथीसलिलसङ्गपवित्रमेतज्जीयाचिवरं गजपुरं भुवि तीर्थरत्नम् ॥ १६ ॥ -विविधतीर्थकल्प, पृष्ठ ६४. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो कि अब बूढ़ी गंगा की वर्तमान धारा से लगभग सात मील दूर है। यह बूढ़ी गंगा गढ़मुक्त श्वर के पास गंगा की मुख्य धारा में मिल जाती है। हस्तिनापर बूढ़ी गंगा के ऊचे किनारे पर मवाना से ६ मील और मेरठ से २२ मील उत्तर-पूर्व की ओर स्थित है और यह मवाना तहसोल में एक परगना है। इसका उत्तरी भाग पट्टी कौरवां और दक्षिणी भाग पट्टी पांडवां कहलाता है । प्रतीत होता है कि प्राचीन हस्तिनापुर को गंगा ने काट कर बहा दिया है ।१५ कहते हैं गढ़मुक्त श्वर प्राचीन समय में हास्तनापुर का एक मुहल्ला था। इस समय हाँस्तनापुर मुक्तगंगा से बहुत दूर पड़ गया है । बूढ़ी गंगा कुछ झीलों की सहायता से हस्तिनापुर के पास एक द्वीप सा बनाती है । महाभारत के समय में हस्तिनापुर भारतवर्ष का एक प्रति प्रसिद्ध नगर था। हस्तिनापुर और जैनइतिहास जैन मान्यता के अनुसार यहाँ शान्तिनाथ भगवान १५. भूगोल का संयुक्तप्रान्त अंक पृष्ठ ४२. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के चार कल्याणक- च्यवन, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान हुए । इनके पिता का नाम विश्वसेन और लाता का नाम अचिरादेवी था, वे १६ वें तीर्थकर और पांचवें चक्रवर्ती थे। १७ वें तीर्थकर कुन्थुनाथ के भी चारों कल्याणक यहीं हुए थे, इनके पिता का नाम सूर राजा और माता का नाम श्रीदेवी था। ये छठे चक्रवर्ती थे । १८ वें तीर्थकर अरनाथ के भी चारों कल्याणक यहीं हुए थे और वे चक्रवर्ती थे, इनके पिता का नाम सुदर्शन और माता का नाम देवी था। प्रथम तीर्थंकर ऋषवदेवस्वामी ने जब दीक्षा ली तो उन्हें दीक्षा के बाद एक वर्ष तक नियमानुकूल भिवा नहीं मिली अतएध वे एक वर्ष तक निरन्तर निराहर रहे । तब श्रेयांसकुमार ने भगवान को एक वर्ष पश्चात् इचुरस ( गन्ने के रस ) से पारणा कराया। जहां ऋषभ देवस्वामी के चरण पड़े थे उस स्थान पर श्रेयांसकुमार ने मणियुक्त स्तूप खड़ा कराया । यह कहा जाता है कि इस काल में दान की प्रथा इसी कुमार ने प्रारम्भ की । आवश्यकचूर्णिकार के मत से श्रेयांसकुमार ऊपर उल्लिखित राजा भरत का पुत्र था जब कि अन्य ग्रन्थकार इसे Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहुबति का पौत्र तथा सोमप्रभ का पुत्र बताते हैं । ऋषभदेवस्वामी ने जब अपना राज्य बांटा था तो बाहुबलिं को तक्षशिला और हस्तिनापुर का राज्य सौंपा था ।१६ १६ वें तीर्थंकर मल्लिनाथ (मल्लिकुवरी) स्वामी भी हस्तिनापुर पधारे थे, श्वेताम्बरों की मान्यता के अनुसार वे जन्म से स्त्री थे-पुरुष नहीं । इनको युवावस्था में इन से विवाह करने के लिये जोदराजा मिथिलो पर चढ़ दौड़े थे उनमें हस्तिनापुर का तत्कालीन राजा अदीनशत्रु भी था। पर मल्लिकुवरी के उपदेश से इन छहों राजाओं ने दीक्षा ले ली। __जैनों की मान्यता के अनुसार १२ चक्रवर्ती हो गये हैं। उनमें चौथे चक्रवर्ती सनत्कुमार यहीं हस्तिनापुर में ही उत्पन्न हुए थे। इनके पिता का नाम अश्वसेन और माता का नाम सहदेवी था । इन्होंने इतनी ऋद्धि प्राप्त होने पर भी अन्त में संसार का त्याग कर के दीक्षा ले ली थी। आठवें चक्रवर्ती सुभूम इसी हस्तिनापुर में हुए थे, इनके १६. बाहुबली हत्थिणाउर-तकलसिलासामी। -वसुदेवहिण्डप्रथमखण्डम् पृष्ठ १८६ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिता का नाम कृतवीर्य था और माता का नाम तारा था. 1 भारतवर्ष के ६ खण्डों पर आधिपत्य होते हुए भी उस ने सातवें खण्ड को सिद्ध करने की चेष्टा की परन्तु आधे मार्ग में ही उन्हें प्राण त्याग करने पड़े । १७ इसी नगर में जमदग्निपुत्र परशुराम हुए, इनकी माता का नाम रेणुका था और इन्होंने विद्याधर से परशुविद्या सीखी। पश्चात् गोहार अनन्तवीर्य का वध करके अपने पिता के हत्यारे कृतवीर्य को मारा, इस महाक्रोधी व्यक्ति ने तब २१ बार पृथ्वी को क्षत्रियशून्य बना दिया । १८ यहां गंगादत्त नाम की गृहपति रहता था, इसके पास सात कोटि स्वर्णमुद्राएं थी । १६ इसने मुनिसुव्रतस्वामी से दीक्षा ली थी, दीक्षा के बाद ११ अंगों का अभ्यास किया और अन्त में? मास की संलेखना करके समाधिपूर्वक मर कर महाशुक्र नाम के देवलोक मे उत्पन्न हुआ | २० १७: श्रभिधानराजेन्द्र भाग७ पृष्ठ ६५८: १८. योगशास्त्र- स्वोपज्ञवृत्ति, पत्र ७४. १६. विविधतीर्थकल्प पृष्ठ २७. २०. श्रीमद्भगवतीसूत्र, १६ शतक, ५ उद्देशक Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाभारत के प्रसिद्ध पाँचों पांडव और कौरव भी यहाँ हुए थे। यहीं ख्याति प्राप्त कार्तिकसेठ हुआ था, जिसने बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रत से अपने १००८ वणिक अनुयायियों के साथ दीक्षा ली थी और बारह वर्ष तक चारित्रपालन करने के बाद अन्त में एक मास की संलेखना करके मर कर प्रथम देवलोक का इन्द्र हुआ था२१ उत्तराध्ययन २२में एक कथा आती है कि हस्तिनापुर में पोत्तर नाम का राजा था, उसकी पत्नी का नाम ज्वाला था । इन के प्रथम पुत्र का नाम विष्णुकुमार था, दूसरे का महापद्म । राजा ने महापद्म को युवराज पद प्रदान किया । इसी समय उज्जयिनी में श्रीधर्म नाम के राजा का राज्य था, उनका मंत्री नमुचि था। एक बार इस राज्य में बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतस्वामी के शिष्य सुव्रतम्ररि विहार करते हुए पधारे तो नमुचि विवाद के लिये जा २१. श्रीनद्भगवतीसूत्र, १८शतक, २उद्देशक २२. उत्तराध्ययनसूत्र,नेमिचन्द्रसूरिकृत,सुखबोधिकाटीकासहित पत्र २४६, और अभिधानराजेन्द्र, भाग६, पृष्ठ २०४. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहुंचा । इस विवाद में नमुचि को निरुत्तर हो जाना पड़ा इससे वह चिढ़ गया और मुनियों की हत्या का प्रयत्न किया । इस पर राजा श्रीधर्म ने नमुचि को अपने राज्य से निकाल दिया । तब नमुचि ने हस्तिनापुर में आकर युवराज महापद्म का मन्त्रित्व स्वीकार कर लिया। इसी बीच महापद्म के देश में राजा सिंहबल ने आकर उत्पात किया, उस राजा को नमुचि ने युद्ध में जीत कर बाँधका महापद्म के सम्मुख लाकर उपस्थित किया। इससे प्रसन्न होकर महापन ने नमुचि को उसको इष्टवस्तु मांगने को कहा । नमुचि ने कहा आप अभी यह वर अपने कोश में रखें, समय आने पर माँग लूगा । कुछ काल बाद हस्तिनापुर में नागरि पधारे, राजा पद्मोत्तर ने उनकी देशना सुन कर दीक्षा की इच्छा को । विष्णुकुमार ने भी दीक्षा लेने का निश्चय किया और दोनों ने सुव्रताचार्य से दीक्षा ले ली, महापद्म ने शासन कार्य सम्भाला और वह विख्यात चक्रवर्ती राजा बन गया । विष्णुकुमार मुनि भी उग्रतपादि द्वारा आकाश गमनादि सिद्धियों को प्राप्त हो गये । सुव्रताचार्य ने वर्षाकाल में हस्तिनापुर के एक उद्यान में चातुर्मास किया । उपयुक्त अवसर देख कर नमुचि ने Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ महापद्म से पूर्व प्रतिज्ञात वर मांगा। महापद्म ने भी उसे देना स्वीकार किया। तब, नमुचि ने वेदोक्त विधि से यज्ञ करने के लिये राज्य माँगा नथुचि का अभिषेक किया और स्वयं जाकर अन्तःपुर में रहने लगा। उसके अभिषेक के बाद जैनमुनियों को छोड़कर सब लोग उसे आशीर्वाद देने आये । तब नमुचि सब लोगों के सामने यह कह कर कि और सब लोग तो अपनी शुभेछाएं प्रगट करने के लिये आये पर जैनसाधु नहीं आये, उन्हें बुलवाया। उन्हें नमुचि ने राज्य छोड़ जाने को कहा और आज्ञा का उल्लंघन करने पर मृत्युदण्ड की घोषणा की। सुव्रताचार्यने कहा कि हम लोगों में सांसारिक शुभेच्छाएं प्रगट करने का आचार नहीं है, इसलिये हम लोग नहीं आये । पर नमुचि ने उन्हें केवल सात दिन का अवसर दिया कि वे उसका राज्य छोड़ कर चले जायें । तब उन साधुओं ने परस्पर विमर्श किया। उनमें से एक ने कहा कि विष्णुकुमार नामक महामुनि आजकल मेरुपर्वत के शिखर पर है वह महापद्म का बड़ा भाई है, वही नमुचि के क्रोध को शान्त कर सकता है । तब एक साधु ने विष्णुकुमार से जाकर निवेदन किया और वे वहाँ से नमुचि की Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिषद् में गये और साधुओं को चातुर्मास पूरा होने तक नहीं टिकने देने को कहा, पर नमुचि नहीं माना । तब विष्णकुमार ने तीनों पगों का स्थान मांगा और नमुचि नहीं माना । तब विष्णकुमार ने अपना शरीर बढ़ाकर एक लाख योजन कर लिया । उसने प्रथम पग पूर्वसमुद्र में रखा और दूसरा पग पश्चिमसमुद्र में रखा और तीसरा पण नमुचि के सिर पर इस प्रकार रखा कि उसकी मृत्यु हो गई । इस घटना से विष्णकुमारमुनि का नाम त्रिविक्रम ख्यात हो गया । महापद्म ने चक्रवर्ती का राज्य छोड़ कर दीक्षा ले ली और अन्त में मुक्ति को प्राप्त हो गया। श्रीमदभगवतीसूत्र२३में हस्तिनापुर के बलराजा के पुत्र महावल का उल्लेख है । इन्होंने अपने पिता से उत्तराधिकार में हस्तिनापुर का राज्य प्राप्त किया था। परन्तु राज्याभिषेक होने के बाद ही ये धर्मघोष से दीक्षा ले कर साधु हो गये और अन्त में मर कर पांचवें देवलोक में दस २३. श्रीमद्भगवतीसूत्र, शतक ११, उद्देशक ११ २१. निरयावलियाओ. पुष्पिका नामक तीसरा वर्ग नवां अध्ययन । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर स्थिति वाले देव हुए। निरयावलियाओ२४ में हस्तिनापुर के बल गृहपति का उल्लेख मिलता है जो बाद में साधु हो गया था तथा संलेखना करके मर के सौधर्म नामक देवलोक में बल नाम के विमान में दो सागरोषम स्थितिवाला देव हुआ, फिर वह व्यव करके महाविदेह क्षेत्र से सिद्धगति को प्राप्त होगा। अणत्तरोववाइयदसाओ २५ में हस्तिनापुर के पोट्टिल नामक व्यक्ति का उल्लेख है जिसने महावीरस्वामी से दीक्षा ली थी। यह एक मास की संलेखना कर के मृत्यु को प्राप्त हुआ और सर्वार्थसिद्ध नाम के देवलोक में उत्पन्न हुआ, वहां से च्यव कर के महाविदेह में उत्पन्न होगा वहां से मोक्ष में जायेगा। हस्तिनापुर में शिवराज नाम के राजा थे, उनकी पट्टरानी का नाम धारणी था और पुत्र का नाम शिवभद्र था। ये शिवभद्र को गद्दी पर बैठा कर वानप्रस्थ तापस बन गये । तपस्या करने से राजा को विभंगज्ञान हुआ २५. अभिषानराजेन्द्र, भाग ५. पृष्ठ ११२०. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और उसी समय महावीरस्वामी हस्तिनापुर में पधार, महावीरस्वामी ने राजा की शंकाओं का समाधान करते हुए उपदेश दिया और उस उपदेश के प्रभाव से शिवराज ने महावीरस्वामी से दीक्षा ले ली। २६ विवागसुयं में भीमकूटग्राह ( शिकारी ), उसकी पत्नी उप्पला, तथा उनके पुत्र गोत्तास का हस्तिनापुर में होने का उल्लेख. है। २७ एवं इसी ग्रन्थ में हस्तिनापुर में गृहपति सुमुह नामक व्यक्ति का उल्लेख है जिसने धर्मघोष से दीक्षा लेकर साधुजीवन व्यतीत करते हुए स्वर्ग प्राप्त किया था २८ ___ श्रीजिनामसरि के विविधतीर्थकल्प के हस्तिनापुर तीर्थस्तवन और हस्तिनापुरकल्प से ज्ञात होता है कि उनके काल में पहले से ही वहां शान्तिनाथस्वामी, कुन्थुनाथस्वामी, अरनाथस्वामी तथा मल्लिनाथस्वामी के चार चैत्य थे, तथा अम्बिकादेवी का देवल था। २६. श्रीमद्भगवतीसूत्र, ११शतक, उद्देशक. २७. विवागसुयं सूत्र १६७-२१३. २८. विवागसुयं सूत्र ३८-५४. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ श्री जिनप्रभरि मुहम्मद तुगलक से हस्तिनापुर की यात्रा का फरमान लेकर दिल्ली पहुंचे, यहां से चतुर्विध संव निकलवा कर बाहड के पुत्र बोहित्थ संघपति सहित हस्तिनापुर पहुंचे। यहां आचार्यश्री ने शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अनाथस्वामी की अभिनव मूर्तियों की मन्दिरों में प्रतिष्ठा कराई और अम्बा की प्रतिमा भी स्थापित करवाई । संघपति ने गरीबों को वस्त्र, भोजन, और ताम्बूलादि दिये । २६ पं० विजयसागर ने हस्तिनापुर के सम्बन्ध में लिखा है, यहां शान्ति, कुन्थु और धरनाथ का जन्म हुआ था। आगरा से उत्तर में १५० कोस है, पांच पांडव और पांच चक्रवर्ती यहीं हुए हैं और यहीं पांच स्तूप तथा पांच जिनमूर्तियां हैं । ३० पं० सौभाग्यविजय ३१ जी ने लग २६. विविधतीर्थकल्प, पृष्ठ २७, ६४, ६६. ३०. हथि उरि हरबर हीथ्रो शान्ति कुंथु श्रर जन्म, श्रागराथी दिशि उत्तर दोढ़सो कोशे मर्म । पॉंडव पंच हुआ ईहाँ पंच हुआ चक्रवर्त्ति पंच नमु धूभ थापना पंच नमु जिन मूर्ति ॥ - पं०विजयसागर रचित सम्मेतशिखर-तीर्थ माला, ढला६. ( संवत् १६६४ के लगभग प्रणीत ) ३१. जी हो दिल्ली थी पूरव दिशें, जी हो मारग कोश चालीस । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भग प० विजयसागर का भारत वणन किया है, अन्तर केवल इतना है कि इन्होंने दिल्ली से पूर्व दिशा में चालीस कोस पर बताया है और पांच स्तूर के बदले तीन स्तूप बतलाये हैं। यहां यात्रा के लिये खरतरगच्छीय जिनचन्द्रसूर भी पधारे थे, सूरि जी का समय विक्रम संवत् १८०६ से १८५८ है । २३ आधुनिक स्थिति यह क्षेत्र संयुक्तप्रान्त जिला मेरठ में है। मेरठ शहर में दिगम्बर जैनियों की संख्या पर्याप्त है । दिगम्बरों के कई दर्शनीयजैन मन्दिर भी हैं । मेरठ सदर मच्छली बाजार नं०१५६---१६० में श्रीसुमतिनाथ जी का श्वेताम्बर जैनमन्दिर है, और यहां श्वेताम्बरजैनों के अनुमानतः ८०-६० घर भी हैं । मेरठशहर के छीपी तालाब स्थान से हस्तिनापुर के लिये मोटर और तांगे भी जी हो हथिणाउर रलियामणो, जी हो देषण तास जगीस ॥ जी हो शांति कुंथु अरनाथ जी, अवतरिया इण ठाण, जी हो पाँच पांडव इहाँ थया, जी हो पंच चक्रवति जाँण; थूभ तीन तिहां परगडाँ सुणजो प्राणी प्रीत, . --पं०सौभाग्यविजय विरचित तीर्थमाला, ढाल १२;(संवत १७५० में प्रणीत) ३२. खरतरगच्छपट्टावालसंग्रह, पृष्ठ ३८. - Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलते हैं। मेरठ से मवाना तक लगभग १६ मील पक्क सड़क है, मेरठ से मवाना तक इक्के-घोड़ा-गाड़ी-बैल गाड़ी आदि भी मिल जाते हैं । मवाना से हस्तिनापुर केवल ६ ही मील है और सड़क कच्ची है। ___ यहां पर दिगम्बर जैनियों का एक विशाल मन्दिर है जिसे लगभग दो सौ वर्ष पूर्व श्रीमान् हरसुखराय जी दिल्ली वालों ने बनवाया था, इस मन्दिर के साथ एक बहुत बड़ी धर्मशाला है जिसमें लगभग २ हजार आदमी ठहर सकते हैं । कहते हैं कि इस मन्दिर के बनवाने में मीरांपुर के राँगड़ों ने बहुत बाधा उपस्थित की थी, पर साढौरा के राजा को एक बार हरखसुराय के पुत्र सेठ सुगनचन्द्र ने एक लाख रुपया दिया था, उसी सहायता के प्रतिकार स्वरूप साढौरा के राजा ने रांगड़ों को समझा बुझा कर इस मन्दिर के बनवाने में सहायता दी । कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा पर गढ़मुक्तेश्वर के गंगा स्नान के अवसर पर दिगम्बरों का एक बड़ा भारी मेला प्रतिवर्ष लगता है जिसमें भारतभर के जैनी आते हैं। यहां मार्गशीर्ष वदि प्रतिपदा को सोने का रथ निकलता है, जिसका दृश्य अत्यन्तसुन्दर होता है। श्व'ताम्बराम्नाय वालों का भी यहां श्रीशान्तिनाथ जी Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ महाराज का एक भव्यमन्दिर है, मन्दिर के चारों ओर धर्मशाला है दूसरी धर्मशाला इसके बाहर है । मन्दिर के पास में एक टेकरी है, वह भी वताम्बरों के अधिकार में है । एक नसियां जी ( चरणपादुकाएं ) भी है जिस में श्री ऋषभदेवस्वामी की चरणपादुकाएं विराजमान हैं, श्री शान्तिनाथ जी महाराज, श्री कुन्थुनाथ जी महाराज, श्रीमरनाथ जी महाराज और मल्लिनाथ जी महाराज की चरणपादुकाएं भी हैं। अन्य तीन सियां जी दिगम्बरों की हैं। इस मन्दिर के पास ही मन्दिर की बारह सौ बीघा भूमि पट्टी पांडवां में है । ऋषभदेव भगवान का परणा यहीं वैशाख शुदि तीज को कराया गया था । आजकल जो जैन चरसीतप का पारणा श्री सिद्धाचल जी में जाकर करते हैं वह उपयुक्त नहीं है, बरसीतप का पारणा यहीं हस्तिनापुर में ही करना उचित है—यही हमारा अनुरोध भी है / इस तीर्थ का जीर्णोद्धार कई बार हो चुका है, अन्तिम जीर्णोद्धार श्री प्रतापचन्द्र जी पारसान जौहरी कलकत्ता निवासी ने कराया था और प्रष्ठा श्रीजिनकल्याणसूरि जी ने कराई थी। नसियां जी का जीर्णोद्धार भोगी लाल लहरचन्द उत्तमचन्द्र पाटनवालों ने कराया था। इस तीर्थ का प्रबन्ध करने के लिये एक कमेटी है । दिल्ली में पहले इस तीर्थ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० के सम्बन्ध में लाला हजारीमल जी जौहरी विशेष ध्यान देते थे वर्तमान में बाबूमल जौहरी जैन दिल्ली की ओर से कमेटी को समय समय पर सहायता देते रहते हैं। इस ही क्षेत्र के निकट दो कोस के अन्तर पर एक भरमा ( वसुम्था) नामक ग्राम है । इस ग्राम में दिगम्बरों का एक प्राचीन मन्दिर जीर्णावस्था में है जिस में एक प्रतिमा खड्गासनस्थ विराजमान है । ऊपर जिस टीले का वर्णन आया है वह विदुरटीला नाम से प्रसिद्ध है, इस पर एक छोटा सा शिवमन्दिर है जिसे पण्डुकेश्वर महादेव कहा जाता है। इस के अतिरिक्त द्रौपदीकुण्ड, बारहकुण्ड, रघुनाथ जी का महल ( यहां १८५७ की क्रान्ति में रघुनाथ जी नायके तथा उनके साथियों ने आश्रय लिया था ) आदि अन्य स्थान भी दर्शनीय हैं। यहां खोदने से चौड़ी इंटें प्राप्त होती हैं। क्योंकि अभी तक पुरातत्त्वविभाग ने इस स्थान की खुदाई नहीं कराई, इस लिये इस दृष्टि से इस पर विशेष प्रकाश डाल सकना सम्भव नहीं है । आशा है पुरातत्त्व विभाग यहां की खुदवाई करवा के प्रकाश डालेगा। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोधर्ममन्दिर के प्रकाशन RU वैशाली-लेखक आचार्यश्री विजयेन्द्रमूरि भूमिका लेखक-देशरत्न डाक्टरश्रीराजेन्द्रप्रसाद मूल्य १) वीविहारमीमांसा-लेखक आचार्य श्रोविजयेन्द्रमूरि " ॥) ३ प्रावीनभारतवर्ष-समीक्षा (प्रेस में ). २) ४ मृगाङ्कचरित्र (हिन्दी) ५ साधुजीवन " ) अन्य सब प्रकार की जैनधर्म सम्बंधी और अलभ्य पुस्तकें उपलब्ध हो सकती हैं। प्राप्तिस्थान काशोनाथ सराक यशोधर्म मन्दिर, २ डी लाइन, दिल्ली क्लाथ मिल्स, दिल्ली । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाली के सम्बन्ध में नवयुग साप्ताहिक का अभिप्राय (15.12-46) प्रस्तुत पुस्तक में श्रीयुत जैनाचार्य जी ने वैशाली की ऐतिहासिक और भौगोलिक स्थिति पर विवेचनात्मक प्रकाश डाला है। आपने बौद्ध साहित्य, जैनसाहित्य और वैदिकसाहित्य के दृष्टि कोणों का भी समन्वयात्मक संकलन किया है। आज के भारत के नक्शे में वैशाली की भौगोलिक स्थित कहाँ हो सकती है / इसे खोज के साथ एक नक्शे में देकर स्तुत्यकार्य किया गया है। भारत की प्राचीन राजधानियों की पुरातत्त्वविभाग द्वारा जो खोज हुई है, उनका ऐतिहासिकरूप से विवेचन होना चाहिए, और इसी पुस्तक की भांति अन्यराजधानियों पर भी पुस्तकों का प्रकाशन होना चाहिए। __यद्यपि जैनाचार्य जी का वैशाली के प्रति आकर्षण महावीरस्वामी के जन्मस्थान होने के कारण ही हो सकता है, परन्तु पुस्तक में कहीं भी एकांगी दृष्टिकोण नहीं। पुस्तक ऐतिहासिक भौगोलिक दृष्टिकोण से महत्व पूर्ण पठनीय और संग्रहणीय है।