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Digamber lain. Surat,
Regd. No. B-744.
द
बीर सं०२४४९
वैशाख । विक्रम सं. १९७९
संपादकमूलचंद किसनदास कापड़िया-सूरत।
वर्ष १६ वां
अंकों ई. सन् १९२३॥
BRARY *
SHRS
विषयानुक्रमणिका ।
GREE LAIN LIBRO विषय
No--
EIRCHI. STATE १ सम्पादकीष वक्तव्य
Date.........191
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२ जैन मित्र और ब्रह्मच रीजी (पं० देवेद्रकुमार गोपा) २ ३ नैनसमाचार संग्रह ४ भारतीय दर्शनों में जैन दर्शनका स्थान
(बा० कामताप्रसादजी) ९ ५ हम दीर्घजीवी केसे हो सकते हैं । वैद्य ......... ६ क्या चाहिए?
(वैद्य).... ७ अधोगति के उन्नति (गुजराती जैनचंधु )
पथिककी दो बातें (के. पी मैन) ....
1725252525252525ETESSES
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S ASSETHERE पेशगी वार्षिक मूख्य रु० १-१२-० पोस्टेज सहित ।
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नांदगांवमें बम्बई प्रां० सभा। (३) डा • गौडके विवाह बिलका घोर विरोध ।
नांदगांव (नासिक)में वैशाख सुद १-२ (४) तीरे प्रस्ताव। जगह २ विरोध करना। ३-४ को वेदी प्रतिष्ठा व मेले के समय बम्बई (द) धर्मक्षा व देशकी दरिद्रता दूर करनेके । दि. जैन प्रां समा व महाराष्ट्र मा० दि० लिये विदेशी वस्त्र पहरनेका त्याग करें व अन्य जैन खंडेलवाल समाका संयुक्त अधिवेशन हुआ वस्तु भी महातक बने स्वदेशी है उपयोग था जिसमें प्रांतिक समाके शेठ जीवरान गौ-म लावें। चंद दोशी सोलापुर व खंडेलवाल समाके पं० (६) जहां २ मंदिर में २० वार्षिकसे पन्नालालनी सोनी सभापति हुए थे। एक तो अधिक आय हो उसकी अधिक मायका कमसे। प्रांतिक सभा व दुसरी जातीय समा देनों का कम आधा भाग दूसरे मंदिरके जीर्णोद्धारमें खर्च संयुक्त अधिवेशन हो ही नहीं सकता तथा करनेकी प्रेरणा। संयुक्त हो तो भी एक समामें दो (७) बालदर', वृद्धविवाह, कन्या विक्रयादि समापति किसी भी अवस्थामें नहीं होतक्ते बंद करनेकी पंचायतों को प्रेरणा। तो भी संयुक्त अधिवेशन करके दो (८) प्रबंध कमेटीका र सभासदोंका चुनाव सभापति किये गये। यहां खंडेलवालोंके सिवाय इसमें जनमित्र के संपादक ब्र० शीतलप्रसादजीके दूसरे तो इनेगिने ही महाशय उपस्थित होंगे स्थान में पं बंशीधर शास्त्री सोलापुरको नियुक्त और सबजेक्ट कमेटी के मेम्बर खंडेलवाल थे या किये गये । इसका स्थान पर प्रबल विरोध अन्य जातिय मी उसमें सामिल थे यह मालूम हो रहा है। नहीं हुमा । समामे जो जो प्रस्ताव हुए हैं वे (१०) कोलार के मामले पर ग्वालियर नरेशको सब मामूलीही हैं व सिर्फ ई प्रां० दि० जैन धन्यवाद । समाकी प्रबंध कमेटी का नया चुनाव किया (११. १२) कुंथलगिरि व मांगीतुंगीका हिजिसमें जैनमित्रके संपादक ब्र. शीतलप्रसाद साव प्रबंध ठीक करनेकी तीर्थक्षेत्र व मेटीको
सुचना। जीके स्थानपर पं. बंशीधर शास्त्री सोलापुरको नियत किये हैं जिससे सारी समाज में अशांति
(१३) है सुर सार श्रवणबेलगोलादिमें फैल रही है जिसका परिणाम अत्यंत चुगका
म्यू० उपसम पति चुनेका अधिकार प्रजाका
महाकको ही क्योंकि उनका आनेकी पूर्ण संभावना है।
अधिकार है ऐसी म्है सुर सरिसे प्रार्थना । समाके प्रस्तावों का सारांश इस प्रकार है(१) वीर सं २४१८की रिपोर्ट पाप्त ।
गृहस्थ धर्म(२) सेठ रामचंद नाथा, पं० मेवारामनी व दूसरीवार छप चुका है। बाइन्डिग होकर तैया रा० ब० माणिकचंदनी सेठीवी मत की होगया है । मु० १॥) सजिल्द १) मृत्युका शोक।
मैनेजर, दिगम्बर जैन पुस्तकालय-सूरन
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॥ श्रीवीतरागाय नमः ॥
दिगंबर जैन.
THE DIGAMBAR JAIN. नाना कलाभिर्विविधश्च तत्त्वैः सत्योपदेशैस्सुगवेषणाभिः । संबोधयत्पत्रमिदं प्रवर्त्तताम् दैगम्बरं जैन समाज - मात्रम् ॥
वीर संवत् २४४९. वैशाख वि० सं० १९७९.
वर्ष १६ वाँ.
अंक ७.
और अंत में गंदगांव कि जहां खास केवल उनके अनुयायी खंडेलवाल हो सम्मिलित होनेवाले थे वहां प्रशंसाका अधिवेशन खंडेलवाल समाके साथ २ इस मामें करावा व वहां ब्रह्मचारीजी का नाम जैन मित्र स्वयेंसे निकाल देनेका प्रस्ताव किया गया है जबकि समाके स्थायी सभापति सेठ हीराचंद नेमचंद, उपसभापति व कोषाध्यक्ष सेठ ताराचंद चंद, उपसभापति सेठ सुखानंदजी तथा अन्य बहुत से सभासद इस बात से विरुद्ध हैं व ऐसा पत्र भी उन्होंने नांदगांव मेना या तौमी वहां ऐसा
हमारे पाठक अच्छी तरहसे जानते हैं कि हमारी बम्बई दि० जैन प्रांतिक सभाकी ओरसे 'जैन मित्र' नामक पाक्षिक
जैन मित्र ।
पत्र १२ वर्ष से श्री जैनधर्मभूषण पूज्य ब्र० शीतलप्रसादजी के सम्पादकत्व में प्रकट होरहा है बी करीब ६-७ ६र्ष से तो सुरतसे सापारिक रूपमें व हमारे प्रकाशकत्वमें प्रस्ट होता है ।
प्रस्ताव हुआ है । अब विचार किया जाता है तो मालूम होता है कि अबतक गांव जिसको हम प्रस्ट करते हैं उसकी प्रशासभाकी संपूर्ण कार्रवाई प्रस्ट नहीं हुई है तौ
हम कैसे करसकते हैं परंतु इतना तो अवश्य प्रकट करना पड़ता है कि 'जैनमित्र' सारे हिंदके जैनियों में एक उच्च शैली के पत्रका स्थान पा रहा है व दिनों दिन पूज्य ब्रह्मचारी नीका मान व आदर बढ़ा रहा है जो इनेगिने द्वेषी मंडितगण व उनके मुट्ठी पर शिष्वोंसे सहन न होनेसे ब्रह्मचारीजी पर निर्लज्ज व झूठे आक्षेप कई दिनोंसे लगा रहे हैं और वे लोग इसी विचारमें थे कि ऐसी कोई कार्रवाई करें कि जिससे "जैनमित्र ही उनके हाथसे ले लेवें
मी इतना ष्टा पड़ता है कि दो समाके समासद अलगर आये होंगे तब प्रजेक्ट कमेटी अलग होनी चाहिये थी व एक प्रांतिक व एक जातीयका मेल कैसे बैठ सकता हे इस लिये नांदगांव में जो समाकी कार्रवाई हुई है वह अनियमित ही मालूम पड़ती है । और जबसे जैनमित्र सप्ताहिक हु है तबसे नवीन चुनाव के समय प्रकाशकका नाम चुना जाता है जो इसबार नहीं चुा गया है इससे प्रकाशक कोई मी नियत नहीं हुआ है और प्रकाश के
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दिगंबर जैन। विना सम्पादक क्या कर सकते हैं ? जनमित्र और ब्रह्मचारीजी ।
दूसरी बात यह है कि बहुत से सभासदोंसे पाठकों जिनमित्र अंक २५ वर्ष २४"से यह हमें सूचना मिली है कि जहांतक नांदगांवके
जान र अत्यंत दुःख हुआ कि समानके परम प्रस्ताव पर मीटिंग होकर विचार न हो वहां तक
हितैषी पूज्य ब्र• शीतलप्रसादमीसे सम्पादकीका बाप ही जै-मित्र का कार्य चलाते रहें इसलिये
लय कार्य कर पं. वंशीधरजी शास्त्रीको सौंग अमी मी हम जैनमित्र पूर्व अवस्थामें बराबर
जानेवाला है । ब्रह्मचारी जी ने जो सेवा समाप्रकी चला रहे हैं व जहां तक कुछ निर्णय न होगा व नवीन प्रकाशक नियत नहीं होगा 'मित्रका' करा
S, करी है वह बंधुओंपर प्रगट ही है । यह ब्रह्म कार्य हमें चालु ही रखना पड़ेगा।
चारी जीके ही प्रयत्नका फल है कि जैनमित्र हमें निस्य कई पत्र आरहे हैं कि मैनमित्रके
जैन समाजमें ही नहीं किन्तु जैनेतर समाजोंमें सम्पादक ब्र० शीतलप्रसादजी ही कायम रहने
, भी सर्वप्रिय हो रहा है। वर्तमान समय में चाहिये (व दूसरे सम्पादक नियत होंगे तो हम कोई भी ऐसा जैन पत्र नहीं है जो जनमित्रकी ग्राहक नहीं रहना चाहते) तथा गुजरातके अनेक
. तुलना कर सके । नैनमित्रमें सम्पादकीय लेख स्थानोंके भाईयों को मीटिंग सरत में हो गई नूतन जन अजैन देशी विदेशी समाचार व समजिनमें भी ऐसा ही प्रस्ताव हआ है इसलिये योचित मावपूर्ण कवितायें निकलती रहती हैं। गुमरातके व अन्य स्थानों के जैन मित्र के ग्राहकों. क्या कोई अन्य जैन पत्र मी ऐसा है जो इतने को हम विश्वास दिलाते हैं कि हम आपको नूतन समाचारों लेखों और कविताओंसे विभू. किसी मी अवस्थामें ब्रह्मवारीजीकी लेखनी से पित होकर नियमितरूपसे समयपर निकलता वंचित नहीं रखेंगे। अर्थात ब्रह्मचारी नीके संपाः रहता हो ? उत्तर स्पष्ट है "नहीं" | जैन मित्रके, दकत्वमें व हमारे प्रकाशकत्वमें साप्ताहिक २५ वे अंकसे ही यह भी ज्ञात होता है कि पत्र अवश्य २ पलू ही रहेगा । तौमी प्रत्येक ब्रह्मचारी नीने कोई त्यागपत्र (स्तीफा) न्हीं दिया माम व शहर की विशेष सम्प्रति मिलनेकी हमें हैं ऐसी स्थितिमें बिना कोई विशेष कारण हुये आवश्यकता है इस लिये जैन मित्र' के संपा. मित्रको एक परोपकारी संपादकसे निकालकर अन्य दक कौन होने चाहिये इसपर अपनी२ सम्मति संपादकके आधीन करना सर्वथा अनुचित और हरएक प्रम व शहरके भाई हमें भेन । हानिकारक है। हां उस हालत में अब कि संपा
महावीरजी क्षेत्र-के इसारके मेले पर दक महोदयके निकट समयाभाव हो-समाके वेरिटर मातरायनीके सभापतित्वमें इस क्षेत्रकी, नियमोंके विरुद्ध लेखादि पत्रमें निकलते हों या प्रबन्ध कमेटी २१ समापदों की हुई है जिसमें और कोई अन्य विशेष कारण हो उस दशामें ८ भासद जयपुरके हैं। व समापति भट्टारकनी एक संपादकको हटाकर अन्य संपादकको नियुक्त व मंत्री ला० महावीरप्रसादजी नियुक्त हुए हैं। करना न्यायानुमोदित है। परन्तु जब कि ब्रह्मचा
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(३)
दिगंबर जैन । रोजी योग्य रीतिसे समय निकालकर मन, Sark**** dealerkoke s वंधन, कायसे जैन मित्रके संपादन कार्यको उत्तम .
रीतिसे चला रहे हैं ऐसी दशामें ब्रह्मचारी भीको जन समाचारापाला । कार्यसे हटाकर अन्यको देना अदुरदर्शिता प्रगट ** * * ** **
करता है । जहांतक ज्ञात हुआ है उससे यही सूरतमें लग्न समारंभ, जल्ला व प्रतीत होता है कि ब्रह्मचारीजीको प्रथक् कर
बृहत् दान । मेका कारण मतभेद है और मतभेदसे ही फूट सुरतमें सेठ किसनदास पूनमचन्द कापड़ियाके उत्पन्न होती है सो फूट तो सब समय पर पुत्र मूलचंदजीका लग्न समारम्म ज्येष्ठ वदी देशों में अत्याधिक परिमाणमें होती ही है। ४ को धार्मिक व सामाजिक उत्सव तथा विद्या
आतामसे लगाकर कुस्तुन्तुनियां तक इस समय दान पूर्वक सानंद समाप्तहो गया। -फूटका साम्राज्य है । जित राष्ट्रीय महासमामें प्रथम ज्येष्ठ वदी १ को सुबह एक जरता कुछ समय पूर्व सर्वत्र ऐक्यता विराजमान थी भट्टारक श्री सुरेन्द्रकीर्तिजीकी अध्यक्षता में हुमा उसमें तथा तरकारके परम सहायक सहयोगियों था जिसमें यहांको दि जैन पाठशालाके विद्यार्थी और सरकारमें भी फूट फैल चली है। नो हिंदु व फुलकोर कन्याशाला, श्राविकाशाला व कस्तूमुसलमान कुछ समय पूर्व कंधेसे कंधा लगाकर रवा राष्ट्रीय कन्याशालाकी बालिकाएं भामसरकारसे लोहा ले रहे थे उनमें भी आन मयं- त्रित की गई थीं जिन्होंने गायन, गरबा, संवाद कर फर फैल गई है । और तो जाने दीजिये आदि करके समाके मन रंजन किये थे । पाठअपने घरमें ही ( दिगम्बर श्वेताम्बरों में ) फूट शालाके छात्रों का पैसा, फेशन व खादीपर संवाद महारानीका साम्राज्य है ऐसी परिस्थिति में मत आकर्षक हुआ था। इस जल्से में पूज्य ब्र० भेद होनेसे ही एक योग्य संपादकको हटाकर शीतलप्रसादनी, व्र. दिग्विजयसिंहजी, पं. दुसरे संपादकको नियुक्त करना उचित नहीं दीपचंदजी वर्णी, ब्र. महावीरप्रसादजी, ब्र० कहा जा सका । इसलिये मेरा बंबई प्रांतिक हेमसागरजी आदि त्यागीगण तथा सुरतके समासे सनम्र निवेदन है कि वह उस प्रस्ताव पर असहकारी नेता जैसे कि डा. दीक्षित, मोतीपुनः विचार करें । मेरे इस लेखसे कोई माई लाक छोटालाल व्यास, मालतीनहिन आदि उप. यह न समझले कि पं० बंशीधरनी इस कार्यके स्थित थे व ब्र० शीतलप्रसादजी, पं. दीपचंदनी अयोग्य ही हैं परन्तु लिखनेका मुख्प तात्पर्य : दीक्षित, मोतीलाल नास, श्री. मगन. यही है किविना कोई विशेष कारण हुये ब्रह्मवा- बहिन, सरैमाजी आदिके व्याख्यान हुए थे जिसमें रोनीको नमित्रके संपादन कार्यसे हटाना समा. उन्होंने विवाह प्रसंगपर ऐसे ही जलसे होने की मका अहित करना है।
आवश्यकता बताई थी। फिर सभी करीब देवेंद्रकुमार गोधा विशारद इन्दौर। २०० बालक व बालिकाओं को खादीके रुपाल,
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दिगंबर जैन ।
(४) खादी, मिठाई व यशोधर चरित्र तथा चेतनकर्म- ब विवाह समारम्म ज्येष्ठ वदी १ रात्रिको चरित्र पुस्तकें भेंटमें दी गई थीं तथा कन्याके ८ बजे हुआ था तब सब विवाह विधि पं. पिता शा• गुलाबचन्द लाल चन्द पटकाको ओरसे छोटेलाल परवार (सुप्रि० प्रे० मो. दि. मैप सविताव्हेन लग्न गीतावकी' नामक सचित्र बोर्डिंग अहमदाबाद ) व पं. दामोदरदासनी पुस्तक समी ३०० बालिका व स्त्रियोंको भेटमें बुढ़वार (ललितपुर) ने कराई थी तथा इस मौके पर बांटी गई थीं व इस मौके की खुशाली में इस पृज्य ब्र. शीतलप्रप्तादनी व पं० दीपचन्दनी समय इस प्रकार बृहत विद्यादान हुआ था- वर्णीने 'गृहFधधर्म' पर प्रासंगिक व्याख्यान दिये २७७) मूलचंद किसनदास कापड़िया थे व उसी वख्त मूलचन्दनीकी ओरसे अपनी १००) किसनदास पूनेमचन्द ,
जैन संस्थाओंको भी इस प्रकार दान करना .९१) एक पूज्य सद्ग्रहस्प
. प्रकट किया गया था। ६५) गुलाबचन्द लाल चन्द पटवा . ५०) श्रीमती मगन् बहिन
२५) विकाश्रम बमई १०.) काशीवहिन चुनीलाल हेमचन्द जरीवाला १५) स्या० महाविद्यालय काशी १००) परसनबाई नवलचन्द हीराचन्द झोहरी १५) गोपाल विद्यालय मुरैना १५) श्री. डावबाई चुनीलाल झवेश्चन्द . १५) महाविद्यालय व्यावर ३०) , चम्पार'ई प्रेमचंद मोतीचंद जौहरी १५) रु० ब्र० आश्रम जयपुर २५) हरगोविंददास मंछाराम
१५) जैन पाठशाला सांगर २५) नवलबहिन चुनीलाल हेमचन्द
१०) अनाधाय बडनगर २५) छगनलाल उत्तमचन्द सरैया
१०) औषधालय , ७५) बलुपाई लक्ष्मीचन्द चौकसी
१५) अनाथाव्य देहली ९८८) कुल
१५) 5. आश्रम कुंथलगिरी इन रुपयों मेंसे १९७) दि. मैन पाठशाला १५) पार्श्वनाथ विद्यालय उदेपुर २१.) फुलकोर कन्याशाला, ६५) दि जैन
१५) जैन बालाविश्राप दास श्राविका पाठशाला, २७६) राष्ट्रीय के लवणी
१५) , महिला श्रम देहली मंडल सुरत व १०) राष्ट्रीय कस्तुरबा कन्याशाला
१५) , पाठशाला पपौरा को दिये गए हैं। यह नरमा तीन घंटेके बाद १२वजे हार तुर्ग
१५) जैममित्र कार्याय पान गुलाब लेकर विसर्जित हुआ था। स्त्रीपुरु
२२५) कुल षकी जनसंख्या ३००-४०० से कम न थी सेठ ताराबन्दनीकी पुत्री बहुत बिमार भी इस 4 नक्सा चंदावाडी में लग्नमंडपमें ही किया लिये विवाहका सब कार्य रात्रिको १२ बजेतक गया था।
निपटा दिया गया था।
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छक्लक
__ दिगंबर जैन। सोकजनक मृत्यु-सुरतमें प्र. ज्येष्ठ वदी प्रां० दि० जैन समाके नांदगांवके अधिवेशनमें
की सुबहको चंदाबाडी में सेठ ताराचन्द नव- अनधर्ममूषण ब्र० शीतलप्रसादनीको जैनमित्रके बचन्द जौहरीकी १२ वर्षकी होनहार पुत्री सम्पादकल्बसे अलग किया गया है. उसका यह निर्मलाका मयं कर घरसे देहांत हो गया । इस समा घोर विरोध करती है। जैन मित्र बम्बई पुत्रीके स्मरणार्थ सेठ ताराचन्दनीने २०००) प्र. दि. जैन समाका मुखपत्र होते हुए भी निकाले हैं।
सार्वदेशिक जैन पत्र है इस लिये प्रांतिक समाको ... करजन (बडौदा) में महासमाके उपदेशक सारे जैन समानके माइयों का ख्याल करना सोमपालजीके ४ दिन तक पधारनेसे कई बा चाहिये । नियम लिये गये व मंदिर बनाने के लिये करीब सुजानगढका बृहत् विद्यादान१२००) का चंदा हो गया है।
सुनानगढ की. प्रतिष्ठाके समय मा मासमें .. सोलापुर-में गत ता. २-६-१३ को ९२१२%)॥ का बृहत विद्यादान हुआ था जो १६ अगुओं की सहीसे मीटिंग कई थी जिसमें इस प्रकार संस्थाओंको भेजा गया है- . करीव १५० की संख्या उपस्थित थी। सभा- १०००) बडनगर औषधालय, ५००) पति राजभी नेमचंद शाह वकील हुए थे। इस बडनगर अनाथालय, ११००) कुंपल गिरि प्रकार प्रस्ताव पास हुआ है कि व. शीतल- आश्रम, ६००) मोरेना विद्यालय, ४००) देहली प्रसादनी 'जैनमित्र ' का सम्पादन अत्यन्त अनाथाश्रम, ७५.) स्या० विद्यालय काशी, यशास्त्री व योग्य रीतिसे कर रहे हैं इस लिये ५००) व्यावर महाविद्यालय, ११००) केकमहावारीमी-ही जनमित्रके सम्पादक कायम रहने डीकी संस्थाएं, ७५०). आश्रम जयपुर, चाहिये।
२५०) उदेपुर विद्यालय, २००) मैन बालावि. भागौर-की कन्या पाठशालाको सेठ-मोहन श्राम आरा, ४००) सुजानगढ़ गौशाला, २६०) लालनी मच्छीने २॥ बर्ष तक ५०) मासिक कबूतरोंको मोठ, १२००, बीकानेस्में नवीन सहायता देमा स्वीकार किया है।
मंदिर बनवानेको, २००) जयपुर पाठशाला व - आवश्यकता-तिलोकचंद जैन हाईस्कूल में १२॥ पोस्टेन खर्च ।।
म अजैन छात्रों की आवश्यकता है। यहां गैस विवाहम दान व जीर्णोद्धारका धर्मकी शिक्षा, स्कूफीस माफ, छात्रःश्रममें- चंदा-सेठ नानूलालजी नामपुरके पुत्रकी शादी निवास स्थान, पेडरूपसे मोमनका प्रक्च आदि बेतुल में फा० सु० ३ को हुई थी तब १५१) सुभीते हैं। जो विद्यार्थी यहां आना चाहें उपकरणादिमें व २७१) संस्थाओंको दान किया ता. २० जुन तक अपनी अर्नी भेनें । गया तथा वहांके ५०० वर्षके पुराने में देरके __ जयपुर में ता. २ को वीर सेवक मंडः जीर्णोद्धारके लिये ४२१७)का चंदा मी होगया।
की ओरसे सभा होकर प्रस्ताव हुभा कि बंगई तथा काम चाल करनेकी व्यवस्था भी की गई।
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दिगंबर जैन |
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तथा मीयागाम रस्ते गाता हता.
उतरी पड्युं हतुं. दि० जैन पाठशालाना विद्यार्थी करननना माइयो भजन आखे आ प्रसंगे पांव दिवत संघ मण जेबे दिवस सेठ ताराचं तरफ - थी तथा शा. छगनलाल वासवाला वखतचन्द झवेरचंद तथा जुना दहेरांनी पंत्रायती तरफ थी जमणो थयां हतां जो के आ हमणोमां अत्रेना संघ नरसिंगपुरा माइओए ननीवा मतभेदने लांघे भाग लीधो न होतो जे योग्य जण तु नहोतुं.
सूरतमां रथोत्सव.
सुरतमां चन्दावाडीनी पसे दहेरानो जीर्णोद्धार पंच तथा शेठ लचंद झवेरी तरफथी आशरे रुप्या ३००० :o) ख़र्चाईं थयो हतो ते निमित्त पूजन, शांतेविवान अने रथोत्सव समारम्भ वैशाख सुद १० थी ११ सुधी ठःठवाठथो थयो हतो, जे प्रसंगे गुजरातना नाना मोटा गामोना आशरे ३०० स्त्री पुरुषो तथा व्र० सुरेन्द्रकीर्तिजी, ब्र० शीतलप्रसादजी, ब्र० दिग्विजयसिंहजी, ब्र० दीपचन्दजी aoif, हेमसागरजी, ब्र० महावीरप्रसादजी बगेरे स्यागीओ पवार्या इता तथा सेठ सुखानं दजी, सेठ चुनीलाल हेमचन्दजी, सेठ लल्लुभाई लखमीचंद चौकसी, सेठ ठाकोरदास भगवानदास वगेरे आगेनोए खास हाजरी आपी हती.
आवेा जुना ताराचंद नव
पूजन रोज थतुं हतुं तेम शास्त्रसमा पण थती हती तथा रोज रात्रे चंदावाडीनी सामना विशाल चोगानां विद्वानानां व्याख्यान यतां हां जेम भ० सुरेन्द्रकी र्तिजी, ब्र० शीतलप्रसादनी, ब्र० दिग्विनय सिंहजी, पं० दीपचंदजी वर्णी वगेरेना आत्मधर्म, भहिंसा, गृहस्थधर्म, १६ संस्कार वगेरे विषयोपर व्याख्यान थयां हृतां जेमां स्त्री पुरुषो रात्रे १० वागता सुधी सारी संख्यामां हार रहेता हता.
रथोत्सवो वरघोडो बहुम ठाठपाठयी सुद १४ मे दिने नीकल्यो हतो. रथ तथा साबेला वगेरेनी बोली मां ५०००) नी उपज थई हती. मुंबाईथी कृत्रिम घोड़ानो सुंदर रथ आवेलो होवाथी भाखुं सुरत शहर आ रथोत्सव जोवा
वळ शेठ सुखानंदजी तथा शेठ ताराचन्दजीने अभिनंदन आापत्रा अत्रेना दि० जैनो तरफथी पुनेमने दिने फुनाडीमां मेळा वडो थयो हतो, जेमां मूलचन्द कसनदास कापडिया, ब्र. शीतल प्रसादजी तथा ब्र. दीपचंदजीए ए बने दानी महाशयोनी उदारतानुं वर्णन करी तेमनो उपकार मान्यो हतो, जेना उत्तरमां शेठ सुखानंदजीए ३०३) तथा शेठ ताराचन्दजीए २०१) मत्रेनी २ संस्थाओने भेट आप्या हता तेमज शेठ चुनीलाल हेमचंदे पण १५३) नुं दान कर्यु हतुं वळी सुरतमां दर वर्षे रथोत्सव करवानी सूचना पण आ प्रसंगे थई हती. नांदगांवना ठरावनो घोर विशेष ।
खुद १५नी रात्रे भ० सुरेन्द्रकीर्तिजीना प्रमुखपणा - नीचे मळेली खास सभामां शा० छगनहाल उत्तमचन्द सरैया सुरतनी दरखास्त अने शा० छोटालाल घेलामाई गांधी अंकलेश्वर तथा जीवणलाल हलोचंद बोचासणना टेकाथी नीचेनो ठराव सर्वानुमते पसार थयो हतो.
सुरतमां रथोत्सव प्रसंगे भेगा थयेला सुरत, रांदेर, अम्लेश्वर, वडोदरा, अमदाबाद, प्रांतिज
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दिगंबर जैन । ईडर, मुंबाई, दाहोद, सोनीत्रा, रतलाम, जैपुर, पांगल प्रसिद्ध ऐतीहाप्तिक लेखक व वक्ता हैं जिंतुर, बोचासण, करमसद, आगरा, पालेज, जो पूनामें निवाप्त करते हैं। मीयागाम, भावनगर, पालीताणा, परतापगढ़ तथा करोली-में कैलादेवी पर जो हिंसा होती गुनरातना घणा नाना मोटा गामोना दि० जैन है उसको बन्द करानके लिये जीवदया प्रा० माइओ तथा भट्टारक १०८ श्री सुरेन्द्रकीर्ति, समा अहारनके उपदेशक पं० सोनपाल व पं. ब्र० शीतलप्रसादनी, ब० कुंवर दिग्विजय सिंह, जुगमंदरदासजी भेजे गये थे जिनके उपदेशसे ब्र० दोषचन्दजी वर्णी; ब. महावीरप्रसादजी बहुत हिंसा बन्द हुई है । भने ब्र. हेमसागरजीनी उपस्थितिमा आ सभा मेवारामजीका स्वर्गवास-खुर्ना राव करे छे के मुंबई दिगम्बर जैन प्रांतिक तमा निवाप्ती रा. बा० सेठ मेवारामनीका वैसाख ५० तरफथी सुरतथी ब्र. शीतलप्रसादजीना संपाद. १०को स्वर्गवास होगया । आपकी अन्येष्टि कपणा नीचे जैनमित्र । मामे साप्ताहिक उत्तम क्रियामें २००० आदमी सामिल हुए थे। शहर रीते नियमितरूपे प्रकट थाय छे तेना संबंधमां व कचेरी सच बंद रहा था। नांदगांवनी समानी बेठकमां ब्रह्मवारीजीने बदले एक लाखका दान-झालरापाटन निवासी 'जैनमित्र ' ना संपादक पं० बशीधर शास्त्री सेठ विनोदीराम वालचंदवाले रा० ३० सेठ शोलापुरने नीमवानो जे ठराव थयलो छ माणेक चन्दनीकी माताजी का स्वर्गवास ता. ८ ते ठराव सामे पोतानो अणगमो अने सख्त अप्रेलको हो गया। अंत समय माताजीके दानमें विरोध जाहेर करे छे भने मुंबाई दिगम्बर जैन उके सुपुत्रोंने एक लाख रुपये निकाले हैं। प्रांतिक मानी मेनेनींग कम टीना भातदोने अगरणीमें उत्सव व दान-इन्दौर में विनंति करे छे के तेओ ए ठराव बदलवानो ताकीदे पंचायती नियमानुसार आठवां (अगरणी ) में प्रबंध करे अने अा सभानो मत छे के पूज्य ब. नीमनवार आदि विरकुल बन्द है इप्स'लये अभी शीतलपता:जी जनमित्र' नुं वार्य अतीव उत्तम हीरालाल नी पाटणीने अपनी पत्नीके आंठवांके रीते खंत अने परिश्रमथी करी रहेका छ तेथी उत्सवमें तीन लोक मंडल विधान व कलशोत्सव
जैनमित्र' मा संसदक ब्र. शीतलप्रसादजीज १० दिन तक किया । तब नित्य उपदेश भी कायम रहेका जोइए.
होता था तथा पटणीजीने इस मौके पर भिन्नर पांगलका वियोग-सेतवाल समानके संस्थाओं को ५२३१) का बृहत् दान किया है अगुए नेमिनाथ पांगलका बाप्ीमें देहांत होगया। जिसमें ४००१) पाटणी बोर्डिग मारोठ व शेष ल तू की विशालकीर्तिकी गादी पर कोई मृढ ५१)से ३) तक संस्थाओं मंदिरों पत्रों आदिको व बालक भट्टारक न बैठे इसके लिये आपने भी दिये हैं। तोड़ परिश्रम किया था। अंत समय १५०) . प्रवास करेंगे-प्रसिद्ध ज्योतिषी व वयो.. दानमें निकाला गया है। आपके पुत्र तात्या वृद्ध पं० जियालाल नी जैन (फरुख :गर-पंजाब)
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लिखते हैं कि २-३माह अंतिम पर्यटन करना चाहता हूं इसलिये जो माई मुझे बुलाना चाहे मुझसे पत्रव्यवहार करें ।
दोहद- में पंचायती ठहराव हुआ है कि जैन भित्र सम्पादक ब्रह्मचारीजी शीतल सादमी ही रहने चाहिये।
वियोग - सेठ नाथारंगजीके पुत्र गंगाराममाईका मी बे०सु० १४ को वियोग हो गया ।
आवश्यकता - दानवीर सर सेठ हुकम चंदभीके विद्यालय व बोर्डिंगमें प्रवेशिका के २० ) विशारद के १५ व अंग्रेजी पढनेवाले १० इस तरह ६५ विद्यार्थियोंकी आवश्यकता है। जिनको आना हो द्वि० जेठ वदी १ तक अर्जी भे ।
हजारीलाल मंत्री, नंबरीबाग - इन्दौर । केशलोंच - कन्नड में श्री त्यागी ऐलक पत्तालानी परे हैं व प्र० ष्ठ सुदी ८ से ११ तक रथयात्रा व सुद १० को केशन होगा । नागपुर-में सि० नन्हेंशालनं ने अभी ३ ० ० ० ० का दान इसप्रकार किया है - १५०००) औषधालय ५०० ० ) गरीब व रोगीको खाने पीने वस्त्र आदिके लिये व १००००) नागपुर व रामटेक मंदिर में पूननार्थ |
शाहपुरा - (मेड) में फाल्गुन मास में जैन मेला व रथयात्रा हुई थी तब शाहपुराधीशको मानपत्र दिया गया था जिसके उत्तर में महाराजाने अपनी नशियाको अमुक जमीन मेंट की हैं व मेाडखेराड प्रां० समाका प्रथम अधिवेशन पं० घन्नालालजी केकडी के सभापतित्वमें हुआ था जिसमें मंत्री आदिकी नियुक्ति हुई थी ।
सुरतमां ७८००) नुं विशेष दानभत्रे चंदावाडीनी पासेना मंदिरमां मीचे सुमन विशेष दान पयुं छे.
१६००) शा० डाह्याभाई रखवदासना स्म नायें चांदीना दरवाजा
१९००) शा० आनलाल डाह्यामाईना स्म णार्थे चांदीना दरवाजा
७५०) शा० डायामाई रीखचदास तरफपी
लीलावती भने जडावजाईना स्मरणार्थे माताजीनो गोखलो (आरसनो) तथा तेना चांदीना बारणां
७९०) मणीन मुलचंद गुलाबचंद वाि
यानी तरफथी क्षेत्रपालनो गोखलो. तथा तेना चांदीना बारणां
९००) नवलबाई माणेकचंद लामचंद तरफथी फूलचंदना स्मरणायें पर्श्वनाथ मंडप भरसनी लादी
५००) श्रीमती परशनबाई नवलचंद हीराचंद्र झवेरी तरफथी दर्शनना मोटा बारणां जर्मनीतरना
१०००) शेठ नवल चंद हीराचंदना पुत्र रतन
चंदनी स्वपत्नी लीलावतीना स्मरणाये चंद्रप्रभु चैत्यालयमा अरतनी लादी ५००) शेठ ताराचंद नवलचंदनी स्वर्ग० पुत्री निर्माना स्मरणार्थे प्रवेश द्वारमां आनी बादी
१००) चुनीलाल हेमचंद जरीवालानी तरफथी दर्शननो नानो दरवाजो जर्मनसी लवस्नो (३००) कस्तुरचंद व्हेवरदास तरफथी दर्शननो दरवाजो जर्मनसीरनो कुले रु० ७८००)
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REARRIERREEEEERAJaaaaaaaaa* ॐ भारतीय दर्शनोंमें जैन दर्शनका स्थान।
इसी ( अंग्रेजी जैनगजटके मई २१के अंकमें प्रकाशित एक अजैन भट्टाचार्य महोदयके लेख का अनुवाद ।)
भूतकालके अंधकार में पड़ी हुई अपरिमित कारण कि यदि तर्कवाद मानुषिक स्वभावका रस्नराशिको प्रकाश में लानेके लिए अपने भरसक एक मुख्य चिन्ह है तो यह मानना भी कोई प्रयत्नों द्वारा पुगतत्वखोजी बहुतसी ऐसी व्या. अपयुक्त नहीं है कि किपी न किसी प्रकारका ख्यायों वा सामाजिक घटनाओं की तिथि-ईसाके न्याय और सिद्धान्तका प्रचार एक समाजमें पूर्व अथवा पश्चात-अङ्कित करने जैसे असाध्य तदेव प्रवलित रहता है। उस समय भी जा रोगमें व्यस्त हो जाते हैं । दृष्टान्त रूप विद्वान कि समाज थोथे क्रियाकाण्डके मध्य उतरा रही लोगोंने वेदवर्णित क्रियायोंके सम्बन्धमें न्याया- हो । अवश्य ही क्रियाकाण्ड स्वयं अपने निर्मास्वेषण करनेकी प्रथम क्रियाका समय निश्चित गमें सामाजिक बाल्यकालके पशु सदृश क्रिया परकरनेके लिए आपसमें विवाद किया । कितने कने के न्यायवादका कुसंस्कृतरूप है। तर्कवादका तो उन वेदमंत्रोंको जिनमें न्यायकी गम्यता पाई माव और स्थापित नैतिक नियमोंसे ऊ जा. जाती है क्रियाकाण्डके मंत्रोंके साथ साथ उनकी नेकी आकाक्षा, एवं उच्चसे उच्च उद्देश्योंका सैद्धांतिक परिभाषा करते हुए उन्हें पश्चात का विचार समानकी प्रत्येक दशामें विद्यमान है, नवीन संस्करण स्थापित किया है, मानो सिद्धा. चाहे उसका प्रत्यक्ष में वक्ता न पाया नाय । न्तका जन्म एक मुख्य निश्चित दिवप ही हुभा इस प्रकार सिद्धन ( Philosophy ) का हो। समानरीत्या जैनधर्म और बौद्धधर्मकी जन्म-प्तमय निश्च । करना कठिन HS7 है। प्राचीनताके संबन्ध में भी एक सगरम और अपश्य ही विविध दर्शनों की उपयुक्त रन उनके उद्विग्न विवाद विद्वानोंके मध्य चालु रहा। नापधारी संस्थापकों के बहु। पहिले विद्यमान किसीके मतानुसार जैनधर्म बौद्धधर्ममें से विकि- रही होगी । यह भ्रम है जैसे यह एन । सित हुआ और बौद्धधर्म मूल जड़ है । और कि बौद्ध और जैन धर्म बुद्ध और वद्धपान अन्योंने यह माना कि बौद्धधर्मसे पूर्व जैन धर्म. (महावीर) से प्रारंभ हुए। नहीं ! इन दोनों विद्यमान रहा था । चाहे जितनी ही विभिन्न ना धोके मुख्य एवं आवक तत्व इन दोनों इन विवादके यथार्थ भाव में हो, हम यह कहने का महात्माओंके पहिले से ही संचित हो रहे थे। साहस करते हैं कि इन विवादोंको अंशांशमें यह उन महात्माओं का ही शुभ कार्य था कि केवल मूल्यहीन ही नहीं यद्यपि मनोरंजक माना वे इन तत्वों का व्याख्यान करें-जातके समक्ष उन मासक्ता बल्कि एक देशके सैद्धान्तिक विकाशके तत्वोंकी यथार्थ एवं विशालताका प्रमाण प्रकट नियमके मिथ्या श्रमपर जारको चढ़ाए गए हैं। करें और सर्वपरे उन तत्वों का सर्वसाधारणमें
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पक
प्रचार करें। हमारे विचारसे इन महात्माओंने अर्वाचीन (Non orthodox) मत साथ साथ केवळ यही कार्य किया और इससे अधिक नहीं। संस्थापित हुए और विकसित हुए तो हम जरूर सैद्धान्तिक नियमों और तस्वोंके संबंधमें दोनों ही उनमें एक समान तत्वों व नियमों की संख्याको ही धर्म बुद्ध और बर्द्धमानके जन्मसे बहुत पा सकेंगे। इसलिए यह विशेषतया सदैव जतपहिले से प्रचलित कहे जासक्ते हैं। दोनों ही लाने योग्य है कि जब कभी किसी विशेष मार. धर्म प्राचीन हैं। अवश्य ही उतने ही प्राचीन तीय दर्शनका अध्ययन किया जा रहा हो तो हैं नितने कि उपनिषद् !
उसकी तुलना देशमें प्रचिलित अन्य मुख्य मतोंसे यह मान्यता कि जैनधर्म और बौद्धधर्मके कोई की जाय । इतिहासिक (Records) वथन उपनिषिदोंके जैन धर्म यद्यपि बंगालमें बहुत कम अपनाया समकालीन नहीं हैं। और इस कारणवश वे और अध्ययन किया गया तो मी उसका स्थान उतने प्राचीन नहीं कहे जासक्ते जितने कि उप- भारतके सैद्धांतिक मतोंमें वास्तविक रीत्या उच्च निषद् हमारे लिए बाधक नहीं है। उपनिषद् है। विशेषतया नैन सिद्धान्त एक पूर्ण दर्शन प्रत्यक्षमें वेदोंसे विलग नहीं हुएथे और तत्फलतः है। उसमें सैद्धांतिक ज्ञानकी सर्व शाखाओंका एक अधिक संख्यामें उसके अनुयायी रहे। समावेश है । वेदान्त न्यायकी शिक्षा नहीं देता। अवैदिक (वेदविपरीत) धर्म पहिले पहिले भीरु वैशेषिक आचार सम्बन्धी नियमोंका वर्णन नहीं रहे होगे और अवश्य ही अपनेको व्यक्त कर- करते । परन्तु जैनधर्ममें उसका स्व. नेके लिए उपयुक्त अवतरकी बाटमें रहे होगे। यंका न्याय है-सिद्धान्त है आचार परन्तुः दर्शन (विचार) नियम होनेकी अपेक्षा वे है अध्यात्मवर्णन आदि है । वास्तवमें उपनिषदों के समय में भी विद्यमान रहे होंगे। यह एक दैदीप्यमान प्राचीन दर्शन है। भार. यह मानना संगत है कि जब विचारशील तीय फिलासफीका अध्ययन अधूरा मनुष्योंने अपने धर्मका विचार करना प्रारंभ ही रह जायगा, यदि जैनधर्मकी किया तब उन्होंने केवल एक पंक्ति ढूंढपाई अवज्ञा की गई। जैसे उपनिषिधोंकी । नहीं ! विचार स्वतंत्र था। हमारे जैन धर्मके अध्ययन करनेका प्रबन्ध इस और उसने आर्षके विपरीत नूतन पंक्तियां भी प्रकार प्रदर्शित हो गया। जैसे कि हम कहते ढूंढ़ निकाली होंगी। और अवश्य ही उपनिषि- हैं वह एक तुलनात्मक अध्ययन होगा। इसमें धोके सिद्धान्त शीघ्राम्य नहीं वहे ना सक्ते संशय नहीं कि यह एक अति कठिन कार्य है वनिस्बत अन्यों के, जिससे कि माना नावे कि वे जो समस्त दर्शनोंके यथार्थ ज्ञानको सम्मिलित अवशयम्भावी रीत्या पहिले से विचार कर लिए कर लेता है । परन्तु हम यहां केवल सनातनी
नियमों पर ही विचार करेंगे। मि RARE माने किमाथी
की AMERI दियीन का पक्ष
गए होंगे।
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दिगंबर जैन। हम निम्नाङ्कित तुलनात्मक निर्णय पर विचार प्रयत्न नहीं किया। इसके क्रय थे नष्ट करना, करेंगे। जैमिनिके सिद्धान्तोंको छोड़कर अवशेषके खण्डन-निषेध करना, आलोचना करना-अर्थात सर्व भारतीय दर्शन वक्तव्य द्वारा अथवा अन्य वस्तु को दबाना न कि उसकी प्रशंसा करना । प्रकार किपाकाण्डमय वेदोंकी श्रद्धाकी आलो. यदि वेदोंने माना था एक मनुष्योंपर सत्ताको चना करते हैं। वास्तवमें समस्त फिलासफी तो चार्वाक विचारकोंने उसपर संशयकी धूल श्रद्धाके विपरीन तर्क वितर्ककी सनातनी लड़ाई डाली थी। जैसे कि ऐनी नास्तिक आस्थाका है । इल इंष्टि की अपेक्षा समस्त दर्शनों को अब उल्लेख ६ठे कथोपनिषद्की द्वितीय वल्ली में है। हमें एक एक कर हाथमें लेना चाहिए और उनके यहां उल्लेख किया है उन विचारों का जो मुख्य सिद्धान्तोंपर विचार करना चाहिए। यह एक भविष्य जीवन में विश्वास नहीं रखते । वही मी अवश्य ही ध्यारमें रखना चाहिए कि निम्न- उपनिषद आस्तिक सिद्धान्तपा अपनी षष्ठीवल्ली लिखित रीत्या भारतीय दर्शनोंका जो प्रकाश १२ में आक्रपण करता है। किया गया है वह न्यायके आधारसे है न कि पुनः कथोपनिषदकी प्रथमवल्ली (२०)में उन ऐतिहासिक (Chronglogical) रूपमें। विचारकोंका उल्लेख है जो एक मनुष्योत्तर
कभी समाप्त न होनेवाले, बाह्यमें अर्थहीन सत्तामें श्रद्धा नहीं रखते । इस प्रकार यदि वेदवर्णित क्रियाकाण्डका अति तीव्र विरोध वेदोंने यज्ञ संबंधी क्रियाकाण्डपर जोर दिया, अवश्य ही चार्वाकके सिद्धान्तोंमें भरपूर है। तो इन प्रतिरोधकों (Non conformists)ने प्रत्येक समाज में कितने प्रतिरोधक सुधारको उनकी उपयोगताका निराकरण किया और उनके ( Protestant Non-Conformists ) उमहासको दर्शाश। उपनिषद मी जो कि का होना आवश्यक है और प्राचीन वैदिक भाने आर्ष (orthodox) माननेका और स्वतः समान भी इस नियमसे वांचित न थी । वेदवर्णित वेदों का एक माग अपनेको प्रगट करने का दावा सरल रीतियोंपर हानिकारक कारणोंद्वारा आक्षेर भरते हैं, वैदिक क्रियाकाण्डकी आलोचना करते करना न कठिन या और जैसे न कभी है। हैं। जैसे कि बहुतों में से एक दृष्टान्त इस विचारशील और सिद्धान्न अन्वेषी हृदय उनसे प्रकार है:दीर्घकालता संतोषित नहीं रहसक्ता । और "परन्तु ये प्रतिरूपक रीतियां जो कि नीच भालोचना (Criticism)का प्रथम आक्रमण गुप्त समस्यायोंके करने से संबंधित हैं जैसे १८ वेदर्द पाशविक यज्ञ संबंधी क्रियाकाण्डपर होगा। द्वारा बताई गई, झांझरी नैयाके महश हैं (जो यही चार्वाक मत है जो कि वेदों में वर्णित कर्म. नाविकों के लिए भयावह हैं )। मूढ़ जो इसे काण्ड का कठोर निषेध है । यह खण्डन बादका उच्चतम मानते हैं और उसपर हर्षित होते हैं, मत है। यूनानकै सुफी मतके सहश इसने कमी बारम्बार जन्म, जरा और मृत्यु भुगतते हैं।" मी पूर्ण रूपमें जगत सिद्धान्तके निर्णय करने का परन्तु उपनिषोंने वेदों की मालोचना इस
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दिगंबर जैन। उद्देश्यसे की कि जगतके समक्ष कुछ उच्च और वह इस भावसे प्रारम्म न होना चाहिए । रीतिउत्कृष्ठ माव प्रकट करें और उन्हें ठहराएँ रिवाज यथार्थ स्वभाव (Rational nature) जब कि नास्तिक चार्वाकने आलोचनाके सरल के बढ़ाव और विकासका दम घोंटता है। यह
और सुगम मार्गके अगाड़ी पा न बढ़ाए । यह ही आलोचनाकी यथार्थ दृष्टि है । नितान्त विषमुख्यतः एक खण्डनात्मक व्याख्या थी जिसका यवाद इसकी उपेक्षा करता है । और जैनधर्म कि स्पष्ट प्रतिरूप न था। इसका कार्य था बौद्ध धर्मके सदृश यथार्थ ( Vationalistic) वैदिक रीतियों का उपहास करना । इसमें संशय मत होने के कारण चाकिसे अपना पीछा छुड़ा नहीं कि यही न्याय यथार्थता (Rationalism) लेता है। का जन्म था जिसकी कि बढ़वारी हम अन्य भारतीय फिलासफीका दूसरा मत जो यहां मारतीय दर्शनों में ढूंढेंगे।
पर जैनधर्मसे तुलना करने के लिए लिया जासक्ता चार्वाक नास्तिकवाद के साथ जैनधर्म भी वैदिक है वह बौद्ध मत है। नास्तिक वादकी सहश र ज्ञवादके कर्मकाण्डका निषेध करता है। उसने बौद्धधर्म वैदिक क्रियाकाण्डका निषेध करते हैं। प्रत्यक्षमें ही वेदोंको अपना प्रमाण (authority) परन्तु इसकी यज्ञसम्पाधी क्रियाकाण्डकी आलो. नहीं माना था। और नास्तिकत्वके वक्तव्यमें चना एक अधिक यथार्थ भित्ति पर सवलम्बित यज्ञ सम्बन्धी क्रियाकांडका प्रतिरोध किया। है। रौद्धधर्मके अनुसार हमारा दुखदायी भस्ति
यहां तक जैन धर्ममें चार्वाकसे समानता है। त्व कर्मके कारण है । जो कुछ हम हैं व नो परन्तु इसके उपरान्त वह नास्तिकवाद की तरह कुछ हम करते हैं वा हमने किया है उसका एक निषेधक मत नहीं था। उसका उद्देश्य फल है। हम जन्ममरण भुगतते हैं और पुन: सिद्धान्त-निर्माण (System-building) पर जन्म धारण करते हैं क्योंकि हम इन्द्रियमुख था। सझेरि वह चर्वा ककी घृणित विषरस और बासनाके पीछे मटकते हैं जो कि द्रव्यहीन म्बन्धी हेडोनिज्मको पृथक् करता है । चार्वाक छाया है और असावधान मनुष्यों को मटकाती सिद्धांत अनुपयोगी क्रियाकाण्डकी सार्थकता पर हैं। यदि हम इस संसारमें अपने दुःख और प्रश्न उठाता हुआ उसके भीतर पैठने का प्रयत्न पीड़ाओं का अंत करना चाहते हैं तो हमें अपने नहीं करता परन्तु मानुषिक ३भावके विषय कोकी सांकलोको तोड़ना चाहिए । अब हम संबंधी बातपर विशेष जोर देता है। उसने वैदिक कर्मराज्य के बाह्य भी पग बढ़ायगे, यदि हम शुभ रीतिरिवाजोंकी आलोचना की-यह कहा जा कर्मको दुष्कर्मसे, विरक्त भावको आसक्त मावसे, सक्ता है-ताधारणतया इस कारण कि उन्होंने अहिंसाको हिंसासे मिड़ाएंगे। वैदिक यज्ञविषयक विषयवासनाओंका निरोध किया और दिखावेके क्रियाकाण्ड छोड़ देना आवश्यक है क्योंकि वे रोकोसे उनके लगामके विहीन मोगोंको रोका। केवल अनन्ते निरापराध पशुओंकी हिंसाकी ही परन्तु यदि किपाकाण्डकी आलोचना करनी है तो शिक्षा नहीं देते सुतरां वे समझे जाते हैं
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दिगंबर जैन। मक्तोंको स्वर्गों में पहुंचानेवाले अथवा अन्य नींव पर अवस्थित है । हमें वेदोंकी प्रमाणिकवांछित स्थानों में। और इस प्रकार वे प्रत्यक्ष ताका निषेध करना है-अच्छी बात है। हमें अथवा परोक्षरूप में हमारे दुःख पूर्ण जन्म व अहिंसा और स्यागका पालन करना है-अच्छी पुनः जीवनके कारण हैं । इस प्रकार बौद्धधर्मके बात है। हमें कमों के बंधन तोड़ने हैं-अच्छी अनुसार हमें अहिंसा और त्यागका आचरण बात है। परन्तु सारे संसारके लिए यह तो करना चाहिए यदि हमें कर्मके राज्यमें से पार बताइए हम हैं क्या ! हमारा ध्येय क्या है ? पहुंचना है । यही इसका मुख्य सिद्धान्त है। स्वामाविक उद्देश्य क्या है ? इन समस्त प्रश्नोंका वेदोंका निराकरण इस कारण करना चाहिए उत्तर बौद्धधर्म में अनूठा पर भयावह है-हम कि उनमें हिंसाका विधान है एवं वे नहीं हैं तो क्या हम छाया श्रम परिश्रप प्रत्यक्ष अथवा परोक्षरूपमें निर्वाणके वाधक कर रहे हैं ? और क्या गहराव ही अंतिम ध्येय कारण है । एक समान दृढ़तामें बौद्धधर्म चार्वाक है ? क्यों हमें कठिन त्याग करना है और हमें , मतके विषयवादपर आक्रमण करता है यद्यपि क्यों जीवनके साधारण इन्द्रियसुखों का निरोध वह उसका साथ वेदोंपर चढ़ाई करने में देता है। करना चाहिए ? केवल इस लिए कि शोकादि यदि हम वैदिक कर्मकाण्डसे हट जायगे तो हमें नष्टता और नित्य मौन निकटतर प्रप्त हो जाएं। हेडोनिज्ममें तल्लीन न होनानेसे सावधान रहना यह जीवन एक भ्रान्तवादका मत है और दूसरे चाहिए, तप और नियमों का पालन करना शब्दों में उत्तम नहीं हैं। अवश्य ही ऐसी चाहिए । हां ! यही नियम बौद्ध मतानुसार आत्माके अस्तित्वको न माननेवाला विनश्वरताका कमौके जालसे छुटनेका है।
मत सर्वसाधारणके मस्तिष्कको संतोषित नहीं कर बौद्धधर्मके समान ही जैनधर्म भी मानता है कि सक्ता । आश्चर्य ननक उन्नति बौद्धमत की उसके हमारे दुःखदायी जीवनका कारण कर्मका बन्ध सिद्धांतिक विनश्वरतावाद (Nihilism) पर निर्भर है। बौद्धधर्मके सहश ही वह एक हाय वेदों की नहीं थी बलिक इसकी नामधारी " मध्यमार्ग" प्रमाणिकताका निषेध करता है दूसरे हाथ चार्वा- की तपस्याकी कठिनाईका कम होना ही है। कके विषयवादको । समान दृढ़ताके साथ वह साधारण मनुष्य भी यह अनुभव करता है कि अहिंसा और 'बत्तिको मानुषिक आचारके सरल मैं हूं। वह एक सत्तात्मक वस्तु है न कि नियम मानता है । अवश्य ही उसकी शिक्षा द्रव्यहीन छाया । यह ही है जो प्रत्येक मनुइनके पालन करने में विशेष कठिन और दृढ़ है। प्यके अनुमामें आता है।। परन्तु वन जैनधर्म बौद्धधर्मकी पहिली कमताईको जैसे कि उपनिषद्की प्रत्येक पंक्तिसे अनुमाअपनेमें नहीं पाता है।
नतः चित्रित होता है यह वेदान्त ही है जो परीक्षा करने पर यह प्रकट हो जायगा कि आत्माको अविनाशी और अकृत्रिम सत्ता मानबौद्धधर्मका सुन्दर भाचार वर्णन एक कम्पित ता है। आस्मा है। उसका मस्तित्व सत्तात्मक
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___दिगंबर जैन ।
(१४) है अकृत्रिम और नित्य । यह देखने में ज्ञात है सिद्धान्त ताधारण मनुष्यों द्वारा कठिनतासे जाना कि वह जन्मजन्मांतरों को धारण करता रहता है, जाता है । वे मानते हैं कि मनुष्यकी आत्मा दुःख सुखका अनुभव करता है । परन्तु इसकी एक सत्ता है परन्तु यह आश्य ही एक बड़ा स्वामाविक निधि अनन्त एवं अनाधिनिधन कार्य है कि उनसे मनुष्य मनुष्यके आपसी, और वीर्य, ज्ञान और आनन्द हैं।
हृदय, पद्दल एवं अन्य शक्तियों के भी आपसी यह वेदान्तका प्रथम सिद्धान्त है और जैन- अंतरको भूल जानेको कहना यह वास्तवमें धर्म भी आत्माको अनादिनिधन असंगत नहीं है एक विचारशीलके मानने मेंऔर अनन्त मानने में सहमत है। अपने को एक सत्ता मानते हुए-कि वह अपने इस प्रकार यह प्रत्यक्ष है कि वेदान्त और पड़ोसी-एक सत्ताके रूपमें-से विभिन्न है एवं जनधर्म दोनों ही साथ साथ बौद्धधर्मसी विनः सत्ताके रूपमें अचेतन पदार्थों और शक्तियोंसे म्बरतावादका निषेध करते हैं। और आस्माकी भी। हम कहते हैं-ऐसी दृष्टि असंगत नहीं है। सनातनी सत्ता मानते हैं । परन्तु यहां पर आकर हम यह भी कह सक्ते हैं कि वह साधारण दोनों धर्म विलग विला होनाते हैं। वेदान्त- समुदायके अधिकांश भागके साधारण मस्किको वादी आत्माकी सत्ता मानकर संतोषित नहीं विशेषरूपमें संतोषित करती है। इसलिए वह होता परन्तु वह साहसपूर्वक अगाडी बढना है साधारण है और वेदान्तका पीछ। छुटता है।
और भात्माको संसारी आत्मासे अनन्य ठहस्ता दूसरा मारतीय दर्शन जिप्तका हम इस संबंधमें है। वेदान्त के मतानुसार श्रष्टि अपने समस्त विचार करना चाहते हैं वह कपिलका विख्यात् चेतन अचेतन पदार्थों के साथ केवल: एक और दर्शन है। वेदान्तसे आत्माको अकृत्रिम और भात्मासदृश (Solfsemo) सत्ताकी प्रकाशन मनादि माननेमें सहमत होते हुए भी वह आ. है। "मैं ही वह हूं।" सारिक (Cosmic) स्माकी बहु संख्या माननेसे बाज़ नहीं आता है। शक्ति वह है। मैं एक निराली और स्वतंत्र वेदान्तसे विपरीत वह एक अचेतन सांसारिक सत्ता नहीं हूं। मेरेसे बाह्य सांसारिक शक्ति शक्तिको मानता है जो कि प्रत्यक्ष सहयोगमें जो मेरा प्रतिरोध करता विदित होता है एक पुरुष अथवा आत्माके साथ क्रियापय है । सांख्य स्वतंत्र और विलग सत्ता नहीं है। केवल एक सिद्धान्तके मतानुसार आत्मा अकृत्रिम, अनादि, मुख्य सत्ता है । और आप, मैं एवं अन्य समस्त अनन्त है और ऐसी अस्मा बहुसंख्यक हैं। चेतन पदार्थ तयैव पौगलिक पदार्थ और कपिल का दूसरा मुख्य सिद्धान्त आत्मासे भिन्न शक्तियां इन सत्ताओं से सत्ताका प्रकाशन और स्वतंत्र एक अचेतन शक्ति को मानने में है। समझना चाहिए।
यद्यपि यह शक्ति समय विशेषके लिए आत्मा के वास्तवमें जैसे यह भति उच्च और विशाल सहयोगमें क्रियावान है। हमारा छुटकारा भासता है वेदान्तका अभिन्नता (Identity)का आत्माको बाह्य शक्तियों के पंसे छुटाने में है।
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अब जैनधर्म भी जैसे हम देख आए हैं हैं पूर्णरूपमें और विशुद्ध विकाप्त पाते हैं। बास्माकी अनादिता और अनन्तताको स्वीकार अब चाहे कुछ बुद्धिमान टीकाकार कहें करता है। कपिल सिद्धान्त के अनुसार यह एक परन्तु यह सुगपरोस्या कहा जातक्ता है कि बाह्य शक्ति की सत्ता और अस्तित्वको मानता सांख्यदर्शन एक ऐसी नैतिक आदर्श अथवा है जो स्वतंत्र भावधारी आत्माको बन्धनयुक्त पूर्ण पक्तिकी सत्ताको नहीं मानते हैं। यह किए हुए है। सांख्यके समान जैन सिद्धान्त योगदर्शन ही है जो प्रयत्न करता है-किस आत्माकी बहु संख्याको भी स्वीकार करता है। सीमा और शक्तिसे इसका परिमाण हमें नहीं और अंतिमतया दोनों ही जैन और सांख्यधर्म लगाना है-इस हृदयकी आकाक्षाकी पूर्ति कर. यह मानते हैं कि निर्वाण विशुद्ध मात्माको नेकी योगदर्शन सांख्य सिद्धान्तानुसार आत्माबाह्य शक्तिके प्रभाव से छुड़ाने में है।
ओंकी सत्ता और बहु संख्या मानता है । परन्तु ___ साथ ही साथ यह मी विचारना आवश्यक योगदर्शन सांख्पसे गाड़ी बढ़ता है और एक है कि प्रत्येक साधारण मनुष्यके हृदय में संपवता सनातनी आदर्शका अस्तित्व प्रकट करता है एक स्वाभाविक इच्छा का वास है कि अपने से अर्थात पर आत्माओं का परमात्मा अथवा किसी उस्कृष्ट, उच्च और विशेष धन्य पदार्थको प्रभू । इसमें जैनधर्म भी योग सिद्धान्तसे सहमत पाए। एक भक्त मनुष्य चाहता है कि एक है। योगमतानुसार जैनधर्म एक व्यक्ति, एक परमात्मा, प्रभू वा ईसर हो जो परमात्मा अथवा प्रभूको-अर्हत्को अपनेको उसके सामने पूर्णताका एक दर्शनीय स्वीकार करता है । वह श्रृष्टि कर्ता चिन्ह प्रकट करे। मनुष्य में एक स्वाभाविक नहीं है बल्कि पूर्णताका सनातनी प्रवृत्ति है कि वह एक उत्तम नैतिक उद्देश्यको आदर्श एवं परमोच्च नैतिक एवं एक सर्वोच्चतम व्यक्ति को निप्तमें वीर्य, ज्ञान अध्यात्मिक उद्देश्य है हमें उसके
और आनंद अरनी पूर्णतामें हो माने । यदि धर्म अनन्त पूर्ण स्वभावका विचार करना एक श्रद्धा-उत्पादक शरीय व्यक्ति में विश्वास है और उसे अपने अभ्यंतर नेत्रोंसे उत्पन्न कर सकता है हम कह सक्ते हैं कि देखना है। इस की संगति उपदेशधार्मिक ज्ञान व उत्साह मनुष्य में सामाविक है। कारक, उन्नतिकारक उच्चपद प्रदायक हम अपने को हर अवस्था में सीमित, परिमिन, और बलवानकारक है। यह सर्व जैनधर्म
और अल समझते हैं अर्थात् अपनी शक्ति, और पाताञ्जलिके सिद्धान्त में एक समान हैं। ज्ञान और नैतिक धन्यतामें और इस लिए हमें इसके उपसन्त निप्त भारतीय दर्शनका उल्लेख वाध्य होना पड़ता है । अपने हृदयोंके समक्ष इस संबंधमें करना चाहिए वह कनाड़का दर्शन किसी ईश्वर वा परमात्माको मानने में जिसमें है। न्यायसंगत विकास वैशेषिक दर्शनका निम्न शिक्षण मिके किस भामा करने की सम RT anा है। 8 और भोगन
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दर्शनोंमें जो कुछ आस्मा अथवा पुरुषके विपरीत यह वैशेषिक दर्शन है जो अणुभों, आकाश है वह प्रकृतिके अथाह गर्ममें भर देते हैं । उनके और कालकी नित्यता और स्वयंसत्ताका वर्णन अनुसार जो कुछ क्रियावान और फलतः सत्ता- करता है। यथार्थ चार्वाक मतके अनुपार सम्भस्मक भासता है वह सब संभवता सांसारिक वता इनकी अवज्ञा करना यथेष्ट है । बौद्धकी (cosmiic) शक्तिमें गिनी जासक्ती है। इसप्रकार विनश्वरता ( Nihilism ) हमारे अनुभवों के स्थान (आकाश) काल और पोद्गलिक अणुओं नितान्त विपरीततामें उन्हें असत्तात्मक ठहरायगी। पर कपिल और पातञ्जलिने विशेष ध्यान नहीं वेदान्त मी जाहिरा कोई उपयुक्त वर्णन नहीं दिया है-वे समस्त प्रकृतिके ही ऋत्य समझना करता है। सांख्य और योग दर्शन जैसे हम चाहिए। परन्तु ऐपा समझना सरल नहीं है। देख चुके हैं इन्हें अद्भुत प्रकृतिमें ही संयुक्त साधारण मस्तिष्क इन्हें स्वास्तित्वधारक स्वतंत्र मानेंगे । यह कनढ़का ही दर्शन है जो इन्हें सत्ता (Reals) समझते हैं। कैन्ट (Kant) मी नित्यता, सत्ता और स्वतंत्रता प्रदान करता है। अपनी विख्यात व्याख्या ही सदैव संलिन नहीं जैन धर्म भी वैशेषिकोंके सदृश अणुओं, आकाश रह सक्ता कि आकाश और काल हमारे मस्ति- और कालको स्वयं सत्तात्मक और निन्य मानता है।
कके ही प्रार्दुभाव हैं। वह भी किसी २ समय इसपकार यथार्थ तर्क वितर्क के मनोरम फल इस बातको माने हुए प्रतीत होता है कि इन हैं जो हमें विविध भारतीय दर्शनोंने प्रप्त होते पदार्थों का मस्तिष्कसे प्रथक् अस्तित्व और सत्ता हैं। तर्क वितर्कके व्यवहार मार्ग के अर्थ हमें न्याय है । पुनः-डेमाक्रिटस ( Demceritus ) से सिद्धन्त तक जाना होगा। यहां हम समस्त लेकर आज पर्यन्तके विख्यात विज्ञानाचार्यों नैयायिक सिद्धान्तों की गूढताओं से मिनार करते (Scientists) तफ-सर्व इस बातकी आवश्यक्ता हैं, यह गौतमका ही दर्शन हैं नो विचार संबंधी को सम्झते हैं कि पौद्गलिक अणुओंकी नित्यता नियमों का विशाल विवेचन करता है । जैसे कि एवं स्वयं सत्ता स्वीकार की जावे । परन्तु सर्व जगतके दार्शनिक सिद्धान्तोंका एफ मुत्यवान कपिल और पतञ्जलिके दार्शनिक मत आकाश, भण्डार हो, जैन धर्म मी विशेष उपयोगी न्याय काल और पौद्गलिक अणुओं की नित्यता और विषयका दावा मर सक्ता है। इस संबंधमें इसके स्वयंसत्ता (Self-existence) को कमी मी बहुतसे सिद्धान न्याय दर्शनके महश हैं । संम. स्वीकार नहीं करेंगे । यह मानना चाहे कितना वता न्याय सिद्धान्तोंके उपरान्त जैन न्यायका ही कठिन साध्य क्यों न हो परन्तु आपको अध्ययन आवश्य कासे अधिक प्रतित हो इसलिए समझना होगा कि आकाश, काल और अणु- हम यह दर्शा देने की सावधानी प्रकट करते हैं अपने अपने स्वभाव, लक्षण और कार्यों में इतने कि जैन धर्म के न्यायके अपने अनोखेपन अलग विमिन्न होते हुए भी-एक और उसी आद्य ही हैं और विख्यात स्याद्वाद वा सप्तमङ्गो नय. प्रकृति से निकले हुए हैं।
नांदकी अपेक्षा इसके पाप्त एक ऐसा सिद्धान्त है
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चाहे कोई धर्म हो जो वेदोंकी विपरीतता करता हो उसे इन तत्वोंको रखना होगा और इनके रखे विना उस काम नहीं चलता है । क्योंकि मुख्य कारण के लिए कि वैदिक यज्ञ हिंसामा थे और इन इच्छासे किए जाते थे कि मानुषिक विषयसुख की वृद्धि इस मा और आगामी में हो । अब जैन ने भी वेर्दोकी प्रमाणिकताका और उसने भी
निषेव किया था । अहिंसा और त्यागको
स्वीकार किया था । फक्तः जैनधर्म अपने बाह्यरूपमें बौद्धधर्मके सदृश ही भाषता था । दोनोंने ही वेदों का खन्डन किया था और दोनोंने ही अहिंसा और त्यागके सिद्धान्तों को अपनाना था । यह बाप ही दोनों धर्मों का एक परदेशीको उनकी अभिन्नता में विश्वात उत्पन्न करा उक्ता है । परन्तु इससे यह प्रनाणित नहीं होता कि वे हैद्धांतिक रीत्या अभिन्न हैं । आचार संबंधी नियम भले ही दोनों दार्शनिक मतों में एक समान अथवा सदृश हों परन्तु उनके सिद्धान्त नितान्त ही एक दूसरे के विपरीत हैं। मनुष्यकी मुक्ति हो सक्ती है कि मनुष्य जीवन के साकरण विषयसुखका निरोध करे. और एक तगस्य एवं त्यागमय जीवनतीत करे-ठोक ! दृष्टान्तस्वरूप, यह तो प्रत्येक. भारतीय दर्शनों ने एक करके माना है । पे उनके सिद्धान्त एक दूसरे के नितान्त विपरीत हैं। यूना में सैनसिप (Cynicism) और सैरेनैसिज्न (Cyrensicism) दोनोंहीने अपने रिकारको एक मुखा वापर जगतका संपूर्ण
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जिसका इसे उपयुक्त रीत्या गर्व हो सक्ता है और जिससे गौतमका सिद्धान् नितान्त अछूता है यह इस प्रकार है कि हम जैन धर्मका स्थान भारतीय सैद्धान्तिक दर्शनों में द्योत करना चाहते हैं । कतिपर्योने अव ही इसे बौध धर्मसे अमित्र सिद्ध करनेके प्रयत्न किए थे। जैसे लैस साहत्र (Lassen) और वेबर साहब (Weber) ने, जैन धर्मकी स्वतंत्र उत्पत्तिको स्वीकार नहीं नहीं किया था। इतने पहिले कि सातवीं शताब्दिमें हुअंग सान्ग (Huang Tsang) ने ऐसे कारण पाए जिससे वह जैनधर्मको बौद्धधर्म की शाखा समझा था । इसके विपरीत बुल्लर साहब (Buhler) और जैकोबी (Jacobi) साहब दोनों ही जैनधर्म स्वतंत्र निकासको स्वीकार करते हैं और बल्कि यह मानते हैं कि वह बुद्धसे पहिले भी प्रचलित था । हमारी इच्छा नहीं है कि हम इन पुरातत्व संबंधी प्रश्नों की उल्झ नमें पढ़ें । हमने यह माननेकी जुर्रत की है कि बौद्ध धर्म और धर्म दोनों ही अपने विख्यत् व्यवस्थापकों के पहिले से ही विद्यमान थे । उनक निकास वस्तुतः बुद्ध और पानपर आत नहीं है। यद्यपि वे दोनों ही वेद और क्रियाकाण्ड निषेवक हैं जैसे कि उपनिषद् स्वतः हैं । यह प्रकट करता है कि पांगने क्योंकर दोनों घर्मो को अभिन्न माना । जब वह मारतवर्ष में आया तब बौद्धव प्रचिलित धर्म था। उसके मुख्य तत्व जैसे कि हम देख चुके हैं अहिंसा और त्याग थे । इन्हीं तत्वोंद्रात रक्षक और मेदक शास्त्रों के रूपमें बौद्धमत सफरता पूर्वक वैदिक कर्मकाण्डके विपक्षमें लड़ा था और
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(१८) रीत्या त्याग करनेका उ देश दिया था यद्यपि दर्शनोंके मध्य अवस्थित देखा जाता है। दोनों दोनों धर्मोके सिद्धान्त एक दुरेसे इतने विश्रोत ही दर्शन वेदान्तके अमिन्नताके सिद्धान्तका थे जितने कि उत्तरी और दक्षिणी ध्रुः ! इस निषेध करते हैं और आत्माके बहु संख्यक लिए ह योग्य नहीं है कि जैनधर्म और बौद्ध- सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं । आत्माके अति. धर्मकी अमिन्नता इस अपेक्षा मानना कि दोनों रिक्त दोनों ही अचेतन पदार्थकी सत्ताको भी आचार सम्बन्धो नियम एक समान निर्धारित स्वीकार करते हैं। तब मी यह संभव नहीं है करते और बतलाते हैं । दिखाऊ एकता बौद्धधर्म कि एकको दुसरेका आधार माना जावे अथवा
और जैनधर्मकी इस पा अवलम्रित नहीं है कि घटाया नावे । कारण कि परीक्षा करने पर दोनों एकका निकास दुसरेसे हुआ पान्तु खण्डन और
धर्मों की सादृश्यता वाह्यमें ही प्रतीत होगी न यथार्थतःके उस मावसे है जिससे कि उन्होंने
* उन्हान कि यथार्थमें। सर्वसे प्रथम वात जो हमारा चित्त साहसपूर्वक वैदिक धर्मक प्रत्यक्ष हिंसा आकष्ट करती है वह यह है कि जब सांख्य मय और असभ्य क्रियायोंका निषेध दर्शनमें अचेतन पदार्थका सिद्धान्त एक है तब किया था।
जैनधर्ममें पांच हैं । तिसपर मी इन पांचमें से वस्तुतः दोनों धर्मों के सिद्धान्तोंपर विचार कर. प्रथम पुर्लके अनन्ते अणु हैं । इस प्रकार यदि नेसे यह विदित होता है कि एक दुसरेके निताना सांख्य द्वैवाद है तो जैनधर्म वस्तुतः बहु संख्यावाद विपक्ष में है । मान लीजिए यदि बौद्ध धर्म सर्व (Pluralistic) है। एक अन्य विशेष अंतर सत्ताओंका निषेध करता है तो जैनधर्म पत्ता संपवता प्रकट होगा जब हम कहें कि ओंको मानता है और एक अनन्त संख्या में । जब कि कपिलका दर्शन भ्रान्तवाद (Idealism) बौद्ध कहता है:-आत्मा नहीं है; अणु नहीं हैं; के वहत निकट है तब जैनधर्भ पुद्गरआकाश, काल, धर्म (Motion) नहीं हैं; वादके निकट पहुंचता है। * और परमात्मा भी नहीं है। इसके विपरीत पहिला प्रश्न जो सांख्य दर्शनके शिष्यके जैनधर्म इन बातोंको स्वीकार करता हुआ इनकी मस्तिष्कमें उत्पन्न होता है वह है, प्रकृति पुष्टि करता है । बौद्धधर्म के अनुसार जब हमें क्या है ? क्या वह पौद्गलिक सिद्धान्त है निर्वाण प्रप्त होता है ता अस्तित्व हीनता वा भ्रान्तवादका ? वास्तवमें वह स्थूलरीत्या हम विलीन होते हैं। जब कि जैनधर्म के पहिलेपहिल पोदक्षिक नहीं है । जिनको अनुसार हमारा वास्तविक अस्तित्व तभी से प्रारंभ हम पौलिक शरीर कहते हैं वे इसके होग है। मसिद्धान्त मी दोनों धर्मो में एक विकात सिद्धान्तका अंतिम है । तब वह समान नहीं हैं।
न क णवा हम इसे युक्त नहीं * यह नोट , कर लेना चाहिए कि वर्तमान Rझते कि नैनधर्मको बौद्धधर्मकी शाखा समझा
लेखकका अभिप्राय यहां पर यह नहीं है कि सांख्य
दर्शन वस्तुतः भ्रान्तवाद है और जैनसिद्धान्त पुद्गजावे । एक घनिष्ट संबंध जैन और सांख्य लवाद ।
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दिगंबर जैन । क्या है ? वह तीन विरोधात्मक गुणोंका समु- स्यं कपिके अनुपार--कारग कार्य के साथ उसी दाय अथवा समानता (Equilibrium) रूपमें स्वभावका होना चाहिए तो विकासमय प्रकृति वर्णित है। जहांतक अनुभव जाता है पुदल आत्मिक अपने विकास परिणामके सहश होना जैसे कि हम मानते हैं समुदायका ऐसा सिद्धांत चाहिए । हम प्रकृतिको पौद्गलिक मानते हुए यह नहीं हो सक्ता है । एक सिद्धान्त जो बहुसंख्या- प्रकट नहीं करसक्ते कि क्यों ये दोनों आत्मिक वादमें समुदाय है, जो विरोधी गुर्गों की बहु (Psychical) तत्व बीवमें अएं इसके पहिले संख्या असनेको बनाए रख सकता है, वह स्व- कि स्थूठ पौद्गलिक तत्व विकाशको प्राप्त हुए मावमें अध्यात्मिक होना चाहिए। सहज ज्ञान हो । यदि प्रकृति किसी प्रकार एक आत्मिक तो यह कहता है और अनुमा एवं दार्शनिक गुण (Potentiality) माना नावे तो उसे विचार से पुष्ट करते हैं। यदि तब प्रकृति अपने आपको पूर्णतया जननेके लिए पूर्णतया
अपना नियमित विकासक्रम चालु रक्खे, यद्यपि निश्चय करलेना चाहिए कि उसे क्या करना वह तीन दिखाऊ विरोधो लक्षणोंसे चिन्हित है, है (बुद्धि का कार्य), अपने आपको जान लेना तो वह एक आत्मिक स्त्रमाववाली माना जाना चाहिए (अहंकारका कृत्य) और तब आने चाहिए । बाह्य विरोध तीन गुणों का केवल उसी आपमें कप कपसे विकाश करते चढ़े जाना आत्मिक प्रकृतिका तीन विमिन्न मार्गों द्वारा चाहेए अपने स्वमानु (Self-realisation) व्यक्त करना है। कोई मुख्य विकाप्त नहीं के स्थूल कारणोंको, अर्थात् इन्द्रियों, आवश्यनिकल सक्ता है यदि यह माना जाय एक संघ. क्ताओं, तत्वों (Elements) को इस प्रकार एक पका मुर्दा खेत विविध मुख्य गुणों के मध्य । उत्तम और विशेष विशालवर्णन विकासक्रमका
विकास परिणाम पर मानेसे विदित होता है प्राप्त हुआ यदि प्रकृति आत्मिक मानी नावे । कि प्रथम महत-तत्व वा बुद्धि (Intelligence) और यदि फलतः विकाश परिणाम उसके समानु है-पौद्गलिक अणु, पत्थर वा अन्य कुछ (Self-realisation)के कारण समझें मावे । स्थूल पदार्थ नहीं बल्कि कुछ आत्मीक यह भ्रान्तवादकी प्रकृतिकी मान्यता अवनरूपका दूसरा विकास परिणाम ( Evolute ) नीय है और प्राचीनकालमें इससे अनिभिज्ञता भी कुछ कुछ आत्मीक है अर्थात् अहंकार वा नहीं रही होगी। इस प्रकार एक त्रुटिहीन प्रयत्न स्वयबोध (Self-consciousness) तब इंद्रियों प्रकृतिको आत्मिक बनाने का किया गया है पंच आवश्यक्ताएं और क्रमशः तत्व आते हैं। और उसीद्वारा, जैसे कि वह था, सांरूप सिद्धायह विकाशक्रम निरर्थक और स्वाधीन होगा न्तको कथोपनिषेत्र तृतीयबल्ली, १०-११ के यदि प्रकृति एक शुद्ध पौद्गलिक शक्ति मानी इस उल्लेखनीय लेखमें वेदान्त स्वरूप देना है। जावे । कारण कि महत-तत्व और अहंकार "इंद्रियोंसे उच्च उद्देश्य (Objects) हैं; उद्दे. निश्चितरीत्या आत्मिक तस्व है। और यदि श्योंसे उच्च मन है; मनसे उच्च बुद्धि है। बुद्धिसे
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(१०) उच्च उत्कृष्ट व्यक्ति है; उत्कृष्ट व्यक्तिसे उच्च सांख्यमतानुसार आत्मा परिवर्तनरहित और अप्रकाश्य (Unmanifested) है, अप्रक श्यसे पूर्णतया निवज (Passive) है । जैन सिद्धा. उच्च आत्मा है । आत्मासे उच्च कुछ नहीं है। न्तानुसार वह अनन्त विकाश और यह सीमा है-अंतिम ध्येय है।" पूर्णताकी शक्तियोंका धारक है और
जैन सिद्धान्तका सम्बन्ध नितान्त विभिन्न है। सदैव क्रियावान है । फक्तः हमें अर्हत यहां अचेता पदार्थ का सिद्धान्त एकसे अधिक मगवान के सिद्धान्तोंको एक यथार्थ दर्शन मानना ही नहीं है वरन ऐसे सर्व सिद्धान्त अनःत्मिक चाहिए जो कि एक आलोचनात्मक भावसे प्रारंभ हैं। यह सम्मा है जैसे हम देख अ.ए हैं कि होता है, सूफीमनसे भी गहरा पैठता सांख्यके अचेतन पदार्थ का सिद्धान्त आत्मिक है और अन्य भारतीय दर्शनोंकी बनाया जा सकता है परन्तु जैनसिद्धान्त कमी भांति अपने निजी विचार, नियम मी नहीं। यही सिद्धान्त पौद्ग लेक' अणु हैं और तत्वोंको निर्मित करता है। (हल्दछ) । धर्म अधर्म के दो सिद्धान्त, काल और यह कहा जा सक्ता है कि जैन और वैशे. आकाश-सर्व पुद्गल हैं अथवा पद्गलकी पर्याय हैं। षिक दर्शन एक दुसरेके अति सदृश हैं और एक (Sincqua now ) जैनधर्ममें आत्मा भी एक दूसरे पर सरल रीत्या घटित की जाती है। मस्तिकाय मानी गई है अर्थात किसी परिमाणको अणुओं, आकाश, काल और धर्मके सिद्धांत एवं लिए हुए । उसमें लेश्या भी मानी गई है और आत्मा का सिद्धान्त दोनों ही धर्मों में अनुमानतः यह अत्यन्त अल्पपरिमाण ( Light ) और एक समान हैं। तौ भो भिन्नताकी बात कुछ उगमन स्वभावको रखनेवाली मानी गई है। कम दर्शनीय नहीं है । भरने बहुसंख्यक सिद्धाप्रत्यक्षतः यह सर्व सांख्य सिद्धान्तोंके विपरीत नोंकी परवा न करती हुई वैशेषिक फिलासफी है और यदि कपिल का सिद्ध न्त, जैसे हम देख परमात्माका एक सिद्धांत मानकर (Monistic) धुके हैं, भ्रान्तवादके मिनटतर है, तो अनसि- चक्र खा जाती है जब कि जैनधर्म अंततक बहु द्धांत किसी किसी समय द्वादके निकट संख्यावाद (Pluralistic) है । पहुंचा ज्ञात होता है ।*
-सम्पूर्ण करने के लिए अवश्य ही जैन सिद्धा___ यह इस प्रकार है कि हम देखते हैं कि जैन इतके कुछ तत्व बौद्ध, वेदान्त, सांख्य और वैशेधर्म मुख्यतः सांख्यसे विपरीत है। और उससे षिक दर्शनों के (दृश हैं परन्तु इससे उसके स्व. नहीं लिया जा र.क्ता है। नहीं, कतिपर बातोंमें तंत्र निकास और स्वाधीन उन्नतिमें कोई बाधा दोनों दर्शन एक दुसरेका विरोध करते हैं। जैसे नहीं पड़ती है। यदि अन्य भारतीय दर्शनोंसे * यहां फिर लेखकको यह जतलाना आव.
इसमें स. १३१ मी पए जाते हैं तो इसके अपने श्यक प्रतीत होता है कि यह उसका मत नहीं है निनी विशेषण और उल्लेखनीय भेद मी हैं। कि महा भ्रान्तबाद है. अथवा जैनधर्म पुद्गलवाद। अनुवादक-कामतापसाद जैन-देहली।
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_दिगंबर जैन । नोट-एक विद्वान् बंगालीके दर्शन संबंधी हम दीर्घजीवी कैसे मुकावलेके अंग्रेजी लेखका अनुवाद करना कठिन कार्य है । यद्यपि अनुवादकने बहुत सावधानी
होसक्ते है। की है तब मी त्रुटि रहमानी संमत्र है। जहां आस्मा वै पुत्रनामासि स जीव शन्दः शतम् कोई भ्रम पड़े असली लेखसे मिला लेना चाहिये। (निरुक्त ३ । ४ ।) ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताबद्यपि लेखकने कहीं २ कुछ स्पष्ट नहीं लिखा च्छुक्रमुच्चरेत् पश्येम शरदः शतं जीवेम शरः है जैसे:धर्म, अधर्म, अाफाश, काठको पुद्गल शत शृणुयाम शरदः शतं प्रबवाम शरदः कहना । इनको बाजीव लिखना था तथा पुरलसे शतमदीनाः स्याम श-दः शतं भूयश्च शग्दः मिन्नता बतानी थी। तो मी ले वने जो जैन शतात् । (यजुर्वेद अध्याय ३६ मं० २४) दर्शनको बौद्ध, चार्वाक,वेदान्त, नैयायिक, सांख्य इन दोनों वचनोंसे विदित है कि मनुष्की व योगके अपूर्ण सिद्धांतोंके मुकाबले में पूर्ण व साधारण आयु सौ वर्षकी है। विलायतके प्रसिद्ध बुद्धिप्र ह्य दिखलाया इसके लिये हम लेखकके डाक्टर सर जेम्स क्रिस्टन ब्राउन लिखते हैं किसुविचारके कृतज्ञ हैं। लेखकने जैन सिद्धांत "मेरी समझ में मनुष्यको अपनो आयुकी अन्तिम को स्वतंत्र सिद्धांत प्रगट किका है। यदि लेखक सीमा तक पहुँचने का प्रयत्न करना चाहिये । " जैन धर्मके ६ द्रव्य तथा सात तत्वोंकी महत्वता डाक्टर पठारेंसकी तरह मैं भी जीवन की सोमा अन्य दर्शनोंसे मुकाबला करके बताता तो और सौ वर्ष मानता हूँ । इससे स्पष्ट ज्ञात होता है मी उत्तम होता । लेखकने यह तो स्पष्ट बता कि प्राचीन और नवीन आयु सीमा सम्बन्धी दिया है कि जैनमत बौद्धमतसे नहीं निकला विचारों में कोई विशेष अन्तर नहीं। परन्तु बौद्ध मतको मी जेन मतसे निकला नहीं यह अभिलाषा प्रत्येक मनुष्य के हृद में माना है । इस बातपर लेखकको पुनः विचार पायी जाती है कि यह स्वास्थपूर्वक बहुत काल करना चाहिये । संभव है क्षणिक बाद पूर्वसे तक जीवित रहे । वह वृद्धावस्थासे डरता है। हो पर बौद्धधर्मका ढांचा जैन धर्मसे ही कुछ प्रसिद्ध कवि शेक्सपियरके वचनों में (Sous लेकर घड़ा गया है। गौतम बुद्धकी जीवनी teeth, sauseyes, sause taste, sausa बौद्धधर्म स्थापित किया ऐसा बताती है । यद्यपि everything) दात, आँख और स्वादादिरपूर्व में गत बुद्धोंका मी वर्णन करती है परन्तु हित शैशवकालको फिर दूसरी बार कोई प्राप्त गौतमको जन्नसे बुद्वमती नहीं मानती है। होना नहीं चाहता है। लेखकने अपने शुद्ध भावसे जैन दर्शनका महत्व प्रश्न यह है कि किस प्रकार हम जीवन प्रगट किया है । इस लेखकसे और मी लेख व्यतीत करें, जिससे वृद्धावस्थामें भी हमारी प्राप्त कराने चाहिये । लेख मनन योग्य है। इन्द्रिया साधारणतया कार्य करती रहें। इसके
ब्र० शीतलप्रसाद। उत्तरमें डा. कहेंगे कि बलवर्द्धक दवाएं सेवन
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करो । वैद्य कहेंगे कि पौष्टिक पाकादिका सेवन 1 करो और ज्योतिषी उपदेश करेंगे कि नवग्रहशान्ति करने में समर्थ हो, परन्तु दीर्घायु प्राकृतिक नियमों के पालनपर निर्भर है। उन नियमका ज्ञान प्राप्त करना हमारा प्रथम कक्तव्य है। मनुष्य जीवन के लिए वायु अत्यन्त आवश्यक हैं। मनुष्य बिना जलके घंटों भी सकता है, परन्तु विना वायुके एक मिनट भी जीवित नहीं रह सकता । शुद्ध [ वायु मनुष्यको स्वस्थ बनाती है और अशुद्ध वायुसे वह रोग ग्रसित होजाता है। इसी कारण नगरके रहनेवालोंकी रूपेक्षा ग्रामीण अधिक पृष्ट और बलशन होते हैं भारत की जन संख्या ९९ प्रति सैकड़ा ग्रामों में निवास करती है । प्राचीन " समय में नगरोंकी मी संख्या बहुत न थी ।
बासे उतरकर दूसरी आवश्यक वस्तु जल है । जल के ऊपर भी मनुष्यका स्वास्थ्य निर्भर है । भशुद्ध जल रोगका कारण है । प्रत्येक स्थानके जल में भेद होता है । पञ्जाबके जल में पाचनशक्ति अधिक है । बङ्गाउका जल अधिक पृष्टिकारक नहीं है, बल्कि मैलेरियादि जरोका उत्पादक है | किसी मनुष्य शरीरकी रचना और उसके माता पिताके शरीरकी रचना देशके जल, वायुपर निर्भर है । परन्तु फिर भी ईश्वर ने मनुष्यके हाथमें स्वास्थ्यकी बागडोर देदी है। " रसामुमांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राणि धातवः " ये ही सात धातुयें हैं । इन्हींसे शरीर बना हुआ । इनमें प्रधान और सबसे अनमोल वीर्य है। कहा गया है कि जो वीर्य्यको रोकता है वही वीर है । वीर्यकी महिमा कौन नहीं जानता । जो इस रत्नको नष्ट करके आरोग्यता की अभि
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लाषा करता है, वह विना बुनियादके मकान खड़ा करना चाहता है । मनुष्यकी आयु इप बातपर निर्भर है कि उसने कितने समय तक ब्रह्मचर्य धारण किया है। ब्रह्मचर्य कालसे आयु चतुगुंगी होनी चाहिए। यदि ब्रह्मचर्य का २९ वर्ष तक यथार्थ पादन किया है तो कोई कारण नहीं कि आयु सौ वर्ष की क्यों न हो। इसका यह अर्थ न लगाना चाहिए कि यदि जीवन मर ब्रह्मचारी रहे तो वह फिर मरे ही नहीं, परन्तु इतना सत्य है कि ५० वर्ष का अखण्ड ब्रह्मचारी दो सौ वर्ष तक जीवित रहसकता है । हाँ, अकालमृत्युका ग्रास तो मनुष्य हर समय बन सकता है । यदि २९ वर्षसे पहले जिसने वीर्य नष्ट कर दिया है, वह चाहे जिस आयु में मरे | उसकी मृत्यु असमय नहीं कहला सकती। कारण, यह कि उस समय धातु परिपक्व नहीं होती । ऐसे पुरुषकी आयु ६० या ७० वर्ष ऊपर नहीं जासकती । आयुकी दीर्घता इस बात पर भी निर्भर है कि गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके हम नियमपूर्वक रहते हैं या नहीं । २९ वर्ष के ब्रह्मन के पश्चात् यदि मनुष्य दुर्भाग्यवश व्यभिचारी होनाय तो वह सौ वर्षे तक जीवित नहीं रहसकता । दूसरी ओर वह मनुष्य जो सामाजिक दुरवस्था या किसी अन्य कारण से २९ वर्ष से पूर्व ही ब्रह्मचर्य नष्ट करचुका है, परन्तु अपना भविष्यका जीवन नियम पूर्वक व्यतीत करे तो वह वृद्धावस्था में भी बढवान् रहेगा और चिरायुको प्राप्त होगा । पञ्चविंशे ततो वर्षे पान् नारी तु षोडशे । समत्वागतवीयौ तौ जानीयात् कुशलो भिषक् । (सुश्रुत सूत्रस्थान ३५ अध्याय)
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. छान्दोग्योपनिषद् प्रपाठक ३ और खण्ड १६ लिये एक प्रसिद्ध अमरिकनका उत्तर पर्याप्त सम. में भी उत्तम ब्रह्मचर्य का काल ४८ वर्ष लिखा झते हैं। उत्त अमरीकनका कथन है कि "मादक है। विवाहके पश्च त् विधिर्वक रहना योग्य है। वस्तुके सेवकोंकी बुद्धि पहिले हो नष्ट हो जाती ऋतुकालामिगामी स्थास्वदारनिरतः सदा । है। वे इस बातको नहीं समझ सकते कि अमुक
(मनु० ३ । ४५ ॥) वस्तु हमारे लिये विषेलो और हानिकारक है । यदि मनुष्य ऋनुगामी नहीं रहता, तो इसका उसका पद एक प्रकारकी धूम है निसको पाकर अर्थ यह है कि वह पशुओंसे भी गया बोता हम उस विषैली वस्तुके सेवनका समर्थन करते है और यदि युवावस्थामें ही वाधीयको प्राप्त हैं। मदिराके उपासक संसारमें सबसे अधिक हैं।" हो तो क्या आश्चर्य है ?
इसके विषयमें केवल इतना ही कहना आवश्यक अब खानपानका विषय आता है। दीर्घ नीवी है कि 'जाति सुरा, विद्या सुरासुरा स्वर्गको घाम' होनेके लिये मोनन की कोई तोल नहीं बतलायी के भक्त योरुप और अमेरिकामें बहुत हैं। परन्तु जासकती। ठंडे देशवाले गरम देशवालों की वहाँसे भी ब्रह्मांडी (रांडो) देवीको प्रतिष्ठा उठ अपेक्षा अधिक अन्न पचासकते हैं। आहार मी रही है। देश देशकी उपन और जल-वायुपर निर्भर है। अब अन्तिम और सबसे मुख्य विषय व्यायाम मांसाहारी यह कहेंगे कि मांस तो सब काल का है। मनुष्य का शरीर काम करने के लिये बनाया और सब देशों में सेवन करने योग्य है। इस गय है। जो हाथ पैर नहीं चलायेगा, उसके शरीरमें छोटेसे निबन्धमें उनके मतके विरुद्ध आवस्यरूपो काई लग जायगी । इसी कारण प्रमाण देना अनुचित जान पड़ता है। जिनको महात्मा ईसाने कहा था कि 'Earu thy buad इप्स विषय में कुछ ज्ञान प्राप्त करना है वह by the Sreet of thy brow' अपनी रोटी विलायतके प्रसिद्ध डाक्टर अलेकरडर हेग-रचित मेहनत करके कमाओ। विलायतके प्रसिद्ध नाटकप्रन्थों का अवलोकन करें । इस वातकी पुष्टि में हम कार ब्रेडशाने कहा है कि "स्कूल, कचहरी, संसारके प्रसिद्ध शाकाहारियोंके कुछ नाम देते दफ्तर और फैक्टरी इत्य दिब कारागार हैं।" हैं । मनुभगवान् , महात्मा बुद्ध, महावीर, सुकरात जिनको इन कारागारों में शुद्ध वायु नहीं मिलती अरस्तु, सिनोजा, बालटायर, गोल्डस्मिथ और हैं, उनको चाहिये कि वे प्रातःकाल अथवा शूपिनहार इत्यादि महानुभाव मांसाहारीके विरुद्ध सायंकाल कासे कम पां: चार मीश टहला करें । थे। शीतल जके अतिरिक्त मदिरा, तम्बाकू, यदि अवकाश न हो तो डंड, बैठक, डेम्बल चाय, ककेवादिक मादक वस्तुओं का उपयोग मुग्दादिकसे व्यायाम किया करें । एक स्थान सर्वथा त्याज्य है। संसार में प्रत्येक मादक वस्तुके पर बहुत देर खाली बैठे र इनेसे मनुष्य का शरीर लाम सुनानेवाले 'महानुपाव' प्रत्येक देश और स्थूल और शिथिल हो नाता है। यही कारण है प्रत्येक जातिमें मिल सकते हैं। हम उन मनके मज़दूर दुकानदारों को अपेक्षा कम मोटे, परन्तु
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दिगंबर जैन ।
(२४) अधिक बलवान् और नीरोग्य होते हैं। समानके बन्धन, समानके शासन और देशज्ञान
अन्तमें यह कहना आवश्यक है कि दीर्घायु इन सबसे पतित होकर स्मार्थपरायण होगये किसी एक नियमके पालनपर निर्भर नहीं। यह हैं । इसी कारण आज हम सब अपने अपने जल, वायु, यो र्यरक्षा, खान-पान, व्यायाम और मनमाने कार्योंके करने में स्वतन्त्र होगये हैं। नीरोग्यताके अन्य नियमोंके पालनपर निर्मर है। इसीसे समानका शरीर गलकर नष्ट-भ्रष्ट माग्यपर विश्वास करनेवाले यह कहेंगे कि- होगया है। अयुः कर्म च वित्तं च विद्या निधनमेव च । ५-हमारे पानवें ज्ञानका विषय होना चाहिए पञ्चतान्याप सृज्यन्ते गर्मस्थस्यैव देहिनः ॥ शिक्षा । हम नित शिक्षाके मोहसे मुग्ध होरहे
यदि आयुका मापके अधीन होना मी सत्य हैं, जिसके जालसे समस्त मारतीय समान और मान लिया जाय तो मी इन नियमों के पालनसे मारतीय जीवन बँधा हुआ है, वह शिक्षा मनुष्य दुर्बल, रोगी, आलसी और दुःखी नहीं प्राकृतिक शिक्षा नहीं है । वह वास्तवमें पाशरहेगा।
"वैद्य" रूप है और दासताकी जंजीर है। योग्य
डाक्टर, वकील आदि ढालनेके लिये तो क्या चाहिए ? यह शिक्षारूपी मशीन ठोक हो सकती है, १-हमारे देशके प्रत्येक मनुष्पको यह ज्ञान किन्तु इससे पूर्वकालकी शिक्षाकी समान शरीर, होना चाहिए कि हम अत्यन्त दरिद्र हैं और मन और भावों में स्फूर्ति उत्पन्न नहीं हो सकती। दरिद्रताके कारण ही हम चिररोगी हैं। रोग आधुनिक शिक्षाने बाजीगरकी समान सृष्टि रव
और दारिद्रव्य । आपसमें अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध रक्खी है । इसके कठपुतलीकी सपान हाथ तो है। रोगी शब्दका अर्थ है-"जीते ही मरना है, पर काम नहीं करते । नेत्र हैं पर देख नहीं
२-तमको यह ज्ञान होना आवश्क है कि सकते । कान हैं, किन्तु सुनते नहीं। हम मिन रोगोंसे ऊनड़ होते जाते हैं, वे सब भारतवासियोंकी नस नसमें इस बातका ज्ञान निवार्य हैं और पृथ्वी में वे सदासे हैं, किन्तु होना चाहिये कि नि शिक्षापर मारतबाप्ती स्थायी रूपसे कहीं नहीं रहने पते । केवल हमारे मुग्ध होरहे हैं, वह शिक्षा तब मनुष्यों को पङ्ग, देशमें ही वे चिरस्थायी प्रबन्ध करके आये हैं। मूह और बड़बुद्धि बना देती है। इतनेपर मा
३-हमें तीसरा ज्ञान यह होना चाहिए कि इस शिक्षाके लिए हम लोग दलदल में फंपते चले धर्मके नामसे निन देशाच रोंकी जड़ जमी हुई नारहे हैं और स्कूल, काले नोंमें रिश्वों देदेकर है, वास्तवमें वह धर्म नहीं है। वह हमारे लिए उसकी दीवारको हद कर रहे हैं। पाशरूप है।
६-हमारी छठी अनुभूति यह होनी चाहिए ४-हमारे चौथे अनुभाका विषय होना कि-संसारमें कपसे हमारा नाम विख्यात हो । चाहिये-अपनी अवस्थाको जानना । हम धर्म, हमारे पितृ-पितामहादि कैसे योगी थे, कैसे
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( ૧૨ )
યાળી છે, જેણે થવી થે, વૈસે નહીં હૈ ।
और हमारी सन्तानें हमसे भी अधिक निकट अधोगति के उन्नति ।
हैं । इसके लिये इस समय मन्दाग्नि, प्रमेह, क्षय, मलेरिया, इन्फ्लुएञ्जा आदि रोग हमें सदा ही चारों ओर से घेरे रहते हैं ।
આજે અમાસ અને રવીવાર હાવાથી મુંબઇમાં ઘણા બજારા બંધ હતાં. ઓરીસે। અને એ કા પણ બંધ હતી એટલે કામકાજ નહેાતું. દિત્રસે
મો યહૈં જ્ઞાન હોના વિશે આપ હૈ તેમ રાત્રે નાટકના ખેÀા હતા, પરંતુ આજે
कि वायुं ही यथार्थ प्राण है । अन्न ही प्राकृत क्षी हैं और गौ ही प्रकृती माता है ।
દુમારે ઢેરા પ્રત્યે મનુષ્યો ય યુદ્ધ होनी चाहिये कि स्वास्थ्य सम्बन्धी ज्ञान केवल વિજિજ્ઞાસા હી સેવકે નહીં ?, પ્રદ્યુત ફેશ सभी मनुष्य स्वास्थ्यके विषय में जब एक साथ ध्यान देंगे तभी हमारा कल्याण होगा अन्यथा
“શ્રી ગુજરાત દિગંબર જૈન યુવક મડળ'ની પાક્ષિક સભામાં” જવાનું હોવાથી નાટકમાં જવાને વિચાર મુલત્વી રાખ્યા હતા, અને કાઇ સેખતી જે તે ચોપાટી કે પાલવે જવાતા વિચાર હતા. એટલામાં અચાનક કાન્તિલાલ મળ્યા અને મે બંને શાથે પાલવાને કારે કરવા ગયા, અને
એક માંકડા પર બેસી દરીખની ઠંડી લડેરાનાં મેજા નીહાળતા હતા, એટલે વાર્તાલાપ શરૂ થયેા.
કાન્તિલલિ—કેમ ભાઈ શાન્તિલાલ, આટલા દિવસ માં ગયા હતા ?
નીં ।
'
हमारी यह धारणा होनी चाहिये कि भारतवासी अकर्मणय नहीं है, जुरारी नहीं, चोर નહીં, और असमर्थ नहीं है । जो लोग इन बातों को बहुत पुरानी बाते हैं, वे अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए ऐसा कहते हैं । वे हमारे मोगी शरीरको हाथी की समान स्थूल और हमारे જ્ઞાન વસ્તુઓંનો હાથી નોંની સમાન છોટા कर देते हैं । हमने इस समय स्पष्टरूप से इस बात का विश्वास कर लिया है कि आन यथार्थ सत्वको प्राप्त करने की शक्ति भी हममें नहीं है। बहुत दिनोंके पुराने कैदी के छूटनानेपर भी सहसा ग्रह विश्वास नहीं करा सकता कि वह मुक्त | કુંતી પ્રજાર દવારો પ્રતિ હૈ ।
66 वैद्य
=
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શાન્તિલાલ ભાઈ કાન્તિલાલ, તમે જાણતા હશે. કે હું બાલીસણામાં મળેલી શ્રી દિગંબર જૈન હિત વ ક સભાની બેઠકપર દેશમાં ગમે! હતા. ત્યારથી દેશમાંજ હતા એટલે મળી શકો નહાતા.
પ
ના
ગયા કાન્તિલાલ~~સભામાં સમાચાર તે સમજાવે કે નાહક ગાડીમાડાં ભરી પાછા આવ્યા અને દાઢ રૂપી મેા ચાંલ્લાના
આપી આવ્યા એટલુંજ.
શાન્તિલાલ—બન્યું તેા એમજ છે. સમાં દરરે:જ બેચાર ભાઇના ભાષા થતાં તે શાન્તિથી સાંભળવાને બન્ને કલાકો ખોટા ધેટ કરતા . હતા એટલે ખેલનારને કે સાંભળનારને રસ પડા નહેાતે, તે ત્રગુ દિવસની એડ઼ક તેમાં જમણુનું આમંત્રણ આપ્યું તે સ્વીકારવું કે નહિ તેની ભાંજગડમાંજ એ દિવસ ગયા એટલે બીજું ક૪ કામ થયું નહિ, અને બે દિવસના રૂ।. ૪૦૦)ના ખર્ચ ફોગટ ગયા. ઊપરી લેનારે ઘેાડાઓની ચઢી (દાણે) આપવાના અને મૌડ઼ા માં જલેબીના વધારા
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(૧૬,
કરી જ્ઞાતી સુધારા કરવાને બદલે સુધારાના વધારા થયેા. તે સામે ભાઇ મણીલાલ ચુનીલાલ કાહારીએ સખત વિરોધ કર્યો પશુ આ બેઠકમાં તેા બ્ય ગયા.
કાન્તિલાલ—ભાઇ શાન્તિલાલ, આપની વાત સાંભળી મને બહુ દુ:ખ થાય છે. દરેક સમાજ વાઇ આગળ વધે છે, ત્યારે આપણી સમાજને ળવતાં કેટલાં વર્ષ થશે તે કલ્પી પણ શકાતું નથી. કહે છે કે જ્ઞાતિમાં કુધારા છેજ ક્યાં અને કદાચ હાય તે તે આપણા પંચથી દુર થઇ શકશે. સભાના હાથમાં સુધારા કરવાની સત્તાજ શું છે?
શાન્તિલાલ ભાઇ કાન્તિલાલ, આપની સમજફેર થાયછે. હુ કબુલ કરું છુ કે આપણી જ્ઞાતિમાં પહેલા કરતાં . કેટલાક સુધારા થાય છે. તેમ ખીજી જ્ઞાતી કરતાં આપણી જ્ઞાતિનું અધા. રણ અને નિયમા ઊત્તમ છે. અને પંચ મારત સુધારાઓ થાય તે તેની અસર સારી થાય તેમ છે. કેટલાક કુધારાએ પેવા છે કે આપણી સુભા માકૃત અગર આપણે પણ દૂર કરી શકીએ તેમ છીએ.
કાન્તિલાલ—ભાઇ, આપનું કહેવું સત્ય હશે. આપ કહેા ા તેમ કયેા સુધારા થઇ શકશે તે સમજાવશે?
શાન્તિલાલ—પ્રથમ આપણી જમહુવારા તરફ દૃષ્ટિ કરીએ તા જાશે કે આપણુને જમવાર જમાડતાં અને જમતા આવડતુ નથી અને તેથી આપણી જમણુ નંદને બદલે અશાન્ત નીવડે છે. જો જમાડનાર બરાબર વ્યસ્થા રાખે અને જમનાર સતેષ અને શાન્તિ રાખે તે જમ વારા આનદદાયક થઇ શકે. ભાઇ બરબર રિચાર કરતાં જણાશે કે આપણી જમણુંવારાને મનુષ્યાના સમેલનને બદલે પ્રાણીઆના મેળા કહી શકાય. આ કહેવુ તે આપા માટે યોગ્ય છુ નથી પણ્ તમેા કબુલ કરશેકે તેમાં લેશ ભાર પણ અતિશયક્ત નથી તેમ જમણુવાર કરનાર એકલાના પણ દોષ નથી. માત્ર સમુહ તરફથી મદદના અભાવે પાંગળા એટલે શુક્ત જેવા હાય
છે. જો આપણામાંના દરેક જણ આમ માતે તા આપણે એકત્ર રૂપે અશક્ત કે પ્રમાદવાળાને દાડાવી શકીએ.
ક્રાન્તિલાલ—ભાઇ, આપનું કહેવું સત્ય છે. પરંતુ આપણે ત્યાં જમવારમાં હાલ તુરંત કેવી રીતે કયા કયા કુધારાઓ દૂર થવા સ ંભવત છે તે સજાવશેા,
શાન્તિલાલ (૧) આપણી, જમણવારામાં ચેખલા પ્રતિષ્ઠાના જમણુમાં તા બિલકુલ નિયમ સચવાતાજ નથી. જેમ આવે તેમ બેસે. જમવાનું હાથે પણ લઈ આવે અને જમીને ચાલતા થાય.” નાનાં ગુંચળા વળી એસે, પરંગત જેવું કાંઇ જાયજ નહિ. આવી રીતની જમણુવાર આપણી કામને હિપ લગાડે તેવી છે માટે તેમાં સુધારી કરવાની જરૂર છે. ન્યાત, પાખી અને ખીજાં જમણેમાં ૫ગતે પાડવી જોઇએ આવે તેમ જમે અને ચાલ્યા જાય નાશ થવા જોઇએ.
એ રીવાજના સદંતર
.
(૨) પુરૂષા અને
સ્ત્રીએ તેની દ્વારા જુદી જુદી પાડી પુરેપુરી ૫રંગત મેસે ત્યારે પીરસાય અને દરેક ચીજો તેમજ પાણી દરેક ભાણે પહોંચે તેવી તજવીજ કરવા જો એ. હાલની ચાલુ રૂઢી અને ઢવાડ ની ઢી ફેર છે એમ કાઇ કહી શકે નહિ.
(૩) પ્ગત જમી ઉઠે ત્યાં સુધી પીરસનારાઓ •ધી વસ્તુએ પંગતમાં ફેરવે જય અને ધા માસા જમી રહે ત્યારે બધાએ સાથે ઊઠવું-તે પહેલાં વચ્ચેથી કએ ઉઠીને જવું નહિ. કારણ હાલની રૂઢિને લીધે જમનારાએ પાછળથી નહી પીરસાય એવી ગણુત્રીથી ભાણાંમાં વધારે લે છે અને છેવટે એંઠું મુકે છે તે ઉપરાંત કેટલાકા જે શાન્ત પ્રકૃતિના હોય કે પીરસનારાઓને ઓળખતા નહિ હાય તેના ભાણે કેટલીક વસ્તુએ પહોંચતી પણુ નથી અને જ્યાં પીરસાય છે ત્યાં ઠેકાણું પણ હેતુ નથી એટલે ખાવુ થાડુ અને બિગાડ ઘણા થાય છે.
ચે.ખાલાના જમણુમાં સવારે સાતથી રાતના આ સુધી ગમે તેટલી વખતે જોઇએ તે
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વખતે જમવા જાય તોપણ જમાડવાનો રીવાજ છે, એટલે ન્યાતમાં મારે પણું જમવા જવાનું હતું. તે બંધ કરી “સવારે ૯ થી ૧૨ અને સાંજે જમવાનો વખત થયો એટલે બધા રેશમી પીતાંબર ૪ થી ૭ સુધી” જમાડવાને ટાઇમ નક્કી થાય અને અબેટીયાં પહેરી ગળે રેશમી રૂમાલ બાંધી તો જમણુ કરનારને, પીરસનારાઓને અને જમના- જતા હતા એટલે મારે પણું પીતાંબર પહેરવા રાઓને સગવડ થાય અને બિગાડ થતો અટકે. અને જમણુ બદલ કેટલીક વાતચીત થયેલી તે
કાન્તિલાલ–આટલા સુધારાઓ તુરત થઈ સાંભળશે એટલે જણાશે. શકે તેમ છે. માત્ર રિવાજ અને પહેલ કરવાની નગીના-કાન્તીલાલ-ભાઈ, આ પીતાંબર જરૂર છે. એટલામાં એક વિકટોરીઆમાં નગીનદાસ
પહેરો કારણ તે મારા દેશની શેફક માહીંયા ઘેટીયું અને તીલાલ આવી પહોંચ્યા અને તુરતજ પહેરી પંગતમાં બેસાશે નહિં. નગીનદાસે કહ્યું-કેમ ભાઈ શું ગપાં ચાલે છે ? કાતી-અરે ભાઈ ! તમારા રેશમી
શાન્તિલાલ–એ તો હમારી જમણવારોમાં પીતાંબર કરતાં હમારૂ ધાતીયું હજાર કયા કયા કુધારા છે અને તે કેમ દૂર કરી શકાશે ઘણું ઉત્તમ છે કારણ એક પીતાંબરનું રેશમ તેની શોધખોળ ચલાવીએ છીએ. કેમ તમારે ઉત્પન્ન કરવામાં કેટલા કીડાઓની હિંસા થાય છે ત્યાં કંઈ તેવું છે ?
તેનો વિચાર કરો, જ્યારે હમારા હૈતી આમાં શુદ્ધ જયન્તીલાલ-વાહ ભાઈ શા-િવલાલ, સુતર વાપરેલું છે એટહું શુદ્ધ સુતર ઉત્પન્ન કરતાં તમે કેવી ભૂલ કરો છો. અરે આપણામાં સર્વથી બીલકુલ હિંસા થતી નથી. તમારા પીતાંબર સુધરેલું શહેર તે સુરત ગણાય છે. જ્યાં દાન- ભાગ્યેજ દેવાતાં હશે ત્યારે હમારા ધે તીયાં વીર જૈનકુલભૂષણ માણેકચંદ શેઠ જૈનનરરન દરરોજ ધોવાતાં હે થી શુદ્ધ રહે છે એટલે થયા છે અને દિગંબર જૈન, જૈનમિત્ર જેવાં છેતી કરતાં પીતાંબર ઉત્તમ છે તેમ તેમ પત્રે પ્રગટ થાય છે. તેમના વિદ્વાન સંપાદક પણ કબુલ કરશો નહિ, અને પ્રકાશક મુલચંદભાઇ જેવા સાહસિક, જ્ઞાતિ નગીન-તમારૂ કહેવું સત્ય છે, સુધાસ તરફ હંમેશાં ધ્યાન ખેંચે છે ને દેશ સેવા રીવાજ હેવાથી હાલ તે પીતાંબર પહેરી જમવા કરવામાં પણ પહેલે નંબર છે તેમજ તેમના ચાલો. સાથી ભાઈ સરિયાજી જેવા સમાજ અને દેશ- કાન્તી –-ચાલો કહી હો સાથે પંગતમાં સેવક હોય ત્યાં કુધારા કે કુરિવાજનું નામ જ કયાંથી બેઠા ત્યારે વાડી માં પ્રથમ એક પંગત ઊઠેલી તે ની હોય ?
એંઠી થાળીઓ પડેલી હતી તે કેટલાક ભાઈએ નગીનદાસ ભાઇ જ્યતિ પીળું એટલું હાથોહાથ ઊપાડતા હતા અને તે ગલેશે બધુંજ સોનું છે તેમ કેમ કહેવાય ? આપણું (મજુરણ)ને આપતા તે થાળી માં ગેલણે જેવી
હુંમડ ” ના ત્રણે અક્ષર વાંકા કહેવાય છે તેવી નામની માછ બાપતી તે બીજાઓ ઊી પાડી એટલે સરેયાજી ને મુલચંદભાઈ જેવાઓની સખત લેતા તેમાં એંઠી તે રહેતી એટલે તેને બે અને મહેનત હોવા છતાં કુધારાનું જડમૂળ જવાને ઊપયોગમાં લેતા હતા તે જોઈ મને ઘણે પર હજુ ઘણીવાર છે. એ તે ઝાડને નામે ફળ વેચાય થતો અને આ વાત મુલચંદભાઈ ને સરૈયાજીને છે. કંઈ બધાજ વિદ્વાન અને સુધરેલા હશે તેમ જણાવવા જવું હતું કેમકે તેમાં તો આ જમણુમાં સમજતા નહિ.
જણુતા નહેાતા પશુ ટાઈમ થઈ જવાથી હમારે કન્તિી--અરે ભાઈ એ તો બાંધી મુઠી જ ગાડી પર ચાલ્યા ગયા. લાખની છે. હું થોડા વખત પર સુરત. નગીન નગીન–અરે ભાઇ, એટલું જ નહિ પણ ઘણે ને ત્યાં ગયા હતા ત્યારે ત્યાં જમણવાર હતી સ્થળે હજુ જ્ઞાતીમાં કેટલાક બીજા કુધારા છે.
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સિંગર ઐસા .
જેવા કે લગ્ન પ્રસંગે બે ત્રણ કે પાંચ ન્યાય કરી પૈસાને ટટો છે અને લેવા જુઓ તે ક્યાં મળે મંડપમાં રાંડ- વેશ્યાને બોરવી નાચ કરાવી તેમ નથી ? અને તેમાં એટલો બધે શું ખર્ચ હજારેના પાણી કરે છે, જ્યારે ધાર્મિક સંસ્થાઓ થવાનો છે કે આમ હિંમત હારી જાઓ છો. ને મદદ આપતાં ટઢ ચઢે છે.
જ્યન્તી– ભાઈ, ખર્ચની તે વાતજ નહિ શાન્તી-આવી નિર્લજ રૂઢીઓ તરફ કરશો. જુઓ સાંભળો.મણીલાલના લગ્નમાં ) સમાજનું દયાન ખેંચવા દિગંબર જૈન-અને જૈન ૫૯લા માટે ૩૦ થી ૩૫ તોલા સોનું ૨૫૦ મિત્રમાં જાહેર લખાશે કેમ નથી લખતા? તોલા ચાંદીના મળી રૂ૦ ૧૦૨૫) તે તેજ થયા.
નગીન–અરે પણ આંધળા આગળ પછી અમદાવાદ કપડાં લેવામાં ૨૫૦ થી ૩૦૦ આરસી'' જેવી વાત છે. હમારે ત્યાં કેટલાંક તે વરોડી અને ચાંલાના રૂ. ૧૫૦) અને માંડવે જાણતા પણ નથી કે સમાજનાં કયાં પડ્યા છે સગું આવે તેના ભેજન ખર્ચના રૂ૦ ૧૦૦) અને તે મંગાવી વાંચવાની માથાફેડ કરે શું મલી ૨૦ ૧૫૨૫) જોઈએ. નટવરલાલની વહુના મલવાનું છે તેવા વિચારના પણ છે એટલે વસંતમાં સોના ચાંદીના દાગીના અને કપડાનાં લખવું ફોગટ છે.
મતી રૂ૦ ૫૦૦) અમૃતલાલના મશાળામાં હારી શાંતી-ભાઇ, તમારી ભૂવ થાય છે. થોડા ઈજત આબરૂ પ્રમાણે આઠ દશ તેલાની કંઠી ધણ પત્રો મંગાવી વાંચશે અને તે બીજાઓને રૂ. ૫") ચલાના વહેચવાના રૂ. ૫૦) નાં કપડાં વાત કરશે તે પણ તેની અસર અવશ્ય થશે પણ ૨૦ ૧૦૧) રોકડા આપવાના મલી રૂ. ૪૫૦) થશે આજે જય તીલાલ તું કેમ ઉદાસ જણાય છે ! વસંત અને આણું તેડવામાં કપડાં ભેજન ખર્ચ
જ્યતી – ભાઈ, આજે દેશમાંથી કાગળ અને ચાલે વહેંચવાના રૂ૦ ૧૦૦૦) થશે વળી આવે છે તે વાંચે ત્યારનો શું કરવું તેના એક માસ પછી મણીલાલની વહુને તેડવા સારૂ વિચારમાં પડેલો છું એટલે તમારી વાતમાં મને પંદર માણસ તો ઓછામાં ઓછું આવશે અને તે રસ પડતો નથી. ખરેખર “ચિંતાથી ચતુરાઇ પંદર દિવસ રહેશે એટલે રૂ. ૧૦૦)ને ખર્ચ ધટે” એ કેહવત વારે માટે આજે સત્ય છે. મલી કુલે રૂ૦ ૩૫ડ૫)નો ખર્ચ આ સાલે છે.
કાન્તી–ભાઈ, જંરા સમા તે ખરા વળી આવતી સીલે નાનીનું લગ્ન લેવાનું છે તે કે એટલું બધું કાગળમાં શું લખ્યું છે કે આટલા ખર્ચ જુદું જ. બધા વિચારના સમુદ્રમાં ગોથાં ખાઓ છો? કાતિલાલ– આપે મણીલાલના લગ્નમાં
જયન્તી – શું કહું ભાઇ, કહેતા જીભ અચકાય ૩૦ થી ૩૫ તોલા સોનું ગણાવ્યું પણ આપણું છે છતો આપના આગળ કહ્યા સિવાય ટો પંચે હવે તે ૨૦ તોલા ૫રસામાં આપવાને પણું નથી. આ સાથે મણીલાલના લગ્ન થનાર ઠરાવ કરેલ છે તેમાં ૩) તાલા યુe છે. નટવરલાલનો વેવીશાળ થયો છે એટલે તેની બાકી રાખે છે એટલે ૧૭) તોલા જોઈએ તેને વહુનું વસંત મોકલવાનું લગ્ન પહેલાજ છે. બદલે બમણી બાદ કેમ કરે છે? લીલાવંતોને ભાગી અમૃતલાલનું પણ લગ્ન યતી–આપણા પંચે કાયદે બાંધ્યો છે થનાર છે એટલે મોસાળું કરવું પડશે. ચંપીનું પણ તે તેડવાની યુકિત આપણું આગેવાનોએ વસંત તોડાનું છે અને રતનનું આણું તેડવાનું તુરત શોધી કહાડેલી છે કે પાચ તોલાને નકર છે એટલે ખર્ચને કેમ પુગી વળવું તેનેજ દાગીને હોય તો ગામનું પંચ ચાર તાલા અકે વિચાર કરું છું.
અને લાખવાલે ૧૦ તેલાને દાગીને હોય ત્યારે નગીન –મારા સાહેબ, એમાં તે શું છે કે ૭ તોલા ગણાય. વળી મણીલાલને વેવીશાળ આટલા બધા વિચારમાં પડેલા છો. તારે માં કરતાં એક કંઠો ૫૯લા ઉપરાંત ખાનગીમાં વધારે
અને લાભ
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( ૨
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દિપાવર તૈના
આપવા કહેલી છે. કાં તો વસંતમાં ચડાવેલું ભપકો પણ હક રાખો હતે. ઘાસ અને અનાજ તે અંકાય નહિ અને પાછું લેવામાં શભા નહિ, મેંઘુ હોવાથી ગઈ સાલે ૪૦૦) ના ઘોડાં ૧૦૦૦) ચાંદીમાં પણ ૫૦) થી ૬૦) ભારના તોડા વટા” નું ખાઈ ગયાં અને તળીઆરે ખોટ જણાતાં વામાંજ જાય, એમ તેમ કરી ગામના પંચની આખરે વેચવા પર્યા. બહાર તે વીસ પચીસ રૂબરૂ ૩૦ થી ૩૫) તોલા સેનું લઈ ૨૦) તોલા હજારની આસામી ગણ્ય છે એટલે આબરૂદારમાં કાગળી ખામાં લખી કાયદા પ્રમાણે લીધાનું ગણે ય ખપવા ધરનું ખર્ચ ૫ વધારે હોયજ, અવસર છે. દરેક ઠેકાણે તેમ થાય એટલે ગુનેહગાર પણ પણ ખર્ચ મોભા પ્રમાણે કરેજ છુટકે. હવે કોણ ગાય અને આંખ આડા કાન કરી ચલાવે ઊગરાણી અને અનાજના મલી રૂ ૧૦૦૦) અને જવાય. કારણ રંડાપો તો રડો. કદાચ કન્યા બે હજારની રોકડ ને ૪૦૦૦) નાં ઘર મળી કુલ રંડાય તો આટલું હોય તે બાઈ બેઠાં બેઠાં ખાય ૧૭૦૦૦) નો અવેજ છે તેમાં ૧૦૦૦૦ તો દેવું એમ કહી ચલાવે જાય પણ સામા પક્ષના શુ થતા છે. ઘરની મુડી ૭૦૦૦) ની તે ઘર અને હશે હાલ તેને કેને છે વિચાર!
ઊયરાણી માં રોકાઈ ગઈ છે, તે હાલ આવે તેમ કાતિલાલ-વાહ ભાઈ, યુક્તિ તે ઠીક નથી. ૨ ૦ ૦ ૦) રોકડ છે તેમાંથી જે દેવાદાર તાકીદ હાથીના દાંત બતાવવાના જુદા અને ચાવ કરે છે તેને થોડા ઘણા આપે છે. બાકી વેપારમાં વીના દા” ત્યારે આમ કરવું હતું તે કાયદે મુડી ફેરવે છે. હવે ૨૦૦૦)મણ દાંણ હતા તેમાં બાંધતા કાને તેમને કેદમાં પુર્યા હતા કે આટલો ૮૦૦૦)ની મુડી હતી પણ અનાજના ભાવ બેસી બધો ખાલી મેટા ભાઈ બનવામાં વડાઈ માની ગયા છે, એટલે હાલ તે ૩૦૦૦) ઉપજે તેમ છે. બેઠા છે એ તે આજેજ જાણ્યું પરંતુ ૫૦૦) નું એટલે મુદલમાં પણ ૫૦૦) ની ખેટ છે અને વસંત અને મોસાળા થાય આ તે કયાંથી લાવી આ સાલે ૩૫૦૦)ને ખર્ચ કરવાને છે ને પાછું પુરું થાય. સમાજ આગેવાનો શ્રીમંત છે એટલે દેવું કરવું પડશે. એટલે “ પાવે પાવાને બધાજ શ્રીમંત હશે તેમ તેઓ જાણતા હશે હાથેજ ડુબશે ? એ કહેવત મુજબ શ્રીમંત પણ તેઓ શ્રીમંત સવે પોતપોતીકા ઘરના આગેવાને દરેકને શ્રીમંત જોઈ રૂઢિઓ વધારે હશે. કંઈ કોઈનું ચલાવી આપતા નથી ને પંચ- જાય પરંતુ “ ઘેર ઘેર માટીના ચુલા છે. ” તે માં તે સર્વે સરખા ગણાય છે તો શા માટે પંચ. તેઓને પણ દેખાશે એટલે ઠેકાણે આવી ના કાયદાનું ઊલંઘન થાય છે ?
સુધારો કરશે. શાન્તિ–ભાઈ કાન્તિલાલ, ગરમ થયે તારું
નગીનદાસ–ન્તિલાલની જ્યારે આવી
સ્થિતિ છે તો દેવું કરી વસંત અને આણું કે મારું શું વળનાર છે, આપણે ગમે તેટલાં ગળાં
તેડવાની શું જરૂર છે, જે બેસાડીશું તે નકામાં જ છે એ તો
નહિ તેડે તે નહિ જે કરતા
ચાલી શકે ? હશે તેજ કરવાના. ધાર્યું તેમનું જ થવાનું પણ
શાન્તી-ચાલી શકે પરંતુ બાપદાદાની સમય બદલાય છે. દરેક પિતાની ફરજ શું છે તે
ઇજત આબરૂને લીધે અને શ્રીમંતાઈનો ડોળ સમજે છે. આ કુરીવાજ દેખાદેખી વધેલો છે
બતલાવવા કરવું જ જોઈએ. જો તેમ નહિ કરે અને જેટલા ચઢયા છે તેટલાજ પડવાના. આપણું
તે લોકો સમજે કે તેમનું ઘર ઘસાઈ ગયું છે ભાઈ જયન્તિલાલ પણ બહાર તો શ્રીમંતની
એટલે તેમના છોકરાઓને કોઈ ભાવ ૫શું નહિ ગણતરીમાં ગાય છે પણ ગઈ સાલે રૂા.૪) પૂછે. પણ ભાઈ જ્યન્તીલાલ, તમો મણુલાલના. ના ભાવે ૨૦૦૦ મણ અનાજ લીધું હતું. વળી લગ્નમાં દાગીના તો મારા મામીને ચઢાવજો અને કાપડ કપાસ અને વ્યાજે ધીરધારમાં રૂ. લગ્ન ગયા પછી છ આઠ મહીને પાછા આપજે ૨૦૧૦) ઊ રાણી પાડી હતી. ઘેર બે ઘેાડા રાખો એટલે તેટલું દેવું તે શું કરવું પડશે.
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दिगंबर जैन।
જ્યની –હા, મારે પણ તેમજ વિચાર છે. શાન્તિ–ભાઈ તમારી ભૂલ થાય છે, ભાઈ વસંતને આણું તેડવાનો મારો વિચાર તે દેખતી આંખે કુવામાં પડી છે તે મરવાના જ. ગાડી બિલકુલ નથી પણ ઘરમાં સમજાયા સમજતાં આવતી હોય ને અગાડી સુવાથી કપાઈ મરી નથી એટલે લાચાર છું. “આ તે અધોગતિ કે જાય તે જાણીતું છે. આ સાથે આપણી જ્ઞાતિમાં ઉનતિ” કહો શું સમજાય ?
જે મરણે થયાં છે તે ત્રાસદાયક છે નાની કાન્તિ–ભાઈ, માગીને દાગીના ચઢાવવા
ઊંમરમાંજ બાળાઓને રંડાપા આવ્યા છે. આ અને પછીથી પાછા લેવા એ તે અન્યાય ગણાય બધી બાળ વિવાહ અને બાળ લગ્નને જ પણ ન્યાય અન્યાયનું છેજ કયાં. એ તો જેવા થાય આભારી છે તે આપણી જ્ઞાતીમાંથી બાળ તેવા થવું જ જોઈએ. આપણને તો આ વાત
વિવાહ અને બાળ લગ્ન થતાં અટકાવવા જોઈએ. બિલકુલ પસંદ નથી. આપણું પંચના ઠરાવો કા--૦–અરે, આપણી સમાજના આગેવાપ્રમાણે જ દરેક વર્તે તેવીજ તજવીજ થાય અને તેના વિચારો પ્રથમ કરતાં કંઈક સુધરેલા છે એટલે પંચના દરેક નિયમો પાળી શકે તેવી વ્યવસ્થા અપિણુ ખરાબ રૂઢીઓ દૂર કરવા પ્રયત્ન કરાય થાય તે જ યોગ્ય છે. એ તો આપણા હાથે જ તે જરૂર સમાજની અધોગતિ થતી અટકે અને આપણે તરાઈએ છીએ, જે શ્રીમંતછે તેઓ એ સિવાય લગ્ન માં ફટાણાં ગીત ગાવાને રીવાજ.' ઘેર આવે ભલે સેનું મઢવાજ કરે પણ શું કામ પંચવલા વખતે પાણી અને ગવાર છાંટવાના કરતા હશે ?
- રીવાજ, તેડાં કરવાનો રીવાજ વગેરે ખરાબ રૂઢીઓ શાન્તિ –જયની ભાઈ, તમો આવતી સાલે પણ અટકાવવી જોઈએ. નાનીનું લગ્ન લેવાનું કહે છે પણ તે વરને તો શાંતિ આપણી સભાના પ્રમુખ સાહેબ દમનો રોગ થયેલો અને કહે છે કે એ રોગ એવો વિદ્વાન, કેળવાએલા અને સમાજ હિતવી હોવાથી ખરાબ છે કે કયારે અનિષ્ટ થાય તે નક્કી નહિ ' તેઓ આ પત્રમાં થા અન્ય સ્થળે થતી ચર્ચા - તો જાણીજોઈ તેવા વર સાથે લગ્ન કરવા તે હું પર ધ્યાન રાખતા જ હશે અને આવતી સભાની તે યોગ્ય સમજતો નથી.
ઇડરની બેઠકમાં તેઓ શ્રી થા સમાજ આગેવાન યતિ–શું કરવું ભાઈ, હું પણ તે વિચા
કંઈક અજવાળું પડી ખરાબ રૂઢીઓ દૂર કરવા રમાં છું. પણ હવે વેવીશાળ મુકાય કેમ અને આ બનતું કરતાજ હશે, અને કદાચ તેઓ બનતી સાલ લગ્ન લેવાનું હતું તે જ્યાં ત્યાં સમજાવી લાગવગ વાપરી કદાચ આ સાલ લગ્નસરા બંધ રાખ્યું છે પણ આવતી કાલે લગ્ન લીધા પહેલાં ખરાબ રૂઢો એ અટકાવશે તોપણ આનંદ સિવાય છૂટકોજ નથી. જુવે, પેલા નટવરલાલ ની
થશે. ચાલો મંડળની સમાને વખત થવા આવ્યું છોડીનો વેવીશાળ કરેલો છે તે કહે છે કે તે વરસે છે. વળી કોઈ વખત મલીશું-“જયજીનૈન્દ્ર” કહી વાઈ આવે છે તે બદલ પંચમાં સંભળાવી દેતો સવે ચાલતા થયા.
લી. સેવક માંગ્યો. પંચે તેના જુવાબમાં વરને નટવરલાલના
“ગુજરાતી જન બંધુ”. ગામમાં રાખી વાઈ આવે છે કે નહિ તેની પરીક્ષા કરવા ફરમાવ્યું તે પ્રમાણે વરને તેડવા પણ ગયા છતાં મેડલ નહિ. કોણ જાણે હજુ શું થશે. ટૂંકીવાર છ ફુક્કા . વાડ ઢોર તિવાર બીજા પણ અવાજ દાખલા મોજુદ છે છતાં રોમા ા II) શill) કંઇ નીવેડે આવતું નથી એટલે પંચમાં સંભાળાવ્યાથી પણ શું વળે. હશે ત્યારે બાઇને કર્મમાં
मगानेका पताહશે તેમ બનશે. આપણે શું કરીએ? મૈને નર બિશ્વર જૈન પુતરાપ-પૂરતા
गृहस्थ धर्म
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(३१)
दिगंबर जैन । नाक
उपस्थित कर दिया है। संसार, तेरे नेत्र हों तो
देख ! अपने भव्य नेत्रों को खोल और देव ! पथिककी दो बातें संसार दुःखोंसे रप्त हैं। उसका वक्षस्थल उसकी
धधकतो हुई धधकसे धधक रहा है । जिसके
वारण उसके आ पर छाले पड़ गए हैं और " गरीबोंके दुःखका भी अनुमान कीजे । समयका भी सब मिलके सत्कार कीजे" वह सिलक रहा है। अभी अभी जरा ही दिनों
-जन-महिलादर्शसे" पहिले दुनियांके इस छोरसे उस छोर तक इस सुहावना मय था। कृति अपनी अनोखी प्रकारकी भावनाएं माई गई कि भविष्यमें कोई लीसे चित्तको रंगनमान कर रही थी। मी संघर्ष हिंसावर्धक न हों। सर्वत्र सर्वथा मेघपटल अनूठा घेरा लगाए हुए थे-सुर्य्यसे शान्ति रहे । प्रखर प्रतापको मी उन्होंने अपने आच्छन्नसे इन मावुक हृदयोंने पृकृति देवी के संदेशको आच्छादित कर दिया था। हम संसारी जीवोंको पढ़लिया पर क्या संसार के वर्तमान सबल शासकतो वह हर्षोत्पादक थे ही, पर योगीजनों को सी दल इस भावनाका आदर करेगा ? प्रकृति कितनी अपनी समाधिस्थित आत्माकी पतित परतंत्रा. दयालु है- अपने नियमानुसार जब देखा कि वस्थाका मास कराने में एक खासा उदाहरण था। पृथ्वी उन ताकी उग्रतासे व्याकुल हो उठी है मेव क्षणक्षणमें रूप बदरते थे मानो संप्त रकी तो चट अपने जलघरोंको ला उपस्थित किया नश्वरताका सनक संसारको सिखाने का प्रयत्न और उसकी उग्रताको शान्ति की और कर रहे हों अथवा धृष्ट व बन जमानेकी रफता- सच सलौना ही 6लोना दीखने लगा । रको पहिचान उसकीसी ही गतिको धारण संसार ! क्या तू प्रकृतिकी अहेना करेगा ? किए हुए थे ! कुछ मी हो साथ में कभी छोटो नहीं ! तू कर नहीं सक्ता ! यदि अपनी तप्तकभी बड़ी से तप्त तापको मी तापहीन ही वस्था तृझे खेनी अमीष्ट है तो आ और शीघ्र बनाने का प्रयत्न कर रहे थे। पृथ्वी की उम्र ही इन जैसे जीते जागते जलघरोंको भेन जो तप्तावस्थाको शीलतामें परिणति कर दिया। उग्रतापसे तप्त आपसो भ्रम पूर्ण संघर्षमयी मा. फलस्वरूप वह मी फूली अङ्ग न सपाई और गोंको अपने प्रेममुघासे शीघ्र ही चङ्गे भले का हर्षित हो अपनेको अलंकृतकर सुहागिन स्त्र के और फिर हुं ओर सब हा ही हरा दीखने दम्पतिमिलन जैसे आनन्दकी समानता करने लगे । संसार सर्वत्र सुख शान्तिके सीने राग लगी। पर पृथ्वीके पन्ने जैसे सरसन्न अंगन पुनः गाने लगे। पौद्लक प्रेमका प्रस्थान हो । और इन पामल जलधरों ने तो मेरे निकट यह पावन परमात्माका पुनरुत्थान हो । ऐसे समप्रकट किया कि प्रकृतिदेवीने संसारके निकट यमें पवनके झोंकोंमें विचारोंकी हिलोरें लेते उनके दुःखोंके निवारण हेतु एक खासा पठ पथिक भारत वर्षके एक ग्रामीण रास्ते चलते हुए
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दिगंबर जैन ।
QOY ५००
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अपने चहुंओर के कुछ चलते फिरते हालको बाह्य संकेतों से जानता चला । पक्की सड़कसे आम्रपंक्तियों के मध्य हो चले ही जा रहे थे कि दो देहाती प्रामीण बालक अपने "शुओंकी रक्षा करते सड़क के बगल खड़े दिखाई पड़े । हृदय उनकी सादगी और पवित्रता की ओर आकर्षित हुआ । छोटासा मोटे खसूटे गाढ़े का हलुका और उसी पवित्र खद्दरकी घुटनों ऊंची घोती न मालूम सादगीको प्रगट कर रही थी अथवा भारतवर्षकी दरिद्रताको या इन विचारे गरीब किसान भाइयोंकी तीन या चार पैसे रोनकी मदनीको ! ज्यों ही पाससे गुजरा देखा कि पयार व पतेकी सिरकियोंसे एक घोकी बनाए वर्षा से रक्षार्थ अपने पास रख रक्खी है । अपने विदेशी छाते और Rain Coat को देख हृदय कज्जित हुआ । मानो इन मार्वोको उन सरल बालोंने पढ़ लिया हो वे बोले"लेउ तुम हूँ ओढ़े जहू- हाँ हाँ ओढ़े जाहु" हृदय में उथल पुथल मच गई। क्या यह सरल ग्रामीण हमको उचारेंगे ? इन्होंने तो अभी तक भारतीय प्राचीन ऐतियोंको किन्हीं अंशोंमें बनाए रखा है ! पर दूसरे क्षण उनको दरिद्रता, ज्ञान शून्यता और मृढनाने यह विचार काफूर कर दिए । उनको आवश्यक्ता है ज्ञान प्रदान करने की !
कविका यह पद इस समय सहसा मुखमें आ गया । "लेटो स्वदेशी कापली तनकर विदेशी शाल भी । शोमा परम देगी स्वदेशी तरुवरोंकी छाल मी ।" अगाड़ी चला देखा कि दो अर्ध नग्न ग्रामीण स्त्रियां इस पॉनी बरसते में ईंध के गड्ढे
सिरपर घरे चलीं जा रही थीं। जितना ही हृदय कुछ देर पहिले संशित और हर्षित हुआ था उतना ही इस दृश्यसे थर्रा गया ! अपनी दरिद्रता आंखों के समक्ष आ गई । यह विश्वप्त हो गया यह सब दृश्य दरिद्रताके हैं। अपने ही सुमान पञ्चद्रय जीवोंको कितना कष्ट है । पर हम धनवान हैं हमको इससे क्या मतलब ? क्या यह विचार अब मी दूर न होगा ? क्या अब मी सादगी और किफायतको भखतीयार नहीं किया जायगा ? क्या अब भी संम्य और दानको नहीं अपनाया जायगा । ईर्ष्या द्वेषको नहीं मगाया जायगा ? और स्नेहमयी वात्सल्य मङ्गको गले से नहीं लगाया जायगा ? क्या मुनि विष्णुकुमार जैसे निःस्वार्थभावके प्रेत्र शिक्षापूर्ण कृत्य आपकी उदासीनताको नहीं मगांएंगे ! यदि हम जैनी हैं तो क्या उन बातों में हमें अग्रसर न होना चाहिए ? क्यों न हमारी महापम के मुखपत्र जैन गज़र को आनी बेपुरी तान अपना छोड़कर इन म निस्वार्थ स्वर्णमय मात्रके प्रचार में व्यस्त होना चाहिए ! आपसी कटुतामयी द्वेषाग्निको मिटाना चाहिए अथवा महासभा के मुखपत्र से ही उसकी बकती हुई आपको फैला अपूर्व रीतिसे समानकी अनेखी रक्षा करनी चाहिए ? इन्हीं विचारों में डांब डोल बहन शहर के बाजार में चलने लगा ! यहांको टीपटाप और ग्रामकी दरिद्रावस्थाके दृश्योंने दारुण नऊन उत्पन्न कर दी ! पर संयोगवश जल्दी ही एक गली में आजानेसे यह दृश्य नेत्रों के अगड़ीसे हट गया । और एक बुद्धिशको निम्न हो च खेके मीठे स्वर निकलते
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देख चित्त जितना उदास हुआ था उससे कहीं अधिक शोंमें आल्हादित हुआ । मारतवर्षको दरिद्रावस्था और उसकी हीनावस्थासे उबारनेवाले यह ही सादे जीवन बितानेवाले प्रकृति प्रदास्य वृक्षत्रणसे स्वशरीर की रक्षा करनेवाले, अर्ध नग्न शरीर पर पानी की बौछारें सहते सिरपर बोझ ढोते अपेट भूखे रहनेवाले और • अपनी दशाका मान रखते हुए चरखा चला नेवाले ही धन्य हैं ? येही लोग हैं जो भारतवर्ष में इतना अनन उत्पन्न करते हैं कि अप पेट रह अधिकांश जगतको भोजन देते हैं । और यही लोग थे कि अनाजको ।) मन बेबा था । हत्यनिष्ठा के लिए मेगस्थनीज़ और एरियन सदृश विदेशी यात्रियोंसे मुखकंठसे प्रशंसाको पाते हुए थे । यही लोग थे जो चरखा चला करोडों रुपया कमाते थे । और उस सुतसे अद्वितीय कपड़ा बुनकर दुनिया में भारतका नाम रखते थे और हिंसमई पवित्रता का संदेश मे ते थे। वेनिससाहब ने लिखा है कि ढाकेका बा हुआ कपड़ा देखने से मालूम होता है जैसे देवताओंने बनाया हो। उसे देखकर यह नहीं मालव होता कि वह मनुष्यका बनाया हुआ है। क्यों न यह भ्रम हो ! उस कपड़े की विशुद्धता ही का प्रभाव था कि मा तीय सभ्यताकी प्रशंसा चहुंओर हो रही थी। लोग उसका अनुकरण करते थे । उस समय आधुनिक उच्चता के जपाने सदृश गऊ रक्त और चर्बी आदिका व्यवहार
के० पी० जन ।
अपने तन ढकने के लिए बस्त्र (नाने में नहीं पवित्र काश्मीरी केशर
किया जाता था । लोगोंको धर्म से गिराया न जाता था। पवित्र जीवन विताया जाता था । परधनी मानी विलासताप्रिय हम्य समानने
का मात्र २||) की तोला है । मिलने का पतामैनेजर, दि० जैन पुस्तकालय-सूरत ।
उनकी अवहेलना की । उनके इन शुभ कृत्योंसे और आधुनिक दशासे क्या अब भी समान कुछ शिक्षा ग्रहण करेगी ? सादगी और प्रेमसे रहना सीखेगी ? और गरीबों के दुःखों को हटाने में अपना हाथ आगे बढ़ायगी ? यदि शुद्धताको अपनाया जाय तो खोई हुई शक्तियां पुनः जागृत हो जाँय । सोचिए ! विचारिए ! अपनी अपनी दशा पर ध्यान दीजिए ! संसार के अज्ञान अंधकार मेटने में अग्रसर होइए । अपनी बुराइयों को हटाइये जो आपका धार्मिक शारीरिक और आर्थिक ह्रास दिनों दिनों बढ़ा रही हैं। हिन्दी प्रन्थमाला में लिखा है कि कुछ दुनियांकी लड़ाईयोंमें सौवर्षके अन्दर (१७९३ से १९००) तक पचास लाख आदमी मरे गए हैं। पर हमारे हिंदुस्तान में केवल दस वर्ष (१८९१ से १९०१ तक ) अकाल और भूखके मारे एक करोड़ नब्बे लाख मनुष्योंने प्राण त्याग किये ! भारतवर्षकी इस घटतीको यदि आप रोकना चाहते हैं तो संयम और शुद्धताको अपनाइए और संसारको अपवित्र आत्मज्ञानका मन वरईए जिससे भविष्य में पूर्ण शांतिका साम्रज्य रहे । सर्व देशवासी सुख शांतिसे अपनी आत्माओंका कल्याण करें । वीर प्रभु ! हमें ऐसी ही सन्मति प्रदान करें यही भावना है ।
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________________ दूसरीवार छपकर तैयार होगया। श्रीमान् जैनधर्मभूषण ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीकृत हरएक गृहस्थको उपयोगी सर्वोत्तम ग्रन्थ-- - गृहस्थधमे / जो प्रथमवार बिक जानेपर कई वर्षों से नहीं मिलता था दूसरीवार सूरतमें छपकर तैयार हो गया। गृहस्थधर्म में कौन 2 विषय हैं ? इस महान ग्रन्थके 31 अध्यायोंमें पुरुषार्थ, आदिकी विधि भी है। सारांश कि गृहस्थाश्रपमें, सम्यकूचारित्रकी आवश्यकता, श्रावक की पात्रता, सुख व धर्मरूप रहने के लिये इस 'गृहस्थधर्म गर्भाधानादि भी संस्कार का खुलासा व विधि, ग्रन्थ हरएक श्रावकके पाप्त रहना चाहिये। अजैनको श्रावककी पत्रता, श्रावक श्रेणी में प्रवे. इस एक ही ग्रन्थसे लौकिक, धार्मिक, सामाशाथ प्रारम्भिक श्रेणी, श्रावककी 11 प्रतिमा- जिक सभी कार्य सघ सकते हैं। पृष्ठ 312 ओंका अलग वर्णन, विवाह के पश्चात् गृहस्थके मूल्य 1 // ) डेढ़ रुपया। छावश्यक संस्कार, संस्कारित माताका उपय, गृहत्री धर्माचरण, समाधिरण क्रिया, जन्माण और चार नये ग्रंथ तैयार। अशा वका विचार, समर की कदर, जैनधर्म की शीपालचरित्र-तीसरीवार मू ) सनातनता व उन्नतिका उपाय, हम क्या खये जैन इतिहास-प्रथम भाग, दूसरीवार ) व पये, नित्यपूना आदि इतने विषयों का संग्रह आत्मधर्म-(ब.शीतकनीदनीकृत दुसरीवार) है कि इस ग्रन्थके पढ़नस एक जैनी जैनधर्म का मल्लीनाथपुराण-(खुरे पृष्ठ, सचित्र) सच्चा श्रद्धानी बन सकता हैं / यज्ञोपवित, विवाह श्रीपाल नाटक (नवीन बड़े अक्षरों में) मगाने का पतामैनेजर दिगम्बर जैन पुस्तकालय-सूरत। जन विजय " प्रिन्टिग प्रेस खपाटिया चकला,-सुरतमें मुलबुंद किसनदास कापड़ियाने मुद्रित किया और "दिगम्बर जैन" आफिस, चंदावाड़ी-सूरतसे उन्होंने ही प्रकट किया।