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________________ (३१) दिगंबर जैन । नाक उपस्थित कर दिया है। संसार, तेरे नेत्र हों तो देख ! अपने भव्य नेत्रों को खोल और देव ! पथिककी दो बातें संसार दुःखोंसे रप्त हैं। उसका वक्षस्थल उसकी धधकतो हुई धधकसे धधक रहा है । जिसके वारण उसके आ पर छाले पड़ गए हैं और " गरीबोंके दुःखका भी अनुमान कीजे । समयका भी सब मिलके सत्कार कीजे" वह सिलक रहा है। अभी अभी जरा ही दिनों -जन-महिलादर्शसे" पहिले दुनियांके इस छोरसे उस छोर तक इस सुहावना मय था। कृति अपनी अनोखी प्रकारकी भावनाएं माई गई कि भविष्यमें कोई लीसे चित्तको रंगनमान कर रही थी। मी संघर्ष हिंसावर्धक न हों। सर्वत्र सर्वथा मेघपटल अनूठा घेरा लगाए हुए थे-सुर्य्यसे शान्ति रहे । प्रखर प्रतापको मी उन्होंने अपने आच्छन्नसे इन मावुक हृदयोंने पृकृति देवी के संदेशको आच्छादित कर दिया था। हम संसारी जीवोंको पढ़लिया पर क्या संसार के वर्तमान सबल शासकतो वह हर्षोत्पादक थे ही, पर योगीजनों को सी दल इस भावनाका आदर करेगा ? प्रकृति कितनी अपनी समाधिस्थित आत्माकी पतित परतंत्रा. दयालु है- अपने नियमानुसार जब देखा कि वस्थाका मास कराने में एक खासा उदाहरण था। पृथ्वी उन ताकी उग्रतासे व्याकुल हो उठी है मेव क्षणक्षणमें रूप बदरते थे मानो संप्त रकी तो चट अपने जलघरोंको ला उपस्थित किया नश्वरताका सनक संसारको सिखाने का प्रयत्न और उसकी उग्रताको शान्ति की और कर रहे हों अथवा धृष्ट व बन जमानेकी रफता- सच सलौना ही 6लोना दीखने लगा । रको पहिचान उसकीसी ही गतिको धारण संसार ! क्या तू प्रकृतिकी अहेना करेगा ? किए हुए थे ! कुछ मी हो साथ में कभी छोटो नहीं ! तू कर नहीं सक्ता ! यदि अपनी तप्तकभी बड़ी से तप्त तापको मी तापहीन ही वस्था तृझे खेनी अमीष्ट है तो आ और शीघ्र बनाने का प्रयत्न कर रहे थे। पृथ्वी की उम्र ही इन जैसे जीते जागते जलघरोंको भेन जो तप्तावस्थाको शीलतामें परिणति कर दिया। उग्रतापसे तप्त आपसो भ्रम पूर्ण संघर्षमयी मा. फलस्वरूप वह मी फूली अङ्ग न सपाई और गोंको अपने प्रेममुघासे शीघ्र ही चङ्गे भले का हर्षित हो अपनेको अलंकृतकर सुहागिन स्त्र के और फिर हुं ओर सब हा ही हरा दीखने दम्पतिमिलन जैसे आनन्दकी समानता करने लगे । संसार सर्वत्र सुख शान्तिके सीने राग लगी। पर पृथ्वीके पन्ने जैसे सरसन्न अंगन पुनः गाने लगे। पौद्लक प्रेमका प्रस्थान हो । और इन पामल जलधरों ने तो मेरे निकट यह पावन परमात्माका पुनरुत्थान हो । ऐसे समप्रकट किया कि प्रकृतिदेवीने संसारके निकट यमें पवनके झोंकोंमें विचारोंकी हिलोरें लेते उनके दुःखोंके निवारण हेतु एक खासा पठ पथिक भारत वर्षके एक ग्रामीण रास्ते चलते हुए
SR No.543185
Book TitleDigambar Jain 1923 Varsh 16 Ank 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1923
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size10 MB
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