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दिगंबर जैन ।
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अपने चहुंओर के कुछ चलते फिरते हालको बाह्य संकेतों से जानता चला । पक्की सड़कसे आम्रपंक्तियों के मध्य हो चले ही जा रहे थे कि दो देहाती प्रामीण बालक अपने "शुओंकी रक्षा करते सड़क के बगल खड़े दिखाई पड़े । हृदय उनकी सादगी और पवित्रता की ओर आकर्षित हुआ । छोटासा मोटे खसूटे गाढ़े का हलुका और उसी पवित्र खद्दरकी घुटनों ऊंची घोती न मालूम सादगीको प्रगट कर रही थी अथवा भारतवर्षकी दरिद्रताको या इन विचारे गरीब किसान भाइयोंकी तीन या चार पैसे रोनकी मदनीको ! ज्यों ही पाससे गुजरा देखा कि पयार व पतेकी सिरकियोंसे एक घोकी बनाए वर्षा से रक्षार्थ अपने पास रख रक्खी है । अपने विदेशी छाते और Rain Coat को देख हृदय कज्जित हुआ । मानो इन मार्वोको उन सरल बालोंने पढ़ लिया हो वे बोले"लेउ तुम हूँ ओढ़े जहू- हाँ हाँ ओढ़े जाहु" हृदय में उथल पुथल मच गई। क्या यह सरल ग्रामीण हमको उचारेंगे ? इन्होंने तो अभी तक भारतीय प्राचीन ऐतियोंको किन्हीं अंशोंमें बनाए रखा है ! पर दूसरे क्षण उनको दरिद्रता, ज्ञान शून्यता और मृढनाने यह विचार काफूर कर दिए । उनको आवश्यक्ता है ज्ञान प्रदान करने की !
कविका यह पद इस समय सहसा मुखमें आ गया । "लेटो स्वदेशी कापली तनकर विदेशी शाल भी । शोमा परम देगी स्वदेशी तरुवरोंकी छाल मी ।" अगाड़ी चला देखा कि दो अर्ध नग्न ग्रामीण स्त्रियां इस पॉनी बरसते में ईंध के गड्ढे
सिरपर घरे चलीं जा रही थीं। जितना ही हृदय कुछ देर पहिले संशित और हर्षित हुआ था उतना ही इस दृश्यसे थर्रा गया ! अपनी दरिद्रता आंखों के समक्ष आ गई । यह विश्वप्त हो गया यह सब दृश्य दरिद्रताके हैं। अपने ही सुमान पञ्चद्रय जीवोंको कितना कष्ट है । पर हम धनवान हैं हमको इससे क्या मतलब ? क्या यह विचार अब मी दूर न होगा ? क्या अब मी सादगी और किफायतको भखतीयार नहीं किया जायगा ? क्या अब भी संम्य और दानको नहीं अपनाया जायगा । ईर्ष्या द्वेषको नहीं मगाया जायगा ? और स्नेहमयी वात्सल्य मङ्गको गले से नहीं लगाया जायगा ? क्या मुनि विष्णुकुमार जैसे निःस्वार्थभावके प्रेत्र शिक्षापूर्ण कृत्य आपकी उदासीनताको नहीं मगांएंगे ! यदि हम जैनी हैं तो क्या उन बातों में हमें अग्रसर न होना चाहिए ? क्यों न हमारी महापम के मुखपत्र जैन गज़र को आनी बेपुरी तान अपना छोड़कर इन म निस्वार्थ स्वर्णमय मात्रके प्रचार में व्यस्त होना चाहिए ! आपसी कटुतामयी द्वेषाग्निको मिटाना चाहिए अथवा महासभा के मुखपत्र से ही उसकी बकती हुई आपको फैला अपूर्व रीतिसे समानकी अनेखी रक्षा करनी चाहिए ? इन्हीं विचारों में डांब डोल बहन शहर के बाजार में चलने लगा ! यहांको टीपटाप और ग्रामकी दरिद्रावस्थाके दृश्योंने दारुण नऊन उत्पन्न कर दी ! पर संयोगवश जल्दी ही एक गली में आजानेसे यह दृश्य नेत्रों के अगड़ीसे हट गया । और एक बुद्धिशको निम्न हो च खेके मीठे स्वर निकलते
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