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________________ दिगंबर जैन। हम निम्नाङ्कित तुलनात्मक निर्णय पर विचार प्रयत्न नहीं किया। इसके क्रय थे नष्ट करना, करेंगे। जैमिनिके सिद्धान्तोंको छोड़कर अवशेषके खण्डन-निषेध करना, आलोचना करना-अर्थात सर्व भारतीय दर्शन वक्तव्य द्वारा अथवा अन्य वस्तु को दबाना न कि उसकी प्रशंसा करना । प्रकार किपाकाण्डमय वेदोंकी श्रद्धाकी आलो. यदि वेदोंने माना था एक मनुष्योंपर सत्ताको चना करते हैं। वास्तवमें समस्त फिलासफी तो चार्वाक विचारकोंने उसपर संशयकी धूल श्रद्धाके विपरीन तर्क वितर्ककी सनातनी लड़ाई डाली थी। जैसे कि ऐनी नास्तिक आस्थाका है । इल इंष्टि की अपेक्षा समस्त दर्शनों को अब उल्लेख ६ठे कथोपनिषद्की द्वितीय वल्ली में है। हमें एक एक कर हाथमें लेना चाहिए और उनके यहां उल्लेख किया है उन विचारों का जो मुख्य सिद्धान्तोंपर विचार करना चाहिए। यह एक भविष्य जीवन में विश्वास नहीं रखते । वही मी अवश्य ही ध्यारमें रखना चाहिए कि निम्न- उपनिषद आस्तिक सिद्धान्तपा अपनी षष्ठीवल्ली लिखित रीत्या भारतीय दर्शनोंका जो प्रकाश १२ में आक्रपण करता है। किया गया है वह न्यायके आधारसे है न कि पुनः कथोपनिषदकी प्रथमवल्ली (२०)में उन ऐतिहासिक (Chronglogical) रूपमें। विचारकोंका उल्लेख है जो एक मनुष्योत्तर कभी समाप्त न होनेवाले, बाह्यमें अर्थहीन सत्तामें श्रद्धा नहीं रखते । इस प्रकार यदि वेदवर्णित क्रियाकाण्डका अति तीव्र विरोध वेदोंने यज्ञ संबंधी क्रियाकाण्डपर जोर दिया, अवश्य ही चार्वाकके सिद्धान्तोंमें भरपूर है। तो इन प्रतिरोधकों (Non conformists)ने प्रत्येक समाज में कितने प्रतिरोधक सुधारको उनकी उपयोगताका निराकरण किया और उनके ( Protestant Non-Conformists ) उमहासको दर्शाश। उपनिषद मी जो कि का होना आवश्यक है और प्राचीन वैदिक भाने आर्ष (orthodox) माननेका और स्वतः समान भी इस नियमसे वांचित न थी । वेदवर्णित वेदों का एक माग अपनेको प्रगट करने का दावा सरल रीतियोंपर हानिकारक कारणोंद्वारा आक्षेर भरते हैं, वैदिक क्रियाकाण्डकी आलोचना करते करना न कठिन या और जैसे न कभी है। हैं। जैसे कि बहुतों में से एक दृष्टान्त इस विचारशील और सिद्धान्न अन्वेषी हृदय उनसे प्रकार है:दीर्घकालता संतोषित नहीं रहसक्ता । और "परन्तु ये प्रतिरूपक रीतियां जो कि नीच भालोचना (Criticism)का प्रथम आक्रमण गुप्त समस्यायोंके करने से संबंधित हैं जैसे १८ वेदर्द पाशविक यज्ञ संबंधी क्रियाकाण्डपर होगा। द्वारा बताई गई, झांझरी नैयाके महश हैं (जो यही चार्वाक मत है जो कि वेदों में वर्णित कर्म. नाविकों के लिए भयावह हैं )। मूढ़ जो इसे काण्ड का कठोर निषेध है । यह खण्डन बादका उच्चतम मानते हैं और उसपर हर्षित होते हैं, मत है। यूनानकै सुफी मतके सहश इसने कमी बारम्बार जन्म, जरा और मृत्यु भुगतते हैं।" मी पूर्ण रूपमें जगत सिद्धान्तके निर्णय करने का परन्तु उपनिषोंने वेदों की मालोचना इस
SR No.543185
Book TitleDigambar Jain 1923 Varsh 16 Ank 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1923
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size10 MB
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