SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दिगंबर जैन। उद्देश्यसे की कि जगतके समक्ष कुछ उच्च और वह इस भावसे प्रारम्म न होना चाहिए । रीतिउत्कृष्ठ माव प्रकट करें और उन्हें ठहराएँ रिवाज यथार्थ स्वभाव (Rational nature) जब कि नास्तिक चार्वाकने आलोचनाके सरल के बढ़ाव और विकासका दम घोंटता है। यह और सुगम मार्गके अगाड़ी पा न बढ़ाए । यह ही आलोचनाकी यथार्थ दृष्टि है । नितान्त विषमुख्यतः एक खण्डनात्मक व्याख्या थी जिसका यवाद इसकी उपेक्षा करता है । और जैनधर्म कि स्पष्ट प्रतिरूप न था। इसका कार्य था बौद्ध धर्मके सदृश यथार्थ ( Vationalistic) वैदिक रीतियों का उपहास करना । इसमें संशय मत होने के कारण चाकिसे अपना पीछा छुड़ा नहीं कि यही न्याय यथार्थता (Rationalism) लेता है। का जन्म था जिसकी कि बढ़वारी हम अन्य भारतीय फिलासफीका दूसरा मत जो यहां मारतीय दर्शनों में ढूंढेंगे। पर जैनधर्मसे तुलना करने के लिए लिया जासक्ता चार्वाक नास्तिकवाद के साथ जैनधर्म भी वैदिक है वह बौद्ध मत है। नास्तिक वादकी सहश र ज्ञवादके कर्मकाण्डका निषेध करता है। उसने बौद्धधर्म वैदिक क्रियाकाण्डका निषेध करते हैं। प्रत्यक्षमें ही वेदोंको अपना प्रमाण (authority) परन्तु इसकी यज्ञसम्पाधी क्रियाकाण्डकी आलो. नहीं माना था। और नास्तिकत्वके वक्तव्यमें चना एक अधिक यथार्थ भित्ति पर सवलम्बित यज्ञ सम्बन्धी क्रियाकांडका प्रतिरोध किया। है। रौद्धधर्मके अनुसार हमारा दुखदायी भस्ति यहां तक जैन धर्ममें चार्वाकसे समानता है। त्व कर्मके कारण है । जो कुछ हम हैं व नो परन्तु इसके उपरान्त वह नास्तिकवाद की तरह कुछ हम करते हैं वा हमने किया है उसका एक निषेधक मत नहीं था। उसका उद्देश्य फल है। हम जन्ममरण भुगतते हैं और पुन: सिद्धान्त-निर्माण (System-building) पर जन्म धारण करते हैं क्योंकि हम इन्द्रियमुख था। सझेरि वह चर्वा ककी घृणित विषरस और बासनाके पीछे मटकते हैं जो कि द्रव्यहीन म्बन्धी हेडोनिज्मको पृथक् करता है । चार्वाक छाया है और असावधान मनुष्यों को मटकाती सिद्धांत अनुपयोगी क्रियाकाण्डकी सार्थकता पर हैं। यदि हम इस संसारमें अपने दुःख और प्रश्न उठाता हुआ उसके भीतर पैठने का प्रयत्न पीड़ाओं का अंत करना चाहते हैं तो हमें अपने नहीं करता परन्तु मानुषिक ३भावके विषय कोकी सांकलोको तोड़ना चाहिए । अब हम संबंधी बातपर विशेष जोर देता है। उसने वैदिक कर्मराज्य के बाह्य भी पग बढ़ायगे, यदि हम शुभ रीतिरिवाजोंकी आलोचना की-यह कहा जा कर्मको दुष्कर्मसे, विरक्त भावको आसक्त मावसे, सक्ता है-ताधारणतया इस कारण कि उन्होंने अहिंसाको हिंसासे मिड़ाएंगे। वैदिक यज्ञविषयक विषयवासनाओंका निरोध किया और दिखावेके क्रियाकाण्ड छोड़ देना आवश्यक है क्योंकि वे रोकोसे उनके लगामके विहीन मोगोंको रोका। केवल अनन्ते निरापराध पशुओंकी हिंसाकी ही परन्तु यदि किपाकाण्डकी आलोचना करनी है तो शिक्षा नहीं देते सुतरां वे समझे जाते हैं
SR No.543185
Book TitleDigambar Jain 1923 Varsh 16 Ank 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1923
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy