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________________ दिगंबर जैन। मक्तोंको स्वर्गों में पहुंचानेवाले अथवा अन्य नींव पर अवस्थित है । हमें वेदोंकी प्रमाणिकवांछित स्थानों में। और इस प्रकार वे प्रत्यक्ष ताका निषेध करना है-अच्छी बात है। हमें अथवा परोक्षरूप में हमारे दुःख पूर्ण जन्म व अहिंसा और स्यागका पालन करना है-अच्छी पुनः जीवनके कारण हैं । इस प्रकार बौद्धधर्मके बात है। हमें कमों के बंधन तोड़ने हैं-अच्छी अनुसार हमें अहिंसा और त्यागका आचरण बात है। परन्तु सारे संसारके लिए यह तो करना चाहिए यदि हमें कर्मके राज्यमें से पार बताइए हम हैं क्या ! हमारा ध्येय क्या है ? पहुंचना है । यही इसका मुख्य सिद्धान्त है। स्वामाविक उद्देश्य क्या है ? इन समस्त प्रश्नोंका वेदोंका निराकरण इस कारण करना चाहिए उत्तर बौद्धधर्म में अनूठा पर भयावह है-हम कि उनमें हिंसाका विधान है एवं वे नहीं हैं तो क्या हम छाया श्रम परिश्रप प्रत्यक्ष अथवा परोक्षरूपमें निर्वाणके वाधक कर रहे हैं ? और क्या गहराव ही अंतिम ध्येय कारण है । एक समान दृढ़तामें बौद्धधर्म चार्वाक है ? क्यों हमें कठिन त्याग करना है और हमें , मतके विषयवादपर आक्रमण करता है यद्यपि क्यों जीवनके साधारण इन्द्रियसुखों का निरोध वह उसका साथ वेदोंपर चढ़ाई करने में देता है। करना चाहिए ? केवल इस लिए कि शोकादि यदि हम वैदिक कर्मकाण्डसे हट जायगे तो हमें नष्टता और नित्य मौन निकटतर प्रप्त हो जाएं। हेडोनिज्ममें तल्लीन न होनानेसे सावधान रहना यह जीवन एक भ्रान्तवादका मत है और दूसरे चाहिए, तप और नियमों का पालन करना शब्दों में उत्तम नहीं हैं। अवश्य ही ऐसी चाहिए । हां ! यही नियम बौद्ध मतानुसार आत्माके अस्तित्वको न माननेवाला विनश्वरताका कमौके जालसे छुटनेका है। मत सर्वसाधारणके मस्तिष्कको संतोषित नहीं कर बौद्धधर्मके समान ही जैनधर्म भी मानता है कि सक्ता । आश्चर्य ननक उन्नति बौद्धमत की उसके हमारे दुःखदायी जीवनका कारण कर्मका बन्ध सिद्धांतिक विनश्वरतावाद (Nihilism) पर निर्भर है। बौद्धधर्मके सहश ही वह एक हाय वेदों की नहीं थी बलिक इसकी नामधारी " मध्यमार्ग" प्रमाणिकताका निषेध करता है दूसरे हाथ चार्वा- की तपस्याकी कठिनाईका कम होना ही है। कके विषयवादको । समान दृढ़ताके साथ वह साधारण मनुष्य भी यह अनुभव करता है कि अहिंसा और 'बत्तिको मानुषिक आचारके सरल मैं हूं। वह एक सत्तात्मक वस्तु है न कि नियम मानता है । अवश्य ही उसकी शिक्षा द्रव्यहीन छाया । यह ही है जो प्रत्येक मनुइनके पालन करने में विशेष कठिन और दृढ़ है। प्यके अनुमामें आता है।। परन्तु वन जैनधर्म बौद्धधर्मकी पहिली कमताईको जैसे कि उपनिषद्की प्रत्येक पंक्तिसे अनुमाअपनेमें नहीं पाता है। नतः चित्रित होता है यह वेदान्त ही है जो परीक्षा करने पर यह प्रकट हो जायगा कि आत्माको अविनाशी और अकृत्रिम सत्ता मानबौद्धधर्मका सुन्दर भाचार वर्णन एक कम्पित ता है। आस्मा है। उसका मस्तित्व सत्तात्मक
SR No.543185
Book TitleDigambar Jain 1923 Varsh 16 Ank 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1923
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size10 MB
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