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दिगंबर जैन ।
अब जैनधर्म भी जैसे हम देख आए हैं हैं पूर्णरूपमें और विशुद्ध विकाप्त पाते हैं। बास्माकी अनादिता और अनन्तताको स्वीकार अब चाहे कुछ बुद्धिमान टीकाकार कहें करता है। कपिल सिद्धान्त के अनुसार यह एक परन्तु यह सुगपरोस्या कहा जातक्ता है कि बाह्य शक्ति की सत्ता और अस्तित्वको मानता सांख्यदर्शन एक ऐसी नैतिक आदर्श अथवा है जो स्वतंत्र भावधारी आत्माको बन्धनयुक्त पूर्ण पक्तिकी सत्ताको नहीं मानते हैं। यह किए हुए है। सांख्यके समान जैन सिद्धान्त योगदर्शन ही है जो प्रयत्न करता है-किस आत्माकी बहु संख्याको भी स्वीकार करता है। सीमा और शक्तिसे इसका परिमाण हमें नहीं और अंतिमतया दोनों ही जैन और सांख्यधर्म लगाना है-इस हृदयकी आकाक्षाकी पूर्ति कर. यह मानते हैं कि निर्वाण विशुद्ध मात्माको नेकी योगदर्शन सांख्य सिद्धान्तानुसार आत्माबाह्य शक्तिके प्रभाव से छुड़ाने में है।
ओंकी सत्ता और बहु संख्या मानता है । परन्तु ___ साथ ही साथ यह मी विचारना आवश्यक योगदर्शन सांख्पसे गाड़ी बढ़ता है और एक है कि प्रत्येक साधारण मनुष्यके हृदय में संपवता सनातनी आदर्शका अस्तित्व प्रकट करता है एक स्वाभाविक इच्छा का वास है कि अपने से अर्थात पर आत्माओं का परमात्मा अथवा किसी उस्कृष्ट, उच्च और विशेष धन्य पदार्थको प्रभू । इसमें जैनधर्म भी योग सिद्धान्तसे सहमत पाए। एक भक्त मनुष्य चाहता है कि एक है। योगमतानुसार जैनधर्म एक व्यक्ति, एक परमात्मा, प्रभू वा ईसर हो जो परमात्मा अथवा प्रभूको-अर्हत्को अपनेको उसके सामने पूर्णताका एक दर्शनीय स्वीकार करता है । वह श्रृष्टि कर्ता चिन्ह प्रकट करे। मनुष्य में एक स्वाभाविक नहीं है बल्कि पूर्णताका सनातनी प्रवृत्ति है कि वह एक उत्तम नैतिक उद्देश्यको आदर्श एवं परमोच्च नैतिक एवं एक सर्वोच्चतम व्यक्ति को निप्तमें वीर्य, ज्ञान अध्यात्मिक उद्देश्य है हमें उसके
और आनंद अरनी पूर्णतामें हो माने । यदि धर्म अनन्त पूर्ण स्वभावका विचार करना एक श्रद्धा-उत्पादक शरीय व्यक्ति में विश्वास है और उसे अपने अभ्यंतर नेत्रोंसे उत्पन्न कर सकता है हम कह सक्ते हैं कि देखना है। इस की संगति उपदेशधार्मिक ज्ञान व उत्साह मनुष्य में सामाविक है। कारक, उन्नतिकारक उच्चपद प्रदायक हम अपने को हर अवस्था में सीमित, परिमिन, और बलवानकारक है। यह सर्व जैनधर्म
और अल समझते हैं अर्थात् अपनी शक्ति, और पाताञ्जलिके सिद्धान्त में एक समान हैं। ज्ञान और नैतिक धन्यतामें और इस लिए हमें इसके उपसन्त निप्त भारतीय दर्शनका उल्लेख वाध्य होना पड़ता है । अपने हृदयोंके समक्ष इस संबंधमें करना चाहिए वह कनाड़का दर्शन किसी ईश्वर वा परमात्माको मानने में जिसमें है। न्यायसंगत विकास वैशेषिक दर्शनका निम्न शिक्षण मिके किस भामा करने की सम RT anा है। 8 और भोगन