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दिगंबर जैन ।
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दर्शनोंमें जो कुछ आस्मा अथवा पुरुषके विपरीत यह वैशेषिक दर्शन है जो अणुभों, आकाश है वह प्रकृतिके अथाह गर्ममें भर देते हैं । उनके और कालकी नित्यता और स्वयंसत्ताका वर्णन अनुसार जो कुछ क्रियावान और फलतः सत्ता- करता है। यथार्थ चार्वाक मतके अनुपार सम्भस्मक भासता है वह सब संभवता सांसारिक वता इनकी अवज्ञा करना यथेष्ट है । बौद्धकी (cosmiic) शक्तिमें गिनी जासक्ती है। इसप्रकार विनश्वरता ( Nihilism ) हमारे अनुभवों के स्थान (आकाश) काल और पोद्गलिक अणुओं नितान्त विपरीततामें उन्हें असत्तात्मक ठहरायगी। पर कपिल और पातञ्जलिने विशेष ध्यान नहीं वेदान्त मी जाहिरा कोई उपयुक्त वर्णन नहीं दिया है-वे समस्त प्रकृतिके ही ऋत्य समझना करता है। सांख्य और योग दर्शन जैसे हम चाहिए। परन्तु ऐपा समझना सरल नहीं है। देख चुके हैं इन्हें अद्भुत प्रकृतिमें ही संयुक्त साधारण मस्तिष्क इन्हें स्वास्तित्वधारक स्वतंत्र मानेंगे । यह कनढ़का ही दर्शन है जो इन्हें सत्ता (Reals) समझते हैं। कैन्ट (Kant) मी नित्यता, सत्ता और स्वतंत्रता प्रदान करता है। अपनी विख्यात व्याख्या ही सदैव संलिन नहीं जैन धर्म भी वैशेषिकोंके सदृश अणुओं, आकाश रह सक्ता कि आकाश और काल हमारे मस्ति- और कालको स्वयं सत्तात्मक और निन्य मानता है।
कके ही प्रार्दुभाव हैं। वह भी किसी २ समय इसपकार यथार्थ तर्क वितर्क के मनोरम फल इस बातको माने हुए प्रतीत होता है कि इन हैं जो हमें विविध भारतीय दर्शनोंने प्रप्त होते पदार्थों का मस्तिष्कसे प्रथक् अस्तित्व और सत्ता हैं। तर्क वितर्कके व्यवहार मार्ग के अर्थ हमें न्याय है । पुनः-डेमाक्रिटस ( Demceritus ) से सिद्धन्त तक जाना होगा। यहां हम समस्त लेकर आज पर्यन्तके विख्यात विज्ञानाचार्यों नैयायिक सिद्धान्तों की गूढताओं से मिनार करते (Scientists) तफ-सर्व इस बातकी आवश्यक्ता हैं, यह गौतमका ही दर्शन हैं नो विचार संबंधी को सम्झते हैं कि पौद्गलिक अणुओंकी नित्यता नियमों का विशाल विवेचन करता है । जैसे कि एवं स्वयं सत्ता स्वीकार की जावे । परन्तु सर्व जगतके दार्शनिक सिद्धान्तोंका एफ मुत्यवान कपिल और पतञ्जलिके दार्शनिक मत आकाश, भण्डार हो, जैन धर्म मी विशेष उपयोगी न्याय काल और पौद्गलिक अणुओं की नित्यता और विषयका दावा मर सक्ता है। इस संबंधमें इसके स्वयंसत्ता (Self-existence) को कमी मी बहुतसे सिद्धान न्याय दर्शनके महश हैं । संम. स्वीकार नहीं करेंगे । यह मानना चाहे कितना वता न्याय सिद्धान्तोंके उपरान्त जैन न्यायका ही कठिन साध्य क्यों न हो परन्तु आपको अध्ययन आवश्य कासे अधिक प्रतित हो इसलिए समझना होगा कि आकाश, काल और अणु- हम यह दर्शा देने की सावधानी प्रकट करते हैं अपने अपने स्वभाव, लक्षण और कार्यों में इतने कि जैन धर्म के न्यायके अपने अनोखेपन अलग विमिन्न होते हुए भी-एक और उसी आद्य ही हैं और विख्यात स्याद्वाद वा सप्तमङ्गो नय. प्रकृति से निकले हुए हैं।
नांदकी अपेक्षा इसके पाप्त एक ऐसा सिद्धान्त है