SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दिगंबर जैन। (१८) रीत्या त्याग करनेका उ देश दिया था यद्यपि दर्शनोंके मध्य अवस्थित देखा जाता है। दोनों दोनों धर्मोके सिद्धान्त एक दुरेसे इतने विश्रोत ही दर्शन वेदान्तके अमिन्नताके सिद्धान्तका थे जितने कि उत्तरी और दक्षिणी ध्रुः ! इस निषेध करते हैं और आत्माके बहु संख्यक लिए ह योग्य नहीं है कि जैनधर्म और बौद्ध- सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं । आत्माके अति. धर्मकी अमिन्नता इस अपेक्षा मानना कि दोनों रिक्त दोनों ही अचेतन पदार्थकी सत्ताको भी आचार सम्बन्धो नियम एक समान निर्धारित स्वीकार करते हैं। तब मी यह संभव नहीं है करते और बतलाते हैं । दिखाऊ एकता बौद्धधर्म कि एकको दुसरेका आधार माना जावे अथवा और जैनधर्मकी इस पा अवलम्रित नहीं है कि घटाया नावे । कारण कि परीक्षा करने पर दोनों एकका निकास दुसरेसे हुआ पान्तु खण्डन और धर्मों की सादृश्यता वाह्यमें ही प्रतीत होगी न यथार्थतःके उस मावसे है जिससे कि उन्होंने * उन्हान कि यथार्थमें। सर्वसे प्रथम वात जो हमारा चित्त साहसपूर्वक वैदिक धर्मक प्रत्यक्ष हिंसा आकष्ट करती है वह यह है कि जब सांख्य मय और असभ्य क्रियायोंका निषेध दर्शनमें अचेतन पदार्थका सिद्धान्त एक है तब किया था। जैनधर्ममें पांच हैं । तिसपर मी इन पांचमें से वस्तुतः दोनों धर्मों के सिद्धान्तोंपर विचार कर. प्रथम पुर्लके अनन्ते अणु हैं । इस प्रकार यदि नेसे यह विदित होता है कि एक दुसरेके निताना सांख्य द्वैवाद है तो जैनधर्म वस्तुतः बहु संख्यावाद विपक्ष में है । मान लीजिए यदि बौद्ध धर्म सर्व (Pluralistic) है। एक अन्य विशेष अंतर सत्ताओंका निषेध करता है तो जैनधर्म पत्ता संपवता प्रकट होगा जब हम कहें कि ओंको मानता है और एक अनन्त संख्या में । जब कि कपिलका दर्शन भ्रान्तवाद (Idealism) बौद्ध कहता है:-आत्मा नहीं है; अणु नहीं हैं; के वहत निकट है तब जैनधर्भ पुद्गरआकाश, काल, धर्म (Motion) नहीं हैं; वादके निकट पहुंचता है। * और परमात्मा भी नहीं है। इसके विपरीत पहिला प्रश्न जो सांख्य दर्शनके शिष्यके जैनधर्म इन बातोंको स्वीकार करता हुआ इनकी मस्तिष्कमें उत्पन्न होता है वह है, प्रकृति पुष्टि करता है । बौद्धधर्म के अनुसार जब हमें क्या है ? क्या वह पौद्गलिक सिद्धान्त है निर्वाण प्रप्त होता है ता अस्तित्व हीनता वा भ्रान्तवादका ? वास्तवमें वह स्थूलरीत्या हम विलीन होते हैं। जब कि जैनधर्म के पहिलेपहिल पोदक्षिक नहीं है । जिनको अनुसार हमारा वास्तविक अस्तित्व तभी से प्रारंभ हम पौलिक शरीर कहते हैं वे इसके होग है। मसिद्धान्त मी दोनों धर्मो में एक विकात सिद्धान्तका अंतिम है । तब वह समान नहीं हैं। न क णवा हम इसे युक्त नहीं * यह नोट , कर लेना चाहिए कि वर्तमान Rझते कि नैनधर्मको बौद्धधर्मकी शाखा समझा लेखकका अभिप्राय यहां पर यह नहीं है कि सांख्य दर्शन वस्तुतः भ्रान्तवाद है और जैनसिद्धान्त पुद्गजावे । एक घनिष्ट संबंध जैन और सांख्य लवाद ।
SR No.543185
Book TitleDigambar Jain 1923 Varsh 16 Ank 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1923
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy