SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१९) दिगंबर जैन । क्या है ? वह तीन विरोधात्मक गुणोंका समु- स्यं कपिके अनुपार--कारग कार्य के साथ उसी दाय अथवा समानता (Equilibrium) रूपमें स्वभावका होना चाहिए तो विकासमय प्रकृति वर्णित है। जहांतक अनुभव जाता है पुदल आत्मिक अपने विकास परिणामके सहश होना जैसे कि हम मानते हैं समुदायका ऐसा सिद्धांत चाहिए । हम प्रकृतिको पौद्गलिक मानते हुए यह नहीं हो सक्ता है । एक सिद्धान्त जो बहुसंख्या- प्रकट नहीं करसक्ते कि क्यों ये दोनों आत्मिक वादमें समुदाय है, जो विरोधी गुर्गों की बहु (Psychical) तत्व बीवमें अएं इसके पहिले संख्या असनेको बनाए रख सकता है, वह स्व- कि स्थूठ पौद्गलिक तत्व विकाशको प्राप्त हुए मावमें अध्यात्मिक होना चाहिए। सहज ज्ञान हो । यदि प्रकृति किसी प्रकार एक आत्मिक तो यह कहता है और अनुमा एवं दार्शनिक गुण (Potentiality) माना नावे तो उसे विचार से पुष्ट करते हैं। यदि तब प्रकृति अपने आपको पूर्णतया जननेके लिए पूर्णतया अपना नियमित विकासक्रम चालु रक्खे, यद्यपि निश्चय करलेना चाहिए कि उसे क्या करना वह तीन दिखाऊ विरोधो लक्षणोंसे चिन्हित है, है (बुद्धि का कार्य), अपने आपको जान लेना तो वह एक आत्मिक स्त्रमाववाली माना जाना चाहिए (अहंकारका कृत्य) और तब आने चाहिए । बाह्य विरोध तीन गुणों का केवल उसी आपमें कप कपसे विकाश करते चढ़े जाना आत्मिक प्रकृतिका तीन विमिन्न मार्गों द्वारा चाहेए अपने स्वमानु (Self-realisation) व्यक्त करना है। कोई मुख्य विकाप्त नहीं के स्थूल कारणोंको, अर्थात् इन्द्रियों, आवश्यनिकल सक्ता है यदि यह माना जाय एक संघ. क्ताओं, तत्वों (Elements) को इस प्रकार एक पका मुर्दा खेत विविध मुख्य गुणों के मध्य । उत्तम और विशेष विशालवर्णन विकासक्रमका विकास परिणाम पर मानेसे विदित होता है प्राप्त हुआ यदि प्रकृति आत्मिक मानी नावे । कि प्रथम महत-तत्व वा बुद्धि (Intelligence) और यदि फलतः विकाश परिणाम उसके समानु है-पौद्गलिक अणु, पत्थर वा अन्य कुछ (Self-realisation)के कारण समझें मावे । स्थूल पदार्थ नहीं बल्कि कुछ आत्मीक यह भ्रान्तवादकी प्रकृतिकी मान्यता अवनरूपका दूसरा विकास परिणाम ( Evolute ) नीय है और प्राचीनकालमें इससे अनिभिज्ञता भी कुछ कुछ आत्मीक है अर्थात् अहंकार वा नहीं रही होगी। इस प्रकार एक त्रुटिहीन प्रयत्न स्वयबोध (Self-consciousness) तब इंद्रियों प्रकृतिको आत्मिक बनाने का किया गया है पंच आवश्यक्ताएं और क्रमशः तत्व आते हैं। और उसीद्वारा, जैसे कि वह था, सांरूप सिद्धायह विकाशक्रम निरर्थक और स्वाधीन होगा न्तको कथोपनिषेत्र तृतीयबल्ली, १०-११ के यदि प्रकृति एक शुद्ध पौद्गलिक शक्ति मानी इस उल्लेखनीय लेखमें वेदान्त स्वरूप देना है। जावे । कारण कि महत-तत्व और अहंकार "इंद्रियोंसे उच्च उद्देश्य (Objects) हैं; उद्दे. निश्चितरीत्या आत्मिक तस्व है। और यदि श्योंसे उच्च मन है; मनसे उच्च बुद्धि है। बुद्धिसे
SR No.543185
Book TitleDigambar Jain 1923 Varsh 16 Ank 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1923
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy