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________________ दिगंबर जैन । (२४) अधिक बलवान् और नीरोग्य होते हैं। समानके बन्धन, समानके शासन और देशज्ञान अन्तमें यह कहना आवश्यक है कि दीर्घायु इन सबसे पतित होकर स्मार्थपरायण होगये किसी एक नियमके पालनपर निर्भर नहीं। यह हैं । इसी कारण आज हम सब अपने अपने जल, वायु, यो र्यरक्षा, खान-पान, व्यायाम और मनमाने कार्योंके करने में स्वतन्त्र होगये हैं। नीरोग्यताके अन्य नियमोंके पालनपर निर्मर है। इसीसे समानका शरीर गलकर नष्ट-भ्रष्ट माग्यपर विश्वास करनेवाले यह कहेंगे कि- होगया है। अयुः कर्म च वित्तं च विद्या निधनमेव च । ५-हमारे पानवें ज्ञानका विषय होना चाहिए पञ्चतान्याप सृज्यन्ते गर्मस्थस्यैव देहिनः ॥ शिक्षा । हम नित शिक्षाके मोहसे मुग्ध होरहे यदि आयुका मापके अधीन होना मी सत्य हैं, जिसके जालसे समस्त मारतीय समान और मान लिया जाय तो मी इन नियमों के पालनसे मारतीय जीवन बँधा हुआ है, वह शिक्षा मनुष्य दुर्बल, रोगी, आलसी और दुःखी नहीं प्राकृतिक शिक्षा नहीं है । वह वास्तवमें पाशरहेगा। "वैद्य" रूप है और दासताकी जंजीर है। योग्य डाक्टर, वकील आदि ढालनेके लिये तो क्या चाहिए ? यह शिक्षारूपी मशीन ठोक हो सकती है, १-हमारे देशके प्रत्येक मनुष्पको यह ज्ञान किन्तु इससे पूर्वकालकी शिक्षाकी समान शरीर, होना चाहिए कि हम अत्यन्त दरिद्र हैं और मन और भावों में स्फूर्ति उत्पन्न नहीं हो सकती। दरिद्रताके कारण ही हम चिररोगी हैं। रोग आधुनिक शिक्षाने बाजीगरकी समान सृष्टि रव और दारिद्रव्य । आपसमें अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध रक्खी है । इसके कठपुतलीकी सपान हाथ तो है। रोगी शब्दका अर्थ है-"जीते ही मरना है, पर काम नहीं करते । नेत्र हैं पर देख नहीं २-तमको यह ज्ञान होना आवश्क है कि सकते । कान हैं, किन्तु सुनते नहीं। हम मिन रोगोंसे ऊनड़ होते जाते हैं, वे सब भारतवासियोंकी नस नसमें इस बातका ज्ञान निवार्य हैं और पृथ्वी में वे सदासे हैं, किन्तु होना चाहिये कि नि शिक्षापर मारतबाप्ती स्थायी रूपसे कहीं नहीं रहने पते । केवल हमारे मुग्ध होरहे हैं, वह शिक्षा तब मनुष्यों को पङ्ग, देशमें ही वे चिरस्थायी प्रबन्ध करके आये हैं। मूह और बड़बुद्धि बना देती है। इतनेपर मा ३-हमें तीसरा ज्ञान यह होना चाहिए कि इस शिक्षाके लिए हम लोग दलदल में फंपते चले धर्मके नामसे निन देशाच रोंकी जड़ जमी हुई नारहे हैं और स्कूल, काले नोंमें रिश्वों देदेकर है, वास्तवमें वह धर्म नहीं है। वह हमारे लिए उसकी दीवारको हद कर रहे हैं। पाशरूप है। ६-हमारी छठी अनुभूति यह होनी चाहिए ४-हमारे चौथे अनुभाका विषय होना कि-संसारमें कपसे हमारा नाम विख्यात हो । चाहिये-अपनी अवस्थाको जानना । हम धर्म, हमारे पितृ-पितामहादि कैसे योगी थे, कैसे
SR No.543185
Book TitleDigambar Jain 1923 Varsh 16 Ank 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1923
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size10 MB
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