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10 चिंतामणि पार्श्वनाथ
दिवाकर चित्रकथा
अंक ४ मूल्य १७.00/
Mitin
क सुसंस्कार निर्माण
विचारशुद्धि,ज्ञान वृद्धि
मनोरंजन
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________________ चिन्तामणि पार्श्वनाथ जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ एक ऐतिहासिक महापुरुष थे। आपका समय ईसा पूर्व नौवी-दसवीं शताब्दी माना जाता है। भगवान महावीर से 250 वर्ष पूर्व भगवान पार्श्वनाथ ने धर्म तीर्थ का प्रवर्तन किया था और 70 वर्ष तक भारत के विभिन्न प्रदेशों में अहिंसा, सत्य अस्तेय एवं अपरिग्रह रूप चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया। बौन्दुपिटकों में अनेक स्थानों पर भगवान पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म की चर्चा है। उस समय पूर्वोत्तर भारत का अनेक राजवंशों पर भगवान पार्श्वनाथ के उपदेशों का व्यापक प्रभाव था। दक्षिण भारत के नाग राजतंत्र आदि के इष्टदेव भी पार्श्वनाथ थे। भगवान पार्श्वनाथ अत्यन्त करुणाशील योगी पुरुष थे। ध्यान-योग पर उनका विशेष बल था। निर्वाण के पश्चात् भी भारत के विभिन्न अंचलों में उनके लाखों श्रद्धालु अनुयायी विद्यमान थे। भगवान पार्श्वनाथ ने जिस जलते नाग-युगल को णमोकार मंत्र सुनाकर उनका उद्धार किया था, वह धरणेन्द्र पद्मावती के रूप में देव होकर भगवान पार्श्वनाथ के भक्त रूप में विख्यात हुए और समय-समय पर पार्श्वनाथ के भक्तों की सहायता करके जिन शासन की प्रभावना करने में सहायक बने। यही कारण है कि भारत के लाखों-करोड़ों धार्मिक व्यक्ति भगवान पार्श्वनाथ की उपासना/आराधना करते हुए भय-विघ्न-बाधाओं से मुक्त होकर मन इच्छित प्राप्त करने में सफल होते हैं। भगवान पार्श्वनाथ का नामस्मरण ही मन चिंतित कार्य सम्पन्न करने में चिंतामणि रत्न के समान होने के कारण उनका चिंतामणि पार्श्वनाथ नाम अत्यन्त श्रद्धा विश्वास पूर्वक स्मरण किया जाता है। प्रस्तुत पुस्तक में भगवान पार्श्वनाथ के पूर्व जन्मों की कथा लेते हुए वर्तमान तीर्थंकर जीवन तक की घटनाएँ लिखी गई हैं। अपने प्रत्येक जन्म में वे क्षमा और करुणा के महासागर से प्रतीत होते हैं। प्रतिस्पर्धी कमठ क्रोध का प्रतीक है तो भगवान पार्श्वनाथ क्षमा के अवतार। क्षमा और करुणा के माध्यम से ही पार्श्वनाथ ने मनुष्य को शान्त, तनाव रहित आनन्दमय जीवन जीने की शैली सिखाई है। लेखक श्री विजयमुनि शास्त्री संपाद श्रीचन्द सुराना 'सरस' संयोजन एवं व्यवस्था / संजय सुराना चित्रण डा. त्रिलोक शर्मा, डा. प्रदीप शर्मा दिवाकर प्रकाशन ए-७, अवागढ़ हाउस, एम. जी. रोड, आगरा-२८२००२ प्रकाशक श्री श्वेताम्बर जैन श्री संघ भोमिया जी भवन, मधुबन, पो. शिखरजी, जिला-गिरीडिह (बिहार) (c) सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन राजेश सुराना द्वारा दिवाकर प्रकाशन, ए-७, अवागढ़ हाउस, एम. जी. रोड, आगरा-२८२००२ दूरभाष : (0562) 54328,51789 के लिये प्रकाशित। Education internationa www ainelibrary.org
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चिंतामणि पार्श्वनाथ
भगवान पार्श्वनाथ की आत्मा ने नौ जन्म पूर्व, पोतनपुर के राजा अरविंद के राज पुरोहित के घर में जन्म लिया। नाम रखा गया मरुभूति । मरुभूति का बड़ा भाई था कमठ। कमठ बहुत ही क्रोधी, अहंकारी और दुराचारी स्वभाव का था। जबकि मरुभूति सरल, शांतिप्रिय और सदाचारी वृत्ति का था। पिता के बाद मरुभूति को राज पुरोहित का पद मिल गया। राजा अरविंद मरुभूति का बहुत सम्मान करते थे। इस कारण कमठ उससे मन ही मन जलता रहता।
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एकबार कमठ मरुभूति से मिलने के लिए आया। मरुभूति घर पर नहीं था। कमठ की नजर मरुभूति की पत्नी वसुन्धरा पर पड़ी।
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"वाह ! क्या रूप है? इसे तो मैं अपनी बनाऊँगा ।
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मरुभूति की अनुपस्थिति में कमठ वसुन्धरा से। मिलने लगा। तरह-तरह के गहने कपड़े लाकर उसे भेंट देता।
- लो! यह सब तुम्हारे लिए लाया हूँ | पहनकर अप्सरा सी सुन्दर लगोगी...!.
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4057पितामाणयाश्वनाथ
वसुन्धरा कमठ के प्रलोभनों में फँस गई। चोरी छुपे दोनों की प्रेम लीला चलने लगी।
एक दिन कमठ की पत्नी वरुणा ने इन दोनों की पाप लीला देखी तो वह चौंक उठी/MAYAN
हे भगवान! यह - कैसा दुराचार!
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मौका देखकर वरुणा ने कमठ को समझाया
स्वामी! आप यह क्या पाप कर रहे हैं! छोटे भाई की पत्नी तो बेटी के समान । होती है। फिर मरूभूति को पता चलेगा तो दोनों भाईयों के सुखी संसार में आग नहीं लग जायेगी?
कमठ ने क्रोध में आकर उल्टा वळणा को । डांटा।
यह आग तुम ही लगा रही हो! देवता समान अपने पति पर झूठा आरोप लगाते तुम्हें शर्म नहीं आती?
वाह! उल्टा चोर ही कोतवाल
को डॉटे।
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चिंतामणि पार्श्वनाथ जब कमठ नहीं माना तो वरुणा ने वसुन्धरा को परन्तु उसने कमठ को सब कुछ बता दिया। कमठ एकान्त में समझाया
ने पत्नी को मार पीटकर घर से निकाल दिया। प्र य बहन! जेठ तो पिता के समान होते हैं। तेरा यह
दुष्टे ! अपने पति की बुराई आचरण ठीक नहीं हैं,
करती है, निकल जा मेरे घर से अपने कुल को डुबो देगा?
यह सुनकर वसुन्धरा चुप रही।
वरुणा होती-सोती मरुभूति के पास गई। उसकी | अगले दिन मरुभूति ने अपनी पत्नी से कहाबात सुनते ही वह आग बबूला हो गया। उसे वरुणा की बात पर विश्वास नहीं हुआ।
मैं महाराज के काम मुझे स्वयं
से कुछ दिन के लिए सच्चाई का पता
दूसरे शहर जा रहा लगाना चाहिए।
Coहूँ। चार-पांच दिन
लग जायेंगे।
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चिंतामणि पार्श्वनाथ
मरुभूति के जाने की खबर मिलते ही कमठ को मौका मिल गया, वह मरुभूति के घर आ गया। रात में अचानक भेष बदल कर मरुभूति भी वापस आया और छुपकर दोनों की पाप-लीला देखी तो, उसे बहुत दुःख हुआ ।
मरुभूति का मन ग्लानि से भर उठा। उसने महाराज अरविंद से कमठ की शिकायत की।
"महाराज!' मुझे न्याय चाहिये। संसार में इसी प्रकार दुराचार बढ़ता रहा तो एक दिन हमारा समाज रसातल में चला जायेगा।
दुष्ट कमठ को पकड़ कर इसी समय हमारे
राजा को भी यह घटना सुनकर बहुत क्रोध आया। उन्होंने सैनिकों को आदेश दिया
सामने उपस्थित किया जाय
ओह! जिस भाई को मैं पिता समान और पत्नी को देवी तुल्य मानता था। वे इतने पतित, छी छी!! कितने दगाबाज हैं ये नाते रिश्ते।
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कमठ को पकड़कर राज सभा में लाया गया। राजा ने भरे दरबार में उसे फटकारा
राज पुरोहित का बेटा होकर इतना नीच और दुराचारी हो
गया तू! मेरे राज्य में चोर और दुराचारी को एक ही दण्ड है मौत की सजा! किंतु तू ब्राह्मण पुत्र है इसलिए तुझे मृत्यु दण्ड नहीं दिया जा सकता।
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चिंतामणि पार्श्वनाथ राजा ने सैनिकों को आदेश दिया-- कमठ को काला मुँह करके गधे पर बिठाया,नूतों
की माला पहनाई, काले फटे कपड़े पहनाकर नगर में घुमाते हुए घोषणा की- -
इस नीच कमठ ने अपने छोटे भाई की
पत्नी के साथ दुराचार किया है।
इस नीच को गधे । पर बिठाकर काला मुँह करके नगर में घुमाओ, और फिर हमारे राज्य की सीमा से बाहर निकाल दो।
कुछ लोग उस पर थूकने लगे
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छिः! कैसा पापी है, नीच ने, अपने पिता राज पुरोहित विश्वभूति का नाम डुबो दिया।
नगर में घुमाकर सैनिकों ने उसे राज्य की सीमा के बाहर जंगल में छोड़ दिया।
ओह! इतना अपमान! इससे तो अच्छा था मुझे मृत्यु दण्ड मिल जाता।
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चिंतामणि पार्श्वनाथ क्षुब्ध कमठ पहाड़ी से कूदकर आत्महत्या करना कुछ समय बाद मरुभूति का क्रोध शांत चाहता था, परन्तु फिर वह रुक गया और उसी हुआ तो उसे अपने भाई के साथ किये पहाड़ी पर संन्यासी बनकर तपस्या करने लगा। व्यवहार पर पश्चात्ताप होने लगा। CATNT
मैंने अपने घर की बात राजा से कहकर (अच्छा नहीं किया। मेरे पिता समान भाई
- को कितना दुःख हुआ होगा?
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सरल हदय मरुभूति भाई से क्षमा मांगने के लिए उसे जंगल में खोजने लगा। एक पहाड़ी पर कमठ को तप करते देख उसके पास जाकर चरणों में झुककर क्षमा मांगने लगा। (भैया ! मुझे क्षमा कर देना। मरुभूति को देखते ही कमठ बदले
की भावना से तिलमिला उठा।
उसने पास पड़े एक बड़े पत्थर को उठाकर पूरे वेग से मरुभूति के सिर पर पटका।
ले तेरी यही
सजा है।
इसी दुष्ट के कारण मुझे इतना घोर
अपमान सहना पड़ा।
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चिंतामणि पार्श्वनाथ
मरुभूति के सिर से खून बहने लगा, वह गिर पड़ा। गिरते-गिरते कमठ से बोला
हे भाई! तुमने यह क्या किया? मैं तो तुमसे अपने कृत्य की क्षमा माँगने आया था।
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| राजा अरविंद के सैनिकों ने मरुभूति की हत्या की सूचना दी।
महाराज! मरुभूति अपने भाई कमठ से क्षमा मांगने गया था। परन्तु क्रोधी कमठ ने उस पर पत्थर की शिला गिराकर मार डाला।
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और खून से लथपथ तड़पते मरुभूति ने प्राण छोड़ दिये।
महाराज अरविंद सोचने लगे
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'कैसा है यह संसार ! पत्नी पति के साथ धोखा करती है। भाई-भाई की जान ले लेता है?
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इस घटना से राजा को संसार की झूठी मोह, माया से विरक्ति हो गई। वे राजपाट त्याग कर मुनि बन गये । तप करने जंगल में चले गये।
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चिंतामणि पार्श्वनाथ
मृत्यु के पश्चात् मरुभूति के जीव (आत्मा) ने विन्ध्याचल की तलहटी में हाथी के रूप में जन्म लिया। अपने बल पराक्रम से वह हाथियों के यूथ (झुण्ड) का स्वामी गजपति बन गया।
एक बार अटविंद मुनि विंध्याचल की तलहटी में एक जलाशय के निकट ध्यान कर रहे थे। हथिनियों के साथ क्रीड़ा करता हुआ गजपति उधर आ गया। तपस्वी मुनि को अपने क्रीड़ा-स्थल पर तप करता देखकर वह क्रुद्ध हो गया।
(यह कौन तपस्वी क्रीड़ास्थल) पर तप करके हमारी क्रीड़ा में विघ्न डाल रहा है?
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गजराज क्रुद्ध होकर मुनि पर सूंड से प्रहार करने ही वाला था कि मुनि ने हाथ ऊँचा उठाया। मुनि के तप और शान्ति के प्रभाव से गजराज जहाँ था वहीं रुक गया। मुनि आत्मज्ञानी थे। उन्होंने गजपति को उद्बोधन किया
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हे गजराज! क्या तुम मुझे पहचानते हो? अपने आपको पहचानते हो? पिछले जन्म में तुम मेरे राज-पुरोहित मरूभूति थे..याद करो.
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चिंतामणि पार्श्वनाथ
मुनि की वाणी सुनकर गजराज को अपना पिछला जन्म याद आ गया। सूंड नीची करके उसने मुनि के चरण छुए और शांति के साथ उनके सामने आकर बैठ गया। मुनि ने गजराज को समझाया
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"तुमने अपनी पत्नी और भाई कमठ पर क्रोध किया और क्रोध की दशा में ही प्राण त्याग इसलिए मानव जन्म खोकर पशु (तिर्यंच) बने हो । अब क्रोध छोड़ो। क्षमा धारण करो। क्षमा से ही तुम्हारा कल्याण होगा। क्रोध से पतन होता है, क्षमा से उत्थान !
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गजराज अब बिल्कुल साधु जैसा शान्त, क्षमा- शील और तपस्वी बन गया। वह कई दिनों तक सूर्य के सामने निराहार बैठा रहता। तप करता। इस तरह उसका शरीर बहुत कमजोर हो गया। एक दिन गजराज सरोवर में पानी पीने गया तो दलदल में फँस गया। शक्ति क्षीण होने से वह कीचड़ से निकल नहीं सका। w
ओह ! मैं फँस गया। अब तो बाहर निकलना भी मुश्किल है।
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अब मैं कभी किसी पर क्रोध नहीं करूँगा।
क्षमा से ही मेरी आत्मा) को शान्ति मिलेगी।
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चिंतामणि पार्श्वनाथ इधर कमठ का जीव भी बुरे विचारों (आर्तध्यान) मे मरकर उसी जंगल में कुक्कुट जाति का उड़ने बाला सांप बना। सांप उड़ता-उड़ता उधर ही आ पहुंचा जहाँ गजराज दलदल में फंसा था। गजराज को देखते ही उसमें पूर्व जन्म का वैर जाग उठा/
अरे! यह तो वही मरुभूति है, जिसने मेरा घोर अपमान कराया था। आज
अपना पुराना बदला लूँगा।
सांप ने उड़कर गमराज के पेट पर विषैले डंक मारे। विषैले इंक की जलन से गजराज के शरीर में आग-सी लग गई। असह्य पीड़ा होने लगी। किंतु उसे मुनि का उपदेश याद था उसने सर्प से कहा
हे बन्धु! क्रोध को तमो! क्षमा
से ही मन को शान्ति । मिलेगी। सद्गति होगी।
शान्ति के साथ पीड़ा सहते हुए गजराज ने प्राण त्याग दिये।
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चिंतामणि पार्श्वनाथ
इसके बाद मरुभूति का जीव वैताढ्य पर्वत पर किरणवेग नाम का राजा बना। राजा किरणवेग बहुत ही शांतिप्रिय और संसार के प्रति अनासक्त भाव रखते थे। वह अपने पुत्र को राज्य सौंपकर श्रमण बन गये और जंगल में तप ध्यान करने लगे।
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मुनि ने भी सर्प को पहचान लिया। वह बोले
सर्पयोनि से निकलकर कमठ अगले जन्म में फिर भयंकर | विषधर नाग बना। जंगल में मुनि को ध्यानस्थ देखकर | उसका पुराना वैरभाव जाग गया।
हे सर्पराज! क्रोध त्यागो! बैर को भूल जाओ। इसी बैर-भाव के कारण तुम दुर्गति में भटका
रहे हो।
अरे ! यह तो मरूभूति का जीवहै। इसी के कारण मुझे अपमान तिरस्कार सहना पड़ा। आज इसका बदला चुका दूंगा।
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/II परन्तु क्रोधित सर्प ने मुनि के शरीर को डंक मार-मारकर छलनी कर दिया। मुनि अपने समाधि भाव में स्थिर रहे। और शान्तिपूर्वक शरीर छोडकर स्वर्ग में देव बने।
वह ध्यान में मग्न मुनि के शरीर पर लिपट कर डंक मारने लगा।
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चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान पार्श्वनाथ का नीव अपनी जीवन-यात्रा के छठे जन्म में वज्रनाभ नाम के राजा बने। राजा वज्रनाभ । श्री राम-त्यागकर मुनि बनकर तपस्या करने चले गये। कमठ का जीव यहाँ मेरो नाम का भील बना। एक बार किसी घने जंगल में विहार करते हुए मुनि को सामने ही कुरंग भोलि पाया। वह धनुष पर बाण चढ़ाकर शिकार करने निकला था। मुनि को सामने आते देखकर उसकी क्रोध अग्निं भड़क उठी।
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आज सबसे पहला शिकार इसी साधु महात्मा का करूंगा।
भील ने मुनि को निशाना साधकर बाण मारा। बाण लगते ही मुनि भूमि पर गिर पड़े।
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समता भाव के साथ शरीर छोड़कर मुनि देव बने।
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। इधर शिकारी भील को एक सांप ने डंस लिया।
चिन्तामणि पार्श्वनाथ
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सातवें जन्म में पार्श्वनाथ का जीव पूर्व विदेह क्षेत्र में सुवर्णबाहु नाम का चक्रवर्ती बना। एक बार चक्रवर्ती सुवर्णबाहु घोड़े पर चढ़कर जंगल में अकेले ही बहुत दूर निकल गये। उस घने वन के आरम्भ में एक सुन्दर तपोवन था। वहाँ एक सलौने मृग शिशु को गोद में लिये हुए एक सुन्दरी कन्या फूल तोड़ती हुई दिखाई दी।
हिंसा के विचारों में प्राण त्यागकर वह नरक में गया।
सुवर्णबाहु वृक्षों की ओट में छुपकर उसका अद्भुत सौन्दर्य देखने लगे। कन्या के बालों में फूल लगे हुए थे जिसकी सुगंध पर मंडराते भंवरे बार-बार उसके गालों पर आकर बैठ जाते थे। तंग आकर उसने अपनी सखि को पुकारा
Plati
सखि! जल्दी आओ इन भ्रमर-राक्षसों से मेरी रक्षा करो।
बहन ! तुम्हारी रक्षा तो महाराज सुवर्णबाहु ही कर सकते हैं।
यह वन-कन्या तो किसी राजकुमारी जैसी लगती है।
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चिंतामणि पार्श्वनाथ
सुवर्णबाहु अपना नाम सुनकर वृक्ष की ओट से निकलकर सामने आ खड़े हुए। अचानक एक सुन्दर युवक को सामने देखकर दोनों कन्याएँ भयभीत हो गईं। सुवर्णबाह ने उन्हें भयभीत देखकर कहा
सुन्दरी! डरो मत! जब तक इस पृथ्वी पर महाराज सुवर्णबाहु । का राज्य है, तुम्हें कोई कष्ट
नहीं दे सकता।
दे सकता।
तपोवन की कुटिया में स्थित गालव ऋषि ने किसी पुरुष की आवाज सुनी तो वे बाहर आये, एक वीर सुन्दर श्रेष्ठ युवक को सामने खड़ा देखकर ऋषि ने पूछा-माल
हे नरश्रेष्ठ! आप कौन हैं?
सुवर्णबाहु ऋषी की बात का कोई उत्तर देते इससे पहले ही उनके घुड़सवार सैनिक उन्हें ढूँढते हुये वहाँ आ पहुंचे। घुड़सवारों ने दूर से ही अपने राजा को देखकर खुशी के मारे जयघोष किया।
महाराज सुवर्णबाहु MY की जय!
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चिंतामणि पार्श्वनाथ सैनिकों की जयघोष सुनकर गालव
सुवर्णबाहु ने सुन्दरी की तरफ इशारा करते ऋषि ने प्रसन्न होकर कहा
हुए कहाओह ! तो आप ही हैं चक्रवर्ती
ऋषिवर ! इससे बड़ी और श्रेष्ठ भेंट
क्या हो सकती है? मैं इस कन्या से सम्राट सुवर्णबाहु! हम आश्रमवासी/ आपको क्या भेंट दें?
विवाह करना चाहता हूँ।
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ऋषि ने कहा
राजन् ! इसका जन्म तो आपके लिये ही हुआ है। यह राजकुमारी पनावती हैं।आश्रम में ऋषि-कन्या बनकर समय बिता रही हैं। एक निमित्तज्ञानी ने बताया था कि एक दिन महाराज सुवर्णबाहु यहाँ
आयेंगे और वे ही इसके स्वामी होंगे।
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अत्यन्त सुन्दरी राजकुमारी पभावती से विवाह करके चक्रवर्ती सुवर्णबाहु अपनी राजधानी लौट गये।
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चिंतामणि पार्श्वनाथ एकबार बरसात के मौसम में संध्या हो जाने पर दासी ने जीवन की सार्थकता पर सोचते-सोचते सुवर्णबाहु को | दीपक मलाया। कुछ देर बाद दीपक पर पतंगे आ-आकर विषय-भोगों व राज वैभव आदि से विरक्ति हो गई। गिरने लगे/सुवर्णबाहु यह दृश्य देखकर सोचने लगे- अपने पुत्र को राज्य सौंपकर वे श्रमण बन गये 3 संसार के सुख-भोगों की चमक इस दीपक के लौ की एकान्त वन में आत्म-ध्यान में लीन रहने लगे। तरह है। जिसे पाने के लिए अज्ञानी जीव पतंगों की भांति अपने प्राणों की आहुति दे रहे हैं। क्या मेरा जीवन भी। इन मढ पतंगों की तरह है ? व्यर्थ जायेगा?
एक दिन क्षीरगिरि वन में मुनि ध्यान लगाकर खड़े थे। एक भूखे खूखार सिंह ने मुनि पर झपट्टा मारकर आक्रमण कर दिया।
सिद्धे सरणं.... धम्मसरणं
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2NDIA अत्यन्त शान्ति और समभाव के साथ प्राण त्याग दिये।
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D # यह खूखार सिंह कमठ का जीव था।
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चिन्तामणि पार्श्वनाथ इस तरह भगवान पार्श्वनाथ का जीव अपनी नौ जन्मों की यात्रा में पुण्य कर्मों का संचय करता हुआ | दसवें जन्म में वाराणसी के राजा अश्वसोन की पटानी महारानी वामादेवी के गर्भ में अवतरित हुआ। महारानी ने उस रात चौदह विलक्षण शुभ स्वप्न. देखे। स्वप्न देखकर वामादेवी जाग उठी। राजा अश्वसेन को जगाकर वे अपने अलौकिक स्वप्नों के बारे में बता ही रही थी, तभी उन्होंने अपने पति की| बगल से एक सर्प को जाते हुए देखा/BTE
स्वामी ! वह देखिये एक सर्प आपके पार्श्व#
से जा रहा है।
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आश्चर्य! इतनी अँधेरी रात में आपको कैसे दीख रहा है?
अगले दिन राजा अश्वसेन ने इन स्वप्नों और घटना के बारे में ज्योतिषियों से विचार-विमर्श किया।
महाराज! अवश्य ही महारानी के गर्भ में किसी अलौकिक आत्मा ने
प्रवेश किया है।
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# पार्श्व = पास से, निकट
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चिन्तामणि पार्श्वनाथ पौष कृष्णा दसमी के दिन रात्रि के समय, माता वामादेवी ने नील वर्ण वाले सर्प चिन्ह युक्त अत्यन्त सुन्दर पुत्र को जन्म दिया। देवी-देवता, इन्द्र-इन्द्राणी स्वर्ग से पुत्र का जन्म कल्याणक मनाने वाराणसी नगरी में आये।
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महाराज अश्वसेन ने भी पुत्र का जन्मोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया। माता वामादेवी द्वारा अंधेरी। रांत में महाराज के पार्श्व में सर्प जाता देखने के कारण बालक का नाम पार्श्व कुमार रखा।
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# जन्म उत्सव
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चिन्तामणि पार्श्वनाथ पार्श्व कुमार का लालन-पालन बड़े लाड़ प्यार कुछ बड़े होने पर उन्हें गुरुकुल भेजा गया। जहाँ पर से होने लगा।
अस्त्र-शस्त्र आदि विद्याओं का शिक्षण दिया गया।
युवा होने पर पार्श्व कुमार अत्यन्त सुन्दर लगने लगे। नौ हाथ ऊँचे पार्श्व कुमार जब सफेद घोड़े पर बैठकर नगर में निकलते तो स्त्रियाँ उन्हें देखकर कहने लगती
वह स्त्री परम सौभाग्यशाली ।
होगी जिसके पति कामदेव सीखे अपने राजकुमार होंगे।
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एक दिन पार्श्व कुमार अपने पिता राजा अश्व सेन के साथ राज दरबार में बैठे थे। तभी कुशं स्थल नगरी के राजा प्रसेनजित का दूत दरबार में आया। महाराज। हमारे राज्य पर एक गम्भीर
संकट आ गया है। हमें आपकी मदद
की आवश्यकता है।।
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अवश्य! हम आपकी मदद करेंगे आप हमें विस्तार पूर्वक पू री बात बतायें।
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दूत महाराज को घटना सुनाने लगा
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चिन्तामणि पार्श्वनाथ राजा प्रसेनजित के प्रभावती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या है। एक दिन रानकुमारी अपनी सहेलियों के साथ उद्यान में बैठी थी। पास ही लता कुंज में कुछ किन्नटियाँ आपस में बातें कर रहीं थीं
राजकुमार पार्श्व रूप-यौवन और पराक्रम में करोड़ों में एक है। वह
कन्या भाग्यशाली होगी, जिसे पार्श्वकुमार जैसा पति मिलेगा।
कन्नरियों की बातें सुनकर रामकुमारी ने मन ही मन में प्रण कर लिया
ब मैं विवाह करूंगी तो
पार्श्व कुमार से ही (अन्यथा जन्म भर आप कुंवारी रहूँगी।
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अब महाराज को राजकुमारी प्रभावती के प्रण का पता चला तो उन्होंने आपकी सेवा में मुझे भेजने का निश्चय कर लिया। इतने में ही वहाँ कलिंग देश के शासक यवनराज का दूत सन्देश लेकर आया।
महाराज,हमारे राजा यह सम्भव नहीं हैं। प्रभावती ने आपकी पुत्री प्रभावती से YOवाराणसी के युवराज को मन ही मन विवाह करना चाहते हैं। ववरण कर लिया है, इसलिये अब हम
अन्य कुछ सोच भी नहीं सकते.
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इस बात से कुपित होकर यवन राज ने हमारे नगर
को घेर लिया है। अब आप हमारी रक्षा कीजिये। 20
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चिन्तामणि पार्श्वनाथ दूत की बातें सुनकर पार्श्व कुमार राजा अश्वसेन से बोले
पिताश्री, आप मुझे आज्ञा दीजिये। मैं यवन राज को सबक
सिखा कर आता हूँ।
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जाओ पुत्र विजयी होकर वापस आओ।
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पार्श्व कुमार अपनी सेना के साथ यवन राज से युद्ध करने चल पड़े। जब यह खबर देवराज इन्द्र के पास पहुंची तो उन्होंने अपना दिव्य अस्त्रों से भरा रथ पार्श्व कुमार की सेवा में भेजा। पार्श्व कुमार उस दिव्य रथ में बैठ गये। स्थ भूमि से ऊपर आकाश में सेना के आगे-आगे चलने लगा।
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कुश स्थल के पास पहुंचकर पार्श्वकुमार ने नगर के बाहर उद्यान में अपनी सेना सहित पड़ाव डाला
को सन्देशलेकर यवन राम के पास भेजा।। AMIT
हे यवनराज! आप या तो कुक्षस्थल नगर से घेरा हटा| लें। अन्यथा युद्ध के लिये ANY
तैयार हो जायें।
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चिन्तामणि पार्श्वनाथ
यवनराज ने पार्श्व कुमार के अद्भुत बल पराक्रम के विषय में पहले से ही सुन रखा था। जब उसने उनके दिव्य रथ और अमेय अस्त्रों के बारे में सुना तो वह और भी भयभीत हो गया। अपनी जान बचाने के लिए पार्श्व कुमार की शरण में जा पहुंचा।
हे पार्श्व कुमार, मुझे क्षमा कीजिये! मैं आपसे युद्ध नहीं, मैत्री चाहता हूँ। मेरी ओर से ये तुच्छ भेंट स्वीकार करें।
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यवनराज ने पार्श्व कुमार को स्वर्ण-मणि-मुक्ताहार की भेंट दी और वापिस लौट गया।
जब राजा प्रसेनमित को, यवनराज द्वारा पार्श्व कुमार के सामने सर्मपण करने की खबर मिली तो वह सपरिवार पार्श्व कुमार का अभिनन्दन करने नगर के बाहर उद्यान में आये।
पार्श्वकुमार ! आपका MAA
और महाराजाधिराज अश्वसेन का हम पर असीम उपकार है। अब आप मेरी पुत्री प्रभावती को स्वीकार करके एक उपकार
और करें।
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पार्श्वकुमार राजा प्रसेनमीतं का प्यार भरा आग्रह टाल न सके, पिता की स्वीकृति मँगाकर उन्होंने वहीं राजकुमारी प्रभावती के साथ विवाह किया। और उसे लेकर वापिस वाराणसी को लौट आये।
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चिन्तामणि पार्श्वनाथ इधर कमठ का जीव अपने दुष्कर्मो का फल जन्म के कुछ समय बाद माता-पिता की मृत्यु हो गई। भोगते हुये पांच जन्मों तक नरक और पशु योनि उसका घर आग से जल गया। बालक को भाग्यहीन की यंत्रणायें सहता हुआ वाराणसी नगर में एक समझकर लोग उसे कमठ कहने लगे। बड़ा होकर गरीब ब्राह्मण के घर जन्मा। जन्म से ही वह बड़ा। समाज से तिरस्कार पाता हुआ कमठ संन्यासी बनकर कुलप था। रात-दिन रोता रहता था।
जंगल में कठोर तप करने चला गया।
यणका
मल
एक दिन पार्श्व कुमार महारानी प्रभावती के साथ राजमहल के गवाक्ष में बैठे नगर का अवलोकन कर। रहे थे। उन्हें राजमार्ग पर हजारों लोग आते-जाते दिखाई दिये। उन्होंने सैनिक से कहा
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जाओ, जाकर पता लगाओ वह भीड़ कहाँ जा रही है? बगर में इतनी हलचल
क्यों हैं?
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चिन्तामणि पार्श्वनाथ
सैनिक ने लौटकर बताया।
(हम भी वहाँ जायेंगे।
देखें कौन तपस्वी कैसा यज्ञ कर रहा
राजकुमार! नगर। के बाहर कमठ नाम का तपस्वी पंचाग्नि यज्ञ कर
रहा है। नगर वासी उसी यज्ञ को देखने जा रहे हैं।
वहाँ पहुँचकर पार्श्व कुमार ने तपस्वी को देखा। तपस्वी के चारों ओर अग्निकुण्ड में आग जल रही थी। तपस्वी को देखते ही पार्श्व कुमार को अपने पिछले जन्मों का स्मरण हो गया।
ओह! यह तो वही कमठMAY
है जिसका मेरे साथ पिछले अनेक जन्मों में JAL
सम्बन्ध रहा है।
तभी पार्श्व कुमार ने अपनी दिव्य दृष्टि से अग्निकुण्ड की तरफदेखा।।
अरे! इस अग्निकुण्ड में तो एक सर्प का जोड़ा भी लकड़ियों
के साथ जल रहा है ?
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चिन्तामणि पार्श्वनाथ नाग जोड़े को जलते देख पार्श्व कुमार का हृदय करूणा से द्रवित हो उठा, वह कमठ से बोले
तपस्वी! यह कैसा अज्ञान तप है? जिन्दा जीवों को आग में जलाकर आप यज्ञ के नाम पर घोर हिंसा कर रहे हैं?
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राजकुमार! तुम अभी बालक हो, यज्ञ और धर्म का रहस्य तुम क्या जानो? तुम्हें कैसे
पता कि इस यज्ञकुण्ड में कोई जीव जल रहा है?
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यह सुनकर कुमार ने अपने सेवक को अग्निकुण्ड में से जलता हुआ लक्कड़ निकाल कर चीरने का आदेश दिया। लकड़ी को चीरते ही उसमें से जलता हुआ एक नाग का जोड़ा बाहर निकला। वह अध जली मरणासन्न स्थिति में पीड़ा से तड़फ रहे थे। पार्श्व कुमार ने सोचा, इस मरते हुये नाग युगल को सद्गति मिलनी चाहिये इसलिये वे पास में जाकर उन्हें नवकार मन्त्र सुनाने लगे। ।
हे नागराज! आप शांतिपूर्वक पीड़ा सहन करते हुये नवकार मन्त्र का ध्यान
कीजिये।
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चिन्तामणि पार्श्वनाथ
श्रद्धा भाव पूर्वक नमोकार मन्त्र सुनकर नाग युगल को बड़ी शान्ति मिली। सद्भावों के साथ प्राण त्यागते हुये वह सर्प युगल अगले जन्म में नाग कुमार जाति के देवों के इन्द्र-इन्द्राणी धरणेन्द्र एवं पद्मावती हुए।
यह दृश्य देखकर जनता की श्रद्धा कमठ पर से हट गई। वे उसे धिक्कारने लगे। जनता द्वारा तिरस्कृत होकर कमठ मन ही मन खिसिया उठा।
इस दुष्ट पार्श्व कुमार मेरी वर्षों की तपस्या पर
क्षण भर में पानी फेर दिया। मैं इसका बदला लूँगा।
वह नगर से दूर जंगल में जाकर उग्र तप करने लगा। बदले की मलिन भावना मन में लिये तप करता हुआ कमठ मरकर मेघमाली नाम का राक्षस बना।
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चिन्तामणि पार्श्वनाथ
राजभवन में वापस आकर पार्श्व कुमार इस घटना पर चिन्तन करने लगे।
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संसार में चारों ओर अज्ञान और पाखण्ड का बोलबाला है। भोली-भाली जनता अपनी मनोकामनायें पूर्ण करने के लिए कमठ जैसे पाखण्डियों के चंगुल में जा फँसती है। मुझे इनको सही मार्ग दिखाना चाहिए।
ऐसा विचार कर उन्होंने संसार के राज वैभव को त्यागकर दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया।
पौष-कृष्णा एकादशी के दिन पार्श्वकुमार ने वाराणसी नगर के बाहर आश्रम पद उद्यान में तीन सौ मनुष्यों के साथ अशोक वृक्ष के नीचे राजसी जीवन त्यागकर दीक्षा ले ली। इन्द्र महाराज ने उनक देव दूष्य वस्त्र भेंट किये।
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चिन्तामणि पार्श्वनाथ
| मेघमाली ने खूखार सिंह, जंगली हाथी, जहरीले नाग आदि रूप बनाकर पार्श्वनाथ के शरीर को जगह-जगह से काटा, डंक मारे। परन्तु भगवान अपनी ध्यान-अवस्था से विचलित नही V
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महाश्रमण पाश्र्व विहार करते हुए एक वन में पहुंचे। वहाँ घने वट वृक्ष के नीचे खड़े होकर ध्यानस्थ हो गये। उसी वृक्ष पर - मेघमाली नाम के असुरदेव का। निवास था। उसने महा-श्रमण पार्श्व को देखा तो उसके मन में पूर्वजन्मो की बैर-भावना जाग उठी।
इसी के
कारण
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जनता ने मुझे ढोंगी पाखंडी कहकर प्रताड़ित किया था। आज मैं अपना बदला लूंगा।
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अपने सभी प्रयत्न खाली जाते देख मेघमाली NIRMY भयावनी मेघ गर्जना, कड़कड़ाती बिजली और असुर ने भगवान को जल में डुबाकर मारने AKOAAमूसलाधार वर्षा से जंगल के जानवर घबराकर के लिए घनघोर वर्षा प्रारम्भ कर दी।
इधर-उधर छुपने लगे।पार्श्वनाथ वहीं पर अविचल ध्यान में खडे रहे।
# जो पिछले जन्म में कमठ था।
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थोड़ी देर में चारों तरफ प्रलय का दृश्य उपस्थित हो गया। असुर मेघमाली तेज - तूफानी हवाओं के साथ मूसलाधार जल वर्षा कर रहा था। मालIAMERI
इस उपसर्ग के कारण धरणेन्द्र पनावती का सिंहासन | डोलने लगा। धरणेन्द्र ने अपनी दिव्य दृष्टि से देखा | तो उसे मेघमाली देव की करतूत का पता चला।
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हम आज जो कुछ हैं वह सब प्रभु पार्श्व के उपकार का फल है। दुष्ट
मेघमाली प्रभु को कष्ट | पहुंचा रहा है। हमें तुरन्त उन की सेवा करनी चाहिए।
नागेन्द्र धरणेन्द्र इन्द्राणी पन्नावती के II साथ तुरन्त भगवान पार्श्वनाथ की सेवा | में पहुंचे। प्रभु को जलमग्न होता देख सर्वप्रथम कुण्डली मारकर प्रभु के 5 चरणों के नीचे एक कमल जैसा आसन बना दिया और अपना फन प्रभु के सिर पर छतरी की तरह तान दिया। प्रभु पार्श्वनाथ जल में कमल के समानस्थित हो गये। दोनों ने प्रभु की वन्दना की।
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धरणेन्द्र देव ने असुर मेधमाली को पहले फटकारा, फिर युद्ध के लिये MEW ललकारा। धरणेन्द्र की ललकार सुनकर मेघमाली भयभीत हो गया और अपनी प्राण-रक्षा के लिये पार्श्वनाथ प्रभु के चरणों में हाथ जोड़कर क्षमा मांगने लगा। KARTA
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भद्र क्षमा और शान्ति के जल से द्वेष अग्नि को शांत करो।
प्रभु ! मैं अज्ञानी हूँ।वैर भावना के वश पिछले जन्मों में मैंने आपको बहुत कष्ट दिये। मेरे सभी अपराध क्षमा कर दीजिए। मैं आपकी शरण
में आया हूँ। DOT
पार्श्व प्रभु के उपदेश सुनकर कमठ के जन्म-जन्मों की द्वेषअग्नि शांत हो गयी।
उसके बाद प्रभु पार्श्वनाथ वाराणसी के निकट आश्रम पद उद्यान में आकर कायोत्सर्ग ध्यान करने लगे। उनके प्रभाव से जंगली जीवों में परस्पर प्रेम का संचार होने लगा And
# कायोत्सर्ग = शरीर के मोह का त्याग करना।
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चिन्तामणि पार्श्वनाथ
दीक्षा से बयासी दिन पश्चात् चैत्र कृष्णा ४ के दिन भगवान को इसी उद्यान में धातकी वृक्ष के नीचे केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। अब वे वीतराग जिनपद को प्राप्त हो गये।
देवताओं ने समवसरण की रचना की। जहाँ तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने प्रथम धर्म देशना दी जिसे सुनकर सैकड़ों व्यक्तियों ने मुनिधर्म तथा श्रावक धर्म स्वीकार किया।
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अहो भव्य प्राणियों! जरा, रोग और मृत्यु से भरे इस संसार रूपी महान् भयानक वन में धर्म के सिवाय और कोई रक्षक सहायक नहीं है। धर्म ही सच्चे सुख का मार्ग है।
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इस तरह भगवान पार्श्व ने लगभग ७० वर्षों तक लोगों को धर्म का मार्ग दिखाया।
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चिन्तामणि पार्श्वनाथ निर्वाण समय निकट आने पर भगवान अपने शिष्यों के साथ सम्मेद शिखर पर्वत पर पधारे और तप एवं शुक्ल ध्यान में लीन हो गये। श्रावण शुक्ला अष्टमी विशाखा नक्षत्र में प्रभु को मोक्ष प्राप्त हुआ।
सम्मेद शिखर पर्वत, जहाँ भगवान को मोक्ष प्राप्त हुआ था। आज जैनों का एक भव्य तीर्थ है। इस पर्वत पर बीस तीर्थंकर तथा हजारों मुनियों ने मोक्ष प्राप्त किया। यह पवित्र सिद्ध क्षेत्र कहलाता है। हजारों लोग प्रतिदिन उस स्थान की दर्शन यात्रा करने जाते हैं।
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जैन श्वेताम्बर श्री संघ, सम्मेदशिखरजी : एक परिचय
जैन श्वेताम्बर श्री संघ, श्री सम्मेदशिखरजी महातीर्थ में मानव-सेवा की भावना से व्यापक रूप में कार्यरत है एवं मधुवन में श्री भोमियाजी भवन, धर्मशाला, भोजनालय आदि का सुन्दर संचालन कर रहा है। विश्व में सर्वप्रथम आधुनिक ढंग से श्री भक्तामर जिनालय का निर्माण कार्य इस भवन में किया गया है। मूलनायक के रूप में श्री शत्रुजय महातीर्थ से प्राप्त परम तारक देवाधिदेव की अलौकिक, अद्वितीय, भव्य एवं चमत्कारिक प्रतिमा श्री आदिनाथ भगवान के साथ-साथ अन्य देवाधिदेव श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जी, श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथजी, श्री अजितनाथजी एवं श्री सुपार्श्वनाथजी आदि की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित की गयी हैं। जिनालय में आरसे से बनी देहरियों में यन्त्र-मन्त्र, प्रभुजी के चरणों की प्रतिष्ठा के अलावा भक्तामर गाथाओं का अंग्रेजी एवं हिन्दी में भावार्थ सहित अंकन किया गया है एवं इसके रचयिता श्री मानतुंग सूरीजी की मूर्ति (बेड़ी सहित) प्रतिष्ठित की गयी है। श्री शान्तिनाथ जिनालय का निर्माण कार्य चालू है एवं शीघ्र प्रतिष्ठा करवाने की भावना है। साथ ही तीर्थ क्षेत्र के आस-पास बसे असहाय लोगों के लिये कमला मेहता चेरिटेबल ट्रस्ट, दिवाली बेहन मोहललाल मेहता चेरिटेबल ट्रस्ट, बम्बई, मै. कान्तीभाई गाँधी चैरिटी ट्रस्ट, जमशेदपुर की प्रेरणा व सहयोग से अनाज वितरण का कार्य विधिवत चालू है। इसके अलावा आस-पास क्षेत्र में बसे हजारों गरीब परिवारों को निःशुल्क अन्न, वस्त्र, औषधि आदि द्वारा सहायता पहुँचाई जाती है। अभी अनेक योजनाएँ कार्यान्वित करनी है, जिनमें आपका सहयोग निश्चित विकास कार्यों में चार चाँद लगायेगा।
जैन श्वेताम्बर श्री संघ, भोमियाजी भवन मधुबन पो. शिखरजी के ट्रस्टीगण श्री दिनेशकुमार जैन, कलकत्ता
श्री सुमेरमल लूंकड, बम्बई श्री राजकुमार गोलछा, कलकत्ता
श्री रतनलाल हिरण, बैंगलोर श्री सुन्दरलाल दूगड़, कलकत्ता
वर्तमान कार्यकारिणी समिति श्री दिनेशकुमार जैन-अध्यक्ष
श्री ज्ञानचन्द लूणावत-कार्यकारिणी सदस्य श्री पुखराज बाफना-स. अध्यक्ष
श्री सम्पतलाल गोलछा-कार्यकारिणी सदस्य श्री खुशालचंद बनेचंद शाह-उपाध्यक्ष
श्री शान्तिलाल गोलछा-कार्यकारिणी सदस्य श्री चाँदमल बरडिया-सचिव
श्री प्रकाशचन्द बांगाणी-कार्यकारिणी सदस्य श्री सुन्दरलाल दूगङ-उप-सचिव
श्री भंवरलाल सिंगी-कार्यकारिणी सदस्य श्री भीखमचन्द डागा-कोषाध्यक्ष
श्री चन्द्रकुमार बोथरा-कार्यकारिणी सदस्य श्री मगनमल लूणिया कार्यकारिणी सदस्य
श्री कुशलचन्द बाँठिया-कार्यकारिणी सदस्य श्री विजयमल लोढ़ा-कार्यकारिणी सदस्य
सलाहकार एवं कार्य-सहयोगी सदस्य श्री लक्ष्मीचन्द कोठारी, बैंगलोर
श्री दिलीप एच. शाह (घी वाला), बम्बई श्री एस. कपूरचंद, बैंगलोर
श्री सम्पतलाल झंवरी श्री मनोजकुमार बाबूमल जी हरण, सिरोहि
श्री भूपेन्द्र एम. शाह, बम्बई श्री भानमल जैन, कलकत्ता
श्री कंवरलाल कोचर, कलकत्ता
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________________ श्री सम्मेदशिखरजी महातीर्थ के रक्षक समकितधारी देव श्री भोमियाजी श्री सम्मेदशिखरजी महातीर्थ की तलहटी में प्रतिष्ठित तीर्थ रक्षक श्री भोमियाजी का मन्दिर एवं भोमियाजी भवन का एक दृश्य DIWAKAR PRAKASHAN, A-7 AWAGARH HOUSE, M.G ROAD AGRA-2. PH.: (0562) 54328, 51789 Pinted Mack Offset Printers 207 Jaipur House. Aga 6 331209 rak