Book Title: Chausaran Painnayam
Author(s): Suresh Sisodiya, Manmal Kudal
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम संस्थान ग्रन्थमाला : 16 सम्पादक प्रो. सागरमल जैन समियाए धम्मे आरिएहिं पव्वइये चउसरणपइण्णय (चतुःशरण - प्रकीर्णक) डॉ. सुरेश सिसोदिया मानमल कुदाल सव्वत्थे सु समं चरे सव्वं जगं तु समयाणुपेही पियमप्पियं कस्स वि नो करेज्जा सम्मत्तदंसी न करेइ पावं सम्मत्त दिट्ठि सया अमूढे समियाए मुनि होइ आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान उदयपुर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम संस्थान ग्रन्थमाला : 16 सम्पादक प्रो. सागरमल जैन चउसरणपइण्णय (चतुःशरण - प्रकीर्णक) - श्री पुण्यविजयजी द्वारा सम्पादित मूलपाठ) अनुवादक डॉ. सुरेश सिसोदिया मानमल कुदाल भूमिका प्रो. सागरमल जैन डॉ. सुरेश सिसोदिया WIL Ira आगम, अहिंसा - समता एवं प्राकृत संस्थान उदयपुर (राज.) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक : चउसरणपइण्णयं अनुवादक : डॉ. सुरेश सिसोदिया : मानमल कुदाल प्रकाशक : आगम, अहिंसा - समता एवं प्राकृत संस्थान पद्मिनी मार्ग, उदयपुर (राज.) 313 001 फोन : (0294)490628 संस्करण : प्रथम, 1999 - 2000 मूल्य : रू. 50.00 मुद्रक : चौधरी ऑफसेट प्रा. लि., उदयपुर Book : Causaranapainnayam Translated By : Dr. Suresh Sisodiya : Manmul Kudal Published by: Agama Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthana Padmini Marg, Udaipur (Raj.) 313 001 Phone (0294)490628 Edition : First, 1999 - 2000 Price : Rs. 50.00 Printed at :Choudhary Offset Pvt. Ltd., Udaipur Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय अर्धमागधी जैन आगम साहित्य भारतीय संस्कृति और साहित्य की अमूल्य निधि है। दुर्भाग्य से इन ग्रन्थों के अनुवाद उपलब्ध न होने के कारण जनसाधारण और विद्वद्वर्ग दोनों ही इनसे अपरिचित हैं। आगम ग्रन्थों में अनेक प्रकीर्णक प्राचीन और अध्यात्मप्रधान होते हुए भी अप्राप्त से रहे हैं। यह हमारा सौभाग्य है कि पूज्य मुनि श्री पुण्यविजय जी द्वारा सम्पादित इन प्रकीर्णक ग्रन्थों का प्रकाशन श्री महावीर जैन विद्यालय , बम्बई से हो चुका है, किन्तु अनुवाद के अभाव में जनसाधारण के लिए ये ग्राह्य नहीं बन सके। इसी कारण जैन विद्या के विद्वानों की समन्वय समिति ने अननुदित आगम ग्रन्थों और आगमिक व्याख्याओं के अनुवाद के प्रकाशन को प्राथमिकता देने का निर्णय लिया और इसी सन्दर्भ में प्रकीर्णकों के अनुवाद का कार्य आगम संस्थान, उदयपुर को दिया गया। संस्थान द्वारा अब तक देवेन्द्रस्तव, तंदुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, महाप्रत्याख्यान, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, गणिविद्या, गच्छाचार, वीरस्तव और संस्तारक नामक नौ प्रकीर्णक अनुवाद सहित प्रकाशित किये जा चुके हैं। हमें प्रसन्नता है कि संस्थान के शोधाधिकारी डॉ. सुरेश सिसोदिया एवं पूर्व शोधाधिकारी श्री मानमल कुदाल ने 'चउसरणपइण्णयं' का अनुवाद सम्पूर्ण किया। प्रस्तुत ग्रन्थ की सुविस्तृत एवं विचारपूर्ण भूमिका संस्थान के मानद निदेशक प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया ने लिखकर ग्रन्थ को पूर्णता प्रदान की है, इस हेतु हम उनके कृतज्ञ हैं। हम संस्थान के मार्गदर्शक प्रो. कमलचन्द सोगानी, मानद सह निदेशिका डॉ. सुषमा सिंघवी, उपाध्यक्ष श्री वीरेन्द्र सिंह लोढ़ा एवं मन्त्री श्री इन्दरचन्द बैद के भी आभारी हैं, जो संस्थान के विकास में हर संभव सहयोग एवं मार्गदर्शन दे रहे हैं। प्रस्तुत पुस्तक के प्रकाशन हेतु स्व. श्रीमती रतनीदेवीजी नाहटा की पुण्य - स्मृति में उनके पति श्री श्रीचन्दजी नाहटा ने पन्द्रह हजार रूपये का अर्थ सहयोग प्रदान किया है,एतदर्थ हम उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। ग्रन्थ के सुन्दर एवं सत्वर मुद्रण के लिए हम चौधरी ऑफसेट प्रा" लिए, उदयपुर के भी आभारी हैं। .. सोहनलाल सिपणी सरदारमल कांकरिया अध्यक्ष महामंत्री Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत प्रकाशन के अर्थ सहयोगी स्व. श्रीमती रतनीदेवीजी नाहटा / संक्षिप्त जीवन परिचय बिरले व्यक्ति ही ऐसे होते हैं जो अपनी वाणी में माधुर्यता, व्यवहार में शालीनता, हृदय में अजस्र करुणा आदि मानवीय गुणों के कारण अपने घर - परिवार एवं समाज में ही नहीं वरन् अन्य जाने - अनजाने लोगों पर भी अपनी अमिट छाप छोड़ जाते हैं। ऐसा ही निर्मल और प्रभावकारी व्यक्तित्व था स्व. श्रीमती रतनीदेवीजी नाहटा का। श्रीमती नाहटा का जन्म 19 अक्टू. 1933 को लाडनूं में रतनगढ़ के एक सम्पन्न वैद परिवार में हुआ। आपके पिता श्री भूरामल जी वैद समाज के अग्रणी श्रावक थे तथा माता श्रीमती गणपति देवी जी वैद आदर्श महिला जीवन की प्रतीक थी। 12 वर्ष की अल्पायु में ही आपका विवाह सरदारशहर के समाजमान्य, उदारमना, दानवीर प्रसिद्ध व्यवसायी श्री श्रीचन्दजी नाहटा के साथ सम्पन्न हुआ। गौरवर्ण, बड़ी - बड़ी करूणापूर्ण आँखें, उन्नत नाक, Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुस्कराते होठ, ये थे आपके बाह्य सद्गुण, जो सजह ही किसी को भी आपकी ओर आकर्षित कर लेते थे। अतिथि सत्कार, संत महापुरूषों, महासतियों की सेवा में आप सदैव अग्रणी रहती थी। सामायिक, स्वाध्याय के प्रति आपकी गहरी रूचि थी। सहनशीलता की आप जीवन्त प्रतिमा थी तथा सदैव प्रभू भक्ति में लीन रहती थी। सेवा एवं स्वधर्मी वात्सल्य प्रारंभ से ही आपके जीवन के अभिन्न अंग रहे। आपके धर्म परायण व्यक्तित्व एवं सेवाभावी जीवन का प्रभाव आपके पूरे परिवार में परिलक्षित होता है। आपके दोनों पुत्र श्री महेन्द्र जी एवं श्री विजय जी तथा दोनों पुत्रियाँ श्रीमती सम्पत देवी एवं श्रीमती प्रेमलता भी लोक कल्याणकारी विविध प्रवृतियों में सहयोग हेतु सदैव तत्पर रहते हैं। . 16 जनवरी 1997 को आप घर - परिवार एवं समस्त आत्मीय जनों को शोक संतप्त छोड़कर अनन्त में विलीन हो गई। यद्यपि आदर्श महिला श्री रतनीदेवीजी आज देह रूप में हमारे मध्य में नहीं है तथापि उनका व्यक्तिगत जीवन और उनके द्वारा स्थापित एवं संचालित विविध लोकोपकारी प्रवृत्तियां हमें बार - बार उनका स्मरण कराती हैं। लाडनूं में गौ - शाला का निर्माण, सुजानगढ़ में पंचायत सभागार का निर्माण तथा कलकत्ता - हावड़ा के जैन हॉस्पिटल में बाल निदान केन्द्र का निर्माण आदि कल्याणकारी प्रवृत्तियाँ आपकी * स्मृति को सदैव जीवन्त बनाये हुये हैं। सरदारमल कांकरिया Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका पृष्ठ क्रमांक विषय __ गाथा क्रमांक भूमिका (कुशलानुबंधी अध्ययन) छ: आवश्यक का संक्षिप्त अर्थाधिकार छ: आवश्यक का विस्तृत अर्थाधिकार 2-7 चौदह स्वप्न मंगल अर्थाधिकार चतुःशरणगमण 11 अरहंत शरण 12-22 सिद्ध शरण 23-29 साधु शरण 30-40 केवलि कथित धर्म शरण 41-48 दुष्कृत गर्दा 49-54, सुकृत अनुमोदना 55-58. चतुःशरण गमनादि का फल 59-63 (चतुःशरण प्रकीर्णक) विषय गाथा क्रमांक पृष्ठ क्रमांक 2-6 7-17 18-26 अर्थाधिकार चतुःशरण गमण दुष्कृत गर्दा सृकृत अनुमोदना उपसंहार 1 परिशिष्ट गाथानुक्रमणिका 2 परिशिष्ट सहायक ग्रन्थ सूची 27 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउसरण पइण्णयं (चतुःशरण-प्रकीर्णक) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका प्रत्येक धर्म परम्परा में धर्म ग्रन्थ का एक महत्वपूर्ण स्थान होता है। हिन्दुओं के लिए वेद, बौद्धों के लिए त्रिपिटक, पारसियों के लिए अवेस्ता, ईसाइयों के लिए बाईबिल और मुसलमानों के लिए कुरान का जो स्थान और महत्व है, वही स्थान और महत्व जैनों के लिए आगम साहित्य का है। यद्यपि जैन परम्परा में आगम न तो वेदों के समान अपौरुषेय माने गये हैं और न ही बाईबिल और कुरान के समान किसी पैगम्बर के माध्यम से दिया गया ईश्वर का सन्देश, अपितु वे उन अर्हतों एवं ऋषियों की वाणी का संकलन हैं, जिन्होने साधना और अपनी आध्यात्मिक विशद्धि के द्वारा सत्य का प्रकाश पाया था। यद्यपि जैन आगम साहित्य में अंग सूत्रों के प्रवक्ता तीर्थकरों को माना जाता है किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि तीर्थकर भी मात्र अर्थ के प्रवक्ता हैं, दूसरे शब्दों में वे चिन्तन या विचार प्रस्तुत करते हैं, जिन्हें शब्द रूप देकर ग्रंथ का निर्माण गणधर अथवा अन्य प्रबुद्ध आचार्य या स्थविर करते जैन-परम्परा हिन्दू-परम्परा के समान शब्दों पर उतना बल नहीं देती है। वह शब्दों को विचार की अभिव्यक्ति का मात्र एक माध्यम मानती है। उसकी दृष्टि में शब्द नहीं, अर्थ (तात्पर्य) ही प्रधान है। शब्दों पर अधिक बल न देने के कारण ही जैन-परम्परा के आगम ग्रंथों में यथाकाल भाषिक परिवर्तन होते रहे और वे वेदों के समान शब्द रूप में अक्षुण्ण नहीं रह सके / यही कारण है कि आगे चलकर जैन आगम साहित्य, अर्द्धमागधी आगम साहित्य और शौरसेनी आगम साहित्य ऐसी दो शाखाओं में विभक्त हो गया। इनमें अर्द्धमागधी आगम साहित्य न केवल प्राचीन है; अपितु वह महावीर की मूलवाणी के निकट भी है। शौरसेनी आगम साहित्य का विकास भी अर्द्धमागधी आगम साहित्य के प्राचीन स्तर के आगम ग्रन्थों के आधार पर ही हुआ है। अतः अर्द्धमागधी आगम साहित्य शौरसेनी आगम साहित्य का आधार एवं उसकी अपेक्षा 1. "अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा"- आवश्यक नियुक्ति, गाथा 92 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 : चउसरणपइण्णयं प्राचीन भी है। यद्यपि यह अर्द्धमागधी आगम साहित्य महावीर के काल से लेकर वीर निर्वाण संवत् 980 या 993 की वलभी की वाचना तक लगभग एक हजार वर्ष की सुदीर्घ अवधि में अनेक बार संकलित और सम्पादित होता रहा है। अतः इस अवधि में उसमें कुछ संशोधन, परिवर्तन और परिवर्धन भी हुआ है और उसका कुछ अंश काल कवलित भी हो गया है। प्राचीन काल में यह अर्द्धमागधी आगम साहित्य अंगप्रविष्ट और अंग बाह्य ऐसे दो विभागों में विभाजित किया जाता था। अंगप्रविष्ट में ग्यारह अंग आगमों और बारहवें दृष्टिवाद को समाहित किया जाता था। जबकि अंगबाह्य में इनके अतिरिक्त वे सभी आगम ग्रंथ समाहित किये जाते थे, जो श्रुतकेवली एवं पूर्वधर स्थविरों द्वारा रचित माने जाते थे। पुनः अंगबाह्य आगम साहित्य को नन्दीसूत्र में आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त ऐसे दो भागों में विभाजित किया गया है। आवश्यक व्यतिरिक्त के भी पुनः कालिक और उत्कालिक ऐसे दो विभाग किये गये हैं। नन्दोसूत्र का यह वर्गीकरण निम्नानुसार है श्रुत ( आगम ). अंगप्रविष्ट अंगबाह्य आचारांग आवश्यक आवश्यक व्यतिरिक्त सूत्रकृतांग स्थानांग सामायिक समवायांग चतुर्विंशतिस्तव व्याख्याप्रज्ञप्ति वन्दना ज्ञाताधर्मकथांग प्रतिक्रमण उपासकदशांग कायोत्सर्ग अन्तकृतदशांग प्रत्याख्यान अनुत्तरौपपातिकदशांग प्रश्नव्याकरण विपाकसूत्र दृष्टिवाद 1. नन्दीसूत्र- सं. मुनि मधुकर, सूत्र 73,79-81 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका : 11 कालिक उत्कालिक उत्तराध्ययन दशाश्रुतस्कन्ध कल्प व्यवहार निशीथ महानिशीथ ऋषिभाषित जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति द्वीपसागरप्रज्ञप्ति चन्द्रप्रज्ञप्ति क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्ति महल्लिकाविमानप्रविभक्ति अंगचुलिका वग्गचूलिका विवाहचूलिका अरुणोपपात वरूणोपपात गरूड़ोपपात . धरणोपपात वैश्रमणोपपात वेलन्धरोषपात देवेन्द्रोपपात उत्थानश्रुत समुत्थानश्रुत नागपरिज्ञापनिका निरयावलिका कल्पावतंसिका पुष्पिका पुष्पचूलिका वष्णिदशा दशवैकालिक काल्पिकाकल्पिक चुल्लकल्पश्रुत महाकल्पश्रुत औपपातिक राजप्रश्नीय जीवाभिगम प्रज्ञापना महाप्रज्ञापना प्रमादाप्रमाद नन्दीसूत्र अनुयोगद्वार देवेन्द्रस्तव तंदुलवैचारिक चन्द्रकवेध्यक सूर्यप्रज्ञप्ति पौरूषीमंडल मण्डलप्रवेश विद्याचरण विनिश्चय गणिविद्या ध्यानविभक्ति मरणविभक्ति आत्मविशोधि वीतरागश्रुत संलेखनाश्रुत विहारकल्प चरणविधि आतुरप्रत्याख्यान महाप्रत्याख्यान Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 : चउसरणपइण्णयं . नन्दिसूत्र और पाक्षिक सूत्र में मिलने वाले उपरोक्त वर्गीकरण में उत्कालिक सूत्रों के वर्ग में देवेन्द्रस्तव, तन्दुलवैचारिक, चन्द्रकवैद्यक, गणिविद्या, मरणविभक्ति, आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान-ये सात नाम तथा कालिक सूत्रों के वर्ग में ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति- ये दो नाम अर्थात् वहां कुल नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है।' किन्तु उपरोक्त वर्गीकरण में कुशलानुबन्धी चतुःशरण एवं चतुःशरण इन दोनों ही प्रकीर्णकों का कहीं भी उल्लेख नहीं है। तत्वार्थ भाष्य और दिगम्बर परम्परा की. तत्वार्थ की टीका सर्वार्थसिद्धि में जहां अंग बाह्य चौदह ग्रन्थों का उल्लेख है, उनमें भी कुशलानुबन्धी चतुःशरण और चतुःशरण का उल्लेख नहीं हुआ है। इसी प्रकार यापनीय परम्परा के ग्रन्थों मूलाचार, भगवती आराधना आदि की टीका में यद्यपि उत्तराध्ययनसूत्र, दशवैकालिकसूत्र, दशाश्रुतस्कंध, व्यवहार, वृहतकल्प, जीतकल्प और निशीथसूत्र आदि सूत्रों के उल्लेख तो मिलते हैं किन्तु उनमें भी कहीं भी कुशलानुबंधी चतुःशरण और चतुःशरण प्रकीर्णक का उल्लेख नहीं मिलता है। - मुनि पुण्यविजयजी द्वारा संपादित एवं श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित पइण्णयसुत्ताई भाग -1 पुस्तक में यद्यपि कुशलानुबंधी चतुःशरण और चतुःशरण इन दो प्रकीर्णकों को पृथक-पृथक प्रकीर्णक माना गया है और इनमें क्रमशः 63 एवं 27 गाथाएँ हैं। ज्ञातव्य है कि चतुःशरण का ही अपरनाम कुशलानुबधी अध्ययन भी है। अतः प्रकीर्णकों के वर्गीकरण की शैली में अधिकांश विद्वानों ने कुशलानुबंधी चतुःशरण और चतुःशरण को पृथक- पृथक प्रकीर्णक नहीं मानकर केवल चतुःशरण नाम ही दिया है किन्तु हमने अपने प्रस्तुत ग्रन्थ का मूल आधार मुनि पुण्यविजयजी द्वारा संपादित पइण्णयसुत्ताइं पुस्तक को ही माना है और उसमें ये दोनों प्रकीर्णक पृथक-पृथक नाम से उल्लेखित हैं। अतः हमने भी यहां इन दो प्रकीर्णकों को पृथक-पृथक रूप में ही उल्लेखित किया है। 1 (क) नन्दीसूत्र : संपा. मुनि मधुकर, प्रका• श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, वर्ष 1982, पृष्ठ 161-162 (ख) पाक्षिकसूत्र : प्रका• देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, पृष्ठ 76 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका : 13 कुशलानुबंधी चतुःशरण अपरनाम चतुःशरण का सर्वप्रथम उल्लेख हमें विधिमार्गप्रपा (जिनप्रभ1 4वीं शताब्दी) में उपलब्ध होता है। उसमें प्रकीर्णकों में देवेन्द्रस्तव, तन्दुलवैचारिक, मरणसमाधि, महाप्रत्याख्यान, आतुर प्रत्याख्यान, संस्तारक, चन्द्रवैद्यक, भक्तपरिज्ञा, वीरस्तव, गणिविद्या, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और संग्रहणी के साथ चतुःशरण का भी उल्लेख हुआ है।' विधिमार्गप्रपा में आगम ग्रन्थों के अध्ययन की जो विधि प्रज्ञप्त की गई है, उसमें चतुःशरण के पश्चात् वीरस्तव का उल्लेख है। विधिमार्गप्रपा में चतुःशरण का उल्लेख होना यह सिद्ध करता है कि उसे चौदहवीं शताब्दी में एक प्रकीर्णक के रूप में मान्यता प्राप्त थी। सामान्यतया प्रकीर्णकों का अर्थ विविध विषयों पर संकलित ग्रन्थ ही किया जाता है। नन्दीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि के अनुसार तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करके श्रमण प्रकीर्णकों की रचना करते थे / परम्परागत मान्यता है कि प्रत्येक श्रमण एक प्रकीर्णक की रचना करता था। समवायांगसूत्र में “चौरासीइं पइण्णग सहस्साइं", कहकर ऋषभदेव के चौरासी हजार शिष्यों के चौरासी हजार प्रकीर्णकों की ओर संकेत किया गया है। आज प्रकीर्णकों की संख्या निश्चित नहीं है। किन्तु वर्तमान में 45 आगमों में 10 प्रकीर्णक माने जाते हैं। ये 10 प्रकीर्णक निम्नलिखित ___ 1. चतुःशरण 2. आतुरप्रत्याख्यान 3. महाप्रत्याख्यान 4. भक्तपरिज्ञा 5. तन्दुलवैचारिक 6. संस्तारक 7. गच्छाचार 1.देवंदत्थयं-तंदुलवेयालिय-मरणसमाहि-महापच्चक्खाण-आउरपच्चक्खाण संथारयचंदाविज्झय-चउसरण-वीरत्थय-गणिविज्जा-दीवसागरपण्णत्ति-संगहणी-गच्छायारंइच्चाइपइण्णगाणि / इक्किक्केणं निविएण वच्चंति / -विधिमार्गप्रपा, सम्पा. जिनविजय, पृष्ठ 57-58 2.समवायांगसूत्र : संपा. मुनि मधुकर प्रका• श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, प्रथम संस्करण 1982, 84 वां समवाय, पृष्ठ 143 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 : चउसरणपइण्णयं 8. गणिविद्या 9. देवेन्द्रस्तव और 10. मरणसमाधि।' ' इन दस प्रकीर्णकों के नामों में भी भिन्नता देखी जा सकती है। कुछ ग्रन्थों में गच्छाचार और मरणसमाधि के स्थान पर चन्द्रवैद्यक और वीरस्तव को गिना गया है। कहीं भक्तपरिज्ञा को नहीं गिनकर चन्द्रवैद्यक को गिना गया है। इनके अतिरिक्त एक ही नाम के एकाधिक प्रकीर्णक भी उपलब्ध होते हैं। यथाआउरपच्चक्खाण (आतुरप्रत्याख्यान) नाम से तीन तथा चतुःशरण नाम से दो प्रकीर्णक उपलब्ध हैं। ___दस प्रकीर्णकों को श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय आगमों की श्रेणी में मानता है। मुनि श्री पुण्यविजयजी के अनुसार प्रकीर्णक नाम से अभिहित इन ग्रन्थों का संग्रह किया जाय तो निम्न बाईस नाम प्राप्त होते हैं : 1.चतुःशरण 2. आतुरप्रत्याख्यान 3. भक्तपरिज्ञा 4. संस्तारक 5. देवेन्द्रस्तव 6. तन्दुलवैचारिक 7. चन्द्रकवैद्यक 8. गणिविद्या 9. महाप्रत्याख्यान 10. वीरस्तव 11. ऋषिभाषित 12. जीवकल्प 13. गच्छाचार 14. मरणसमाधि 1 5. तित्थोगाली 16. आराधनापताका 17. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति 18. ज्योतिषकरण्डक 19. अंगविद्या 20. सिद्धप्राभृत 21. सारावली और 22. जीवविभक्ति। 1.(क) प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डॉ. नेमीचन्द शास्त्री, पृष्ठ 197 (ख) जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा, देवेन्द्रमुनि शास्त्री, पृष्ठ 388 (ग) आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन, मुनि नगराज, पृष्ठ 86 2.पइण्णयसुत्ताई, भाग-1, प्रस्तावना पृष्ठ 20 3.उदृत-अभिधान राजेन्द्र कोष, भाग-2, पृष्ठ 41 4.पइण्णयसुत्ताई, भाग-1, प्रस्तावना पृष्ठ 18-19 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका : 15 प्रकीर्णकों के नाम और संख्या को लेकर जो भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण उपलब्ध हैं, उसी संदर्भ में दृष्टव्य है कि मुनि पुण्यविजयजी द्वारा संपादित और श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई द्वारा प्रकाशित पइण्णयसुत्ताई भाग 1की प्रस्तावना में यद्यपि मुनिजी ने यह लिखा है कि प्रकीर्णक नाम से अभिहित ग्रन्थों का संग्रह किया जाय तो बाईस नाम प्राप्त होते हैं। मुनिजी ने वहां उन बाईस प्रकीर्णकों का नामोल्लेख भी किया है, किन्तु पइण्णयसुत्ताई भाग 1 में बीस प्रकीर्णकों एवं भाग 2 में सात प्रकीर्णकों तथा पाँच कुलकों का प्रकाशन हुआ है और इनमें से कुछ प्रकीर्णक उन पूर्व उल्लेखित बाईस प्रकीर्णकों से भिन्न हैं। __ मुनि पुण्यविजयजी द्वारा संपादित पइण्णयसुत्ताइं भाग 1 एवं भाग 2 में संग्रहित प्रकीर्णक इस प्रकार हैंपइण्णयसुत्ताई भाग-1, इसमें निम्न 20 प्रकीर्णक हैं : 1. देवेन्द्रस्तव 2. तन्दुलवैचारिक 3. चन्द्रकवैद्यक 4. गणिविद्या 5. मरणसमाधि 6. आतुरप्रत्याख्यान 7. महाप्रत्याख्यान 8. ऋषिभाषित 9. कुशलानुबंधी चतुःशरण 10. संस्तारक 11. वीरस्तव 12. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति 13. आतुरप्रत्याख्यान 14. चतुःशरण 15: भक्तपरिज्ञा 16. आतुरप्रत्याख्यान 17. गच्छाचार 18. सारावली 19. ज्योतिषकरण्डक 20. तित्थोगाली। पइण्णयसुत्ताई भाग-2, इसमें निम्न सात प्रकीर्णक और पाँच कुलक ग्रन्थ हैं: 1.आराधनापताका (प्राचीनाचार्य विरचित) 2.आराधनापताका (श्री वीरभद्राचार्य विरचित) 3.आराधनासार (पर्यन्त आराधना) 4. आराधना पंचक (श्री उद्योतनसूरि विरचित) (कुवलयमालाकहा के .अन्तर्गत) 5. आराधना प्रकरण (श्री अभयदेवसूरि प्रणीत) 6. आराधना (श्री जिनेश्वर श्रावक एवं सुलसा श्राविका द्वारा निरूपित) 7.आराधना (नन्दनमुनि द्वारा आराधित) 8. आराधना कुलक 9-10. मिथ्या दुष्कृत कुलक भाग 1 एवं भाग 2, 11. आलोयणा कुलक 12.अल्पविशद्धि कलक। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 : चउसरणपइण्णयं इस प्रकार पइण्णयसुत्ताई भाग-1 एवं 2 में कुल 27 प्रकीर्णक एवं 5 कुलक प्रकाशित हैं। इनमें चतुःशरण नामक दो प्रकीर्णक, आतुरप्रत्याख्यान नामक तीन प्रकीर्णक और आराधना नामक सात प्रकीर्णक एवं एक कुलक है। एक नाम से प्रकाशित एकाधिक प्रकीर्णकों में से आराधनापताका, चतुःशरण और आतुर प्रत्याख्यान को यदि एक-एक ही माना जाये तो कुल अठारह प्रकीर्णक होते हैं तथा दोनों भागों में अप्रकाशित अंगविज्जा*, अजीवकप्प, सिद्धपाहुड एवं जिनविभक्ति ये चार नाम जोड़ने पर प्रकीर्णकों की कुल संख्या 22 होती है। यद्यपि आगमों की श्रृंखला में प्रकीर्णकों का स्थान द्वितीयक है किन्तु यदि हम भाषागत प्राचीनता और अध्यात्मपरक विषयवस्तु की दृष्टि से विचार करें तो कुछ प्रकीर्णक आगमों की अपेक्षा भी प्राचीन प्रतीत होते हैं। प्रकीर्णकों में ऋषिभाषित आदि कुछ ऐसे प्रकीर्णक हैं जो उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक जैसे प्राचीन स्तर के आगमों से भी प्राचीन हैं।' - प्रकीर्णक नाम से वर्गीकृत प्रायः सभी श्रेणियों में चतुःशरण प्रकीर्णक को स्थान मिला है। जैसा कि हम पूर्व में ही उल्लेख कर चुके हैं कि चतुःशरण प्रकीर्णक का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य जिनप्रभकृत विधिमार्गप्रपा में उपलब्ध होता है। आचार्य जिनप्रभ के दूसरे ग्रन्थ सिद्धान्तागमस्तव की विशाल राजकृत वृत्ति में भी चतुःशरण का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इस प्रकार जहां नन्दीसूत्र *यद्यपि मुनि श्री पुण्यविजयजी ने प्रस्तुत संग्रह में अंगविद्या को स्थान नहीं दिया है किन्तु "अंगविद्या", उन्हीं के द्वारा संपादित होकर प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद से प्रकाशित हो चुकी है। 1.डॉ. सागरमल जैन-ऋषिभाषित एक अध्ययन 2.वन्दे मरणसमाधि प्रत्याख्याने “महा -ऽऽतुरो " पपदे। संस्तार-चन्द्रवेध्यक-भक्तपरिज्ञा- चतुःशरणम् / / 32 / / वीरस्तव-देवेन्द्रस्तव-गच्ाचारमपि च गणिविद्याम् / द्वीपाब्धिप्रज्ञप्ति तण्डुलवैतालिकं च नमुः / / 33 / / उद्धृत -H.R.Kapadia, The Canonical Literature of the Jainas, Page-51. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका : 17 एवं पाक्षिक सूत्र की सूचियों में चतुःशरण का उल्लेख नहीं है, वहां आचार्य जिनप्रभ की सूचियों में चतुःशरण का स्पष्ट उल्लेख है। इसका फलितार्थ यह है कि चतुःशरण प्रकीर्णक नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र के परवर्ती किन्तु विधिमार्गप्रपा से पूर्ववर्ती है। चतुःशरण प्रकीर्णक पइण्णयसुत्ताई भाग 1 को आधार बनाकर प्रस्तुत कृति में कुशलाबुबंधी चतुःशरण और चतुःशरण इन दो प्रकीर्णकों का गाथानुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है। कुशलानुबन्धी चतुःशरण भी चतुःशरण प्रकीर्णक का ही अपरनाम है। दोनों ही प्रकीर्णकों की यद्यपि एक भी गाथा शब्द रूप में समान नहीं है तथापि भाव रूप में दोनों प्रकीर्णकों की विषयवस्तु प्रायः समान ही है। इनमें चारगति शरणा, दुष्कृत्य की निन्दा और सुकृत्य की अनुमोदना का निरूपण हुआ है। ___ कुशलानुबंधी चतुःशरण एवं चतुःशरण प्रकीर्णक में प्रयुक्त हस्तलिखित प्रतियाँ प्रस्तुत संस्करणों का मूल पाठ मुनि श्री पुण्यविजयजी द्वारा संपादित एवं श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित “पइण्णयसुत्ताई” ग्रन्थ से लिया गया है। मुनि श्री पुण्यविजय जी ने इस ग्रन्थ के पाठ निर्धारण में निम्नलिखित प्रतियों का उपयोग किया है. - 1.जे : आचार्य श्री जिनभद्रसूरि जैन ज्ञान भण्डार की ताडपत्रीय प्रति। 2.हं. : श्री आत्मारामजी जैन ज्ञान मन्दिर, बड़ौदा में उपलब्ध प्रति। यह प्रति मुनि श्री हंसराजजी के हस्तलिखित ग्रन्थ संग्रह की है। . 3.सा. : आचार्य श्री सागरानन्दसूरिश्वरजी द्वारा सम्पादित एवं वर्ष 1927 में आगमोदय समिति, सूरत द्वारा प्रकाशित प्रति। 4.ला : लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद में संग्रहित प्रति। 5. सं० : संघवीपाड़ा जैन ज्ञान भण्डार की उपलब्ध ताड़पत्रीय प्रति। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 : चउसरणपइण्णयं 6.. पु. : मुनि श्री पुण्यविजयजी के हस्तलिखित ग्रन्थ संग्रह की प्रति। ___ इन पाण्डुलिपियों की विशेष जानकारी के लिए हम पाठकों से “पइण्णयसुत्ताई” ग्रन्थ की प्रस्तावना के पृष्ठ 23- 27 देख लेने की अनुशंसा करते हैं। कुशलानुबंधी चतुःशरण एवं चतुःशरण प्रकीर्णक के प्रकाशित संस्करण : ___ अर्धमागधी आगम साहित्य के अन्तर्गत अंग, उपांग, नियुक्ति, भाष्य, टीका आदि के साथ अनेक प्राचीन एवं अध्यात्मप्रधान प्रकीर्णकों का निर्देश भी प्राप्त होता है किन्तु व्यवहार में इन प्रकीर्णकों के प्रचलन में नहीं रहने के कारण अधिकांश प्रकीर्णक जन-साधारण को अनुपलब्ध ही रहे और कुछ प्रकीर्णकों को छोड़कर अन्य का प्रकाशन भी नहीं हुआ है। कुशलानुबंधी चतुःशरण प्रकीर्णक के उपलब्ध प्रकाशित संस्करणों का विवरण इस प्रकार (1) चउसरण पयन्ना - जैन सिद्धान्त स्वाध्याय माला , प्रका. जीवन-श्रेयस्कर-ग्रन्थमाला, रॉगडी चौक, बीकानेर, ई० स० 1941 (2) चउसरणपइन्नयं-प्रकरणमाला - प्रका• श्री जैन विद्याशाला, अहमदाबाद, ई० स०1905 (3) चउसरणपइण्णा - जैन स्वाध्यायमाला, प्रका. श्री अखिल भारतीय साधुमार्गी जैन संस्कृति रक्षक संघ, सैलाना,(म० प्र०) ईस. 1965 (4) चउसरणपइण्णयं - प्रकीर्णकदशकं, प्रका• श्री आगमोदय समिति, सूरत, ई॰ स॰ 1927 विगत कुछ वर्षों से प्राकृत भाषा में निबद्ध कुछ प्रकीर्णकों का प्राकृत, संस्कृत, गुजराती और हिन्दी आदि विविध भाषाओं में अनुवाद सहित प्रकाशन हुआ है। चतुःशरण प्रकीर्णक के विविध भाषाओं में निम्नलिखित संस्करण प्रकाशित हुए हैं Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका : 19 1. चतुःशरण- प्रकाशक-तत्व विवेचक सभा, वर्ष 1901, भाषा- प्राकृत, गुजराती। 2.चतुःशरण- प्रकाशक-देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार संघ, बम्बई, भाषा-प्राकृत, संस्कृत। 3.चतुःशरणप्रकाशक-हीरालाल हंसराज, जामनगर, भाषा-प्राकृत, गुजराती। 4. चतुःशरण-प्रकाशक-मनमोहन यश स्मारक, वर्ष 1950, भाषा - प्राकृत, हिन्दी तथा वर्ष 1934, भाषा-प्राकृत / कुशलानुबंधी चतुःशरण एवं चतुःशरण प्रकीर्णक के कर्ता प्रकीर्णकों में चन्द्रकवैद्यक, तन्दुलवैचारिक, महाप्रत्याख्यान, मरण-विभक्ति, गच्छाचार, संस्तारक आदि अनेक प्रकीर्णकों के रचयिता के नामों का कहीं कोई निर्देश नहीं मिलता है। प्रकीर्णक ग्रन्थों के रचयिताओं के संदर्भ में मात्र देवेन्द्रस्तव और ज्योतिषकरण्डक ये दो ग्रन्थ ही ऐसे हैं जिनमें स्पष्ट रूप से इनके रचयिताओं के नामोल्लेख उपलब्ध हैं।' परवर्ती प्रकीर्णकों में भक्तपरिज्ञा, कुशलानुबंधी अध्ययन, चतुःशरण और आराधनापताका ये तीन प्रकीर्णक ही ऐसे हैं जिनमें इनके रचयिता वीरभद्र का उल्लेख मिलता है। भक्तपरिज्ञा और कुशलानुबंधी चतुःशरण प्रकीर्णक में लेखक का स्पष्ट नामोल्लेख हुआ है। यद्यपि आराधनापताका प्रकीर्णक में लेखक का स्पष्ट नामोल्लेख तो नहीं हुआ है तथापि इस ग्रन्थ की गाथा 51 में यह कहकर कि आराधना विधि का वर्णन मैंने पहले भक्तपरिज्ञा में कर दिया है, यह स्पष्ट करता है कि यह ग्रन्थ भी उन्हीं वीरभद्र के द्वारा रचित है। इस प्रकार कुशलानुबंधी प्रकीर्णक के रचयिता के रूप में हमें वीरभद्र का जो स्पष्ट नामोल्लेख मिलता है, वस्तुतः वे वीरभद्र 1.(क) देविंदत्थओ-पइण्णयसुत्ताई, भाग 1, गाथा 310 (ख) जोइसकरण्डगं पइण्णयं, वही, भाग 1, गाथा 405 2.(क) भत्तपइण्णापइण्णयं, वही, भाग 1, गाथा 172 (ख) कुशलानुबन्धी अज्जयणं “चउसरणपइण्णयं,” वही, भाग1, गाथा 63 (ग) सिरिवीरभद्धायरियाविरइया “आराहणापडाया" वही, भाग 2, गाथा 51 3. आराहणविहि पुण भत्तपरिण्णाइ वण्णिमो पुव्वं / उस्सणं स च्चेव उ सेसाण वि वण्णणा होइ / / -सिरिवीरभद्धारियाविरडया "आराहणापडाया" वही. भाग 1 गाथा 51 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 : चउसरणपइण्णय कौन थे, यह जिज्ञासा की जा सकती है। जैन परम्परा में वीरभद्र को महावीर के साक्षात शिष्य के रूप में उल्लिखित किया जाता है। किन्तु प्रकीर्णक ग्रन्थों की विषयवस्तु का अध्ययन करने से यह फलित होता है कि वे भगवान महावीर के समकालीन नहीं हैं। एक अन्य वीरभद्र का उल्लेख वि० सं० 1008 का मिलता है। संभवतः कुशलानुबंधी चतुःशरण की रचना इन्हीं वीरभद्र के द्वारा हुई हो। हमारे इस कथन की पुष्टि इस कारण भी होती है कि कुशलानुबन्धी चतुःशरण का उल्लेख नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में वर्गीकृत आगमों की सूची में नहीं है। कुशलानुबंधी चतुःशरण एवं चतुःशरण प्रकीर्णक का रचनाकाल . नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में आगमों का जो वर्गीकरण किया गया है उसमें कुशलानुबंधी चतुःशरण प्रकीर्णक का कोई उल्लेख नहीं हुआ है। तत्वार्थ भाष्य और दिगम्बर परम्परा की सर्वार्थसिद्धि टीका में भी कुशलानुबंधी चतुःशरण प्रकीर्णक का कहीं कोई उल्लेख नहीं हुआ है। इसी प्रकार यापनीय परम्परा के ग्रन्थों में भी कहीं भी कुशलानुबंधी चतुःशरण प्रकीर्णक का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। इससे यही फलित होता है कि छठी शताब्दि से पूर्व इस ग्रन्थ का कोई अस्तित्व नहीं था। कुशलानुबंधी चतुःशरण प्रकीर्णक का सर्वप्रथम उल्लेख विधिमार्गप्रपा में मिलता है। इसका तात्पर्य यह है कि कुशलानुबंधी चतुःशरण प्रकीर्णक नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र के परवर्ती अर्थात् छठी शताब्दि के पश्चात् तथा विधिमार्गप्रपा अर्थात् 14 वीं शती से पूर्व अस्तित्व में आ चुका था। यहां यह भी ज्ञातव्य है कि ग्रन्थ की गाथा में ग्रन्थ के रचयिता के रूप में जिन वीरभद्र का नामोल्लेख हुआ है, वे भी ग्यारहवीं शताब्दि के आचार्य रहे हैं। अतः यदि हम रचनाकाल को और सीमित करना चाहें तो यह कालावधि ग्यारहवीं शताब्दि से चौदहवीं शताब्दि के मध्य कभी मानी जा सकती है। 1. The Canonical Literature of the Jainas, Page-51-52. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका : 21 विषय वस्तु : चतुःशरण” नामक प्रस्तुत कृति में कुशलानुबंधी चतुःशरण एवं चतुःशरण प्रकीर्णक की क्रमशः 63 एवं 27 कुल 90 गाथाओं का अनुवाद किया गया है। ये सभी गाथाएँ सामायिक से चारित्र की शुद्धि, चतुर्विशति, जिनस्तवन से दर्शन विशुद्धि, वन्दन से ज्ञान की निर्मलता, प्रतिक्रमण से ज्ञान-दर्शन और चारित्र की विशुद्धि, कायोत्सर्ग से तप की विशुद्धि तथा प्रत्याख्यान से वीर्य की विशुद्धि का विवेचन प्रस्तुत करती हैं। कुशलानुबंधी चतुःशरण नामक ग्रन्थ में निम्नलिखित विवरण उपलब्ध होता है : सर्वप्रथम लेखक अर्थाधिकार में सावद्ययोगविरति, उत्कीर्तन, गुणव्रत अंगीकार, स्खलित की निंदा, व्रण चिकित्सा तथा गुणधारण इन छ: आवश्यकों का नामोल्लेख करता है (1) / तत्पश्चात् इन छ: आवश्यकों का विस्तार निरूपण करते हुए ग्रन्थकार कहता है कि सामायिक के द्वारा सावद्ययोग आदि पापकर्मों का परित्याग कर एवं उनके असेवन से व्यक्ति सम्यक् चारित्र की विशुद्धि प्राप्त करता है (2) / .. ग्रन्थानुसार जिनेन्द्र देवों के अतिशय युक्त गुणों के संकीर्तन के द्वारा व्यक्ति सम्यक् दर्शन की विशुद्धि प्राप्त करता है (3) / तथा आचार्य, उपाध्याय आदि के प्रति समर्पण एवं उन्हें विधिपूर्वक वन्दन करने से व्यक्ति सम्यक् ज्ञान की विशुद्धि प्राप्त करता है (4) / ... प्रतिक्रमण का महत्व एवं लाभ निरूपित करते हुए कहा गया है कि जो व्यक्ति अपने दोषों की विधि पूर्वक आलोचना और प्रतिक्रमण करता है, वह व्यक्ति प्रतिक्रमण द्वारा अपनी आत्म विशुद्धि करता है (5) / / तत्पश्चात ग्रन्थकार कहता है कि जिस प्रकार चिकित्सा के द्वारा व्रण अर्थात् घाव का उपचार होता है, उसी प्रकार यथाक्रम से Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 : चउसरणपइण्णयं प्रतिक्रमण तथा कायोत्सर्ग के द्वारा चारित्र की शुद्धि होती है (6) / गुणधारणा नामक छठे आवश्यक का विस्तार निरूपण करते हुए कहा गया है कि गुणधारण तथा प्रत्याख्यान के द्वारा तपाचार तथा वीर्याचार की शुद्धि की जा सकती है। प्रस्तुत ग्रन्थ में निम्नलिखित चौदह स्वप्नों का नामोल्लेख हुआ है :- 1. हाथी, 2. वृषभ, 3. सिंह, 4. अभिषेक युक्त लक्ष्मी, 5. फूलों की माला, 6.चन्द्रमा, 7.सूर्य, 8. ध्वजा, 9.कुंभ, 10. पद्मसरोवर, 11. सागर (क्षीर समुद्र), 12.देव विमान या भवन, 13. रत्नराशि और 14.निधूर्म अग्नि। ग्रन्थकार ग्रन्थ के प्रारंभ में मंगल स्वरूप अमरेन्द्र, नरेन्द्र और मुनिन्द्र के द्वारा वंदित, महावीर को नमन करता है (9) / आगे की गाथा में ग्रन्थकार कहता है कि साधु-समूह को कुशलता के लिए चतुःशरण गमन, दुष्कृत की निंदा और सुकृत की अनुमोदना करनी चाहिए (10) / चतुःशरण गमन की चर्चा करते हुए कहा गया है कि चतुर्गति का नाश करने वाला तथा अरहंत, सिद्ध, साधु और केवलिकथित सुखप्रद धर्म- इन चार शरणों को प्राप्त करने वाला व्यक्ति धन्य है (11) / ___ अरहंत की विशेषता बतलाते हुए कहा गया है कि वे राग-द्वेष तथा मोह का हरण करने वाले, आठ कर्मो तथा विषय-कषाय रूपी दुश्मनों का नाश करने वाले, अमरेन्द्र एवं नरेन्द्र द्वारा पूजित, स्तुतित, वंदित और शाश्वत सुख देने वाले, मुनि जोगिन्द्र तथा महेन्द्र के ध्यान को तथा दूसरे के मन को जानने वाले, धर्मकथा कहने वाले, सभी जीवों की रक्षा करने वाले, सत्य वचन बोलने वाले, ब्रहमचर्य का पालन करने वाले, चौंतीस अतिशयों को धारण करने वाले, तीनों लोकों को अनुशासित करने वाले, लोक में स्थित जीवों का उद्धार करने वाले, अत्यद्भूत गुण वाले, चन्द्रमा के समान अपने यश को प्रकाशित करने वाले, अहिंसादि पॉच महाव्रतों का पालन करने वाले, वृद्धावस्था तथा मृत्यु से विमुक्त, समस्त दुःखों Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका : 23 से पीड़ित जीव के लिए शरणभूत तथा समस्त प्राणियों के लिए त्रिभुवन के समान मंगलकारी हैं (12-22) / सिद्धों की शरण अंगीकार करने हेतु सिद्धों की विशेषता बतलाते हुए कहा गया है कि वे अष्ट कर्मो का क्षय करने वाले, ज्ञान से युक्त, दर्शन से समृद्ध तथा सर्वार्थलब्धि से सिद्ध, परमतत्व के जानकार, चिंता रहित, सामर्थ्यवान, मंगलकारी, निर्वाण प्राप्त, वस्तु स्वरूप को यथार्थ रूप से जानने वाले, मनः व्यापार का त्याग करने वाले, प्रतिकूलता में प्रेरणा देने वाले, बीज रूप संसार को ध्यानरूपी अग्नि से समग्रतया दग्ध करने वाले, परमानन्द को प्राप्त, गुण सम्पन्न, भव सागर से पार कराने वाले, समस्त द्वन्द्वों का क्षय करने वाले, हिंसा आदि से विमुक्त तथा सम्पूर्ण जगत को स्तंभ की तरह धारण करने वाले हैं (23-28) / . ग्रन्थकार साधु शरण ग्रहण करने हेतु साधु शरण की विशेषता बतलाते हुए कहते हैं कि साधुजन नवब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, पृथ्वी की तरह शांत, समस्त जीवलोक के बांधव, दुर्गति रूप समुद्र से पार उतारने वाले, मोक्षसुख प्राप्त कराने वाले, केवली के समान उत्कृष्ट ज्ञान वाले, श्रुतधर के समान विपुल बुद्धि वाले, पूर्व अंग एवं . उपांग ग्रन्थों के ज्ञाता, क्षीराश्रव, मध्वाश्रव, संभिन्नस्रोत लब्धिवाले, कोष्ठ . बुद्धि वाले, चारण शक्ति वाले, वैक्रिय शरीर वाले, पादगमन करने वाले, वैर-विरोध से मुक्त, कभी द्वेष नहीं करने वाले, प्रशान्त मुख -मुद्रा वाले, इष्ट गुणों से युक्त, मोह का नाश करने वाले, स्नेहरूपी बंधन को नष्ट करने वाले, अहंकार से रहित, परमसुख की कामना करने वाले, मनोरम आचरण करने वाले, विषय-कषाय से मुक्त, घर-परिवार से रहित, विषय-भोगों से रहित, हर्ष, विषाद, कलह एवं शोक से रहित, हिंसादि दोष से रहित, करुणा करने वाले, स्वयंभू के समान सुन्दर, अजर-अमर पद से परिवेष्टित, सुकृत पुण्य करने वाले, काम-विकार से घृणा, चोर वृत्ति एवं संभोग से रहित तथा गुण रूपी रत्नों से विभूषित हैं Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 : चउसरणपइण्णयं (30-39) / साधुओं की चर्चा के प्रसंग में ही आगे एक गाथा में यह भी कहा गया है कि वे ही साधु उत्तम हैं जो आचार्यों को भी सम्यक् रूप से स्थिर रखते हैं। ग्रंथकार ने यहाँ इसी रूप में साधु शब्द का अर्थ ग्रहित किया है और ऐसे साधुओं की ही शरण में जाने का कथन किया है (40) / केवलि प्ररूपित धर्म की शरण अंगीकार करने हेतु ग्रन्थकार कहता है कि मैं साधु शरण अंगीकार कर जिनधर्म की शरण में जाता हूँ। यह जिनधर्म निश्चय ही आनन्द, रोमांच, प्रपंच और कंचुक आदि को कृश करने वाला है। ग्रन्थकार आगे यह भी कहता है कि जिसके द्वारा मनुष्य और देवताओं के सुखों को प्राप्त कर लिया गया है, वह सुख मुझे प्राप्त हो या न हो, किन्तु मैं मोक्ष सुख प्राप्त कराने वाले जिनधर्म की शरण में जाता हूँ / तदुपरान्त जिनधर्म को पापकर्मो को गलाने वाला, शुभ कर्म उत्पन्न कराने वाला, कुकर्मो का तिरस्कार करने वाला, जन्म-जरा-मरण और व्याधि आदि में साथ रहने वाला, काम और प्रमोद को शांत करने वाला, जाने-अनजाने में वैर-विरोध नहीं कराने वाला, मोक्ष दिलाने वाला, नरकगति में जाने से रोकने वाला, कामरूपी योद्धा को मारने वाला तथा दुर्गति को हरण करने वाला कहा गया है (4148) / ___ चारशरण की चर्चा करने के पश्चात ग्रन्थकार दुष्कृत की गर्दा के प्रसंग में कहता है कि दुष्कृत की गर्दा करने वाला अशुभ कर्मों का क्षय करता है। ग्रन्थकार यह भी कहता है कि इस भव और परभव में मिथ्यात्व की प्ररूपणा करने वाले, पापजनक क्रिया करने वाले, जिनवचन के प्रतिकूल आचरण करने वालों की तथा उनके पापों की मैं गर्दा अर्थात् निंदा करता हूँ। (49-50) / आगे की गाथाओं में ग्रन्थकार कहता है कि मिथ्यात्व और अज्ञान से अरहंत आदि के प्रति जो निन्दनीय वचन मैंने कहे हैं तथा अज्ञान के द्वारा जो कुछ मैंने कहा है, उन सब पापों की मैं Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका : 25 इस समय गर्दा करता हूँ / श्रुत, धर्म, संघ और साधुओं के प्रति जो पाप और प्रतिकूल आचरण मैंने किये हैं उनकी और अन्य दूसरे पापों की मैं इस समय गर्दा करता हूँ। अन्य जीवों के प्रति मैत्री और करूणा रखते हुए भी भिक्षाचर्या में मैंने इन जीवों को जो परिताप और दुःख पहुंचाया है, उन पापों की मैं इस समय निंदा करता हूँ। ग्रन्थकार दुष्कृत गर्दा की चर्चा यह कहकर पूर्ण करता है कि मन-वचन-काया तथा कृत-कारित और अनुमोदना पूर्वक जो धर्म विरूद्ध अशुद्ध आचारण मैंने किया है उन सब पापों की मैं गर्दा करता हूँ (51-54) / दुष्कृत गर्दा के पश्चात् सुकृत अनुमोदना की चर्चा करते हुए ग्रन्थकार कहता है कि अरहंतों में अरहंतत्व, सिद्धों में सिद्धत्व, आचार्यों में आचार्यत्व, उपाध्यायों में उपाध्यायत्व, साधुओं में साधुत्व, श्रावकजनों में श्रावकत्व और सम्यक् दृष्टियों में सम्यक्त्व इन सबका मैं अनुमोदन करता हूँ तथा वीतराग के वचनानुसार जो कुछ भी सुकृतं है, उनकी सर्व समय में त्रिविध रूप से मैं अनुमोदना करता हूँ (55-58) / ग्रन्थ में चतुःशरण गमन आदि का फल निरूपण करते हुए कहा गया है कि चतुःशरण गमन का आचरण करने वाला जीव नित्य शुभ परिणाम वाला होता है। कुशल स्वभावी जीव शुभ अनुभाव का बंधन करता है। आगे कहा गया है कि मंद अनुभाव से बद्ध जीव मंद अशुभ बंधन तथा तीव्र अनुभाव से बद्ध जीव तीव्र अशुभ बंधन बांधता है। आगे ग्रन्थकार कहता है कि नित्य संक्लेश में बंधकर त्रिकाल में भी सुकृत फल की प्राप्ति नहीं हो सकती, किन्तु असंक्लेश में सुकृत फल की प्राप्ति हो सकती है, ऐसा विज्ञजनों ने कहा है। ___चतुःशरण गमन नहीं करने वाले जीव के लिए कहा गया है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप रूप चतुर्विध धर्म-जिनधर्म का अनुपालन नहीं करने वाला, चतुःशरण गमन नहीं जाने वाला तथा Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 : चउसरणपइण्णयं जिसने नारक, तिर्यच, मनुष्य और देवता ऐसे चतुर्गति रूप संसार का छेदन नहीं किया है, ऐसा जीव मनुष्य जन्म को हार जाता है (59-62) / ग्रन्थकार ग्रन्थ का समापन यह कहकर करता है कि हे जीव! वीरभद्र रचित इस अध्ययन का प्रमाद रहित होकर जो तीनों समय में ध्यान करता है, वह निर्वाण सुख प्राप्त करता है (63) / चतुःशरण प्रकीर्णक की विषयवस्तु का निरूपण निम्न चार परिच्छेदों में हुआ है - 1.अर्थाधिकार, 2. चतुःशरण गमन, 3. दुष्कृत गर्दा और 4. सुकृत अनुमोदना। कुशलानुबंधी चतुःशरण की तरह ही चतुःशरण प्रकीर्णक के अर्थाधिकार में कहा गया है कि समान आचार वाले साधु समूह को कुशलता के लिए चतुःशरण गमन, दुष्कृत की निंदा और सुकृत की अनुमोदना करनी चाहिये। चतुःशरण गमन नामक परिच्छेद में कुशलानुबंधी चतुःशरण की तरह ही अरहंत, सिद्ध, साधु और जिनधर्म इन चारशरणों की अनुमोदना का संक्षिप्त विवेचन है (2-6) / कुशलानुबंधी चतुःशरण में विवेचित दुष्कृत गर्दा परिच्छेद की तरह भावगत समानता होते हुए भी चतुःशरण प्रकीर्णक की गाथाओं में आंशिक भिन्नता है। दुष्कृत गर्दा परिच्छेद में ग्रन्थकार कहता है कि अनन्त संसार में अनादि मिथ्यात्व, मोह और अज्ञान के द्वारा जो-जो कुतीर्थ मेरे द्वारा किये गये, उन सबको मैं त्रिविध रूप से त्यागता हूँ। रति पूर्वक जीवोत्पत्ति, जीवाघात अथवा कलह आदि जो कुछ भी मेरे द्वारा किया गया, उन सबको मैं आज त्रिविध रूप से त्यागता हूँ। वैर- परम्परा, कषाय-कलुषता और अशुभ लेश्या के द्वारा जीवों के प्रति मेरे द्वारा जो कुछ भी पाप किया गया है, उनको मैं त्यागता Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका : 27 हूँ / इष्ट शरीर, कुटुम्ब, उपकरण और जीवों के उपघात की जनक जो भी मनोवृतियाँ उत्पन्न हुई हैं, उन सबकी मैं निंदा करता हूँ। अनवरत पापकर्मो में आसक्त रहने के कारण जन्म-मरण के निमित्त से शरीर का ग्रहण और परित्याग करते हुए मैं जो पापों में आसक्त हुआ हूँ तो उसका त्रिविध रुप से परित्याग करता हूँ। आगे ग्रन्थकार कहता है कि लोभ, मोह और अज्ञान के द्वारा सम्पत्ति को प्राप्त कर तथा उसे धारण कर जिस अशुभ स्थान को मैंने प्राप्त किया है उसको मन, वचन एवं काया के द्वारा त्यागता हूँ। जो गृह, कुटुम्ब और स्वजन मेरे हृदय को अतिप्रिय रहे किन्तु फिर भी मुझे उनका परित्याग करना पडा, उन सभी के प्रति अपने ममत्व का परित्याग करता हूँ। आगे ग्रन्थकार कहता है कि हल, ऊँखल, शस्त्र, यंत्र आदि का इन्द्रियों के द्वारा रतिपूर्वक परिभोग किया हो, मिथ्यात्व भाव से कुशास्त्रों, पापीजनों और दुराग्रहियों को उत्पन्न किया हो तो उन सबकी मैं लोक में निन्दा करता हूँ। अज्ञान, प्रमाद, अवगुण, मूर्खता और पापबुद्धि के द्वारा अन्य जो कुछ भी पाप कर्म मैंने किये हों, उन सबका त्रिविध रूप से मैं प्रतिक्रमण करता हूँ (7-10) / ... दुष्कृत गर्दा के पश्चात् सुकृत अनुमोदना की चर्चा करते हुए ग्रन्थकार कहता है कि देह, स्वजन, व्यापार, धन-सम्पत्ति तथा ज्ञान और कौशल इनका जो उपयोग सद्धर्म में हुआ हो तो उन सबका मैं अनुमोदन करता हूँ। आगे ग्रन्थकार कहता है कि उत्तम संतदेशना सुनी हो, जीवों को सुख पहुंचाया हो तथा और भी जो कुछ सद्धर्म किया हो, उन सबका मैं त्रिविध रूप से बहुमान करता हूँ। धर्मकथा के द्वारा परोपकार करने वाले, ज्ञान के द्वारा मोह को जीतने वाले, गुणों के प्रकाशक जिन भगवान् की त्रिविध रूप से मैं अनुमोदना करता हूँ। दर्शन, ज्ञान और चारित्र के द्वारा सभी कर्मो के क्षय से शुभभाव और सिद्धों के सिद्ध भाव की त्रिविध रूप से मैं अनुमोदना करता हूँ। तत्पश्चात् आगे की गाथाओं में आचार्य, Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्वेद के अने प्राचीन काल हुआ। भक्ति का 28 : चउसरणपइण्णयं उपाध्याय, साधु और श्रावकजनों के शुभ कार्यो की ग्रन्थकार द्वारा अनुमोदना करने का विवेचन है। ग्रन्थकार सुकृत अनुमोदना का विवेचन यह कहकर पूर्ण करता है कि सद्कर्मो के द्वारा अन्य बहुत से भव्य जीवों ने अनुरूप मार्ग अर्थात् मोक्ष मार्ग को प्राप्त किया है, उन सबकी मैं अनुमोदना करता हूँ (18-26) / ग्रन्थकार ने ग्रन्थ का समापन यह कहकर किया है कि यह चतुःशरण जिसके मन में सदाकाल स्थित रहता है वह इस लोक तथा परलोक दोनों को लॉघकर कल्याण प्राप्त करता है (27) / चतुःशरण की इस परम्परा का विकास जैन धर्म में भक्ति मार्ग के बीज वपन के साथ-साथ हुआ। भक्ति की अवधारणा भारतीय चिन्तन में अति प्राचीन काल से चली आ रही है। यहाँ तक कि ऋग्वेद के अनेक मन्त्र स्तुतिपरक हैं। हिन्दू परम्परा में गीता मुख्यतः भक्तिमार्ग का ग्रन्थ कहा जा सकता है। उसमें कृष्ण अपने भक्त को आश्वस्त करते हुए कहते हैं कि तू मेरी शरण में आ जा, मैं तुझे मुक्त कर दूंगा। शरणागति की यह अवधारणा हिन्दू धर्म में अपनी सम्पूर्णता के साथ विकसित हुई है। यद्यपि गीता में ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग का प्रतिपादन है फिर भी हमें यह मानने में संकोच नहीं है कि गीता का मुख्य प्रतिपाद्य भक्ति है। भारतीय भक्तिमार्ग की यह परम्परा श्रीमद्भागवत में अपने पूर्ण विकास पर प्रतीत होती है। यद्यपि भारतीय श्रमण परम्परा अनीश्वरवादी परम्परा होने के कारण मूलतः भक्तिमार्गी परम्परा नहीं है। बुद्ध अथवा तीर्थकर कोई भी अपने उपासक को यह आश्वासन देता प्रतीत नहीं होता कि तुम मेरी भक्ति करो, मैं तुम्हे सब पापों से मुक्त कर दूंगा। फिर भी श्रमण परम्परा में इन धर्मो में किसी न किसी रूप में भक्ति मार्ग का प्रवेश हो गया। यद्यपि जैन और बौद्ध, दोनों ही धर्म ईश्वरीय कृपा की अवधारणा को अस्वीकार करते हैं, फिर भी इन दोनों परम्पराओं में अपनी सहवर्ती हिन्दू परम्परा के प्रभाव से भक्ति मार्ग ने अपना स्थान बनाया। बौद्ध Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका : 29 परम्परा में इसी आधार पर त्रिशरण की अवधारणा विकसित हुई, जिसके अन्तर्गत साधक संघ, धर्म और बुद्ध की शरण ग्रहण करता है। बौद्ध धर्म में शरण ग्रहण की यह परम्परा संघ अर्थात् समूह से प्रारम्भ होकर बुद्ध अर्थात् व्यक्ति पर समाप्त होती है। यद्यपि बुद्ध को एक पद के साथ-साथ एक व्यक्ति भी माना जा सकता है। जैनधर्म में भी लगभग इसी के समरूप चतुःशरण की अवधारणा का विकास हुआ। जहाँ बौद्ध धर्म में संघ, धर्म और बुद्ध को शरणभूत माना गया, वहाँ जैन धर्म में अरहंत, सिद्ध, साधु और जिन द्वारा प्रतिपादित धर्म मार्ग को शरणभूत माना गया है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा ने अपनी पंच परमेष्ठि की अवधारणा में से आचार्य, उपाध्याय और साधु को मूलतः एक ही “साधु” पद के अन्तर्गत ग्रहित करके तीन पद को ही शरणभूत माना। फिर उसमें बौद्ध परम्परा के समान धर्म को स्थान देकर चतुःशरण की अवधारणा का विकास किया। यद्यपि इस चतुःशरण की अवधारणा के विकास का सुनिश्चित समय बता पाना तो कठिन है किन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी तक जैन परम्परा में भी चतुःशरण की अवधारणा का विकास हो गया था। - जैन तथा बौद्ध धर्म में जो त्रिशरण माने गये हैं उनमें धर्म दोनों में ही समान है। अरहंत को किसी सीमा तक बुद्ध का ही पर्यायवाची मानकर अरहंत की शरण को बुद्ध की शरण माना जा सकता है। ज्ञातव्य है कि उत्तराध्ययन जैसे प्राचीन आगम में "जिन” या “अरहंत” के लिए “बुद्ध” शब्द का बहुतायत से प्रयोग हुआ है। बौद्ध धर्म में जहाँ संघ को शरणभूत बतलाया गया वहाँ जैन धर्म में साधु को शरणभूत माना गया। यद्यपि किसी सीमा तक साधु भी संघ के प्रतिनिधि हैं फिर भी संघ की सर्वोपरिता को जो स्थान बौद्ध परम्परा में प्राप्त हुआ वह स्थान आगे चलकर जैन परम्परा में प्राप्त नहीं हो सका / यद्यपि प्राचीनकाल में तीर्थंकर भी “नमो तित्थस्स” कहकर तीर्थ को वन्दना करते थे और उसकी Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 : चउसरणपइण्णयं सर्वोपरिता मान्य की गई थी, किन्तु जैनधर्म में जब आचार्य को संघ प्रमुख मानकर संघ को उसके अधीन कर दिया गया तो संघ का स्थान निम्न हो गया और साधु को प्रमुखता मिली। स्वयं प्रस्तुत प्रकीर्णक में भी इस बात को स्वीकार किया गया है कि साधु के अन्तर्गत आचार्य और उपाध्याय का भी ग्रहण होता है। बौद्धों के त्रिशरण और जैनों के चतुःशरण में सबसे प्रमुख अन्तर यह है कि जहाँ जैन परम्परा में सिद्धों के रूप में मुक्त आत्माओं को भी शरणभूत माना गया, वहाँ बौद्ध परम्परा में स्पष्ट रूप से निर्वाण प्राप्त व्यक्तियों को शरणभूत नहीं माना गया, यद्यपि बौद्ध धर्म की ओर से यह कहा जा सकता है कि बुद्ध शब्द से भूतकालिक, वर्तमानकालिक और भविष्यत्कालिक तीनों ही प्रकार के बुद्धों का अवग्रहण हो जाता है। यहाँ यह भी प्रश्न उठाया जा सकता है कि शरण तो उनकी ग्रहण की जा सकती है जो हमारा कल्याण कर सकें अथवा कल्याण मार्ग का पथ निर्देशित कर सकें। यह सत्य है कि सिद्धों में सीधे रूप से हमाय मंगल या अमंगल करने की कोई सामर्थ्य नहीं है। जैनों के चतुःशरण में भी तीन ही पद अरहंत, साधु और धर्म हमारे कल्याण के पथ का निर्देशन करने वाले होते हैं। अतः हम यह भी कह सकते हैं कि बौद्धों के त्रिशरण और जैनों के चतुःशरण उद्देश्य की समरूपता की दृष्टि से प्रायः एक दूसरे के सन्निकट ही हैं। . कुशलानुबंधी प्रकीर्णक और चतुःशरण प्रकीर्णक दोनों को चतुःशरण की जो प्राचीन परम्परा और उसका जो प्राचीन पाठ रहा है उसकी व्याख्या रूप ही कहा जा सकता है। चतुःशरण का मूल पाठ जिसे “चत्तारि मंगल पाठ" अथवा "मंगल पाठ" के नाम से आज भी जाना जाता है और जिसका आज भी जैन समाज में प्रचलन है, प्रस्तुत दोनों ही प्रकीर्णक उसकी व्याख्या कहे जा सकते हैं। कुशलानुबन्धी चतुःशरण में तो इन चारों पदों के विशिष्ट गुणों के पृथक-पृथक विवेचन के साथ आलोचना को जोड़कर ग्रन्थ पूर्ण किया गया है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका : 31 चतुःशरण प्रकीर्णक भी यद्यपि इसी विषय से संबन्धित है फिर भी उसमें चतुःशरणभूत जो विशिष्ट पद या व्यक्ति हैं उनके गुणों का पृथक-पृथक रूप से विवेचन नहीं किया है, किन्तु भावना की दृष्टि से दोनों ग्रन्थों में समरूपता है। चतुःशरण के अन्त में भी कुशलानुबन्धी के समान ही आलोचना को स्थान दिया गया है। कुशलानुबन्धी अथवा चतुःशरण प्रकीर्णक में आलोचना को जो स्थान दिया गया है वह आत्मविशुद्धि के निमित्त ही माना जाना चाहिए। यद्यपि वीरभद्र गणि का कुशलानुबन्धी मूलतः प्राचीन परम्परागत मंगल पाठ का ही एक विस्तृत संस्करण है फिर भी इसकी विशिष्टता यह है कि यह अपने युग की तांत्रिक मान्यताओं और स्थापनाओं से. सर्वथा अप्रभावित है। ज्ञातव्य है कि दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में जैन परम्परा पर तंत्र का व्यापक प्रभाव आ गया था फिर भी उससे कुशलानुबन्धी और चतुःशरण का अप्रभावित रहना एक महत्वपूर्ण घटना है। . जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया कि जैन धर्म में हिन्दू परम्परा के प्रभाव से जो भक्ति मार्ग का विकास हुआ था और शरणप्रपत्ति को साधना का एक आवश्यक अंग मान लिया गया था। यही कारण है कि चत्तारि मंगल का पाठ आवश्यक सूत्र का एक अंग बन गया और दैनन्दिन साधना में शरणगमन को एक महत्वपूर्ण स्थान मिला। यद्यपि जैन परम्परा ईश्वरीय कृपा की अवधरणा को अस्वीकार करती है फिर भी शरणप्रपत्ति को व्यक्ति के जीवन में समत्व की उपलब्धि का एक महत्वपूर्ण साधन माना गया। शरणप्रपत्ति तभी संभव है जब जिसके प्रति शरणागत होना है उसके प्रति मन में अहोभाव उत्पन्न हो और इसके लिए प्राचीन काल में शक्रस्तव (णमोत्थुणं) और चतुर्विशतिस्तव (लोगस्स) के पाठ विकसित हुए। हम देखते हैं कि वीरभद्र ने कुशलानुबन्धी एवं चतुःशरण में भी मात्र शरणागति की चर्चा ही नहीं की अपितु शरणाभूत आराध्यों के गुणों का संस्तवन भी किया है। वस्तुतः ज्ञानमार्ग और चारित्रमार्ग की अपेक्षा भक्तिमार्ग सामान्य व्यक्तियों Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 : चउसरणपइण्णयं के लिए सहज साध्य होता है यही कारण था कि जैन परम्परा में सम्यकदर्शन शब्द जो आत्म-साक्षी भाव या ज्ञाता दृष्टा भाव का पर्यायवाची था, वही सम्यक् दर्शन शब्द पहले तत्व श्रद्धा का और उसके पश्चात् देव, गुरू और धर्म के प्रति श्रद्धा का आधार बना। चाहे हम ईश्वरीय कृपा के सिद्धान्त * को स्वीकार करें या न करें, किन्तु इतना निश्चित है कि शरणप्रपत्ति की अवधारणा के फलस्वरूप व्यक्ति विकलताओं से बचता है और कठिन क्षणों में उसके मन में साहस का विकास होता है, जो सामान्य जीवन में ही नहीं साधना के क्षेत्र में भी आवश्यक है। . अतः हम यह कह सकते हैं कि प्रस्तुत प्रकीर्णक साधकों को अपनी साधना में स्थिर रहने के लिए एक आधारभूत संबल का कार्य करता है। सागरमल जैन सुरेश सिसोदिया Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउसरण पइण्णयं .. -- (चतुःशरण-प्रकीर्णक) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिवीरभदायरियविरइयं चडसरणपइण्णयावरणामयं कसलाणुबंधिअज्झयणं (आवस्सयछक्कस्स संखेवेणं अत्थाहिगारा) 'सावज्जजोगविरई 1 उक्कित्तण 2 गुणवओ य. पडिवत्ती 3 / खलियस्स निंदणा 4 वणतिगिच्छ 5 गुणधारणा 6 चेव / / 1 / / (आवस्सयछक्कस्स वित्थरेणं अत्थाहिगारा). चारित्तस्स विसोही कीरइ सामाइएण किल 'इहई / / सावज्जेयरजोगाण वज्जणाऽऽसेवणत्तणओ 1 / / 2 / / दंसणयारविसोही 'चउवीसायत्थएण 'कज्जइ य / अच्चब्भुयगुणकित्तणरूवेणं जिणवरिंदाणं 2 / / 3 / / नाणाईया उ गुणा, 'तस्संपन्नपडिवत्तिकरणाओ / वंदणएणं विहिणा कीरइ सोही उ तेसिं तु 3 / / 4 / / 1. जे आदर्श एतत्प्रकीर्णकप्रारम्भगता एता अष्टौ गाथा न सन्ति / वस्तुत एता गाथा एतत्प्रकीर्णकसम्बन्धिन्यो न भवन्त्येव, नापि कोऽपि विशिष्ट सम्बन्ध एतासा गाथानामनेन प्रकीर्णकेन सह वर्तते , अपि चैतत्प्रकीर्णकमंगल-नामादिप्ररूपिका अमरिंदनरिंद (गाथा9)इति गाथा साक्षाद् विद्यत एव, तथापि इमा गाथा भूम्न्नाऽऽदर्शेषु दृश्यन्ते इति सर्वैरप्याद्दताः सन्ति, अवचूरीकृता पठयन्ते चापीति / / 2, इहयं जे. हं. / / 3. वीसजिणत्थ ह।। 4. किच्चइ सा / / 5.तस्संपुण्ण° हं।। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीरभद्राचार्य विरचित चतु:शरण प्रकीर्णक अपरनाम कुशलानुबंधी अध्ययन (छः आवश्यक का संक्षिप्त अर्थाधिकार) (1) संक्षेप में छः आवश्यक इस प्रकार हैं :-(1)सावद्ययोग विरति (पाप व्यापार से निवृत्ति = सामायिक), (2) उत्कीर्ण (तीर्थंकरों का गुण-कीर्तन = चतुर्विंशति स्तवन), (3) गुरूभक्ति (व्रती और गुणी जनों के प्रति समर्पण = वन्दना), (4) स्खलनों की निन्दा (व्रतच्युति की आलोचना = प्रतिक्रमण), (5) व्रण चिकित्सा (अपनी कमियों को दूर करना = कायोत्सर्ग) और (6) गुणधारण (सद्गुणों को धारण करना .. = प्रत्याख्यान)। :: (छः आवश्यक का विस्तृत अर्थाधिकार) (2) सामायिक के द्वारा सावधयोग आदि पाप कर्मो के परित्याग * एवं उनके असेवन से व्यक्ति चारित्राचार (सम्यक् चारित्र) की विशुद्धि को प्राप्त करता है। (5) चौबीस जिनेन्द्रों के अतिशय युक्त गुणों के संकीर्तन के द्वारा व्यक्ति दर्शनाचार (सम्यक् दर्शन) की विशुद्धि को प्राप्त करता है। (4) ज्ञानादि गुणों से युक्त आचार्य, उपाध्याय आदि के प्रति समर्पण एवं उन्हें विधि पूर्वक वन्दन करने से व्यक्ति ज्ञानाचार (सम्यक् ज्ञान) की विशुद्धि को प्राप्त करता है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउसरणपइण्णयं : 36 खलियस्स य तेसि पुणो विहिणा जं 'निंदणाइपडिकमणं / तेण' पडिक्कमणेणं तेसिं पि य कीरए सोही 4 / / 5 / / / चरणाइयाइयाणं 'जहक्कम वणतिगिच्छरुवेणं / पडिकमणासुद्धाणं सोही तह काउसग्गेणं 5 / / 6 / / गुणधारणरूवेणं पच्चक्खाणेण तवइयारस्स / ... विरियायारस्स पुणो सव्वेहि वि कीरए सोही 6 / / 7 / / (चोद्दस सुमिणाणि) गय 1 वसह 2 सीह 3 अभिसेय 4 दाम 5 ससि 6 दिणयरं 7 झयं 8 कुंभं 9 पउमसर 10 सागर 11 विमाण-भवण 12 रयणुच्चय 13. सिहिं च 14 / / 8 / / ( मंगलं ). अमरिंद-नरिंद मुणिंदवंदियं वंदिउं महावीरं / कुसलाणुबंधि' बंधुरमज्झयणं कित्तइस्सामि / / 1 / / (अत्याहिगारा) चउसरणगमण 1 दुक्कडगरिहा 2 सुकडाणुमोयणा 3 चेव / एस गणो अणवरयं कायव्वो कुसलहेउ त्ति / / 10 / / 1°णायपडि ह / / 2.तेणं पडिकम. जे. / / 3 °णाईयाराण सा. / / 4. "गायपडि ह // जहकम्मं वण° जे11. 5. °णुबंधबं° जे. हं. / / .6. त्तयस्सा जे.।। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37 : चतुःशरण प्रकीर्णक (5) जो व्यक्ति स्खलनों अर्थात् अपने दोषों की विधि पूर्वक आलोचना और प्रतिक्रमण करता है वह व्यक्ति उस प्रतिक्रमण के द्वारा अपनी आत्मविशुद्धि करता है। (6) जिस प्रकार चिकित्सा के द्वारा व्रण (घाव) का उपचार होता है उसी प्रकार कायोत्सर्ग के द्वारा चारित्र (चारित्राचार) की यथाक्रम से शुद्धि होती है। (7) व्यक्ति गुणधारण रूप प्रत्याख्यान के द्वारा तपाचार तथा वीर्याचार की विशुद्धि करता है। . (चौदह स्वप्न) (8) तीर्थंकरों की माताएँ निम्न चौदह स्वप्न देखती हैं : (1) हाथी, (2) वृषभ, (3) सिंह, (4) अभिषेक युक्त लक्ष्मी, (5) फूलों की माला, (6) चन्द्रमा, (7) सूर्य, (8) ध्वजा, (9) कुंभ, (10) पद्म सरोवर, (11) सागर (क्षीर समद्र), (12) देवविमान या भवन, (13) रत्नराशि और (14) निर्धूम अग्नि। _ (मंगल) ___ अमरेन्द्र (दवेन्द्र), नरेन्द्र, मुनिन्द्र के द्वारा वंदित महावीर को वन्दन करके मैं कुशलानुबंधी नामक सुन्दर अध्ययन को कहता हूँ। (अर्थाधिकार) ... (10) साधु जनों को कुशलता के लिए अनवरत, चतुःशरण-गमण, दुष्कृतों की निंदा तथा सुकृतों की अनुमोदना करनी चाहिए। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउसरणपइण्णयं : 38 ( चउसरणगमणं ) अरिहंत 1 सिद्ध 2 साहू 3 केवलिकहिओ सुहावहो धम्मो 4 | एए चउरो चउगइहरणा सरणं 'लहइ धन्नो / / 11 / / ( अरिहंता सरणं ) अह सो 'जिणभत्तिभरूच्छरंतरोमंचकंचुयकरालो / . . पहरिसपणउम्मीसं सीसम्मि कयंजली भणइ / / 12 / / राग-द्दोसारीणं हंता “कम्मट्टगाइअरिहंता / विसय-कसायारीणं अरिहंता हुतु मे सरणं / / 13 / / 'रायसिरिमवकमिंता तव-चरणं दुच्चरं 'अणुचरिता / केवलसिरिमरिहंता अरिहंता इंतु मे सरणं / / 14 / / थुइ-वंदणमरिहंता अमरिंद-नरिंदपूयमरिहंता / सासयसुहमरहंता अरिहंता हुतु मे सरणं / / 15 / / परमणगयं' '°मुणिंता जोइंद - महिंदझाणमरिहंता / धम्मकहं अरिहंता अरिहंता इंतु मे सरणं / / 16 / / 1.वहइ हं. / / 2. रुत्थर जे / 'रुच्छरं ला. / / 3. °णओमीस जे. / / 4. गायअरि ला.। °गाइमरि' जे. / / 5.मुवक° सा / / 6. कसिंता जे. ला | 'कसिता पुसा / / 7. चरित्ता ज. ला.।। 8. थय-वं जे. पु. ला. / / 9. "गई मु. जे• हं। 10. मुणित्ता जे०।। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39 : चतुःशरण प्रकीर्णक (चतुःशरणगमन) (11) अरहन्त, सिद्ध, साधु और केवलि भाषित सुरवावह धर्म- ये चार शरण चर्तुगति के हरण करने वाले अर्थात् मोक्षपद को प्राप्त कराने वाले हैं। जो इनकी शरण ग्रहण करता है, वह धन्य है। (अरहंत शरण) (12-13) जिनेन्द्र देव के प्रति भक्ति युक्त उल्लसित चित्त वाला और रोमांच से जिसका वक्षःस्थल उन्नत हो गया है, ऐसा वह विशिष्ट हर्ष से युक्त होकर सिर पर अंजलि करके कहता है कि राग-द्वेष रूपी शत्रुओं का नाश करने वाले, आठकर्मो• का हनन करने वाले तथा विषय-कषाय रूपी शत्रुओं का नाश करने वाले अरहंत मेरे लिए शरणभूत हों। : (14) राज्य वैभव को त्यागकर, दुश्चर तप तथा चारित्र का अनुसरण करता हुआ मैं केवल ज्ञान रूपी लक्ष्मी समान श्री अरहंतों की शरण ग्रहण करता हूँ। (15) अमरेन्द्र और नरेन्द्र द्वारा पूजित, स्तुतित, वन्दित और शाश्वत सुख को अनुभव करने वाले अरहंत मेरे लिए .. शरणभूत हों। (16) योगीन्द्र और महेन्द्र भी जिनका ध्यान करते हैं, जो मनः पर्याय ज्ञान से दूसरों के मनोगत भावों को जानते हैं तथा धर्म का प्रतिपादन करते हैं, ऐसे अरहंत मेरे लिए शरणभूत हों। * यद्यपि अरहंत चार घाती कर्मो को नष्ट करते हैं किन्तु उनका लक्ष्य तो आठ ही कर्मो को सम्पूर्ण रूप से समाप्त करने का होता है। अतः यहाँ इसी लक्ष्य (अपेक्षा). से उन्हें अष्ट कर्मों का हनन करने वाला कहा गया है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउसरणपइण्णय : 40 सव्वजियाणमहिंसं अरिहंता सच्चवयणमरिहंता / बंभव्वयमरिहंता अरिहंता इंतु मे सरणं / / 17 / / 'ओसरणमवसरिता चउतीसं अइसए निसेविंता / धम्मकहं च 'कहिंता अरिहंता हुंतु मे सरणं / / 18 / / / एगाइ गिरा उणेगे संदेहे देहिणं 'समं छित्ता / तिहुयणमणुसासिंता अरिहंता हुंतु मे सरणं / / 19 / / वयणामएण भुवणं निव्वाविंता गुणेसु द्राविंता / जियलोयमुद्धरिंता' अरिहंता हुंतु मे सरणं / / 20 / / अच्चब्भुयगुणवंते नियजससहरपसाहियदियंते' / निययमणाइअणंते पडिवन्नो सरणमरिहते / / 21 / / उज्झियजर-मरणाणं समत्तदुक्खत्तसत्तसरणाणं / तिहुयणजणसुहयाणं अरिहंताणं नमो ताणं / / 22 / / 1. णमुव जे०।। 2.कहित्ता जे०।। 3. नेगं संदेहं दे जे० / / 4.समच्छिता जे» / / 5. सासित्ता जे.।। 6.व्वावित्ता गुणेसु ठावित्ता जे।। 7.°द्धरित्ता जे.।। 8. पयासियदि जे हं। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 : चतुःशरण प्रकीर्णक (17) सभी जीवों के प्रति करूणाशील, सत्यवादी तथा ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले ऐसे अरहंत मेरे लिए शरणभूत हों। (18) चौंतीस अतिशयों को धारण करने वाले तथा समवशरण में बैठकर धर्मोपदेश देने वाले ऐसे अरहंत मेरे लिए शरणभूत हों। .. (19) अपनी वाणी मात्र से जीव के अनेक सन्देहों को सम्यक् प्रकार से दूर करने वाले तथा तीनों लोकों को अनुशासित करने वाले ऐसे अरहंत मेरे लिए शरणभूत हों। (20) अपने वचनामृत से संसार के प्राणियों को शान्ति प्रदान करने वाले तथा उन्हें आत्म-गुणों में स्थापित करने वाले और लोक में स्थित जीवों का उद्धार करने वाले ऐसे अरहंत मेरे लिए शरणभूत हों। (21) अत्यद्भूत गुणों (अतिशयों) से युक्त, यश रूपी चन्द्रमा से दिगन्त को प्रकाशित करने वाले तथा अपने अनादि-अनन्त स्व-स्वरूप में स्थित रहने वाले ऐसे अरहंत मेरे लिए शरणभूत हों। - (22) वृद्धावस्था तथा मृत्यु से विमुक्त, दुःखों से पीड़ित समस्त जीवों (सत्वों) के लिए शरणभूत और तीनों लोकों के समस्त प्राणियों के लिए मंगलकारी अरहंतों को मैं नमस्कार करता हूँ। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउसरणपइएणयं : 42 (सिद्धा सरणं) 'अरिहंतसरणमलसुद्धिलद्धसुविसुद्धसिद्ध बहुमाणो / 'पणयसिररइयकरकमलसेहरो सहरिसं भणइ / / 23 / / कम्मट्टक्खयसिद्धा साहावियनाण- दंसणसमिद्धा / . सव्वट्ठलद्धिसिद्धा ते सिद्धा इंतु मे सरणं / / 24 || तियलोयमत्थयत्था परमयत्था अचिंतसामत्था / मंगलसिद्धपयत्था सिद्धा सरणं सुहपसत्था / / 25 / / मूलुक्खयपडिवक्खा अमूढलक्खा सजोगिपच्चक्खा / . साहावियत्तसुक्खा सिद्धा सरणं परमसुक्खा / / 26 / / पडिपिल्लियपडिणीया समग्गझाणग्गिदड्ढभवबीया / जोईसरसरणीया सिद्धा सरणं सुमरणीया / / 27 / / 1. द्धपरिसुद्ध° पु. हं. जे. ला• || 2. सिरि रइ° जे. ला.।। . Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43 : चतुःशरण प्रकीर्णक (सिद्ध शरण) (23) मैं मस्तक झुकाकर और उस पर अपने कर-कमलों का शेखर (सेहरा) लगाकर अर्थात् दोनों हाथों को जोड़कर उन्हें सिर पर लगाकर कर्म - मल की शुद्धि कर विशुद्ध आत्म-दशा को प्राप्त लोकपूज्य अरहंतों की शरण को सहर्ष ग्रहण करता हूँ। (24) अष्ट कर्मो का क्षय करने वाले, केवलज्ञान तथा केवल दर्शन से समृद्ध, सर्व अर्थो और लब्धियों को प्राप्त सिद्ध मेरे लिए शरणभूत हों। (25) तीनों लोकों के शीर्ष भाग पर स्थित, परमपद को प्राप्त अचिन्त्य सामर्थ्य (अनन्त शक्ति) से युक्त, मंगलकारी तथा निर्वाण एवं प्रशस्त सुख (अनन्त सुख) को प्राप्त सिद्धों की शरण ग्रहण करता हूँ। (26) प्रतिपक्ष अर्थात् विभाव-दशा को समूल नष्ट कर देने वाले, वस्तु-स्वरूप को यथार्थ रूप से जानने वाले, मन, वचन और काया के व्यापार (योगों) का त्याग करने वाले तथा स्वाभाविक सुख अर्थात् अनन्त सुख वाले सिद्ध मेरे लिए शरणभूत हों। -- (27) जिन्होंने चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण कराने वाले और पीड़ा देने वाले राग-द्वेष रूपी भव-बीजों को अपनी ध्यानाग्नि से पूर्णतः दग्ध कर दिया है तथा योगीश्वर भी जिनके शरणागत हैं, उन सिद्धों की शरण स्मरणीय है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउसरणपइण्णयं : 44 पावियपरमाणंदा 'गुणनीसंदा' विदिण्णभवकंदा / लहुईकयरवि-चंदा सिद्धा सरणं खवियदंदा / / 28 / / उवलद्धपरमबंभा दुल्लहलंभा विमुक्कसंरंभा / भुवणघरधरणखंभा सिद्धा सरणं निरारंभा / / 29 || (साहू सरणं) . सिद्धसरणेण नवबंभहेउसाहुगुणजणियअणुराओ / 'मेइणिमिलंतसुपसत्थमत्थओ तत्थिमं भणइ / / 30 / / जियलोयबंधुणो कुगइसिंधुणो पारगा महाभागा / नाणाइएहिं सिवसुक्खसाहगा साहुणो सरणं / / 31 / / केवलिणो परमोही विउलमई सुयहरा जिणमयम्मि / आयरिय उवज्झाया ते सव्वे साहुणो सरणं / / 32 / / / 1. निस्संदा जे. ला. / / 2. °दा विभिण्ण' सा।। 3.नयबं° साप्रति 4. यबहुमाणा / मे° सा० / / 5.मेयणि जे०।। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 45 : चतुःशरण प्रकीर्णक (28) परम आनन्द को प्राप्त, गुण सम्पन्न, जन्म-मरण की परम्परा को विदीर्ण (समाप्त) करने वाले, सूर्य एवं चन्द्र प्रभा को भी लघुभूत करने वाले अर्थात् उनसे अधिक तेजस्वी तथा समस्त द्वन्द्वों का क्षय करने वाले सिद्ध मेरे लिए शरणभूत हों। (29) दुर्लभता से प्राप्त होने वाले परमब्रह्म ( परम-पद ) को उपलब्ध समारम्भ अर्थात् हिंसक मनोभाव से विमुक्त, धरण एवं स्तम्भ की तरह जगत को धारण करने वाले तथा आरंभ ( हिंसा ) से विरत सिद्ध मेरे लिए शरणभूत हों। . (साधु शरण) (30) सिद्धों की शरण के पश्चात् नवबाड़ सहित ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, साधुजनों के गुणों के प्रति उत्पन्न अनुराग से पृथ्वी की तरह शान्त एवं सुप्रशस्त प्रयोजन वाले साधुओं के गुणों को मैं इस प्रकार कहता हूँ : (31) समस्त जीव-लोक (षट्जीव निकाय) के बान्धव, कुगति रूप समुद्र से पार उतारने वाले, महाभाग्यवान तथा ज्ञानादि से शिव सुख अर्थात् मोक्ष की साधना करने वाले साधु मेरे लिए शरणभूत हों। (32) केवलज्ञानी, परम-अवधिज्ञानी, विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी, श्रुतधर (पूर्वधर) और जिनवचन में अनुरक्त जो आचार्य, उपाध्याय आदि हैं, वे सभी साधु मेरे लिए शरणभूत हों। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउसरणपइण्णयं : 46 'चउदस-दस-नवपुदी 'दुवालसिक्कारसंगिणो जे य / / जिणकप्पाऽहालंदिय परिहारविसुद्धि साहू य / / 33 / / / खीरासव महुआसव संभिन्नस्सोय कुठ्ठबुद्धी य चारण-वेउव्वि-पयाणुसारिणो साहुणो सरणं / / 34 / / उज्झियवइर-विरोहा निच्चमदोहा पसंतमुहसोहा / अभिमयगुणसंदोहा हयमोहा सहुणो सरणं / / 35 / / खंडियसिणेहदामा अकामधामा निकामसुहकामा / 'सुप्पुरिसमणभिरामा आयारामा मुणी सरणं / / 36 / / 'मिल्हियविसय-कसाया उज्झियघर-घरणिसंगसुह-साया / अकलियहरिस-विसाया साहू "सरणं विहुयसोया / / 37 / / 1. चोदस सं.।। 2. लसेकार deg सं• / / 3.अहिगय° पु० / / 4.सुपुरिसमणाभि हं. पु.।। 5. मिल्लिय° सं० पु. ला. / / 6 °रणं गयपमाया सा. / / Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47 : चतुःशरण प्रकीर्णक (33-34)चौदह, दस और नौ पूर्वो के धारक तथा बारह या ग्यारह अंगों के ज्ञाता तथा जिनकल्प यथालंद और परिहार विशुद्धि नामक चारित्र को धारण करने वाले, क्षीराश्रव लब्धि वाले, मध्वाश्रव लब्धि वाले, संभिन्नस्रोतलब्धि वाले, कोष्ट बुद्धि वाले, चारण शक्ति वाले, वैक्रिय शरीर वाले तथा पदानुगमन करने वाले साधु मेरे लिए शरणभूत हों। (35) वैर-विरोध से विमुक्त, कभी भी द्वेष नहीं करने वाले तथा जिनका मोह नष्ट हो गया है, ऐसे प्रशान्त मुख-मुद्रा वाले एवं गुण समूह से युक्त साधु मेरे लिए शरणभूत हों। (36) स्नेह अर्थात् राग रूपी बन्धन को नष्ट करने वाले, अहंकार से रहित, विकार रहित सुख की कामना वाले, सत्पुरुषों . के मन को आल्हादित करने वाले तथा आत्मा में रमण करने वाले साधु मेरे लिए शरणभूत हों। . (37) विषय- कषायों से मुक्त, घर से रहित, गृहिणी सम्बन्धी विषय-सुखों का परित्याग करने वाले तथा हर्ष, विषाद, कलह एवं शोक से रहित साधु मेरे लिए शरणभूत हों। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउसरणपइण्णयं : 48 'हिंसाइदोससुन्ना कयकारून्ना 'सयंभुरुप्पन्ना' / *अजराऽमरपहखुन्ना साहू सरणं सुकयपुन्ना / / 38 / / कामविडंबणचुक्का कलिमलमुक्का विविक्कचोरिक्का / . पावरयसुरयरिक्का साहू गुणरयणचच्चिक्का / / 39 / / साहुत्तसुठ्ठिया जं आयरियाई तओ य ते साहू / साहुभणिएण गहिया' ते तम्हा साहुणो सरणं / / 40 / / (केवलिकहिओ धम्मो सरणं ) पडिवन्नसाहुसरणो सरणं काउं पुणो वि जिणधम्म / पहरिसरोमंचपवंचकंचुयंचियतणू भणइ / / 41 / / पवरसुकएहि पत्तं पत्तेहि वि नवरि केहि वि न पत्तं / तं केवलिपन्नत्तं धम्म सरणं पवन्नो हं / / 42 / / पत्तेण अपत्तेण य पत्ताणि य जेण नर-सुरसुहाई / 'मोक्खसुहं पि य पत्तेण नवरि धम्मो स मे सरणं / / 43 / / 1. सायदो सं० / / 2. सयंभरू° पु०।। 3. भुरप्पुणा सं० जे० / °भुरूप्पुण्णा सापा0 / / 4. "खहु (?ह) खुन्ना सं0 ला0।। खहु (? ह) खुत्ता जे0 / / 5.°णमुक्का पु० / / 6. °क्का विमुक्क° पु० सापा0 || 7 °या तम्हा ते सा0 पु० / / 8. व नवर जे० / / 9. मुक्खसुहं पुण प0 सा0 पु०।। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 49 : चतुःशरण प्रकीर्णक (38) हिंसादि दोषों से रहित, सभी जीवों पर करुणा करने वाले, स्वयंभूरमण संमुद्र के समान विशाल बुद्धि वाले, जरा-मरण से रहित, मोक्ष मार्ग के पथिक तथा सुकृत पुण्य वाले साधु मेरे लिए शरणभूत हों। (39) काम-विकारों से रहित, कलि-मल से मुक्त, चोरी से विविक्त, पापयुक्त सुरत अर्थात् मैथुन से रहित, गुण रूपी रत्नों से विभूषित साधु मेरे लिए शरणभूत हों। (40) जो आचार्य आदि साधुत्व में सुस्थित होने के कारण साधु कहे जाते हैं. यहाँ आचार्य, उपाध्याय और साधु सभी को अपने साधुत्व के गुणों के कारण साधु कहा गया है, ऐसे साधु मेरे लिए शरणभूत हों। .. (केवलि कथित धर्म शरण) मुनियों की शरण ग्रहण करने के पश्चात् अति हर्ष से रोमांचित, उन्नत वक्षःस्थल और विकसित शरीर वाला वह कहता है कि अब मैं जिनधर्म की शरण ग्रहण करता हूँ। (41) (42) सम्यक् प्रकार से कहे गये उस श्रेष्ठ जिनधर्म को कोई व्यक्ति शीघ्र अंगीकार कर लेता है और कोई उसे शीघ्र अंगीकार नहीं कर पाता है। मैं उस केवली प्ररूपित धर्म की शरण को अंगीकार करता हूँ। _ (43) जिसके द्वारा मनुष्य और देवताओं के सुख प्राप्त होते हैं, वे सुख चाहे मुझे प्राप्त हों या न हों, किन्तु मैं तो निश्चय ही मोक्ष सुख प्राप्त करने के लिए धर्म की शरण ग्रहण करता हूँ। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउसरणपइण्णय : 50 निद्दलियकलुसकम्मो कयसुहजम्मो 'खलीकयकुहम्मो / पमुहपरिणामरम्मो सरणं मे होउ जिणधम्मो / / 44 / / कालत्तए वि न मयं जम्मण-जर मरण-वाहिसयसमयं / अमयं व बहुमयं जिणमयं च सरणं पवन्नो हं / / 45 || / . पसमियकामपमोहं दिहाऽ दहेसु न कलियविरोहं / सिवसुहफ़लयममोहं धम्म सरणं पवन्नो हं / / 46 / / . . नरयगइगमणरोहं गुणसंदोहं “पवाइनिक्खोहं / निहणियवम्महजोहं धम्म सरणं पवन्नो हं / / 47 / / भासुरसुवन्नसुंदररयणालंकारगारवमहग्धं / निहिमिव दोगच्चहरं धम्म जिणदेसियं वंदे 11 48 || 1. यअह' सा0 पु० / / 2. मह हो° पु० ला0 / / 3. निरयगइ° पु० / / 4.पवायनि जे०।। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51 : चतुःशरण प्रकीर्णक (44) पापकर्मो को निर्दलित करने वाला, शुभकर्मो को उत्पन्न करने वाला, व्यक्ति को कुधर्मो से दूर करने वाला तथा श्रेष्ठ परिणाम वाला रमणीय जिनधर्म मेरे लिए शरणभूत हो। (45) जो जन्म, जरा, मरण रूपी सैंकड़ों व्याधियों में भी त्रिकाल में मृत नहीं होता है, ऐसा अमृत और अनेकांतमय जिनधर्म मेरे लिए शरणभूत हो। (46) काम और प्रमोह को प्रशमित करने वाला, जाने-अनजाने में भी वैर-विरोध नहीं कराने वाला, शिवसुख अर्थात् मोक्ष सुख रूपी फल देने वाला अमोघ धर्म अर्थात् जिनधर्म मेरे लिए शरणभूत हो। (47) नरकगति में जाने से रोकने वाला, गुणों का समूह, प्रवादी को भी क्षोभ रहित करने वाला तथा काम रूपी योद्धाओं को मारने वाला जिनधर्म मेरे लिए शरणभूत हो। (48) देवताओं की तरह स्वर्णिम कान्तिवाला, सुन्दर रत्न-अलंकरों से झंकृत, खजाने की तरह महामूल्यवान, दुर्गति को हरने वाला जिनदेव प्ररूपित जिनधर्म मेरे लिए शरणभूत हो। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउसरणपइण्णयं : 52 (दुक्कडगरिहा) चउसरणगमणसंचियसुचरियरोमंचअंचियसरीरो / कयदुक्कडगरिहाऽसुहकम्मक्खयकंखिरो भणइ / / 49 / / .. इहभवियमन्नभवियं मिच्छत्तपवत्तणं 'जमहिगरणं / जिणपवयणपडिकुटुं दुहुँ गरिहामि तं पावं / / 50 / / मिच्छत्ततमंधेणं अरिहंताइसु 'अवन्नवयणं जं / अन्नाणेण विरइयं इण्हिं गरिहामि तं पावं / / 51 || . सुय-धम्म-संघ-साहुसु* पावं पडिणीययाए जं रइयं / / अन्नेसु य 'पावेसुं इण्हिं गरिहामि तं पावं / / 52 / / अन्नेसु य जीवेसुं मित्ती-करूणाइ गोयरेसु कयं / परियावणाइ दुक्खं इण्हिं गरिहामि तं पावं / / 53 / / 1.हियरणं सं० / हिकरण जे0।। 2. 'यणिज्ज जे0 पु० ला० / / 3. गरहा' सं० / / 4. 'हुस्स पाव पडणी जे0 / / 5. पावेसु य इ° जे0 / / 6. जीवेसु य मेत्ती जे0 / / Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 53 : चतुःशरण प्रकीर्णक दुष्कृत गर्हा ) (49) चतुःशरण ग्रहण करने वाला, अच्छे आचरण द्वारा शरीर में रोमांच उत्पन्न करने वाला तथा दुष्कृत की गर्दा (निंदा) करने वाला व्यक्ति अशुभ कर्मो का क्षय करने वाला कहा गया है। (50) इस भव और पर भव में मिथ्यात्व की प्ररूपणा करने वाले, पापजनक क्रिया करने वाले, जिनवचन के प्रतिकूल आचरण करने वाले दुष्टजनों की तथा उनके पापों की मैं गर्दा (निंदा) करता हूँ। (51) मिथ्यात्व और अज्ञान से अरहंत आदि के प्रति जो निन्दनीय वचन मैंने कहे हैं तथा अज्ञान के द्वारा जो कुछ मेरे द्वारा किया गया है, उन सभी पापों की मैं इस समय गर्दा करता हूँ। (52) श्रुत, धर्म, संघ और साधुओं के प्रति जो पाप और प्रतिकूल आचरण मैंने किये हैं, उनकी और अन्य दूसरे सभी पापों की मैं इस समय गर्दा (निन्दा) करता हूँ। (53) दूसरे जीवों के प्रति मैत्री और करूणा रखते हुए भी गोचरी (भिक्षाचर्या) में मैंने जीवों को जो परिताप एवं दुःख पहुंचाया है, उन पापों की मैं इस समय गर्दा ( निन्दा ) करता हूँ। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउसरणपइण्णयं : 54 .जं मण-'वय-काएहिं कय-कारिय-अणुमईहिं आयरियं। धम्मविरुद्धमसुद्धं सव्वं गरिहामि तं पावं / / 54 / / (सुकडाणुमोयणा) अह सो दुक्कडगरिहादलिउक्कडदुक्कडोफुडंभणइ / सुकडाणुरायसमुइन्नपुन्नपुलयंकुरकरालो / / 55 / / .. अरिहत्तं अरिहंतेसु , जं चं सिद्धत्तणं च सिद्धेसु / आयारं. आयरिए , उज्झायत्तं उवज्झाए / / 56 / / साहूण साहुचरियं च , 'देसविरइं च “सावयजणाणं / अणुमन्ने सव्वेसिं , सम्मत्तं सम्मदिट्ठीणं / / 57 / / अहवा सव्वं चिय वीयरायवयणाणुसारि जं 'सुकडं / कालत्तए वि तिविहं अणुमोएमो तयं सव्वं 58 / / (चउसरणगमणाईणं फलं) सुहपरिणामो निच्चं चउसरणगमणाइ आयरं जीवो / 'कुसलपयडीओ बंधइ , बद्धाउ सुहाणुबंधाओ / / 59 / / 1.वइ-का जे0 ला०।। 2. अरिहंतं अ° सं0 जे0 ला० / / 3. रयं च सं0 जे0 ला० / / 4. वगगणाणं जे0 / / 5.सुकयं सा0 || 6.वयं जे०।। 7.'लप्पयडी बं जे०।। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 : चतुःशरण प्रकीर्णक (54) मन, वचन, काया तथा कृत, कारित और अनुमोदना पूर्वक धर्म विरुद्ध जो अशुद्ध आचरण मैंने किया है, उन सब पापों की मैं गर्दा (निन्दा) करता हूँ। ( सुकृत अनुमोदना ) (55-58) जो स्पष्टतः दुष्कृत्यों की गर्दा करके कृत दुष्कृत्यों को दलित कर देता है वह सुकृतों के अनुराग से समुन्नत होकर पुलक- पुण्य के अंकुर को इस प्रकार कहता है कि अरहंतो के अरहंतत्व, सिद्धों के सिद्धत्व, आचार्यों के आचार्यत्व, उपाध्यायों के उपाध्यायत्व, साधुओं के साधुत्व, श्रावकजनों के देश-विरतित्व और सम्यकदृष्टियों के सम्यक्त्व, इन सबका मैं अनुमोदन करता हूँ अथवा वीतराग के वचनानुसार जो कुछ भी सुकृत है उनकी सर्व समय में त्रिविध रूप से अर्थात् मन, वचन एवं काया से मैं अनुमोदना करता हूँ। (चतुःशरण गमनादि का फल ) (59) निरन्तर शुभ परिणामों से युक्त जीव इन चार शरणों को ग्रहण करता हुआ पुण्य प्रकृतियों का बन्ध करता है और पूर्व में बांधी हुई अशुभ प्रकृतियों को शुभ अनुबंध वाली बनाता है। . Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउसरणपइण्णयं : 56 मंदणुभावा बद्वा तिव्वणुभावाओ कुणइ ता चेव / असुहावो निणुबंधाओ कुणइ, तिव्वाओ मंदाओं / / 60 / / ता एवं कायव्वं बुहेहि निच्चं पि संकिलेसम्मि / होइ तिकालं सम्मं असंकिलेसम्मि 'सुकयफलं / / 61 / / . चउरंगो जिणधम्मो न कओ , चउरंगसरणमवि न कयं / 'चउरंगभवच्छेओ न कओ, हा ! हारिओ जम्मो / / 62 / / इय जीव ! पमायमहारिवीरभदंतमेयमज्झयणं / झाएसु तिसंझमवंझकारणं निव्वुइसुहाणं / / 63 / / / / इति कुसलाणुबंधज्झयणं सम्मत्तं / / 1. सुकइफ' सं0 ला0 / सुगइफ जे0 / / 2. भवुच्छे जे0 पु०।।.3. मेव (?त) म' जे0 ला0 पु०।। 4. बंधिज्झ जे० / / Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 57 : चतुःशरण प्रकीर्णक (60) पुनः वह शुभ परिणाम वाला जीव पूर्व में बद्ध मंद रस वाली शुभ प्रकृतियों को तीव्र रस वाली शुभ प्रकृतियों में संक्रमित करता है तथा मंद रस वाली अशुभ प्रकृतियों का क्षय करता है और तीव्र रस वाली अशुभ प्रकृतियों को मंद रस वाली प्रकृतियों में संक्रमित करता है। (61) नित्य संक्लेश में बंधने से त्रिकाल में भी सुकृत फल की प्राप्ति नहीं हो सकती, किन्तु असंक्लेश में बंधने से सुकृत फल की प्राप्ति हो सकती है, ऐसा विज्ञजनों के द्वारा कहा गया है। (62) अहो ! चतुर्विध जिनधर्म की अनुपालना नहीं करने वाला, चतुःशरण ग्रहण नहीं करने वाला तथा चतुर्गति रूप संसार का जिसने छेदन नहीं किया है, ऐसा जीव मनुष्य जन्म को हारा हुआ है। (63) हे जीव ! वीरभद्र रचित इस अध्ययन का प्रमाद रहित होकर जो तीनों समय में ध्यान करता है, वह निर्वाण सुख .. प्राप्त करता है। ( कुशलानुबंधी अध्ययन समाप्त ) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चडसरणपइन्नयं (अत्याहिगारा) चउसरणगमण 1 दुक्कडगरिहा 2 सुकडाणुमोयणा 3 चेव / एस गणो अणवरयं कायवो कुसलहेउ त्ति / / 1 / / (चउसरणगमणं) परिहीण राग-दोसा सव्वण्णू तियसनाहकयपूया / तिहुयणमंगलनिलया अरहंता मज्झ ते सरणं / / 2 / / / निवियअट्टकम्मा कयकिच्चा सासयं सुहं पत्ता / तियलोयमत्थयत्था सिद्धा सरणं महं इण्हिं / / 3 / / पंचमहव्वयजुत्ता समतिण-मणि-लिट्ठ-कंचणा विरया / सुग्गिहियनामधेया साहू सरणं महं निच्वं / / 4 / / कम्मविसपरममंतो, निलओ कल्लाण-अइसयाईणं / संसारजलहिपोओ सरणं मे होउ जिणधम्मो / / 5 / / Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ র:হাহ0 gীচ্ছে (1) (अर्थाधिकार) (1) चतुःशरण गमन, (2) दुष्कृत गर्दा एवं (3) सुकृत अनुमोदन, यह समूह अनवरत कुशल कार्य करने के लिए है। (2) (चतुःशरणगमन) राग - द्वेष से रहित, त्रिदशेन्द्र द्वारा पूजित, सर्वज्ञ तथा तीनों लोकों के शुभ आश्रय रूप वे अरहंत मेरे लिए शरणभूत हों। (3) अष्टकर्मों को नष्ट करने वाले, कृत्य करके शाश्वत सुख प्राप्त करने वाले तथा तीनों लोकों के शीर्ष भाग पर स्थित रहने वाले सिद्ध इस समय मेरे लिए शरणभूत हों। (4) पंच महाव्रतों से युक्त, तृण, मणि, पत्थर और सोने आदि से तटस्थ भाव से विरत तथा सुगृहित (विख्यात) नाम वाले साधु मेरे लिए नित्य शरणभूत हों। कर्मरूपी विष का भली प्रकार नाश करने वाला, अतिशयाईयों का कल्याणगृह तथा संसाररूपी समुद्र में नौका की तरह यह जिणधर्म मेरे लिए शरणभूत हो। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउसरणपइण्णयं : 60 इय चउसरणगओ हं सम्मं निंदामि दुक्कडं इण्हि / सुकडं अणुमोएमो सव्वं चिय ताण पच्चक्खं / / 6 / / (दुक्कडगरिहा) संसारम्मि अणंते अणाइमिच्छत्तमोहमूढेणं / जं जं कयं कुतित्थं तं तं तिविहेण वोसिरियं / / . 7. || . जं मग्गो अवलविओ , जं च कुमग्गो य देसिओ लोए / जं कम्मबंधहेऊ संजायं तं पि. निंदामि / / 8 / / जं जीवघायजणयं अहिगरणं कह वि किं पि मे रइयं / तं तिविहं तिविहेणं वोसिरियं अज्ज मे सवं / / 1 / / जा मे वयरपरंपर कसायकलुसेण असुहलेसेणं / जीवाणं कहवि कया सा वि य मे सव्वहा चत्ता।। 10 / / जं पि सरीरं इलु कुडुंब उवगरण रूव विन्नाणं / जीवोवघायजणयं संजायं तं पि निंदामि / / 11 / / Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 61 : चतुःशरण प्रकीर्णक (6). इस चतुःशरण को ग्रहण करने वाला मैं इस समय दृष्कृत की सम्यक् प्रकार से निंदा तथा प्रत्याख्यान करता हूँ एवं सुकृत की अनुमोदना और उसकी शरण ग्रहण करता हूँ। दुष्कृत गा) अनन्त संसार में अनादि मिथ्यात्व, मोह और अज्ञान के द्वारा जो-जो कुतीर्थ मेरे द्वारा किये गये हैं, उनको मैं त्रिविध रूप से त्यागता हूँ / (7) (8) मार्ग का अपलाप करके लोक में कुमार्ग का जो उपदेश मैंने दिया है तथा उससे जो कर्म बंध के हेतु बने हैं, उनकी मैं निन्दा करता हूँ। रति पूर्वक मेरे द्वारा जीवोत्पत्ति, जीवाघात अथवा कलह आदि जो कुछ भी किया गया है, उन सबको मैं आज त्रिविध रूप से त्यागता हूँ। (10) वैर-भाव, कषाय - कलुषता और अशुभ लेश्या के द्वारा जीवों के प्रति मेरे द्वारा जो कुछ भी पाप किया . गया है, उन सबको मैं त्यागता हूँ। . वा (11) इष्ट शरीर, कुटुम्ब, उपकरण तथा जीवों के उपघात की जनक जो भी मनोवृत्तियाँ मुझमें उत्पन्न हुई हैं, उन सबकी मैं निन्दा करता हूँ। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउसरणपइण्णयं : 62 . गहिऊण य मुक्काई जम्मण-मरणेहिं जाई देहाइं / पावेसु पसत्ताइं तिविहेणं ताइं चत्ताइं / / 12 / / आवज्जिऊण धरिओ अत्थो जो लोह-मोहमूढेणं / असुहट्ठाणपउत्तो मण-वय-काएहिं सो चत्तो।। 13 / / जाई चिय गेह-कुटुंबयाई हिययस्स अइवइट्ठाई. / . जम्मे जम्मे चत्ताइं वोसिरियाई मए ताई / / 14 || अहिगरणाई जाइं हल- उक्खल-सत्थ- जंतमाईणि / .. कारणाईहिं कयाइं परिहरियाई मए ताई / / 15 / / मिच्छत्तभावगाइं जाइं कुसत्थाई पावजणगाई / कुग्गहकराइं लोए निंदामि य ताइं सव्वाइं / / 16 / / अन्नं ति य जं किंचि वि अन्नाण-पमाय-दोसमूढेणं / / पावं पावेण कयं तं पि हु तिविहेण पडिकंतं / / 17 / / __ ( सुकडाणुमोयणा ) जं पुण देहं सयणं वावारं दविण नाण कोसल्लं / वट्टइ सुहम्मि ठाणे, तं सव्वं अणुमयं मज्झ / / 18 / / जं चिय कयं सुतित्थं, संत (?ता) ईदसणा सुहं किच्चं। जीवाणं सुहजणयं, तिविहेणं बहुमयं तं पि / / 19 / / Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 63 : चतुःशरण प्रकीर्णक (12) अनवरत पाप कर्मों में आसक्त रहने के कारण जन्म-मरण के निमित्त से शरीर का ग्रहण और परित्याग करते हुए मैं जिन पापों में आसक्त हुआ हूँ, उनका त्रिविध रूप से परित्याग करता हूँ। (13) लोभ, मोह और अज्ञानवश सम्पत्ति को प्राप्त कर तथा उसे धारण कर जो अशुभ स्थान को मैंने प्राप्त किया है, उसको मन, वचन और काया के द्वारा त्यागता हूँ। (14) गृह, कुटुम्ब और स्वजन जो मेरे हृदय को अतिप्रिय रहे किन्तु फिर भी मुझे विभिन्न जन्मों में उनका परित्याग करना पड़ा, उन सभी के प्रति मैं अपने ममत्व का परित्याग करता हूँ। (15-17) हल, ऊँखल, शस्त्र, यंत्र आदि साधनों के द्वारा पाप कर्म का जो उपार्जन मैंने किया है, उन सबका मैं परित्याग करता हूँ। संसार में मिथ्यात्व भावों को उत्पन्न करने वाले, पाप कर्मों के जनक तथा विग्रह कराने वाले जो कुशास्त्र आदि हैं, मैं उन सबकी निन्दा करता हूँ तथा अज्ञान, प्रमाद, द्वेष और मूढता के कारण अन्य जो कुछ भी पाप कर्म मैंने किये हैं, उन सबका मैं त्रिविध रूप से प्रतिक्रमण करता हूँ। ..... (सुकृत अनुमोदना) ' (18) देह, स्वजन, व्यापार, धन-सम्पत्ति तथा ज्ञान और कौशल, इनका जो उपयोग सद्धर्म में हुआ हो तो उन सबकी मैं अनुमोदना करता हूँ। जीवों के कल्याण के लिए जिन्होंने सद्-धर्म की देशना और सुतीर्थ की स्थापना रूप जो शुभ कार्य किया, उनका मैं त्रिविध रूप से बहुमान करता हूँ। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउसरणपइण्णयं : 64 गुणपगरिसं जिणाणं , परोवयारं च धम्मकहणेणं / मोहजएणं नाणं , अणुमोएमो य तिविहेणं / / 20 / / सिद्धाण सिद्धभावं , असेसकम्मक्खएण सुहभावं / दसण-नाणसहावं , अणुमोएमो य तिविहेणं / / 21 || . आयरियाणाऽऽयारं पंचपयारं च जणियकल्लाणं / अणुओगमागमाणं , अणुमोएमो य तिविहेणं / / 22 || उज्झायाणऽज्झयणं आगमदाणेण दिण्णमग्गाणं / .. उवयारवावडाणं , अणुमोएमो उ तिविहेणं / / 23 / / साहूण साहुकिरियं मुक्खसुहाणिक्कसाहणोवायं / समभावभावियाणं , अणुमोएमो उ तिविहेणं / / 24 / / सावयाणाण सम्मं वयगहणं धम्मसवण-दाणाई / अन्नं पि धम्मकिच्चं , तं सव्वं अणुमयं मज्झ / / 25 / / अन्नेसिं सत्ताणं भव्वत्ताए उ होइ कम्माणं / मग्गाणुरूवकिरियं , तं सव्वं अणुमयं मज्झ / / 26 / / (उवसंहारो) एसो चउसरणाई जस्स मणे संठिओ सयाकालं / सो इह- परलोयदुहं लंघेउं लहइ कल्लाणं / / 27 / / / / चउसरणपइण्णयं सम्मत्तं / / Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65 : चतुःशरण प्रकीर्णक (20) जिनदेवों के गुणों के प्रत्कर्ष का, धर्म कथा रूप परोपकार का तथा मोह पर विजय प्राप्त करने वाले ज्ञान का मैं त्रिविध रूप से अनुमोदन करता हूँ। (21) सभी कर्मों के क्षय होने से सिद्धों के सिद्धभाव, सुख भाव और ज्ञान, दर्शन रूप स्वभाव का मैं त्रिविध रूप से अनुमोदन करता हूँ। (22) आचार्यों के पांच प्रकार के आचार का, उनकी जन-कल्याण मूलक वृत्ति का तथा उनके आगमिक विवेचन का मैं त्रिविध रूप से अनुमोदन करता हूँ। (23) उपाध्यायों की अध्ययन वृत्ति का, आगम ज्ञान के द्वारा मोक्ष मार्ग के निर्देशन का तथा उनकी उपकारी वृत्ति का मैं त्रिविध रूप से अनुमोदन करता हूँ। (24) साधुओं की शुभ क्रिया का, उनके द्वारा उपदिष्ट मोक्ष रूपी सुख के साधनभूत अनेक उपायों का तथा उनके समभाव में भावित रहने का मैं त्रिविध रूप से अनुमोदन करता हूँ। (25) श्रावकजनों की सम्यक् वचन ग्राह्यता, धर्म श्रवणता आदि अन्य सभी धार्मिक क्रियाओं की मैं अनुमोदना करता हूँ। (26) अन्य सभी भव्य जीवों के शुभ कर्मो का और उनकी मोक्ष मार्ग रूपी क्रियाओं का मैं सर्वथा प्रकार से अनुमोदन करता हूँ / (उपसंहार) (27) यह चतुःशरण जिसके मन में सदाकाल स्थित रहता है, वह इस लोक और परलोक दोनों का अतिक्रमणकर कल्याण प्राप्त करता है। ( चतुःशरण प्रकीर्णक समाप्त ) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. परिशिष्ट (क) कुशलानुबंधी चतुःशरण प्रकीर्णक की गाथानुक्रमणिका गाथा क्रमांक अच्चब्भुयगुणवंते अन्नेसु य जीवेसुं अमरिंद-नरिंद-मुणिंद अरिहंत-अरिहंतेसु अरिहंत सरणमलसुद्धि अरिहंत 1 सिद्ध 2 साहू 3 अहवा सव्वं चिय अह सो जिणभत्तिमरुच्छ अह सो दुक्कडगरिहादलिउ इय जीव ! पमायमहा इह भवियमन्न भवियं उज्जियर-मरणाणं उज्झियवइर-विरोहा उवलद्धयरमबंभा एगाइ गिरा णेगे Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 67 : परिशिष्ट ओसरणमवसरिता चउवीसं 24 39 कम्मट्टक्खय सिद्धा कामविडंबण चुक्का कालत्तए वि न मयं केवलिणो परमोही 45 32 व 36 खंडिय सिणेहदामा खलियस्स य तेसि पुणो खिरासव महुआसव 34. 49 गय 1 वसह 2 सीह 3 गुणधारणरूवेणं च चउसरणगमणसंचिय चउरंगो जिणधम्मो चरणाइयाइयाणं चारित्तस्स विसोही चउसरणगमण ? चउदस-दस-नवपुवी 10 32 जं मण-वय-काएहिं जियलोय बंधुणो कुगइ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउसरणपइण्णयं : 68 थुइ-वंदणमरिहंता . . दंसणयारविसोही नाणाईया उ गुणा निद्दलियकलुसकम्मो नरयगइगमण रोहं 4 47 41 43 पडिपिल्लियपडिणीया पडिवन्नसाहुसरणो पत्तेण अपत्तेण य पत्ताणि परमणगयं मुणिंता पवरसुकएहिं पत्तं पत्तेहि पसमियकामपमोहं पाविय परमाणंदा 16 42 46 28 भ भासुरसुवन्न सुंदर - 48 60 मंदाणुभावा बद्धा मिच्छत्ततमंधेणं मूलुक्खय पडिवक्खा 51 26 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 69 : परिशिष्ट राग-द्दोसारीणं हंता रायसिरिमवकामिंता वयणामएण भुवणं स सव्वजियाणमहिंसं . सावज्जजोगविरई साहुत्तसुठ्ठिया जं. साहूण साहुचरियं सिद्धसरणेण नवबंभ सुयं-धम्म-संघ-साहुसु सुहपरिणामो निच्चं हिंसाइदोससुन्ना ... (ख) चतुःशरण प्रकीर्णक की गाथानुक्रमणिका . गाथा क्रमांक अन्नं पि य जं किंचि अन्नेसिं सत्ताणं भव्वत्ताए अहिगरणाइं जाई 26 15 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउसरणपइण्णयं : 70 . आ आयरियाणाऽऽयारं आवज्जिऊण धरिओ 22 13 . इय चउसरणगओ उ . उज्झायाणऽज्झयणं एसो चउसरणाई जस्स कम्मविसपरममंतो, निलओ . . गहिऊण य मुक्काई गुणपगरिसं जिणाणं चउसरणगमण 1 दुक्कडगरिहा 2 दा ता. दा. जं चिय कयं सुतित्थं जं जीवघायजणयं अहिगरणं जं पि सरिरं इ8 कुटुंब जं पुण देह सयणं जं मग्गो अवलविओ जाई चिय गेह-कुंडंबयाई जा मे वयरपरंपर दा. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 71 : परिशिष्ट निविअट्टकम्मा कयकिच्चा परिहीण राग - दोसा पंचमहव्वयजुत्ता समतिण म मिच्छत्तभावगाई संसारम्मि अणंते सावयगणाण सम्म साहूण साहुकिरियं सिद्धाणं सिद्धभावं 21 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. परिशिष्ट सहायक ग्रन्थ सूची 1. अभिधान राजेन्द्र कोश : श्री विजय राजेन्द्रसूरिजी ,रतलाम। . 2. अष्टपाहुड : (कुन्दकुन्द) भाषा परिवर्तन- महेन्द्र कुमार जैन। (श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट , सौनगढ़) 3. उत्तराध्ययनसूत्र : सम्पादक- मधुकर मुनि (श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर ) / 4. जैन लक्षणावली : सम्पादक- बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री (वीर सेवा मन्दिर प्रकाशन, दिल्ली (भाग-1-3) 5. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश : जिनेन्द्र वर्णी (भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली) (भाग 1-4) 6. नन्दीसूत्र : सम्पादक- मधुकर मुनि (श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर ) / 7. नन्दीसूत्र चूर्णि : (देववाचक) सम्पादक- मुनि पुण्यविजयजी ___(प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, वाराणसी ) 8. नन्दीसूत्र वृत्ति : (देववाचक) सम्पादक- मुनि पुण्यविजयजी (प्राकृत . टेक्स्ट सोसायटी, वाराणसी) / 9. नियुक्तिसंग्रह (भद्रबाहु) सम्पादक- विजयजिनेन्द्र सूरीश्वर 10. पइण्णयसुत्ताइं : सम्पादक -मुनि पुण्यविजयजी ( श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई ) (भाग 1-2) / 11. पाक्षिकसूत्र : प्रका0 देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड / 12. मूलाचार : (वट्टकेर) सम्पादक - कैलाशचन्द्र शास्त्री (भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, (दिल्ली) (भाग 1-2 ) 13. समयसार (कुन्दकुन्द) सम्पादक- डॉ. पन्नालाल (श्रीगणेश प्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला प्रकाशन , वाराणसी)। 14. समवायांगसूत्र : सम्पादक- मधुकर मुनि (श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर ) | 15. स्थानांगसूत्र : सम्पादक- मधुकर मुनि (श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर ) / Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थान -परिचय आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान आचार्य श्री नानालालजी म. सा. के 1981 के उदयपुर वर्षावास की स्मृति में जनवरी 1983 में स्थापित किया गया। संस्थान का मुख्य उद्देश्य जैनविद्या एवं प्राकृत के विद्वान तैयार करना, अप्रकाशित जैन साहित्य का प्रकाशन करना, जैनविद्या में रूचि रखने वाले विद्यार्थियों को अध्ययन की सुविधा प्रदान करना, जैन संस्कृति की सुरक्षा के लिए जैन आचार, दर्शन और इतिहास पर वैज्ञानिक दृष्टि से ग्रन्थ तैयार कर प्रकाशित करवाना एवं जैनविद्या प्रसार की दृष्टि से संगोष्ठियाँ, भाषण, समारोह आदि आयोजित करना है। यह संस्थान श्री अ. भा. सा. जैन संघ, बीकानेर की एक मुख्य प्रवृत्ति है। संस्थान राजस्थान सोसायटीज एक्ट 1958 के अन्तर्गत रजिस्टर्ड है एवं संस्थान को अनुदान रूप में दी गयी धनराशि पर आयकर अधिनियम की धारा 80 (G) और 12 (A) के अन्तर्गत छूट प्राप्त है। जैनधर्म और संस्कृति के इस पुनीत कार्य में आप इस प्रकार सहभागी बन सकते हैं - (1) व्यक्ति या संस्था एक लाख रूपया या इससे अधिक देकर परम संरक्षक सदस्य बन सकते हैं। ऐसे सदस्यों के नाम अनुदान तिथि क्रम से संस्थान के लेटरपैड पर दर्शाये जाते हैं। (2) 51,000 रूपया देकर संरक्षक सदस्य ब (3) 25,000 रूपया देकर हितैषी सदस्य बन (4) 11,000 रूपया देकर सहायक सदस्य ब 1,000 रूपया देकर साधारण सदस्य बन amph है. (6) संघ, ट्रस्ट, बोर्ड, सोसायटी आदि जो संस्था एक साथ 20,000 रूपया का अनुदान प्रदान करती है, वह संस्था संस्थान - परिषद की संस्था सदस्य होगी। (7) अपने बुजुर्गों की स्मृति में भवन निर्माण हेतु व अन्य आवश्यक यंत्रादि हेतु अनुदान देकर आप इसकी सहायता कर सकते हैं। (8) अपने घर पर पड़ी प्राचीन पांडुलिपियाँ, आगम - साहित्य व अन्य उपयोगी साहित्य प्रदान कर सकते हैं। आपका सहयोग ज्ञान साधना के रथ को प्रगति के पथ पर अग्रसर करेगा।