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________________ भूमिका : 31 चतुःशरण प्रकीर्णक भी यद्यपि इसी विषय से संबन्धित है फिर भी उसमें चतुःशरणभूत जो विशिष्ट पद या व्यक्ति हैं उनके गुणों का पृथक-पृथक रूप से विवेचन नहीं किया है, किन्तु भावना की दृष्टि से दोनों ग्रन्थों में समरूपता है। चतुःशरण के अन्त में भी कुशलानुबन्धी के समान ही आलोचना को स्थान दिया गया है। कुशलानुबन्धी अथवा चतुःशरण प्रकीर्णक में आलोचना को जो स्थान दिया गया है वह आत्मविशुद्धि के निमित्त ही माना जाना चाहिए। यद्यपि वीरभद्र गणि का कुशलानुबन्धी मूलतः प्राचीन परम्परागत मंगल पाठ का ही एक विस्तृत संस्करण है फिर भी इसकी विशिष्टता यह है कि यह अपने युग की तांत्रिक मान्यताओं और स्थापनाओं से. सर्वथा अप्रभावित है। ज्ञातव्य है कि दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में जैन परम्परा पर तंत्र का व्यापक प्रभाव आ गया था फिर भी उससे कुशलानुबन्धी और चतुःशरण का अप्रभावित रहना एक महत्वपूर्ण घटना है। . जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया कि जैन धर्म में हिन्दू परम्परा के प्रभाव से जो भक्ति मार्ग का विकास हुआ था और शरणप्रपत्ति को साधना का एक आवश्यक अंग मान लिया गया था। यही कारण है कि चत्तारि मंगल का पाठ आवश्यक सूत्र का एक अंग बन गया और दैनन्दिन साधना में शरणगमन को एक महत्वपूर्ण स्थान मिला। यद्यपि जैन परम्परा ईश्वरीय कृपा की अवधरणा को अस्वीकार करती है फिर भी शरणप्रपत्ति को व्यक्ति के जीवन में समत्व की उपलब्धि का एक महत्वपूर्ण साधन माना गया। शरणप्रपत्ति तभी संभव है जब जिसके प्रति शरणागत होना है उसके प्रति मन में अहोभाव उत्पन्न हो और इसके लिए प्राचीन काल में शक्रस्तव (णमोत्थुणं) और चतुर्विशतिस्तव (लोगस्स) के पाठ विकसित हुए। हम देखते हैं कि वीरभद्र ने कुशलानुबन्धी एवं चतुःशरण में भी मात्र शरणागति की चर्चा ही नहीं की अपितु शरणाभूत आराध्यों के गुणों का संस्तवन भी किया है। वस्तुतः ज्ञानमार्ग और चारित्रमार्ग की अपेक्षा भक्तिमार्ग सामान्य व्यक्तियों
SR No.004296
Book TitleChausaran Painnayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya, Manmal Kudal
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1999
Total Pages74
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_chatusharan
File Size6 MB
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