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________________ भूमिका : 29 परम्परा में इसी आधार पर त्रिशरण की अवधारणा विकसित हुई, जिसके अन्तर्गत साधक संघ, धर्म और बुद्ध की शरण ग्रहण करता है। बौद्ध धर्म में शरण ग्रहण की यह परम्परा संघ अर्थात् समूह से प्रारम्भ होकर बुद्ध अर्थात् व्यक्ति पर समाप्त होती है। यद्यपि बुद्ध को एक पद के साथ-साथ एक व्यक्ति भी माना जा सकता है। जैनधर्म में भी लगभग इसी के समरूप चतुःशरण की अवधारणा का विकास हुआ। जहाँ बौद्ध धर्म में संघ, धर्म और बुद्ध को शरणभूत माना गया, वहाँ जैन धर्म में अरहंत, सिद्ध, साधु और जिन द्वारा प्रतिपादित धर्म मार्ग को शरणभूत माना गया है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा ने अपनी पंच परमेष्ठि की अवधारणा में से आचार्य, उपाध्याय और साधु को मूलतः एक ही “साधु” पद के अन्तर्गत ग्रहित करके तीन पद को ही शरणभूत माना। फिर उसमें बौद्ध परम्परा के समान धर्म को स्थान देकर चतुःशरण की अवधारणा का विकास किया। यद्यपि इस चतुःशरण की अवधारणा के विकास का सुनिश्चित समय बता पाना तो कठिन है किन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी तक जैन परम्परा में भी चतुःशरण की अवधारणा का विकास हो गया था। - जैन तथा बौद्ध धर्म में जो त्रिशरण माने गये हैं उनमें धर्म दोनों में ही समान है। अरहंत को किसी सीमा तक बुद्ध का ही पर्यायवाची मानकर अरहंत की शरण को बुद्ध की शरण माना जा सकता है। ज्ञातव्य है कि उत्तराध्ययन जैसे प्राचीन आगम में "जिन” या “अरहंत” के लिए “बुद्ध” शब्द का बहुतायत से प्रयोग हुआ है। बौद्ध धर्म में जहाँ संघ को शरणभूत बतलाया गया वहाँ जैन धर्म में साधु को शरणभूत माना गया। यद्यपि किसी सीमा तक साधु भी संघ के प्रतिनिधि हैं फिर भी संघ की सर्वोपरिता को जो स्थान बौद्ध परम्परा में प्राप्त हुआ वह स्थान आगे चलकर जैन परम्परा में प्राप्त नहीं हो सका / यद्यपि प्राचीनकाल में तीर्थंकर भी “नमो तित्थस्स” कहकर तीर्थ को वन्दना करते थे और उसकी
SR No.004296
Book TitleChausaran Painnayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya, Manmal Kudal
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1999
Total Pages74
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_chatusharan
File Size6 MB
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