Book Title: Anekant 1948 02
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त फरवरी, सन् १६४८ संस्थापक-प्रवर्तक वीरसेवा-मन्दिर, सरसावा IBN 2 प्र तत्र चित्रतत्र त सम्पादक - मण्डल जुगल किशोर मुख्तार मुनि कान्तिसागर दरवारीलाल न्यायाचार्य अयोध्याप्रसाद 'गोयलीय' वर्ष 8 प्रधान सम्पादक डालमियांनगर (बिहार) किरण २ ZSI ESI FZSZ R7 76 प्र 1170 समल सञ्चालक-व्यवस्थापक भारतीय ज्ञानपीठ, काशी SKYKYKYRSKYKS KYRY लेखोंपर पारितोषिक 'अनेकान्त' के इस पूरे वर्षमें प्रकाशित सर्वश्रेष्ठ लेखों पर डेढ़सौ १५०), सौ १००) और पचास ५०) को पारितोषिक दिया जायगा। इस पारि तोषिक-स्पर्धा में सम्पादक, व्यवस्थापक और प्रकाशक नहीं रहेंगे । बाहर के विद्वानोंके लेखोंप ही यह पारितोषिक दिया जायेगा । लेखों की जांच और तत्सम्बन्धी परितोषिकका निर्णय 'अनेकान्त' का सम्पादक-मण्डल करेगा । व्यवस्थापक 'अनेकान्त' BSNI SZA 7 7 SIN 7 225 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची १ समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने ( युक्त्यनुशासन) - [प्र० सम्पादक ४५ ५० २ संजय वेलट्ठिपुत्त और स्याद्वाद - न्या० पं० दरबारीलाल कोठिया ३ रत्नकरण्डके कर्तृत्व विषय में मेरा विचार और निर्णय । - [ प्र० सम्पादक ५६ ४ साहित्य- परिचय और समालोचन ६० (घ) ५ विमल भाई [ - अयोध्याप्रसाद गोयलीय ६४ ६ हिन्दी - गौरव (कविता) - 1 पं० हरिप्रसाद विकसित ६३ ७ सोमनाथका मन्दिर - [ बा० छोटेलाल जैन ६४ ८ अद्भुत बन्धन (कविता) - [पं० अनूप चन्द जैन ७१ श्री भारत जैन महामण्डलका २८ वां वार्षिक अधिवेशन व्यावर ( राजपूताना ) में ता० २७, २८. २६ मार्च सन् १६४८ को श्रीमान् सेठ अमृतलालजी जैन सम्पादक 'जन्मभूमि' बम्बई के सभापतित्व में होगा । इस अधिवेशन में समाज के हितके कई प्रस्तावों पर विचार किया जावेगा । अतएव आपसे निवेदन है कि इस शुभ अवसरपर पधारने की कृपा करें, तथा समाजका हित किन किन बातों में है इसका लेख, तथा निबन्ध व प्रस्ताव वर्धा भेजें । निवेदकचिरञ्जीलाल बड़जात्या सहायकमन्त्री, श्री भारत जैन महामण्डल, वर्धा. प्राचीन मूर्तियां - अलवर शहर में मोहोला जतीकी बगीची में (पूर्जन विहार के समीप) एक महाजनके मकानकी नींव खुदते समय दक्षिणकी ओर जिधर कबरिस्तान है ता० १६ २- ४८ की दस बजे सुबह चार मूर्तियां जमोनसे ६ करनीका फल (कथा कहानी) अयोध्याप्रसाद गोयलीय ७२ १०. क्या सम्यग्दृष्टि अपर्याप्तकालमें स्त्रीवेदी हो सकता है ? - | बा० रतनचन्द जैन मुख्तार ७३ ११ सलका भाग्योदय - पं० के० भुजबली शास्त्री ७५ १२ चतुर्थ वाग्भट्ट और उनकी कृतियां - पं० परमानन्द जैन शास्त्री ७६ १३ महात्मा गांधी के निधनपर शोक प्रस्ताव ८१ १४ गांधी की याद ( कविता ) . - [ मु० फजलुलरहमान जमाली पर १५ सम्पादकीय विचारधारा - [ गोयलीय ८३ ४. ५ फुटकी गहराई में निकलीं। ये जैन प्रतिमा हैं और इनपर स्थानीय जैनसमाजने अपना अधिकार कर लिया है। इन चारों मूर्तियोंमेंसे ३ प्रतिमायें खण्डित हैं जिनमें से एकपर जो लेख है उससे प्रकट होता है कि वह भगवान पार्श्वनाथकी है और वह वीर सं० १३०२ में प्रतिष्ठित की गई थी। शेष दो खंडित मूर्तियों पर कोई चिह्न नहीं हैं इसलिये उनके सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जासकता कि वे कबकी निर्माण की हुई हैं। चौथी प्रतिमा भगवान ऋषभदेवकी २ फुट ऊंची है । इसपर चिह्न स्पष्ट है । यह चौथे कालकी जान पड़ती है। संगमूसाकी बनी हुई है । यह विशाल होने के अलावा बहुत सुन्दर अनुपम चित्ताकर्षक है । इसे देखनेको जैन तथा अजैन दर्शक सहस्रोंकी संख्यार्मे नित्यप्रति आरहे हैं ऐसा अनुमान है कि कबरिस्तान के नीचे कभी प्राचीन जैनमन्दिर था । खुदाईका काम जारी है । स्थानीय जैन समाजने अस्थाई रूप से इन प्रतिमाओंको निकट ही विराजमान कर दिया है । — जैन समाज, अलवर For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार्षिक मूल्य ५) & वर्ष किरण २ 'विश्व तत्त्व-प्रकाशक ॐ अम् नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥ तु तत्त्व-संघोतक वीर सेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जि० सहारनपुर माघ, वीरनिर्वाण - संवत् २४७३, विक्रम संवत् २००४ समन्तभद्र - भारती के कुछ नमूने युक्त्यनुशासन मद्याङ्गवद्भुत - समागमे ज्ञः इत्यात्म- शिश्नोदर - पुष्टि - तुष्टैनिंहीं-भयैर्हा ! मृदवः प्रलब्धाः ||३५|| शक्त्यन्तर- व्यक्रिदैव- सृष्टिः । For Personal & Private Use Only Fickla ****** 0: एक किरणका मूल्य ॥) 'जिस प्रकार मद्याङ्गों के मद्य के अङ्गभूत पिष्टोदक. गुड, धातकी आदि के समागम ( समुदाय) पर मदशक्तिको उत्पत्ति अथवा आविर्भूति होती है उसी तरह भूतोंके - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तत्त्वों के समागमपर चैतन्य उत्पन्न अथवा अभिव्यक्त होता है - वह कोई जुदा तत्व नहीं है, उन्हींका सुख-दुःख हर्ष-विषादविवर्त्तात्मक स्वाभाविक परिणाम विशेष है। और यह सब शक्तिविशेषको व्यक्ति है, कोई दैव-सृष्टि नहीं है । इस प्रकार यह जिनका — कार्यवादी विद्धकर्णादि तथा अभिव्यक्तिवादी पुरन्दरादि चार्वाकोंका - सिद्धान्त है उन अपने शिश्न (लिङ्ग) तथा उदरकी पुष्टिमें ही सन्तुष्ट रहनेवाले निर्लज्जों तथा निर्भयोंके द्वारा हा ! कोमलबुद्धि - भोले मनुष्य — ठगे गये हैं! !' व्याख्या—यहां स्तुतिकार स्वामी समन्तभद्रने उन चार्वाकोंकी प्रवृत्तिपर भारी खेद व्यक्त किया है। जो अपने लिङ्ग तथा उदरकी पुष्टिमें ही सन्तुष्ट रहते हैं - उसीको सब कुछ समझते हैं; 'खाओ, पीओ, मौज उ' यह जिनका प्रमुख सिद्धान्त है; जो मांस खाने, मदिरा पौने तथा चाहे जिससे - माता, बहिन, पुत्री से फरवरी १६४८. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ वर्ष भी— कामसेवन (भोग) करने में कोई दोष नहीं देखते; जिनकी दृष्टिमें पुण्य पाप और उनके कारण शुभ-अशुभ कर्म कोई चीज नहीं; जो परलोकको नहीं मानते, जीवको भी नहीं मानते और अपरिपक्कबुद्धि भोले जीवोंको यह कह कर ठगते हैं कि - 'जाननेवाला जीव कोई जुदा पदार्थ नहीं है, पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु चार मूल तत्व अथवा भूत पदार्थ हैं, इनके संयोगसे शरीर-इन्द्रिय तथा विषय-संज्ञाकी उत्पत्ति या अभि व्यक्ति होती है और इन शरीर इन्द्रिय विषय संज्ञासे चैतन्य उत्पन्न अथवा अभिव्यक्त होता है। इस तरह चारों भूत चैतन्यका परम्परा कारण हैं और शरीर, इन्द्रिय तथा विषयसंज्ञा ये तीनों एक साथ उसके साक्षात् कारण हैं । यह चैतन्य गर्भसे मरण- पर्यन्त रहता है और उन पृथ्वी आदि चारों भूतोंका उसी प्रकार शक्तिविशेष है जिस प्रकार कि मद्य के अङ्गरूप पदार्थों (आटा मिला जल, गुड और धातकी आदि) का शक्तिविशेष मद (नशा) है। और जिस प्रकार मदको उत्पन्न करनेवाले शक्तिविशेषको व्यक्ति कोई देवकृत सृष्टि नहीं देखी जाती बल्कि मद्य अङ्गभूत असाधारण और साधारण पदार्थोंका समागम होनेपर स्वभावसे ही वह होती है उसी प्रकार ज्ञानके हेतुभूत शक्तिविशेषको व्यक्ति भी किसी दैवसृष्टिका परिणाम नहीं है बल्कि ज्ञानके कारण जो असाधारण और साधारण भूत (पदार्थ) हैं उनके समागमपर स्वभावसे ही होती है । अथवा हरीतकी (हरड़ ) आदि में जिस प्रकार विरेचन (जुलाब) की शक्ति स्वाभाविकी है - किसी देवताको प्राप्त होकर हरीतकी विरेचन नहीं करती है-उसी प्रकार इन चारों भूतों में भी चैतन्यशक्ति स्वाभाविकी है । हरीतकी यदि कभी और किसीको विरेचन नहीं करती है तो उसका कारण या तो हरीतकी आदि योगके पुराना हो जाने के कारण उसकी शक्तिका जीर्ण-शीर्ण हो जाना होता है और या उपयोग करनेवालेकी शक्तिविशेषकी ४६ अनेकान्त प्रतीति उसका कारण होती है । यही बात चारों भूतों का समागम होनेपर भी कभी और कहीं चैतन्यशक्तिकी अभिव्यक्ति न होने के विषय में समझना चाहिये । इस तरह जब चैतन्य कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं और चारों भूतोंको शक्तिविशेषके रूप में जिस चैतन्यकी अभिव्यक्ति होती है वह मरणपर्यन्त ही रहता है - शरीरके साथ उसकी भी समाप्ति हो जाती है-तब परलोक में जानेवाला कोई नहीं बनता । परलोकी के अभाव में परलोकका भी अभाव ठहरता है, जिसके विषय में नरकादिका भय दिखलाया जाता तथा स्वर्गादिकका प्रलोभन दिया जाता है। और दैव (भाग्य) का अभाव होने से पुण्य पाप कर्म तथा उनके साधन शुभ-अशुभ अनुष्ठान कोई चीज नहीं रहते - सब व्यर्थ ठहरते हैं। और इस लिये लोक-परलोक के भय तथा लज्जाको छोड़कर यथेष्ट रूप में प्रवर्तना चाहिये - जो जीमें आवे वह करना तथा खाना-पीना चाहिये। साथ ही, यह भी समझ लेना चाहिये कि ' तपश्चरण तो नाना प्रकार की कोरी यातनाएँ हैं, संयम भोगोंका वञ्चक हैं और अग्निहोत्र तथा पूजादिक कर्म बच्चोंके खेल हैं - इन सबमें कुछ भी नहीं धरा है ।" इस प्रकारके ठगवचनों द्वारा जो लोग भोले जीवोंको ठगते हैं- पाप और लोकके भयको हृदयों से निकालकर तथा लोक-लाज को भी उठाकर उनकी पाप में निरंकुश प्रवृत्ति कराते हैं, ऐसे लोगों को श्राचार्यैमहोदने जो 'निर्भय' और 'निर्लज्ज' कहा है वह ठीक ही है। ऐसे लोग विवेक-शून्य होकर स्वयं विषयों में अन्धे हुए दूसरोंको भी उन पापोंमें फँसाते हैं, उनका अधःपतन करते हैं और उसमें आनन्द मनाते हैं, जो कि एक बहुत ही निकृष्ट प्रवृत्ति है । यहां भोले जीवोंके ठगाये जानेकी बात कहकर श्राचार्य - महोदयने प्रकारान्तर से यह भी सूचित किया है कि जो प्रौढ बुद्धिके धारक विचारवान् मनुष्य हैं वे ऐसे ठग वचनों के द्वारा कभी ठगाये नहीं सकते। वे जानते हैं कि परमार्थसे जो अनादि निधन उपयोग लक्षण चैतन्य स्वरूप आत्मा है वह प्रमाण * " तपांसि यातनाश्चित्राः संयमो भोगवञ्चकः । अग्निहोत्रादिकं कर्म बालक्रीडेव लक्ष्यते ॥ 35 For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने से प्रसिद्ध है और पृथिव्यादि भूतोंके समागमपर चैतन्यका सर्वथा उत्पन्न अथवा अभिव्यक्त होना व्यवस्थापित नहीं किया जा सकता। क्योंकि शरीराकार-परिणत पृथिव्यादि भूतोंके सङ्गत, अविकल और अनुपहत वीय होनेपर भी जिस चैतन्यशक्तिके वे अभिव्यञ्जक कहे जाते हैं उसे या तो पहलेसे सत् कहना होगा या असत् अथवा उभयरूप। इन तीन विकल्पोंके सिवाय दूसरी कोई गति नहीं है। यदि अभिव्यक्त होनेवाली चैतन्यशक्तिको पहलेसे सतरूप (विद्यमान) माना जायगा तो सर्वदा सत्रूप शक्तिकी ही अभिव्यक्ति सिद्ध होनेसे चैतन्यशक्तिके अनादित्व और अनन्तत्वकी सिद्धि ठहरेगी। और उसके लिये यह अनुमान सुघटित होगा कि- चैतन्यशक्ति कथंचित् नित्य है, क्योंकि वह सतरूप और अकारण है, जैसे कि पृथिवी आदि भूतसामान्य।' इस अनुमानमें सदकारणत्व हेतु व्यभिचारादि दोषोंसे रहित होने के कारण समीचीन है और इसलिये चैतन्यशक्तिको अनादि-अनन्त अथवा कथञ्चित् नित्य सिद्ध करने में समर्थ है। ___यदि यह कहा जाय कि पिष्टोदकादि मद्यांगोंसे अभिव्यक्त होनेवाली मदशक्ति पहलेसे सतरूप होते हुए भी नित्य नहीं मानी जाती और इसलिये उस सत् तथा अकारणरूप मदशक्तिके साथ हेतुका विरोध है, तो यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि वह मदशक्ति भी कथञ्चिन्नित्य है और उसका कारण यह है कि चेतनद्रव्य के हो मदशक्तिका स्वभावपना है, सर्वथा अचेतनद्रव्योंमें मदशक्तिका होना असम्भव है; इसीसे द्रव्यमन तथा द्रव्येन्द्रियोंके, जो कि अचेतन हैं, मदशक्ति नहीं बन सकती-भावमन और भावेन्द्रियोंके ही. जो कि चेतनात्मक हैं. मदशक्तिकी सम्भावना है। यदि अचेतनद्रव्य भी मदशक्तिको प्राप्त होवे तो मद्यके भाजनों अथवा शराब की बोतलोंको भी मद अर्थात् नशा होना चाहिये; और उनकी भी चेष्टा शराबियों जैसी होनी चाहिये; परन्तु ऐसा नहीं है। वस्तुत: चेतनद्रव्यमें मदशक्तिकी अभिव्यक्तिका बाह्य कारण मद्यादिक और अन्तरङ्ग कारण मोहनीय कर्मका उदय है-मोहनीयकर्मके उदय बिना बाह्यमें मद्यादिका संयोग होते हुए भी मदशक्तिकी अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। चुनांचे मुक्तात्माओंमें दोनों कारणोंका अभाव होनेसे मदशक्तिकी अभिव्यक्ति नहीं बनती। और इसलिये मदशक्तिके द्वारा उक्त सदकारणत्व हेतुमें व्यभिचार दोष घटित नहीं हो सकता , वह चैतन्यशक्तिका नित्यत्व सिद्ध करने में समर्थ है । चैतन्यशक्तिका नित्यत्व सिद्ध होनेपर पर परलोकादि सब सुघटित होते हैं। जो लोग परलोकीको नहीं मानते उन्हें यह नहीं कहना चाहिए कि 'पहलेसे सतरूपमें विद्यमान चैतन्यशक्ति अभिव्यक्त होती है।' यदि यह कहा जाय कि अविद्यमान चैतन्यशक्ति अभिव्यक्त होती है तो यह प्रतीतिके विरुद्ध है, क्योंकि जो सर्वथा असत् हो ऐसी किसी भी चीजको अभिव्य सर्वथा असत् हो ऐसी किसी भी चीजको अभिव्यक्ति नहीं देखी जातो। और यदि यह कहा जाय कि कथञ्चित सतरूप तथा कथंचित असतरूप शक्ति ही अभिव्यक्त होती है तो इससे परमतकी स्याद्वादकीसिद्धि होती है, क्योंकि स्याद्वादियों को उस चैतन्यशक्तिकी कायाकार-परिणत-पुद्गलोंके द्वारा अभिव्यक्ति अभीष्ट है जो द्रव्यदृष्टिसे सत्रूप होते हुए भी पर्यायदृष्टि से असत् बनी हुई है। और इसलिये सर्वथा चैतन्य की अभिव्यक्ति प्रमाण-बाधित है, जो उसका जैसे तैसे वंचक वचनोंद्वारा प्रतिपादन करते हैं उन चार्वाकोंके द्वारा सुकुमारबुद्धि मनुष्य निःसन्देह ठगाये जाते हैं। ___ इसके सिवाय जिन चार्वाकोंने चैतन्यशक्तिको भूतसमागमका कार्य माना है उनके यहां सर्वे चैतनन्द शक्तियों में अविशेषका प्रसङ्ग उपस्थित होता है-कोई प्रकारका विशेष न रहनेसे प्रत्येक प्राणीमें बुद्धि आदिकात विशेष (भेद) नहीं बनता। और विशेष पाया जाता है अत: उनको उक्त मान्यता मिथ्या है। इसी बातकों अगली कारिकामें व्यक्त करते हुए प्राचार्य महोदय कहते हैं For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त . वर्षे है दृष्टेऽविशिष्टे जननादि-हेतौ विशिष्टता का प्रतिसत्त्वमेषाम् । स्वभावतः किं न परस्य सिद्धिरतावकानामपि हा! प्रपातः ॥३६॥ _ 'जब जननादि हेतु-चैतन्यकी उत्पत्ति तथा अभिव्यक्तिका कारण पृथिवी आदि भूतोंका समुदाय अविशिष्ट देखा जाता है- उसमें कोई विशेषता नहीं पाई जाती और दैवमृष्टि (भाग्यनिर्माणादि)को अस्वीकार किया जाता है- तब इन (चार्वाकों) के प्राणि प्राणिके प्रति क्या विशेषता बन सकती है ? - कारणमें विशिष्टताके न होनेसे भूतसमागमकी और नज्जन्य अथवा तदभिव्यक्त चैतन्यकी कोई भी विशिष्टता नहीं बन सकती; तब इस दृश्यमान बुद्धयादि चैतन्यके विशेषको किस आधारपर सिद्ध किया जायगा ? कोई भी आधार उसके लिये नहीं बनता।' _ (इसपर) यदि उस विशिष्टताकी सिद्धि स्वभावसे ही मानी जाय तो फिर चारों भूतोंसे भिन्न पाँचवें आत्मतत्वकी सिद्धि स्वभावसे क्यों नहीं मानी जाय ?- उसमें क्या बाधा आती है और इसे न मान कर 'भूतोंका कार्य चैतन्य' माननेसे क्या नतीजा, जो किसी तरह भी सिद्ध नहीं हो सकता ? क्योंकि यदि कायाकार-परिणत भूतोंका कार्य होनेसे चैतन्यकी स्वभावसे सिद्धि है तो यह प्रश्न पैदा होता है कि पृथ्वी श्रादि भूत उस चैतन्यके उपादान कारण हैं या सहकारी कारण ? यदि उन्हें उपादान कारण माना जाय तो चैतन्यके भूतान्वित होनेका प्रसंग आता है-अर्थात् जिस प्रकार सुण के उपादान होनेपर मुकट, कुंडलादिक पर्यायों में सुवर्णका अन्वय (वंश)चलता है तथा पृथ्वी आदिके उपादान होनेपर शरीरमें चलता है उसी प्रकार भूतचतुष्टयके उपादान होनेपर चैतन्यमें भूतचतुष्टयका अन्वय चलना चाहिए- उन भूतोंका लक्षण उसमें पाया जाना चाहिये। क्योंकि उपादान द्रव्य वही कहलाता है जो त्यक्ताऽत्यक्त-आत्मरूप हो, पूर्वाऽपूर्वके साथ वर्तमान हो और त्रिकालवर्ती जिसका विषय हो । परन्तु भूतसमुदाय ऐसा नहीं देखा जाता कि जो अपने पहले अचेतनाकारको त्याग करके चेतनाकारको ग्रहण करता हुआ भूतोंके धारणईरण-द्रव-उष्णसालक्षण स्वभावसे अन्वित (युक्त) हो। क्योंकि चैतन्य धारणादि भूतस्वभावसे रहित जानने में आता है और कोई भी पदार्थ अत्यन्त विजातीय कार्य करता हुआ प्रतीत नहीं होता। भूतोंका धारणादि-स्वभाव और चैतन्य (जीव)का ज्ञान-दर्शनोपयोग-लक्षण दोनों एक दूसरेसे अत्यन्त विलक्षण एवं विजातीय हैं। अत: अचेतनात्मक भूतचतुष्टय अत्यन्त विजातीय चैतन्यका उपादान कारण नहीं बन सकता दोनोंमें उपादानोपादेयभाव संभव नहीं। और यदि भूतचतुष्टयको चैतन्यकी उत्पत्तिमें सहकारी कारण माना जाय तो फिर उपादान कारण कोई और बतलाना होगा क्योंकि बिना उपादानके कोई भी कार्य संभव नहीं। जब दूसरा कोई उपादान कारण नहीं और उपादान तथा सहकारी कारणसे भिन्न तीसरा भी कोई कारण ऐसा नहीं जिससे भूतचतुष्टयको चैतन्यका जनक स्वीकार किया जा सके, तब चैतन्यकी स्वभावसे ही भूतविशेषकी तरह तत्त्वान्तरके रूपमें सिद्धि होती है। इस तत्वान्तर-सिद्धिको न माननेवाले जो अतावक हैं- दरौनमोहके उदयसे पाकुलित चित्त हुए आप वीर जिनेन्द्रके मतसे बाह्य हैं- उन (जीविकामात्र तन्त्रविचारकों)का भी हाय ! यह कैसा प्रपतन हुआ है, जो उन्हें संसार समुद्रके आवतमें गिराने वाला है !!' स्वच्छन्दवृतेजेगतः स्वभावादुच्चैरनाचार-पथेष्वदोषम् । निघष्य दीक्षासममुक्तिमानास्त्वदृष्टि-बाह्या बत विभ्रमन्ते ॥३७॥ * १ "त्यक्ता त्यक्तात्मरूप य पूर्वाऽपूर्वेण वर्तते । कालत्रयेऽपि तद्रव्यमुपादान मति स्मृतम् ॥" For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने ४६ 'स्वभावसे ही जगतकी स्वच्छन्द-वृत्ति--यथेच्छ प्रवृत्ति-है इसलिये जगप्तके ऊँचे दर्जेके अनाचारमार्गोमें-हिंसा. झूठ, चोरी, कुशील (अब्रह्म) और परिग्रह नामके पाँच महापापों में भी कोई दोष नहीं, ऐसी घोषणा करके- उनके अनुष्ठान जैसी सदोष प्रवृत्तिको निर्दोष बतलाकर- जो लोग दीक्षाके समकाल ही मुक्तिको मानकर अभिमानी हो रहे हैं -सहजग्राह्य हृदयमें मन्त्रविशेषारोपण के समय ही मुक्ति हो जाने (मुक्तिका सर्टिफिकेट मिल जाने)का जिन्हें अभिमान है-अथवा दीक्षाका निरास जैसे बने वैसे (दीक्षानुष्ठानका निवारण करनेकेलिये) मुक्तिको जो (मीमांसक) अमान्य कर रहे हैं और मांसभक्षण, मदिरापान तथा मैथुनसेवन जैसे अनाचारके मार्गों के विषयमें स्वभावसे ही जगतकी स्वच्छन्द प्रवृत्तिको हेतु बताकर यह घोषणा कर रहे हैं कि उसमें कोई दोष नहीं है + वे सब (हे वीर जिन !) आपकी दृष्टिसे-बन्ध, मोक्ष और तत्कारण-निश्चय के निबन्धनस्वरूप आपके स्याद्वाददर्शनसे-बाह्य हैं और (सर्वथा एकान्तवादी होनेसे) केवल विभ्रम में पड़े हुए हैं- तत्त्वके निश्चयको प्राप्त नहीं होते- यह बड़े ही खेद अथवा कष्टका विषय है !!' व्याख्या- इस कारिका में 'दीक्षासममुक्तिमानाः' पद दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । एक अर्थमें उन मान्त्रिकों (मन्त्रवादियों) का ग्रहण किया गया है जो मन्त्र-दीक्षाके समकाल ही अपनेको मुक्त हुआ समझ कर अभिमानी बने रहते हैं, अपनी दीक्षाको यम-नियम रहिता होते हुए भी अनाचारको क्षयकारिणी समर्थदीक्षा मानते हैं और इस लिए बड़ेसे बड़ा अनाचार-हिंसादिक घोर पाप-करते हए भी उसमें कोई दोष नहीं देखते-कहते हैं 'स्वभावसे ही यथेच्छ प्रवृत्ति होने के कारण बड़ेसे बड़े अनाचारके माग भी दोषके कारण नहीं होते और इसलिये उन्हें उनका आचरण करते हुए भी प्रसिद्ध जीवन्मुक्तिकी तरह कोई दोष नहीं लगता।' दसरे अर्थमें उन मीमांसकोंका ग्रहण किया गया है जो कर्मों के क्षयसे उत्पन्न अनन्तज्ञानादिरूप मुक्तिका होना नहीं मानते. यम-नियमादिरूप दीक्षा भी नहीं मानते और स्वभावसे ही जगतके भूतों (प्राणियों) की स्वच्छन्द-प्रवृत्ति बतलाकर मांसभक्षण, मदिरापान और यथेच्छ मैथुन सेवन-जैसे अनाचारोंमें कोई दोष नहीं देखते। साथ ही वेद-विहित पशुवधादि ऊचे दर्जे के अनाचार मार्गोंको भी निर्दोष बतलाते हैं, जबकि वेद-बाह्य ब्रह्महत्यादिको निर्दोष न बतलाकर सदोष ही घोषित करते हैं। ऐसे सब लोग वीर-जिनेन्द्र की दृष्टि अथवा उनके बतलाये हुए सन्मार्गसे बाह्य हैं. ठोक तत्त्वक निश्चयको प्राप्त न होनेके कारण सदोषको निर्दोष मानकर विभ्रममें पड़े हुए हैं और इसीलिये आचार्य महोदयने उनकी इन दूषित प्रवृत्तियोंपर खेद व्यक्त किया है और साथ हो यह सूचित किया है कि हिंसादिक महा अनाचारोंके जो मागे हैं वे सब सदोष हैं - उन्हें निर्दोष सिद्ध नहीं किया जा सकता, चाहे वे वेदादि किसी भी आगमविहित हों या अनागमविहित हों। + १ "न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने ।" सद्विचार मणियां १ जो अपनेको जानता है वह सबको जानता। जो अपनेको नहीं जानता वह सबको नहीं जानता। -कुन्द कुन्द . २ हमारी इच्छाएँ जितनी कम हों, उतने ही हम देवताओंके समान हैं। -सुकरात ३ यह भी हो सकता है कि गरीबी पुण्यका फल हो और अमीरो पापका । - -म० गांधी ४ कुशाग्रबुद्धि महान कार्योको प्रारम्भ करती है; पर परिश्रम उन्हें पूरा करता है। -एमर्सन For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजय वेलट्ठिपुत्त और स्याद्वाद ( लेखक - न्यायाचार्य पण्डित दरबारीलाल जैन, कोठिया) दर्शन स्याद्वाद सिद्धान्तको कितने ही जैन विद्वान ठीक तरहसे समझने का प्रयत्न नहीं करते और धर्मकीर्त्ति एवं शङ्कराचायँकी तरह उसके बारेमें भ्रान्त उल्लेख अथवा कथन कर जाते हैं, यह बड़े ही खेदका विषय है। काशी हिन्दूविश्वविद्यालय में संस्कृत - पाली विभाग के प्रोफेसर पं० बलदेव उपाध्याय एम० ए० साहित्याचार्यने सन् १६४६ में 'बौद्ध - दर्शन' नामका एक ग्रन्थ हिन्दीमें लिखकर प्रका शित किया है, जिसपर उन्हें इक्कीससौ रुपयेका डालमियां पुरस्कार भी मिला है। इसमें उन्होंने, बुद्ध समकालीन मत- प्रवर्तकोंके मतोंको देते हुए, संजय वेलट्ठपुत्त अनिश्चिततावाद मतको भी बौद्धोंके 'दीघनिकाय ' ( हिन्दी अ० पृ० २२) प्रन्थसे उपस्थित किया है और अन्तमें यह निष्कर्ष निकाला है कि "यह अनेकान्तवाद प्रतीत होता है । सम्भवतः ऐसे ही आधारपर महावीरका स्याद्वाद प्रतिष्ठित किया गया था ।" इसी प्रकार दर्शन और हिन्दीके ख्यातिप्राप्त बौद्ध विद्वान् राहुल सांकृत्यायन अपने 'दर्शन-दिग्दर्शन' में लिखते हैं + - "आधुनिक जैन दर्शनका आधार 'स्याद्वाद' है, जो मालूम होता है संजय वेलट्ठिपुत्तके चार अङ्गवाले अनेकान्तवादको (!) लेकर उसे सात अङ्गवाला किया गया है । संजयने तत्वों (परलोक, देवता) के बारेमें कुछ भी निश्चयात्मक रूपसे कहने से इन्कार करते हुए उस इन्कारको चार प्रकार कहा है * १ देखो, बौद्धदर्शन पृ० ४० । + २ देखो, दर्शन दिग्दर्शन पृ० ४६६-६७ । (१) है ? — नहीं कह सकता । (२) नहीं है ? - नहीं कह सकता । (३) है भी नहीं भी ? — नहीं कह सकता । (४) न है और न नहीं है ? - नहीं कह सकता। इसकी तुलना कीजिए जैनोंके सात प्रकारके. स्याद्वाद से - (१) है ? - हो सकता है (स्याद् अस्ति ) (२) नहीं है ? - नहीं भी हो सकता ( स्यान्नास्ति ) - (३) है भी नहीं भी ? - है भी और नहीं भी हो सकता है (स्यादस्ति च नास्ति च ) उक्त तीनों उत्तर क्या कहे जा सकते (वक्तव्य ) हैं ? इसका उत्तर जैन 'नहीं' में देते हैं (४) स्याद् (हो सकता है) क्या यह कहा जा सकता (वक्तव्य ) है ? — नहीं, स्याद् अ-वक्तव्य है । (५) 'स्याद् अस्ति' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, 'स्याद् अस्ति' अवक्तव्य है । (६) 'स्याद् नास्ति ' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, 'स्याद् नास्ति' अवक्तव्य है । (७) 'स्याद् अस्ति च नास्ति च' क्या यह वक्तव्य है ? नहीं, 'स्याद् अस्ति च नास्ति च ' अ वक्तव्य है। के पहलेवाले तीन वाक्यों (प्रश्न और उत्तर दोनों) को दोनों मिलाने से मालूम होगा कि जैनोंने संजयऔर उसके चौथे वाक्य "न है और न नहीं है” को अलग करके अपने स्याद्वादको छै भङ्गियाँ बनाई हैं, छोड़कर 'स्याद्' भी अवक्तव्य है यह सातवाँ भङ्ग तैयार कर अपनी सप्तभङ्गी पूरी की । उपलभ्य सामग्री से मालूम होता है, कि संजय अनेकान्तवादका प्रयोग परलोक, देवता, कर्मफल, For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] सञ्जय वेलट्ठपुत्त और स्याद्वाद मुक्तपुरुष जैसे - परोक्ष विषयोंपर करता था । जैन संजय की युक्तिको प्रत्यक्ष वस्तुओंपर लागू करते हैं । उदाहरणार्थं सामने मौजूद घटकी सत्ताके बारेमें यदि जैन दर्शनसे प्रश्न पूछा जाय, तो उत्तर निम्न प्रकार मिलेगा (१) घट यहां है ? - होसकता है (स्यादस्ति ) । (२) घट यहां नहीं है ? – नहीं भी हो सकता है (स्याद् नास्ति ) । (३) क्या घट यहां है भी और नहीं भी है ? है भी और नहीं भी हो सकता है (स्याद् अस्ति च नास्ति च ) । - (४) 'हो सकता है' (स्याद्) क्या यह कहा जा सकता है ? नहीं, 'स्याद्' यह अ वक्तव्य है । (५) घट यहां 'हो सकता है' (स्यादस्ति) क्या यह कहा जा सकता है ? -नहीं, 'घट यहां हो सकता है' यह नहीं कहा जा सकता । (६) घट यहां 'नहीं हो सकता है' (स्याद् नास्ति ) क्या यह कहा जा सकता है ? - नहीं, 'घट यहां नहीं हो सकता' यह नहीं कहा जा सकता । (७) घट यहां 'हो भी सकता है', नहीं भी हो सकता है', क्या यह कहा जा सकता है ? नहीं, 'घट यहां हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है' यह नहीं कहा जा सकता । इस प्रकार एक भी सिद्धान्त (वाद ) की स्थापना न करना, जो कि संजयका वाद था, उसीको संजय के अनुयायियों के लुप हो जानेपर जैनोंने अपना लिया, और उसकी चतुर्भगी न्यायको सप्तभङ्गीमें परिणत कर दिया ।" मालूम होता है कि इन विद्वानोंने जैनदर्शन के स्याद्वाद - सिद्धान्तको निष्पक्ष होकर समझनेका प्रयत्न नहीं किया और अपनी परम्परासे जो जानकारी उन्हें मिली उसी के आधार पर उन्होंने उक्त कथन किया है। अच्छा होता, यदि वे किसी जैन विद्वान् अथवा दार्शनिक जैन ग्रन्थसे जैनदर्शनके स्याद्वादको समझकर उसपर कुछ लिखते । हमें आश्चर्य है कि दर्शनों और उनके इतिहासका अपनेको अधिकारी विद्वान मानने .५१ वाला राहुलजी जैसा महापण्डित जैनदर्शन और उसके इतिहासको छिपाकर यह कैसे लिख गया कि " संजय के वादको ही संजय के अनुयायियों के लुप्त हो जाने पर जैनोंने अपना लिया।" क्या वे यह मानते हैं कि जैनधर्म व जैनदर्शन और उनके माननेवाले जैन लिखना असम्बद्ध और भ्रान्त है। और यदि मानते संजय के पहले नहीं थे ? यदि नहीं, तो उनका उक्त हैं, तो उनकी यह बड़ी भारी ऐतिहासिक भूल है, जिसे स्वीकार करके उन्हें तुरन्त ही अपनी भूलका परिमार्जन करना चाहिये। यह अत्र सर्व विदित होगया है और प्राय: सभी निष्पक्ष ऐतिहासिक भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानोंने स्वीकार भी कर लिया है कि जैनधर्म व जैनदर्शन के प्रवर्त्तक भगवान् महावीर ही नहीं थे, अपितु उनसे पूर्व हो गये ऋषभदेव आदि २३ तीर्थङ्कर उनके प्रवर्त्तक हैं, जो विभिन्न समयोंमें हुए हैं और जिनमें पहले तीर्थंकर ऋषभदेव, २२ वें तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि (कृष्णके समकालीन और उनके चचेरेभाई) तथा २३ वें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ तो ऐतिहासिक महापुरुष भी सिद्ध हो चुके हैं । अतः भगवान महावीरके समकालीन संजय और उसके अनुयायियों के पूर्व जैनधर्म व जैनदर्शन और उनके माननेवाले जैन विद्यमान थे, और इसलिये उनके द्वारा संजयके वादको अपनाने का राहुलजीका आक्षेप सर्वथा निराधार और असंगत है। ऐसा ही एक भारी आक्षेप अपने बौद्ध ग्रन्थकारों की प्रशंसाकी धुन में वे समग्र भारतीय विद्वानोंपर भी कर गये, जो अक्षम्य है । वे इसी 'दर्शन दिग्दर्शन ' ( पृष्ठ ४६८) में लिखते हैं "नागार्जुन, असंग, वसुबन्धु दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, भारतके अप्रतिम दार्शनिक इसी धारामें पैदा हुए थे। उन्हीं के ही उच्छिष्ट-भोजी पीछेके प्रायः सारे ही दूसरे भारतीय दार्शनिक दिखलाई पड़ते हैं ।" राहुलजी जैसे कलमशूरोंको हरेक बातको और प्रत्येक पदवाक्यादिको नाप-जोख कर ही कहना और लिखना चाहिए । अब सञ्जयका वाद क्या है और जैनोंका स्याद्वाद For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वर्षे क्या है ? तथा उक्त विद्वानोंका उक्त कथन क्या संगत इन पदार्थों के बारे में उससे प्रश्न करता था तब वह एवं अभ्रान्त है ? इन बातोंपर सक्षेपमें प्रस्तुत लेखमें चतुष्कोटि विकल्पद्वारा यही कहता था कि 'मैं जानता विचार किया जाता है। होऊँ तो बतलाऊँ और इसलिये निश्चयसे कुछ भी संजय वेलट्टिपुत्तका वाद (मत) नहीं कह सकता।' अत: यह तो विल्कुल स्पष्ट है कि । भगवान महावीर के समकालमें अनेक मत-प्रवर्तक संजय अनिश्चिततावादी अथवा संशयवादी था और विद्यमान थे। उनमें निम्न छह मत-प्रवर्तक बहत उसका मत अनिश्चिततावाद या संशयवादरूप था। प्रसिद्ध और लोकमान्य थे राहलजीने स्वयं भी लिखा है + कि "संजयका १ अजितकेश कम्बल, २ मक्खलि गोशाल दर्शन जिस रूपमें हम तक पहुंचा है उससे तो उसके ३ पूरण काश्यप, ४ प्रक्रुध कात्यायन, ५ संजय वेल. दर्शनका अभिप्राय है, मानवको सहजबुद्धिको भ्रममें ट्ठिपुत्त, और ६ गौतम बुद्ध । डाला जाये, और वह कुछ निश्चय न कर भ्रान्त धार___इनमें अजितकेश कम्बल और मक्खलि गोशाल णाओंको अप्रत्यक्ष रूपसे पुष्ट करे ।" ... भौतिकवादी, पूरण काश्यप और प्रक्रुध कात्यायन जैनदर्शनका स्याद्वाद और अनेकान्तवादनित्यतावादी, सञ्जय वेलट्रिपुत्त अनिश्चिततावादी और गौतम बुद्ध क्षणिक अनात्मवादी थे। ___परन्तु जैनदर्शनका स्याद्वाद संजयके उक्त अनि___प्रकृतमें हमें सञ्जयके मतको जानना है। अतः श्चिततावाद अथवा संशयवादसे एकदम भिन्न और निर्णय-कोटिको लिये हुए है । दोंनोमें पूर्व-पश्चिम उनके मतको नीचे दिया जाता है। 'दीघनिकाय' में उनका मत इस प्रकार बतलाया है अथवा ३६ के अंको जैसा अन्तर है । जहां संजयका ___ “यदि आप पूछे,- 'क्या परलोक है', तो यदि वाह अनिश्चयात्मक है वहां जैनदर्शनका स्याद्वाद निश्च मैं समझता होऊँ कि परलोक है तो आपको बतलाऊँ यात्मक है। वह मानवकी सहज बुद्धिको भ्रममें नहीं कि परलोक है। मैं ऐसा भी नही कहता वैसा भी डालता. बल्कि उसमें आभासित अथवा उपस्थित नहीं कहता, दूसरी तरहसे भी नहीं कहता। मैं यह विरोधों व सन्देहोंको दूर कर वस्तु-तत्त्वका निर्णय भी नहीं कहता कि 'वह नहीं है। मैं यह भी नहीं कराने में सक्षम होता है स्मरण रहे कि समग्र (प्रत्यक्ष कहता कि 'वह नहीं नहीं है। परलोक नहीं है, पर. और परोक्ष) वस्तु-तत्त्व अनेकधर्मात्मक है-उसमें लोक नहीं नहीं ।' देवता (=औपपादिक प्राणी) हैं...। अनेक (नाना) अन्त (धर्म-शक्ति-स्वभाव) पाये जाते देवता नहीं हैं, हैं भी और नहीं भी, न हैं और न हैं और इसलिये उसे अनेकान्तात्मक भी कहा जाता नहीं हैं।...... अच्छे बुरे कर्मक फल हैं, नहीं हैं. है। वस्तुतत्त्वकी यह अनेकान्तात्मकता निसर्गत: है, हैं भी और नहीं भी, न हैं और न नहीं है। तथा अप्राकृतिक नहीं। यही वस्तुमें अनेक धोका गत (=मुक्तपुरुष) मरने के बाद होते हैं, नहीं होते स्वीकार व प्रतिपादन जैनोंका अनेकान्तवाद है। हैं ......? -यदि मुझसे ऐसा पळे, तो मैं यदि संजयके वादको, जो अनिश्चिततावाद अथवा संशयऐसा समझता होऊँ.... तो ऐसा आपको कई। मैं वादके नामसे उल्लिखित होता है, अनेकान्तवाद ऐसा भी नहीं कहता, वैसा भी नहीं कहता......।, कहना अथवा बतलाना किसी तरह भी उचित एवं ___यह बौद्धोंद्वारा उल्लेखित संजयका मत है । इसमें सङ्गत नहीं है, क्योंकि संजयके बाद में एक भी सिद्धांत सङ्गत नहीं है, क्या पाठक देखेंगे कि संजय परलोक, देवता, कर्मफल की स्थापना नहीं है; जैसाकि उसके उपरोक्त मत-प्रदऔर मुक्तपुरुष इन अतीन्द्रिय पदार्थों के जानने में र्शन और राहुलजीके पूर्वोक्त कथनसे स्पष्ट है। किन्तु असमर्थ था और इसलिये उनके अस्तित्वादिके बारे. अनेकान्तवाद में अस्तित्वादि सभी धर्मोकी स्थापना में वह कोई निश्चय नहीं कर सका। जब भी कोई + १ देखो, 'दर्शन-दिग्दर्शन' पृ० ४६२ For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] संजय वेलट्टिपुत्त और स्याद्वाद और निश्चय है। जिस जिम अपेक्षासे वे धमै उसमें अन्य शब्द नहीं, जिसका अर्थ है कथश्चित् . किश्चित्, व्यवस्थित एवं निश्चित हैं उन सबका निरूपक स्या- किसी अपेक्षा, कोई एकदृष्टि, कोई एक धर्मको विवक्षा. द्वाद है। अनेकान्तवाद व्यवस्थाप्य है तो स्याद्वाद कोई एक ओर । और 'वाद' शब्दका अर्थ है मान्यता उसका व्यवस्थापक है। दूसरे शब्दों में अनेकान्तवाद अथवा कथन । जो स्यात् (कथञ्चित्) का कथन वस्तु (वाच्य-प्रमेय) रूप है और स्याद्वाद निर्णायक करनेवाला अथवा 'स्यात्' को लेकर प्रतिपादन करनेवाचक-तत्त्वरूप है। वास्तव में अनेकान्तात्मक वस्तु- वाला है वह स्याद्वाद है। अर्थात् जो सर्वथा एकातत्त्वको ठीकठीक समझने-समझाने, प्रतिपादन करने. न्तका त्यागकर अपेक्षासे घस्तुस्वरूपका विधान करता कराने के लिये ही स्याद्वादका आविष्कार किया गया है वह स्याद्वाद है। कथञ्चिद्वाद, अपेक्षावाद आदि है, जिसके प्ररूपक जैनोंके सभी (२४) तीर्थंकर हैं। इसीके दूसरे नाम हैं-इन नामोंसे भी उसीका बोध अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीरको उसका प्ररूपण होता है। जैन तार्किकशिरोमणि स्वामी समन्तभद्रने उत्तराधिकारके रूप में २३ वें तीर्थकर भगवान पाश्व- आप्तमीमांसा और स्वयम्भूस्तोत्रमें यही कहा हैनाथसे तथा भगवान पाश्वनाथको कृष्ण के समकालीन स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात्किवृत्तचिद्विधिः। २२ वें तीर्थकर अरिष्टनेमिसे मिला था। इस तरह - सप्तभङ्गनयापेक्षो हेयादेयविशेषकः ॥१०४।। पूर्व पूर्व तीर्थकर से अग्रिम तीर्थकरको परम्परया -आप्तमीमांसा स्याद्वादका प्ररूपण प्राप्त हुआ था। इस युगके प्रथम सदेकनित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नयाः। तीर्थंकर ऋषभदेव हैं जो इस युगके श्राद्य स्याद्वाद. सर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीहिते ॥ प्ररूपक हैं। महान् जैन तार्किक समन्तभद्र + और सर्वथानियमत्यागी यथादृष्टमपेक्षकः। अकलङ्कदेव जैसे प्रख्यात जैनाचार्योंने सभी तीर्थंकरों स्याच्छब्दस्तावके न्याये नान्येषामात्मविद्विषाम् ॥ को स्पष्टतः स्याद्वादी-स्याद्वादप्रतिपादक बतलाया है -स्वयम्भूस्तोत्र और उस रूपसे उनका गुण-कीर्तन किया है। जैनोंकी अत: 'स्यात्' शब्दको संशयार्थक, भ्रमाथक अथवा यह अत्यन्त प्रामाणिक मान्यता है कि उनके हर एक अनिश्चयात्मक नहीं समझना चाहिये। वह अविवतीर्थकरका उपदेश 'स्याद्वादामृतगर्भ होता है और वे क्षित धर्मोकी गौणता और विवक्षित धर्मकी प्रधानता. 'स्याद्वादपुण्योदधि' होते हैं। अत: केवल भगवान को सूचित करता हुआ विवक्षित हो रहे धर्मका विधान महावीर ही स्याद्वादके प्रतिष्ठापक व प्रतिपादक नहीं एवं निश्चय करानेवाला है। संजयके अनिश्चितताहैं। स्याद्वाद जैनधर्मका मौलिक सिद्धान्त है और वादकी तरह वह अनिर्णीति अथवा वस्तुतत्त्वकी वह भगवान महावीरके पूर्ववर्ती ऐतिहासिक एवं सर्वथा अवाच्यताको घोषणा नहीं करता। उसके प्रागैतिहासिक कालसे समागत है। ... द्वारा जैसा प्रतिपादन होता है वह समन्तभद्रके शब्दों में स्थाद्वादका अर्थ और प्रयोग निम्न प्रकार है'स्याद्वाद' पद स्यात् और वाद इन दो शब्दोंसे कथञ्चित्ते सदेवेष्टं कथञ्चिदसदेव तत् । बना है । 'स्यात्' अव्यय निपातशब्द है, क्रिया अथवा तथोभयमवाच्यं च नययोगान्न सवथा ।।१४।। सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । + 'बन्धश्चमोक्षश्च तयोश्च हेतू बद्धश्च मुक्तश्च फलं च मुक्तः। असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ।।१।। स्याद्वादिनो नाथ तवैव युक्त नैकान्तदृष्ट त्वमतोऽसि क्रमाप्तिद्वयाद् द्वैतं, सहावाच्यमशक्तितः । शास्ता ||१४॥" स्वयंभूस्तोत्रगत शंभव जिनस्तोत्र । अवक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो भङ्गाः स्वहेतुतः ।।१६।। +२ "धर्मतीर्थकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमो नमः । अर्थात् जैनदर्शनमें समग्र वस्तुतत्त्व कथञ्चित् वृषभादिमहावीरान्तेभ्य: स्वात्मोपलब्धये ॥१॥" लघीयस्त्रय सत् ही है, कथंचित् असत् ही है तथा कथंचित् उभय For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ है और कथंचित श्रवाच्य ही है, सो यह सब नयविवक्षासे है, सर्वथा नहीं । स्वरूपादि (स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभाव इन) चारसे उसे कौन सत् ही नहीं मानेगा और पररूपादि ( परद्रव्य, पर क्षेत्र, परकाल, परभाव इन) चारसे कौन सही नहीं मानेगा । यदि इस तरह उसे स्वीकार न किया जाय तो उसकी व्यवस्था नहीं हो सकती । क्रमसे अर्पित दोनों (सत् और असत् ) की अपेक्षासे वह कथंचित् उभय ही है, एक साथ दोनों (सत् और असत्) को कह न सकनेसे अवाच्य ही है। इसी प्रकार श्रवक्तव्य के बादके अन्य तीन भङ्ग (सदवाच्य, असद वाच्य, और सदसदवाच्य ) भी अपनी विवक्षाओं से समझ लेना चाहिए । यही जैनदर्शनका सप्तभङ्गी न्याय है जो विरोधीविरोधी धर्मयुगलको लेकर प्रयुक्त किया जाता है और तत्तत् अपेक्षाओं से वस्तु- धर्मोका निरूपण करता है । स्याद्वाद एक विजयी योद्धा है और सप्तभङ्गीन्याय उसका अस्त्र-शस्त्रादि विजय साधन है । अथवा यों कहिए कि वह एक स्वत: सिद्ध न्यायाधीश है और सप्तभंगी उसके निर्णयका कए साधन है । जैनदशनके इन स्याद्वाद समभङ्गीन्याय, अनेकान्तवाद आदिका विस्तृत और प्रामाणिक विवेचन प्राप्तमीमांसा, स्वयम्भूस्तोत्र, युक्त्यनुशासन, सन्मतिसूत्र, अष्टशती, अष्टसहस्री, अनेकान्तजय पताका, स्याद्वादमञ्जरी आदि जैन दार्शनिक ग्रन्थों में समुपलब्ध है । अनेकान्त ऊपर राहुलजीने संजयकी चतुर्भङ्गी इस प्रकार बतलाई है - (१) है ? - नहीं कह सकता । (२) नहीं है ? - नहीं कह सकता । [ वर्ष ६ सकता' जवाब दिया है और इसलिये उसे अनिश्चिततावादी कहा गया है । (३) है भी नहीं भी ? — नहीं कह सकता। (४) न है और न नहीं है ? - नहीं कह सकता । संजयने सभी परोक्ष वस्तुओंके बारेमें 'नहीं कह जैनोंकी जो सप्तभङ्गी है वह इस प्रकार है - (१) वस्तु है ? - कथञ्चित् (अपनी द्रव्यादि चार अपेक्षाओं से) वस्तु है ही — स्यादस्त्येव घटादि वस्तु । (२) वस्तु नहीं है ? कथञ्चित् (परद्रव्यादि चार अपेक्षाओंसे) वस्तु नहीं ही है – स्यान्नास्त्येव घट वस्तु । (७) वस्तु 'है - नहीं - अवक्तव्य है' ? - कथञ्चित् स्याद्वाद में अन्तर— संजय के अनिश्चिततावाद और जैनदर्शन के क्रमसे अर्पित एक पर द्रव्यदिसे और एक साथ अर्पित परद्रव्यादिकी अपेक्षासे कही न जा सकनेसे) वस्तु 'है नहीं और अवक्तव्य ही है' - स्यादस्ति नास्त्यवक्तव्यमेव घटादि वस्तु । जैनोंकी इस सप्तभङ्गीमें पहला, दूसरा और चौथा ये तीन भङ्ग तो मौलिक हैं और तीसरा, पाँचवाँ, और छठा द्विसंयोगी तथा सातवाँ त्रिसंयोगी भङ्ग हैं और इस तरह अन्य चार भङ्ग मूलभूत तीन भङ्गों के संयोगज भङ्ग हैं । जैसे नमक, मिर्चे और खटाई इन तीन संयोगज स्वाद चार ही बन सकते हैं (३) वस्तु है, नहीं (उभय) है ? –कथञ्चित् (क्रमसे अर्पित दोनों - स्वद्रव्यादि और परद्रव्याद चार अपेक्षाओं से) वस्तु है, नहीं (उभय) ही हैस्यादस्ति नास्त्येव घटादि वस्तु । (४) वस्तु अवक्तव्य है ? - कथञ्चित् (एक साथ विवक्षित स्वद्रव्यादि और परद्रव्यादि दोनों अपेक्षाओंसे कही न जा सकनेसे) वः तु अवक्तव्य ही हैस्यादवक्तव्यमेव घटादि वस्तु । (५) वस्तु 'है - - अवक्तव्य है' ?- कथञ्चित् (स्वद्रव्यादिसे और एक साथ विवक्षित दोनों स्व-परद्रव्यादिकी अपेक्षाओंसे कहीं न जा सकनेसे) वस्तु 'है - अवक्तव्य ही है' - स्यादस्त्य वक्तव्यमेव घटादि वस्तु | (६) वस्तु 'नहीं - अवक्तव्य है' ? - कथञ्चित् (परद्रव्यादि से और एक साथ विवक्षित दोनों स्व-पर द्रव्यादिकी अपेक्षा से कही न जा सकने से) वस्तु 'नहीं - अव क्तव्य ही है' - स्यान्नास्त्य वक्तव्यमेव घटादि वस्तु । For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २ ] संजय वेलट्ठिपुत्त और स्याद्वाद नमक-मिर्च, नमक-खटाई, मिर्च-खटाई और नमक- (४) देवदत्त अवक्तव्य है- एक साथ पिता-पुत्रा. मिर्च-खटाई-इनसे ज्यादा या कम नहीं। इन संयोगी दि दोनों अपेक्षाओंसे कहा न जा सकनेसे- 'स्यात् चार स्वादोंमें मूल तीन स्वादोंको और मिला देनेसे देवदत्तः श्रवक्तव्यः । कुल स्वाद सात ही बनते हैं। यही सप्तभङ्गोंकी बात (५) देवदत्त पिता 'है- अवक्तव्य है'- अपने है। वस्तुमें यों तो अनन्तधर्म हैं. परन्तु प्रत्येक धर्मको पुत्रकी अपेक्षा तथा एक साथ पिता-पुत्रादि दोनों लेकर विधि-निषेधकी अपेक्षासे सात ही धर्म व्यव- अपेक्षाओंसे कहा न जा सकनेसे- 'स्यात् देवदत्तः स्थित हैं-सस्वधर्म, असत्वधर्म, सत्वासत्वोभय, पिता अस्त्यवक्तव्यः । अवक्तव्यत्व, सत्वावक्तव्यत्व, असत्वावक्तव्यत्व और (६) देवदत्त 'पिता नहीं है-अवक्तव्य है'-अपने सत्वासत्वावक्तव्यत्व । इन सातसे न कम हैं और न पिता-मामा आदिकी अपेक्षा और एक साथ पिता ज्यादा। अत एव शङ्काकारोंको सात ही प्रकारके पुत्रादि दोनों अपेक्षाओंसे कहा न जा सकनेसेसन्देह, सात ही प्रकारकी जिज्ञासाएँ, सात ही प्रकारके ___ 'स्यात् देवदत्त नास्त्यवक्तव्य: । प्रश्न होते हैं और इसलिये उनके उत्तर वाक्य सात ही (७) 'देवदत्त पिता' है और नहीं है तथा अव नमन या सप्तभडीके नामसे कहा क्तव्य है'- क्रमसे विवक्षित पिता-पुत्रादि दोनोंकी जाता है। इस तरह जैनोंकी सप्तभङ्गी उपपत्तिपूर्ण अपेक्षासे और एक साथ विवक्षित पिता-पुत्रादि दोनों ढङ्गसे सुव्यवस्थित और सुनिश्चित है। पर संजयकी अपेक्षाओंसे कहा न जा सकनेसे- 'स्यात् देवदत्तः उपर्युक्त चतुर्भङ्गीमें कोई भी उपपत्ति नहीं है। उसने पिता अस्ति नास्ति चावक्तव्यः। चारों प्रश्नोंका जवाब नहीं कह सकता' में ही दिया है यह ध्यान रहे कि जैनदर्शनमें प्रत्येक वाक्यमें और जिसका कोई भी हेतु उपस्थित नहीं किया, और उसके द्वारा प्रतिपाद्य धर्मका निश्चय कराने के लिये इसलिये वह उनके विषय में अनिश्चित है। 'एव' कारका विधान अभिहित है जिसका प्रयोग राहुलजीने जो ऊपर जैनोंकी सप्तमङ्गी दिखाई है वह नयविशारदोंके लिये यथेच्छ है-वे करें चाहे न करें। भ्रमपूर्ण है। हम पहले कह आये हैं कि जैनदर्शनमें न करने पर भी उसका अध्यवसाय वे कर लेते हैं । 'स्याद्वाद' के अन्तर्गत 'स्यात्' शब्दका अर्थ हो सकता राहुलजी जब 'स्यात्' शब्द के मूलाथके समझनेमें ही. है' ऐसा सन्देह अथवा भ्रमरूप नहीं है उसका तो भारी भूल करगये तब स्याद्वादको भंगियोंके मेल-जोल कथञ्चित् (किसी एक अपेक्षासे) अर्थ है जो निर्णयरूप करने में भूलें कर ही सकते थे और उसीका परिणाम है। उदाहरणार्थ देवदत्तको लीजिये, वह पिता-पुत्रादि है कि जैनदर्शनके सप्तभंगोंका प्रदर्शन उन्हो अनेक धमरूप है। यदि जैनदर्शनसे यह प्रश्न किया तरह नहीं किया। हमें आशा है कि वे तथा स्याद्वादजाय कि क्या देवदत्त पिता है ? तो जैनदर्शन स्याद्वाद के सम्बन्धमें भ्रान्त अन्य विद्वान भी जैनदर्शनके द्वारा निम्न प्रकार उत्तर देगा - स्याद्वाद और सप्तभंगीको ठीक तरहसे ही समझने (१) देवदत्त पिता है-अपने पुत्रकी अपेक्षासे- और उल्लेख करनेका प्रयत्न करेंगे। 'स्यात् देवदत्तः पिता अस्ति। ___ यदि संजयके दर्शन और चतुर्भगीको ही जैन (२) देवदत्त पिता नहीं है-अपने पिता-मामा दर्शनमें अपनाया गया होता तो जैनदार्शनिक उसके आदिकी अपेक्षासे-क्योंकि उनकी अपेक्षासे तो वह दर्शनका कदापि आलोचन न करते । अष्टशती और पुत्र, भानजा आदि है-'स्यात् देवदत्त: पिता नास्ति। अष्टसहस्रीमें अकलंकदेव तथा विद्यानन्दने इस (३) देवदत्त पिता है और नहीं है- अपने पुत्र- दर्शनकी जैसी कुछ कड़ी आलोचना करके उसमें दोषोंकी अपेक्षा और अपने पिता-मामा आदिकी अपेक्षा का प्रदर्शन किया है वह देखते ही बनता है। यथासे-'स्यात् देवदत्तः पिता अस्ति च नास्ति च। 'तर्हयस्तीति न भणामि, नास्तीति च न भणामि. For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ अनेकान्त - . . । वर्ष यदपि च भणामि तदपि न भणामीति दर्शनमस्त्विति अपने स्याद्वादसिद्धान्त, अनेकान्तसिद्धान्त, सप्तभङ्गी कश्चित् , सोपि पापीयान् । तथा हि सद्भावेतराभ्या सिद्धान्त संजयसे बहुतपहलेसे प्रचलित हैं जैसे उसके मनभिलापे वस्तुनः, केवलं मूकत्वं जगत: स्यात्, अहिंसा-सिद्धान्त, अपरिग्रह सिद्धान्त, कर्म सिद्धान्त विधिप्रतिषेधव्यवहारायोगात् । न हि सर्वात्मनान- आदि सिद्धान्त प्रचलित हैं और जिनकेआद्यप्रवर्तक वभावं बद्धिरध्यवस्यति। न चानध्यवसेयं इस यगके तीर्थंकर ऋषभदेव हैं और अंतिम महावीर प्रमितं नाम, गृहीतस्यापि तादृशस्यागृहीतकल्पत्वात् । हैं। विश्वासहै उक्त विद्वान् अपनी जैनदर्शन व स्यामूर्छाचैतन्यवदिति ।"- अष्टस० पृ० १२६ । द्वादके बारेमें हुई भ्रान्तियोंका परिमार्जन करेंगे और ___ इससे यह साफ है कि संजयकी सदोष चतुर्भगी उसकी घोषणा कर देंगे। और दर्शनको जैनदर्शनने नहीं अपनाया। उसके २१ फरवरी १६४८] वीरसेवा मन्दिर, सरसावा रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय [सम्पादकीय ] ( गतकिरणसे आगे) (१) रत्ककरण्डको प्राप्तमीमांसाकार स्वामी सम- प्रोफेसर साहबने आप्तमीमांसाकारके द्वारा अभि. न्तभद्रको कृति न बतलाने में प्रोफेसर साहबकी जो मत दोषके स्वरूपका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं कियासबसे बड़ी दलील है वह यह है कि 'रत्नकरण्डके अपने अभिप्रायानुसार उसका केवल कुछ संकेत ही 'क्षुत्पिपासा' नामक पयमें दोषका जो स्वरूप सम- किया है। उसका प्रधान कारण यह मालूम होता है माया गया है वह आप्तमीमांस.कारके अभिप्रायानुसार कि मूल आप्तमीमांसामें कहीं भी दोषका कोई स्वरूप हो ही नहीं सकता-अर्थात् प्राप्तमीमांसाकारका दोष दिया हुआ नहीं है। 'दोष' शब्दका प्रयोग कुल पांच के स्वरूप-विषय में जो अभिमत है वह रत्नकरण्डके कारिकाओं नं०४६ ५६, ६२, ८० में हुआ है जिनउक्त पद्यमें वर्णित दोष-स्वरूपके साथ मेल नहीं खाता- मेंसे पिछली तीन कारिकाओंमें बुद्धयसंचरदोष, वृत्तिविरुद्ध पड़ता है, और इसलिये दोनों ग्रन्थ एक ही दोष और प्रतिज्ञा तथा हेतुदोषका क्रमशः उल्लेख है, आचार्यकी कृति नहीं हो सकते। इस दलीलको आप्तदोषसे सम्बन्ध रखनेवाली केवल ४थी तथा ६ठी ताथे करनेके लिये सबसे पहले यह मालुम होनेकी कारिका ही है। और वे दोनों ही 'दोष'के स्वरूप जरूरत है कि आप्तमीमांसाकारका दोषके स्वरूप कथनसे रिक्त हैं। और इसलिये दोषका अभिमत विषयमें क्या अभिमत अथवा अभिप्राय है और उसे स्वरूप जानने के लिये आप्तमीमांसाकी टोकाओं तथा प्रोफेसर साहबने कहांसे अवगत किया है ?-मूल प्राप्तमीमांसाकारकी दूसरी कृतियोंका आश्रय लेना आप्तमीमांसापरसे ? आप्तमीमांसाकी टीकाओंपरसे ? होगा। साथ ही ग्रन्थके सन्दर्भ अथवा पूर्वापर अथवा आप्तमीमांसाकारके दूसरे ग्रन्थोंपरसे ? और कथन सम्बन्धको भी देखना होगा। उसके बाद यह देखना होगा कि रत्नकरण्डके 'क्षुत्पि. टीकाओंका विचारपासा' नामक पद्यके साथ मेल खाता अथवा सङ्गत प्रोफेसर साहबने ग्रन्थसन्दर्भके साथ टोकाओंका बैठता है या कि नहीं। आश्रय लेते हुए, अष्टसहस्रीटीकाके आधारपर, जिस For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] रत्नकरण्डके केतृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय में अकलङ्कदेवकी अष्टशती टीका भी शामिल है, यह है। घातिया कर्मके क्षय हो जानेपर इन दोनोंकी प्रतिपादित किया है कि 'दोषावरणयोर्हानिः' इस सम्भावना भी नष्ट होजाती है। इस तरह घातिया कर्मोंचतुर्थ-कारिका-गत वाक्य और 'स त्वमेवासि निर्दोषः' के क्षय होनेपर क्षुत्पिपासादि शेष छहों दोषोंका अभाव इस छठी कारिकागत वाक्यमें प्रयुक्त 'दोष' शब्दका होना भी अष्टसहस्री-सम्मत है, ऐसा समझना अभिप्राय उन अज्ञान तथा राग-द्वेषादिक के वृत्तियों चाहिये । वसुनन्दि-वृत्तिमें तो दूसरी कारिकाका से है जो ज्ञानावरणादि घातिया कर्मोंसे उत्पन्न होती अर्थ देते हुए, "क्षुत्पिपासाजरारुजाऽपमृत्य्वाद्यभावः हैं और केवलीमें उनका अभाव होनेपर नष्ट हो जाती इत्यर्थः" इस वाक्यके द्वारा क्षुधा-पिपासादिके अभावहैं +। इस दृष्टिसे रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यमें को साफ तौर पर विग्रहादिमहोदयके अन्तर्गत किया उल्लेखित भय, स्मय, राग, द्वेष और मोह ये पाँच है, विग्रहादि-महोदयको अमानुषातिशय लिखा है दोष तो आपको असङ्गत अथवा विरुद्ध मालूम नहीं तथा अतिशयको पूर्वावस्थाका अतिरेक बतलाया है। पड़ते; शेष क्षुधा, पिपासा, जरा, आतङ्क(रोग).जन्म और छठी कारिकामें प्रयुक्त हए 'निर्दोष' शब्दके अर्थमें और अन्तक (मरण) इन छह दोषोंको आप असंगत अविद्या-रागादिके साथ जुधादिके अभावको भी समझते हैं- उन्हें सर्वथा असातावेदनीयादि अघा- सूचित किया है । यथाःतिया कर्मजन्य मानते हैं और उनका आप्त केवलीमें, "निर्दोष अविद्यारागादिविरहितः चुदादिविरअभाव बतलानेपर अघातिया कर्मोका सत्व तथा उदय बर्तमान रहने के कारण सैद्धान्तिक कठिनाई महसूस । हितो वा अनन्तज्ञानादिसम्बन्धेन इत्यर्थः ।" हो करते हैं। परन्तु अष्टसहस्रीमें ही द्वितीय कारिकाके इस वाक्यमें 'अनन्तज्ञानादि सम्बन्धेन' पद'क्षुदा. अन्तर्गत 'विग्रहादिमहोदयः' पदका जो अर्थ दिविरहित:' पदके साथ अपनी खास विशेषता एवं 'शश्वन्निस्वेदत्वादिः' किया है और उसे 'घातिक्षयजः' महत्व रखता है और इस बातको सूचित करता है कि बतलाया है उसपर प्रो० साहबने पूरी तौरपर ध्यान जब आत्मामें अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख दिया मालूम नहीं होता। 'शश्वनिःस्वेदत्वादिः पदमें और अनन्तवीर्यकी आविर्भूति होती है तब उसके उन ३४ अतिशयों तथा ८ प्रातिहार्यों का समावेश है सम्बन्धसे क्षुधादि दोषोंका स्वत: प्रभाव हो जाता है जो श्रीपूज्यपादके 'नित्यं नि:स्वेदत्वं' इस भक्तिपाठ- अर्थात् उनका अभाव हो जाना उसका आनुषङ्गिक गत अर्हत्स्तोत्रमें वर्णित हैं। इन अतिशयोंमें अर्हत्- फल है-उसके लिये वेदनीय कर्मका अभाव-जैसे स्वयम्भूकी देह-सम्बन्धी जो १० अतिशय हैं उन्हें किसी दूसरे साधनके जुटने-जुटानेकी जरूरत नहीं दुखत हुए जरा भार रोगके लिये कोई स्थान नहीं रहती। और यह ठीक ही है। क्योंकि मोहनीयकर्मके रहता और भोजन तथा उपसर्गके अभावरूप (भुक्त्यु- साहचर्य अथवा सहायके विना वेदनीयकमै अपना पसर्गाभाव:) जो दो अतिशय हैं उनकी उपस्थितिमें कार्य करनेमें उसी तरह असमर्थ होता है जिस तरह क्षुधा और पिपासाके लिये कोई अवकाश नहीं मिलता। ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुआ ज्ञान वीर्याशेष 'जन्म' का अभिप्राय पुनर्जन्मसे और 'मरण' का तरायकर्मका अनुकूल क्षयोपशम साथमें न होनेसे अभिप्राय अपमृत्यु अथवा उस मरणसे है जिसके अन- अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होता; अथवा चारों न्तर दूसरा भव (संसारपर्याय) धारण किया जाता घातिया कर्मोका अभाव हो जानेपर वेदनीयकर्म * "दोषास्तावदज्ञान-राग-द्वेषादय उक्ताः”। का"। अपना दुःखोत्पादनादि कार्य करनेमें उसीप्रकार असमर्थ । (अष्टसहस्री का० ६, पृ० ६२) होता है जिस प्रकार कि मिट्टी और पानी आदिके + अनेकान्त वर्ष७ , कि० ७-८, पृ० ६२ विना बीज अपना अंकुरोत्पादन कार्य करने में * अनेकान्त वर्ष ७, कि० ३-४, पृ० ३१ असमर्थ होता है। मोहादिकके अभावमें वेदनीयकी For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ स्थिति जीवित शरीर-जैसी न रहकर मृत शरीर-जैसी हो जाती है, उसमें प्राण नहीं रहता अथवा जली रस्सीके समान अपना कार्य करनेकी शक्ति नहीं रहती । इस विषय के समर्थनमें कितने ही शास्त्रीय प्रमाण आप्तस्वरूप, सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थवार्तिक, लोकवार्तिक, आदिपुराण और जयधवला - जैसे ग्रन्थोंपर से पण्डित दरवारीलालजीके लेखोंमें उद्धृत किये गये हैं जिन्हें यहां फिरसे उपस्थित करने की जरूरत मालूम नहीं होती । ऐसी स्थितिमें तुलिपासा - जैसे दोषों को सर्वथा वेदनीय-जन्य नहीं कहा जा सकता - वेदनीयकर्म उन्हें उत्पन्न करने में सर्वथा स्वतन्त्र नहीं है । और कोई भी कार्य किसी एक ही कारण से उत्पन्न नहीं हुआ करता, उपादान कारणके साथ अनेक सहकारी कारणोंकी भी उसके लिये जरूरत हुआ करती है, उन सबका संयोग यदि नहीं मिलता तो कार्य भी नहीं हुआ करता । और इसलिये केवली में क्षुधादिका अभाव मानने पर कोई भी सैद्धान्तिक कठिनाई उत्पन्न नहीं होती । वेदनीयका सत्व और उदय वर्तमान रहते हुए भी. आत्मामें अनन्तज्ञान-सुख - वीर्यादिका सम्बन्ध स्थापित होने से वेदनीय कर्मका पुद्गल परमाणु धादि दोषोंको उत्पन्न करने में उसी तरह असमर्थ होता है जिस तरह कि कोई विषद्रव्य, जिसकी मारण शक्तिको मन्त्र तथा औषधादिके बलपर प्रक्षीण कर दिया गया हो, मारनेका कार्य करने में असमर्थ होता है । निःसत्व हुए विषद्रव्य के परमाणुओं को जिस प्रकार विषद्रव्यके ही परमाणु कहा जाता है उसी प्रकार निःसत्व हुए वेदनीयकमैके परमाणुओं को भी वेदनीयकर्म के हो परमाणु कहा जाता है, और इस दृष्टिसे ही आगम में उनके उदयादिककी व्यवस्था की गई है। उसमें कोई प्रकारकी बाधा अथवा सैद्धान्तिक कठिनाई नहीं होती - और इस लिये प्रोफेसर साहबका यह कहना कि 'क्षुधादि दोषोंका अभाव मानने पर केवली में अघातिया कर्मों के भी नाशका प्रसङ्ग आता है" अनेकान्त * अनेकान्त वर्ष ८ किरण ४-५ पृ० १५६-१६१ • अनेकान्त वर्ष ७ किरण ७-८ पृ० ६२ [ वर्ष ६ उसी प्रकार युक्तिसङ्गत नहीं है जिस प्रकार कि धूमके अभाव में अग्निका भी अभाव बतलाना अथवा किसी औषध प्रयोग में विषद्रव्यकी मारणशक्तिके प्रभावहीन हो जानेपर विषद्रव्यके परमाणुओं का ही अभाव प्रति पादन करना । प्रत्युत इसके, घातिया कर्मोंका अभाव होनेपर भी यदि वेदनीयकमके उदयादिवश केवली में क्षुधादिकी वेदनाओं को और उनके निरसनार्थ भोजनादि ग्रहणकी प्रवृत्तियोंको माना जाता है तो उससे कितनी ही दुर्निवार सैद्धान्तिक कठिनाइयां एवं बाधाएँ उपस्थित होती हैं, जिनमें से दो तीन नमूने के तौर पर इस प्रकार हैं: (क) यदि असातावेदनीयके उदय वश केवली को भूख-प्यासको वेदनाएँ सताती हैं, जो कि संक्लेश परिणामको अविनाभाविनी हैं, तो केवली में अनंत सुखका होना बाधित ठहरता है । और उस दुःखको न सह सकने के कारण जब भोजन ग्रहण किया जाता है तो अनन्तवीर्य भी बाधित हो जाता है—उसका कोई मूल्य नहीं रहता - अथवा वीर्यान्तरायकर्मका अभाव उसके विरुद्ध पड़ता है । (ख) यदि क्षुधादि वेदनाओंके उदय वश केवलोमें भोजनादिकी इच्छा उत्पन्न होती है तो केवली के मोहकर्मका अभाव हुआ नहीं कहा जा सकता; क्योंकि इच्छा मोहका परिणाम । और मोहके सद्भावमें केवलित्व भी नहीं बनता। दोनों परस्पर विरुद्ध हैं । (ग) भोजनादिकी इच्छा उत्पन्न होनेपर केवली में नित्य ज्ञानोपयोग नहीं बनता, और नित्यज्ञानोपयोगके न बन सकनेपर उसका ज्ञान छद्मस्थों (सर्वज्ञों) के समान क्षायोपशमिक ठहरता है - क्षायिक नहीं । और तत्र ज्ञानावरण तथा उसके साथी दर्शनावरण नामके घातिया कर्मोका प्रभाव भी नहीं बनता । (घ) वेदनीयकर्म के उदयजन्य जो सुख - दुःख होता है वह सब इन्द्रियजन्य होता है और केवल के इन्द्रियज्ञानकी प्रवृत्ति रहती नहीं । यदि केवली में क्षुधा तृषादिकी वेदनाएँ मानी जाएँगी तो इन्द्रिय* संकिलेसाविणाभावणीए भुक्खाए दज्झमाणस्स (धवला ) For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] रत्नकरण्ड के कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय ५६ ज्ञानको प्रवृत्ति होकर केवलज्ञानका विरोध उपस्थित नहीं पाया जाता जिससे ग्रन्थकारको दृष्टिमें उन होगा; क्योंकि केवलज्ञान और मतिज्ञानादिक युगपत् अतिशयोंका केवली भगवानमें होना अमान्य समझा नहीं होते। जाय। ग्रन्थकार महोदयने 'मायाविष्वपि दृश्यन्ते' (ङ) सुधादिकी पीडाके वश भोजनादिकी प्रवृत्ति तथा 'दिव्यः सत्यः दिवौकस्स्वप्यम्ति' इन वाक्यों में यथाख्यातचारित्रकी विरोधिनी है। भोजनके समय प्रयुक्त हुए 'अपि' शब्दके द्वारा इस बातको स्पष्ट घोषित मुनिको प्रमत्त (छठा) गुणस्थान होता है और केवली कर दिया है कि वे अहत्केवलीमें उन विभूतियों तथा भगवान १३ वें गुणस्थानवर्ती होते हैं जिससे फिर विग्रहादि महोदयरूप अतिशयोंका सद्भाव मानते हैं छठेमें लौटना नहीं बनता। इससे यथाख्यातचारित्र परन्तु इतनेसे ही वे उन्हें महान् (पूज्य) नहीं समझते; को प्राप्त केवलीभगवानके भोजनका होना उनकी चयों क्योंकि ये अतिशय अन्यत्र मायावियों (इन्द्रजालियों) और पदस्थके विरुद्ध पड़ता है। तथा रागादि-युक्त देवोंमें भी पाये जाते हैं- भले ही इस तरह क्षुधादिकी वेदनाएँ और उनकी प्रति उनमें वे वास्तविक अथवा उस सत्यरूपमें न हाँ क्रिया माननेपर केवलीमें घातियाकर्मोका अभाव ही जिसमें कि वे क्षीणकषाय अर्हत्केवलीमें पाये जाते हैं। घटित नहीं हो सकेगा, जो कि एक बहुत बड़ी सैद्धा- और इसलिये उनकी मान्यताका आधार केवल आगन्तिक बाधा होगी। इसीसे सुधादिके अभावको माश्रित श्रद्धा ही नहीं है बल्कि एक दूसरा प्रबल 'घातिकमंक्षयज:' तथा 'अनन्तज्ञानादिसम्बन्धजन्य' आधार वह गुणज्ञता अथवा परीक्षाकी कसौटी है बतलाया गया है, जिसके माननेपर कोईभी सैद्धान्तिक जिसे लेकर उन्होंने कितने ही प्राप्तोंकी जांच की है बाधा नहीं रहती। और इसलिये टीकाओंपरसे और फिर उस परीक्षाके फलस्वरूप वे वीर जिनेन्द्र के सुधादिका उन दोषोंके रूपमें निर्दिष्ट तथा फलित होना प्रति यह कहने में समर्थ हुए हैं कि 'वह निर्दोष प्राप्त सिद्ध है जिनका केवली भगवानमें प्रभाव होता है। आप ही हैं। (स त्वमेवासि निर्दोषः) । साथ ही ऐसी स्थितिमें रत्नकरण्डके उक्त छठेपद्यको क्षुत्पिपासादि 'युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्' इस पदके द्वारा उस कसौटी दोषोंकी दृष्टिसे भी आप्तमीमांसाके साथ असंगत कोभी व्यक्त कर दिया है जिसके द्वारा उन्होंने आप्तों अथवा विरुद्ध नहीं कहा जा सकता। के वीतरागता और सर्वज्ञता जैसे असाधारण गुणोंकी ग्रन्थके सन्दर्भकी जांच परीक्षा की है, जिनके कारण उनके वचन युक्ति और अब देखना यह है कि क्या ग्रन्थका सन्दर्भ स्वयं शास्त्रसे अविरोधरूप यथार्थ होते हैं, और आगे संक्षेप इसके कुछ विरुद्ध पड़ता है ? जहां तक मैंने ग्रन्थके में परीक्षाकी तफ़सील भी दे दी है। इस परीक्षामें सन्दर्भकी जांच की है और उसके पूर्वाऽपर कथन-संब- जिनके आगम-वचन युक्ति-शास्त्रसे अविरोधरूप नहीं म्धको मिलाया है मुझे उसमें कहीं भी ऐसी कोई बात पाये गये उन सर्वथा एकान्तवादियोंको प्राप्त न मान नहीं मिली जिसके आधारपर केवलीमें क्षुत्पिपासादि- कर 'आप्ताभिमानदग्ध' घोषित किया है। इस तरह के सद्भावको स्वामी समन्तभद्रकी मान्यता कहा जा निर्दोष वचन-प्रणयनके साथ सर्वज्ञता और वीतरासके । प्रत्युत इसके, ग्रन्थको प्रारम्भिक दो कारिकाओं- गता-जैसे गुणोंको आप्तका लक्षण प्रतिपादित किया में जिन अतिशयोंका देवागम-नभोयान-चामरादि है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि आप्तमें दूसरे विभूतियों के तथा अन्तर्बाह्य-विग्रहादि-महोदयोंके रूप- गुण नहीं होते, गुण तो बहुत होते हैं किन्तु वे लक्षमें उल्लेख एवं संकेत किया गया है और जिनमें णात्मक अथवा इन तीन गुणोंकी तरह खास तौरसे घातिक्षय-जन्य होनेसे क्षुत्पिपासादिके अभावका भी व्यावर्तात्मक नहीं, और इसलिये आप्तके लक्षणमें वे • समावेश है उनके विषय में एक भी शब्द ग्रन्थमें ऐसा भले ही ग्राह्य न हों परन्तु आप्तके स्वरूप-चिन्तनमें For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ] ह उन्हें नहीं कहा जासकता । लक्षण और स्वरूपमें बड़ा अन्तर है- लक्षण - निर्देश में जहां कुछ असाधारण गुणोंको ही ग्रहण किया जाता है वहां स्वरूपके निर्देश अथवा चिन्तनमें अशेष गुणोंके लिये गुञ्जाइश रहती है । अतः अष्टसहस्रीकारने 'विग्रहादिमहोदय:' का जो अर्थ 'शश्वन्निस्वेदत्वादिः ' किया है और जिसका विवेचन ऊपर किया जा चुका है उस पर टिप्पणी करते हुए प्रो० सा०ने जो यह लिखा है कि " शरीर-सम्बन्धी गुण धर्मोंका प्रकट होना न होना आप्त स्वरूप चिन्तनमें कोई महत्व नहीं रखते” वह ठीक नहीं है । क्योंकि स्वयं स्वामी समन्तभद्रने अपने स्वयम्भूस्तोत्रमें ऐसे दूसरे कितने ही गुणोंका चिन्तन किया है जिनमें शरीर-सम्बन्धी गुण-धर्मों के साथ अन्य अतिशय भी आगये हैं । और इससे यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि स्वामी समन्तभद्र अतिशयों को मानते थे और उनके स्मरण - चिन्तनको * अनेकान्त वर्ष ७, किरण ७-८, पृ० ६२ + इस विषयके सूचक कुछ वाक्य इस प्रकार हैं(क) शरीररश्मिप्रसरः प्रभोस्ते बालार्करश्मिच्छबिरालिलेप २८ । यस्याङ्गलक्ष्मीपरिवेषभिन्नं तमस्तमोरेखि रश्मिभिन्नं, ननाश बाह्यौं' ३७। समन्ततोऽङ्गभासां ते परिवेषेण भूयसा, तमो बाह्यमपाकीर्णमध्यात्मं ध्यानतेजसा ६५ । यस्य च मूर्तिः कनकमयीव स्वस्फुरदाभाकृतपरिवेषा १०७। शशिरुचिशुचिशुक्ललोहितं सुरभितरं विरजो निजं वपुः । तव शिवमतिविस्मयं यते यदपि च वाङ्मनसीयमी हितम् ११३ । (ख) नभस्तलं पल्लवयन्निव त्वं सहस्रपत्राम्बुजगर्भचारैः, पादाम्बुजैः पातितमारदर्पो भूमौ प्रजानां विजहर्थ भूत्यै २६ । प्रातिहार्यविभवैः परिष्कृतो देहतोऽपि विरतो भवानभूत् ७३। मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान् देवतास्वपि च देवता यतः ७५ । पूज्ये मुहुः प्राञ्जलिदेवचक्रम् ७६ । सर्वज्ञज्योतिषोद्भूतस्तावको महिमोदयः कं न कुर्याः प्रणम्र ते सत्वं नाथ सचेतनम् ६६ । तव वागमृतं श्रीमत्सर्वभाषास्वभावकं प्रीणयत्यमृतं यद्वत्प्राणिनो व्यापि संसदि ६७ । भूरपि रम्या प्रतिपदमासीज्जातवि कोशाम्बुजमृदुहासा १०८ । अनेकान्त ६० (क) महत्व भी देते थे । ऐसी हालत में श्राप्तमीमांसा ग्रन्थके सन्दर्भकी दृष्टिसे भी आप्तमें चुत्पिपासादिक के अभावको विरुद्ध नहीं कहा जा सकता और तब रत्नकरण्डका उक्त छठा पद्य भी विरुद्ध नहीं ठहरता। हां, प्रोफेसर साहब ने आप्तमीमांसाकी ६३वीं गाथाको विरोध में उपस्थित किया है, जो निम्न प्रकार है: पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुखतो यदि । वीतरागो मुनिर्विद्वांस्ताभ्यां युञ्ज्यान्निमित्ततः ॥ ६३॥ इस कारिकाके सम्बन्धमें प्रो० सा०का कहना है कि 'इसमें वीतराग सर्वज्ञ के दुःखकी वेदना स्वीकार की गई है जो कि कर्म सिद्धान्तकी व्यवस्थाके अनुकूल है; जब कि रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यमें क्षुत्पिपासादिकका अभाव बतलाकर दुःखकी वेदना अस्वीकार की गई है। जिसकी संगति कर्मसिद्धान्तकी उन व्यवस्थाओंके साथ नहीं बैठती जिनके अनुसार केवलीके भी वेदनीय कर्म-जन्य वेदनाएँ होती हैं, और इसलिये रत्नकरण्डका उक्त पद्य इस कारिका के सर्वथा विरुद्ध पड़ता है— दोनों प्रन्थोंका एक कर्तृत्व स्वीकार करने में यह विरोध बाधक है' + । जहां तक मैंने इस कारिका के अर्थपर उसके पूर्वापर सम्बन्धकी दृष्टिसे और दोनों विद्वानों के ऊहापोहको ध्यानमें लेकर विचार किया है, मुझे इसमें सर्वज्ञका कहीं कोई उल्लेख मालूम नहीं होता । प्रो० साहबका जो यह कहना है कि 'कारिकागत 'वीतरागः' और 'विद्वान' पद दोनों एक ही मुनि व्यक्तिके वाचक हैं और वह व्यक्ति 'सर्वज्ञ' है, जिसका द्योतक विद्वान् पद साथमें लगा है' : वह ठीक नहीं है । क्योंकि पूर्वकारिकामें जिस प्रकार अचेतन और अकषाय ( वीतराग ) ऐसे दो प्रबन्धक व्यक्तियोंमें बन्धका प्रसङ्ग उपस्थित + अनेकान्त वर्ष ८, किरण ३, पृ० १३२ तथा वर्ष ६, कि० १, पृ०६ ÷ अनेकान्त वर्ष ७, कि० ३-४, पृ० ३४ पापं ध्रुवं परे दुःखात् पुण्यं च सुखतो यदि । चेतनाकषायौ च बध्येयातां निमित्ततः ॥६२॥ For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] रत्नकरण्डके कर्तृत्व विषयपर मेरा विचार और निणय ६० (ख) करके परमें दुःख-सुखके उत्पादनका निमित्तमात्र परिणतिके निमित्तसे बन्धको प्राप्त नहीं होता । वह होनेसे पाप-पुण्यके बन्धकी एकान्त मान्यताको सदोष अन्तरात्मा मुनि भी हो सकता और गृहस्थ भी; परन्तु सूचित किया है उसी प्रकार इस कारिकामें भी वीतराग परमात्मस्वरूप सर्वज्ञ अथवा प्राप्त नहीं * मुनि और विद्वान ऐसे दो प्रबन्धक व्यक्तियोंमें बन्धका अतः इस कारिकामें जब केवली आप्त या सर्वज्ञप्रसङ्ग उपस्थित करके स्व (निज) में दुःख-सुखके का कोई उल्लेख न होकर दूसरे दो सचेतन प्राणियोंका उत्पादनका निमित्तमात्र होनेसे पुण्य-पापके बन्धकी उल्लेख है तब रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्य के साथ एकान्त मान्यताको सदोष बतलाया है; जैसा कि अष्ट- इस कारिकाका सवैथा विरोध कैसे घटित किया जा सहस्रीकार श्रीविद्यानन्दथाचायके निम्न टीका-वाक्य सकता है ? नहीं किया जा सकता-खासकर उस से भी प्रकट है हालतमें जब कि मोहादिकका अभाव और अनन्त__ "स्वस्मिन् दुःखोत्पादनात् पुण्यं सुखो- ज्ञानादिकका सद्भाव होनेसे केवलीमें दुःखादिककी त्पादनात पापमिति यदीप्यते तदा वीतरागो वेदनाएँ वस्तुत: बनती ही नहीं और जिसका ऊपर कितना ही स्पष्टीकरण किया जा चुका है। मोहनीविद्वांश्च मुनिस्ताभ्यां पुण्यपापाभ्यामात्मानं यादि कर्मोके अभावमें साता-असाता वेदनीय-जन्य यान्निमित्तसद्भावात, वीतरागस्य कायक्ले- सुख दःखकी स्थिति उस छायाके समान औपचारिक शादिरूपदुःखोत्सर्विदुषस्तत्वज्ञानसन्तोषलक्षण- होती है-वास्तविक नहीं-जो दूसरे प्रकाशके सामने सुखोत्पत्त स्तन्निमित्तत्वात ।" । आते ही विलुप्त हो जाती है और अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होती। और इसलिये प्रोफेसर साहबका __ इसमें वीतरागके कायक्लेशादिरूप दु:खको उत्प. त्तिको और विद्वानके तत्त्वज्ञान-सन्तोष लक्षण सुखकी यह लिखना कि "यथार्थत: वेदनीयकमै अपनी फलउत्पत्तिको अलग अलग बतलाकर दोनों (वीतराग दायिनी शक्ति में अन्य अघातिया कर्मों के समान सर्वथा और विद्वान् ) के व्यक्तित्वको साफ तौरपर अलग स्वतन्त्र है" समुचित नहीं है । वस्तुत: अघातिया क्या, कोई भी कर्म अप्रतिहतरूपसे अपनी स्थिति तथा अनुघोषित कर दिया है। और इसलिये वीतरागका भागादिके अनुरूप फलदान कार्य करने में सर्वथा स्वतन्त्र अभिप्राय यहां उस छद्मस्थ वीतरागी मुनिसे है जो 'राग द्वेषकी निवृत्तिरूप सम्यक् चारित्रके अनुष्ठानमें नहीं है। किसी भी कर्मके लिये अनेक कारणोंकी जरुरत ___ पड़ती है और अनेक निमित्तोंको पाकर कर्मों में संक्रतत्पर होता है- केवलीसे नहीं- और अपनी उस । चारित्र-परिणतिके द्वारा बन्धको प्राप्त नहीं होता। मण-व्यतिक्रमणादि कार्य हुआ करता है, समयसे और विद्वानका अभिप्राय उस सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा पहले उनकी निर्जरा भी हो जाती है और तपश्चरणादिसे है जो तत्वज्ञानके अभ्यास-द्वारा सन्तोष-सुखका के बलपर उनको शक्तिको बदला भी जा सकता है। अत: कर्मोको सर्वथा स्वतन्त्र कहना एकान्त है मिथ्याअनभव करता है और अपनी उस सम्यग्ज्ञान- स्व है और मक्तिका भी निरोधक है। * अन्तरात्माके लिये 'विद्वान्' शब्दका प्रयोग . यहां 'धवला'परसे एक उपयोगी शङ्का-समाधान प्राचार्य पूज्यपादने अपने समाधितन्त्रके 'त्यक्त्वारोपं पुन- उद्धृत किया जाता है, जिससे केवलीमें क्षुधा-तृषाके विद्वान् प्राप्नोति परमं पदम्' इस वाक्यमें किया है और अभावका सकारण प्रदर्शन होनेके साथ साथ प्रोफेसर खामी समन्तभद्रने 'स्तुत्यान्न त्वा विद्वान् सततमभिपूज्यं साहबकी इस शङ्काका भी समाधान हो जाना है कि नमिजिनम्' तथा 'त्वमसि विदुषां मोक्षपदवी'इन स्वयम्भू- 'यदि केवती के सुख-दुःख की वेदना माने पर उनके स्तोत्रके वाक्योंद्वारा जिन विद्वानोंका उल्लेख किया है वे अनन्तसुख नहीं बन सकता तो फिर कर्म सिद्धान्तमें भो अन्तरात्मा ही हो सकते हैं। * अनेकान्त वर्ष ८,किरण १, पृष्ठ ३० For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष २ अनेकान्त . ६० (ग) केवलीके साता और असाता वेदनीय कर्मका उदय मैंने स्वयम्भस्तोत्रादि दूसरे मान्य ग्रन्थों की छानबीन माना ही क्यों जाता है और वह इस प्रकार है- को है, मुझे उनमें कोई भी ऐसी बात उपलब्ध नहीं हुई जो रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यके विरुद्ध जाती हो मा वरण-असाटावेगी अथवा किसी भी विषयमें उसका विरोध उपस्थित करती हो। प्रत्युत इसके, ऐसी कितनी. ही बातें णमणुप्पत्तीए णिप्फलस्स परमाणुपुजस्स समयं देखने में आती हैं जिनसे अर्हत्केवलीमें सुधादिपाड परिसदं(ड)तस्स कथमुदय-ववएसो ? ण, वेदनाओं अथवा दोषोंके अभावकी सूचना मिलती है। जाव-कम्म-विवेग-मेत्त-फलं दटठण उदयस्स यहां उनमेंसे दो चार नमूनेके तौरपर नीचे व्यक्त की फलत्तमभुवगमादो।" जाती हैं:-वीरसेवामन्दिर प्रति पृ० ३७५ अारा प्रति पृ० ७४१ (क) स्वदोष-शान्त्या विहितात्मशान्तिः' इत्यादि शान्ति-जिनके स्तोत्रमें यह बतलाया है कि शान्तिशङ्का-अपने सहायक घातिया कर्मोका अभाव जिनेन्द्रने अपने दोषोंकी शान्ति करके आत्मामें शान्ति होनेके कारण निःशक्तिको प्राप्त हुए असाता वेदनीय- स्थापित की है और इसीसे वे शरणागतोंकेलिये शांतिकर्मके उदयसे जब (केवलीमें) क्षुधा-तृषाकी उत्पत्ति के विधाता है। चूंकि क्षुधादिक भी दोष हैं और वे नहीं होती तब प्रतिसमय नाशको प्राप्त होनेवाले आत्मामें अशांतिके कारण होते हैं-कहा भी है कि (असातावेदनीयकर्म के) निष्फल परमाणु पुञ्जका कैसे "नधासमा नास्ति शरीरवेदना" । अत: आत्मामें उदय कहा जाता है ? शान्तिकी पूर्ण प्रतिष्ठाके लिये उनको भी शान्त किया समाधान-यह शङ्का ठीक नहीं; क्योंकि जीव किया गया है, तभी शान्तिजिन शान्तिक विधाता बने और कर्मका विवेक-मात्र फल देखकर उदयके फलपना हैं और तभी संसार-सम्बन्धी क्लेशों तथा भयोंसे शान्ति माना गया है। प्राप्त करने के लिये उनसे प्रार्थना की गई है। और ऐसी हालतमें प्रोफेसर साहबका वीतराग सर्वज्ञके यह ठीक ही है जो स्वयं रागादिक दोषों अथवा दुःखकी वेदनाके स्वीकारको कर्मसिद्धान्तके अनुकूल सुधादि वेदनाओंसे पीडित हैं-अशान्त हैं -वह और अस्वीकारको प्रतिकूल अथवा असङ्गत बतलाना दूसरों के लिये शान्तिका विधाता कैसे हो सकता हैं ? किसी तरह भी युक्ति-सङ्गत नहीं ठहर सकता और नहीं हो सकता। इस तरह प्रन्थसन्दर्भके अन्तर्गत उक्त ६३वीं कारिकाको (ख) 'त्वं शुद्धि-शक्त्योरुदयस्य काष्ठां तुलादृष्टिसे भी रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यको विरुद्ध नहीं व्यतीतां जिन शान्तिरूपामवापिथ' इस युक्त्यनुकहा जा सकता। शासनके वाक्य में वीरजिनेन्द्रको शुद्धि, शक्ति और समन्तभद्रके दूसरे ग्रन्थोंकी छानबीन शान्तिकी पराकाष्ठाको पहुंचा हुआ बतलाया है। जो अब देखना यह है कि क्या समन्तभद्रके दूसरे शान्तिकी पराकाष्ठा(चरमसीमा को पहुंचा हुआ हो उस किसी ग्रन्थमें ऐसी कोई बात पाई जाती है जिससे में सुधादि वेदनाओंकी सम्भावना नहीं बनती। रत्नकरण्डके उक्त 'क्षुत्पिपासा' पद्यका विरोध घटित (ग) 'शर्म शाश्वतमवाप शङ्करः' इस धर्महोता हो अथवा जो आप्त-केवली या अर्हत्परमेष्ठीमें क्षुधादि दोषोंके सद्भावको सूचित करती हो। जहांतक , जिनके स्तवनमें यह बतलाया है कि धर्मनामके अर्हत्परमेष्ठीने शाश्वत सुखकी प्राप्ति की है और इसीसे ___* अनेकान्त वर्ष ८, किरण २, पृ० ८६ । वे शङ्कर-सुखके करनेवाले हैं। शाश्वतसुखको For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] साहित्य परिचय और समालोचन ६० (घ) अवस्थामें एक क्षणके लिये भी तुधादि दुःखोंका है बल्कि बहुत बढी-चढी है, अनन्तदोष तो मोहनीयउद्भव सम्भव नहीं। इसीसे श्रीविद्यानन्दाचार्यने कर्मके हो आश्रित रहते हैं। अधिकांश दोषोंमें मोहकी श्लोकवार्तिकमें लिखा है कि "क्षुधादिवेदनोद्भूतौ पुट ही काम किया करती है। जिन्होंने मोह कर्मका नाश नाहतोऽनन्तशमैता” अर्थात् क्षुधादि वेदनाकी उद्भूति कर दिया है उन्होंने अनन्तदोषोंका नाश कर दिया है । होनेपर अहंन्तके अनन्तसुख नहीं बनता। उन दोषों में मोहके सहकारसे होनेवाली सुधादिकी (घ) 'त्वं शम्भवः सम्भपतरोगैः सन्तप्य- वेदनाएँ भी शामिल हैं, इसीसे मोहनीयके अभाव हो मानस्य जनस्य लोके' इत्यादि स्तवनमें शम्भवजिन जानेपर वेदनीयकर्मको सुधादि वेदनाओंके उत्पन्न को सांसारिक तृषा-रोगोंसे प्रपीडित प्राणियोंकेलिये उन करने में असमर्थ बतलाया है। रोगोंकी शान्तिके अर्थ आकस्मिक वैद्य बतलाया है। इस तरह मूल प्राप्तमीमांसा ग्रन्थ, उसके १३ वीं इससे स्पष्ट है कि अर्हज्जिन स्वयं तृषा रोगोंसे पीड़ित कारिका सहित ग्रन्थ सन्दर्भ, अष्टसहस्री आदि नहीं होते, तभी वे दूसरोंके तृषा-रोगोंको दूर करने में टीकाओं और ग्रन्थकारके दूसरे ग्रन्थोंके उपर्युक्त समर्थ होते हैं। इसी तरह 'इदं जगज्जन्म-जरान्त- वि विवेचनपरसे यह भले प्रकार स्पष्ट है कि रत्नकरण्डका कात निरञ्जनां शान्तिमजीगमस्त्वं' इस वाक्य के उक्त क्षुत्पिपासादि-पद्य स्वामी समन्तभद्रके किसी भी ग्रन्थ तथा उसके आशयके साथ कोई विरोध नहीं द्वारा उन्हें जन्म-जरा-मरणसे पीडित जगतको निरञ्जना रखता अर्थात उसमें दोषका क्षुत्पिपासादिके अभावशान्तिको प्राप्ति करानेवाला लिखा है, जिससे स्पष्ट है रूप जो स्वरूप समझाया गया है वहआप्तमीमांसाके कि वे स्वयं जन्म-जरा-मरणसे पीडित न होकर ही नहीं; किन्तु आप्तमीमांसाकारकी दूसरी भी किसी निरञ्जना शान्तिको प्राप्त थे। निरञ्जना शान्तिमें कृतिके विरुद्ध नहीं है बल्कि उन सबके साथ सङ्गत तुधादि वेदनाओंके लिये अवकाश नहीं रहता। है। और इसलिये उक्त पद्यको लेकर प्राप्तमीमांसा और - (ङ) 'अनन्त दोषाशय-विग्रहो-ग्रहो विष- रत्नकरण्डका भिन्न-कर्तृत्व सिद्ध नहीं किया जा ङ्गवान्मोहमयश्चिरं हृदि' इत्यादि अनन्तजित्के सकता। अतः इस विषयमें प्रोफेसर साहबको प्रथम स्तोत्रमें जिस मोहपिशाचको पराजित करनेका उल्लेख आपत्तिके लिये कोई स्थान नहीं रहता-वह किसी है उसके शरीरको अनन्तदोषोंका आधारभत बताया है. तरह भी समुचित प्रतीत नहीं होती। इससेस्पष्ट है कि दोषोंकी संख्या कुछ इनीगिनी ही नहीं (शेष अगली किरणमें) साहित्य परिचय और समालोचन १ षट्खण्डागम-रहस्योद्घाटन लिखे तथा विद्वत्परिषद्ने ६३ वें सूत्रमें 'संजद' पदके लेखक. विद्वद्वर पण्डित पन्नालाल सोनी न्याय- रहनेका निर्णय दिया इसीके सम्बन्धमें प्रस्तुत पुस्तकमें सिद्धान्तशास्त्री प्रकाशक पं० वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री सप्रमाण प्रकाश डाला गया है। सोनीजीने अनेक जैनबुकडिपो, सोलापुर । मूल्य सदुपयोग। उपपत्तियों और प्रमाणों द्वारा उक्त सूत्रमें 'संजद' पद 'संजद' पदको लेकर विद्वानों में जो चर्चा चली की स्थितिको सिद्ध करके विद्वत्परिषद्के निर्णयका थी और जिसके सम्बन्धमें विविध विद्वानोंने लेखादि समर्थन किया है। सोनीजीकी इसमें स्थान स्थानपर For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ६ ] विशिष्ट विद्वत्ता और आगमज्ञान तो कितने ही विद्वानों के लिये स्पर्धाकी चीज है। उनके 'तहलका मचा रक्खा' 'मुख्यनेता' 'मोटे' जैसे आक्षेप नरक शब्द और अन्तमें प्रकाशित परिशिष्ट इसमें न होते तो अच्छा था। पुस्तकका योग्य सम्पादन अपेक्षित था जिससे भाषा साहित्य आदिकी त्रुटियां न रहतीं। फिर भी समाज सोनीजीकी विद्वत्ता और सेवाभावनाकी नियही कायल है । काश ! ऐसे विद्वान साहित्यिक क्षेत्र में आकर साहित्यसेवामें जुटते तो उनसे बड़ी साहित्य सेवा होती । २ रेडियो--- लेखक, श्री रा०र० खाडिलकर | काशी नागरी-प्रचारिणी सभा । मूल्य || | ) | प्रस्तुत पुस्तक में रेडियो सम्बन्धी समस्त प्रकार की जानकारी दी गई है। रेडियोका प्रचार, रेडियोका विज्ञान, वेतार विद्या, जाड़ों में रेडियो अच्छा क्यों सुनाई देता है ?, रेडियो के विभिन्न वरन, रेडियो यंत्र में खरावी और उसके उपाय ? रेडियो पर खबरें, समयका अन्तर, ब्रिटेनका समय, यूरोपका समय, भारतीय समय, अमेरिकन समय, भारतीय रेडियोका भविष्य जैसे गहन वैज्ञानिक विषयोंको लिये हुए उनपर पर्याप्त और सरल हिन्दी में प्रकाश डाला गया है। आज भारतमें रेडियोका प्रचार बराबर बढ़ता जा रहा है। ऐसे समय में यह पुस्तक रेडियोका ज्ञान करनेके लिये बड़ी उपयोगी सिद्ध होगी। संयुक्त प्रान्तके शिक्षा मन्त्री बा० सम्पूर्णानन्दने 'दो शब्द ' वक्तव्य में इस पुस्तकका स्वागत करते हुए लिखा है- 'इस छोटी-सी पुस्तकको पढने से कोई भी शिक्षित व्यक्ति, चाहे वह भौतिक विज्ञानका विशेषरूप से विद्यार्थी न भी हो, रेडियो सम्बन्धी आवश्यक बातोंकी काम चलानेभर जानकारी प्राप्त कर सकता है'। इसे एकबार मंगाकर अवश्य पढ़ना चाहिए । ३ जैन इस्टिटय शन्स इन देहली--- ले०, ब० पन्नालाल जैन अग्रवाल देहली। प्रकाशक जैन मित्रमण्डल, धर्मपुरा देहली। मू० चार आने । यह अंग्रेजीमें देहलीकी सभी जैन संस्थाओंकी प्रकाशक, अनेकान्त ६० (ङ) संक्षिप्त परिचय - पुस्तिका है और देहली जैसे बड़े शहर में आने वाले यात्रियों के लिये जैन गाइड के रूप में अच्छे काम की चीज है - साथमें एक नक्शा भी लगा हुआ है जिसने इसकी उपयोगिताको बढ़ा दिया है । इसके सहारे से कोई भी यात्री सहज में ही यह मालूम कर सकता है कि दिगम्बर, श्वेताम्बर और स्थानक - वासी सम्प्रदायोंके कौन कौन मन्दिर, स्थानक, विद्यालय, औषधालय, स्कूल, पाठशाला, धर्मशाला, शास्त्रभण्डार, लायब्रेरी तथा सभा सोसाइटी आदि दूसरी संस्थाएँ किस किस मुहल्ले गली-कूचे आदि में कहांपर स्थित हैं और उनकी क्या कुछ विशेषताएँ हैं । और इस तरह वह इधर उधर भटकने तथा पूछताछ करने के कष्टसे मुक्त रहकर अपना बहुत कुछ समय बचा सकता है और यथेष्ट परिचय भी प्राप्त कर सकता । पुस्तक अच्छे परिश्रम से लिखी गई है, उसके लिये लेखक और उनके सहायक सभी धन्यवाद के पात्र हैं । बाहुवली --- (राष्ट्रीय काव्य ) — लेखक, श्री० हीरक, प्राप्तिस्थान सगुनचन्द चौधरी स्याद्वाद विद्याभदैनी बनारस, मूल्य 11 ) | लय, इसमें कवि श्री हीरकने बाहुवलीका चरित्र ग्रन्थन करनेका प्रयास किया है । भूमिका हिन्दी विभाग हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रो० डा० श्रीकृष्णलाल एम. ए. पी. एच. डी. ने लिखी हैं। संस्कृत शब्दों के बाहुल्यने काव्यकी कोमलता और सरसताको सुरक्षित नहीं रख पाया फिर भी कविका इस दिशा में यह प्रथम प्रयत्न हैं। आशा है उनके द्वारा भविष्य में अधिक प्राञ्जल रचनाओं का निर्माण हो सकेगा । महावीर - दर्शन --- ( पद्यमय रचना ) लेखक पण्डित लाल बहादुर शास्त्री, प्राप्तिस्थान नलिनी सरस्वती मन्दिर, भदैनी बनारस, मूल्य ) ॥ यह ७९ पद्योंकी सरस और सुन्दर रचना है । इसमें भगवान महावीरका आकर्षक ढङ्गसे संक्षेप में जीवन-परिचय दिया गया है। पुस्तक लोकरुचिके अनुकूल है और प्रचार योग्य है । -दुरबारी लाल कोठिया For Personal & Private Use Only 1 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मृतिकी रेखाएँ किमल माई । लेखक-अयोध्याप्रसाद गोयलीय ] ['स्मृतिकी रेखाएं' नामका नया स्तम्भ हम अनेकान्तमें स्थायी रूपसे जारी कर रहे हैं। इसके अन्तर्गत अपने जीवनकी सभी घटनाएँ जो भूली न जा सके, लिखनेके लिये हम पाठकोंको निमन्त्रण देते हैं। जीवन में अनेक ऐसी घटनाएँ घटतीं हैं जो कथा-कहानियोंसे अधिक रोचक और मर्मस्पर्शी होती हैं। हमारे पास-पास ऐसे अनेक व्यक्ति रहते हैं, जिनके उल्लेख साहित्यकी बहुमूल्य निधि बन सकते हैं। ये ही स्मृतिकी रेखाएँ संकलित होकर सजीव इतिहास बन जाते हैं। अनुभवी लेखकोंके जब तक लेख न मिले तब तक हमीं कुछ टेढ़ी मेढ़ी रेखाएँ खींचने रहनेकी धृष्ठता करेंगे।] मेरे एक अत्यन्त स्नेही साथी हैं, जिन्हें कुछ लोग बोला - " हाँ हाँ वह खप्ती है, सनकी है; मैं शते बद 'खप्ती भाई' कहते हैं, कुछ लोग उन्हें सनकी समझते कर कहताहूँ"। हैं और कुछ समझदार दोस्तों का फतवा है कि इनके अब हमारी क्या सामर्थ्य थी जो बात काटते । मस्तिष्क का एक पेंच ढीला है। एक तो छोटा, दूसरे शर्त बदनेको तैयार। फिर भी मेरा इनसे सन् २५ से परिचय है । इन २२ वर्षों हिम्मत बांधकर पूछ ही बैठे- हुजूरको उसमें क्या में समीपसे समीपतर रहनेपर भी मुझे इनमें खपत खफ्त दिखाई देता है ? और सनकका आभास तक नहीं मिला फिर भी मैं वह एक अजीब-सा मह बनाकर बोला -एक हैरान हूं कि हे सर्वज्ञ ! क्या ये आपके ज्ञानमें भी खप्त । अजी भाई साहब ! वह सरसे पैर तक खप्त खप्ती और सनकी मलके हैं ? ही खप्तसे ढका हुआ है । जिस मुदनीमें कुत्ते न झाँके __ गोरा शरीर, किताबी चेहरा, आंखें बड़ी और रसी वहां इन्हें देख लीजिये। सुबह शाम हजरतके हाथमें ली चौड़ी पेशानी, ममोला कद, सुडौल कसरती जिस्म, ऐरे गैरे नत्थूखैरोंकेलिये दवाओंकी शोशियां रहती हैं शरीरपर स्वच्छ और धवल खादीकी मोहक पोशाक, खुदके पांवमें साबुत जूतियां नहीं और उस रोज दूकान चालढाल में मस्ती और स्फूर्ति । एफ. ए० तक शिक्षा, बेचकर उस......नादिहन्दको दो हजार दे दिये भले और प्रतिष्ठित घरमें जन्म, बातचीतमें आकण, जिससे पठान भी तोवा माँग चुके हैं । उस रोज स्कूल राष्ट्रीय विचारों और लोकसेवी भावनाओंसे ओतप्रोत। से आते हुए यारोंने उन्हें बनानेके नयालसे कहामहात्मा गांधीसे किसीका दिल दुखा हो, परन्तु इनसे बड़े भाई अाज तो ईखका रस पिलवाओ। थोड़ी असम्भव । फिर भी दोस्तोंके दायरे में मज़हका-रोज देर में क्या देखते हैं कि हम ८-१० साथियोंकेलिये ईख बने हुए हैं और उसपर तुर्रा यह कि बुरा माननेके रसके बजाय सन्तरेके रसके गिलास प्रारहे हैं। हमने बजाय फूलकी तरह खिलते रहते हैं। खिलाफ तवक्कह देखकर पूछा-'बड़े भाई यह क्या ___एक रोज़ मैं और एक मेरे साहित्यिक मित्र विमल तकल्लुफ़ ?'' फर्माया- "आप लोग कब बारबार भाईकी चर्चा कर रहे थे और उनपर फब्तियां कसने पिलानेको कहते हैं।" वालोंपर छींटे उड़ा रहे थे कि समीप ही बैठा हुआ "रस पी चुकने पर हम सबकी मुश्तर्का राय थी उनका ११-१२ वर्षका छोटा भाई पढ़ते-पढ़ते बेसास्ता कि विमल भाई खप्ती होनेके साथ साथ बुद्ध भी हैं" For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ अनेकान्त [ वर्षे । % 3D लड़केने अपनी बात कुछ इस ढंगसे कही कि मेरे रहें तो आपके सब कपड़े धो दू। मजबूरन विमल वे साहित्यिक मित्र तपाकसे बोले- हां यार इनके भाईको कपड़े देने पड़े। शामको धोकर दिये तो इतने खप्तका एक ताजा लतीफ़ा तो सुनो। स्वच्छ कि धोबी भी देखकर शर्माये। "पुकार फिल्ममें किस कदर रश है, यह तो तुम्हें गतवर्ष गर्मीके दिनों में आपके यहां चोरी होगई। मालूम ही है। विमल भाईने भी भीड़ में घुसकर ४-५ जिन विस्तरोंपर आप आराम फर्मा रहे थे, उनको फर्स्टक्लास टिकट खरीद लिये। एक तो अपनेलिए छोड़कर नकद, जेवर, कपड़े, बर्तन सब ले गये। लगे बाकोके परिचित या मुहल्लेके लोगों के लिए, इस हाथ झाडू भी दे गये ताकि सुबह उठकर सर पीटकर खयालसे कि कोई आये तो परेशान न हों । दर्शकोंकी रोनेके अतिरिक्त आपको झाडू देनेको जहमत न भीड़ हालमें घुसी जारही है और विमल हैं कि आने उठानी पड़े। समाचार सुना तो घबड़ाया हुआ वाले परिचितोंकी प्रतीक्षामें बाहर सूख रहे हैं। और विमलभाईके यहाँ पहुंचा। समझमें नहीं आता था जब राम-राम करके टिकिटोंसे मुक्ति पाई तो हालमें कि इस मंहगी और कण्ट्रोलके जमाने में अब कैसे पौन तिल रखने को जगह न थी टिकिट जिन साहबने दर्जन फौजका तन ढकेंगे। और हवा-पानीके अलावा लिये, उनमेंसे किसीने फ्री पास सममकर और किसी क्या खाने-पीनेको देगें। सान्त्वना देने के लिये न ने बुरा न मान जाएं इस भयसे टिकिटके दाम नहीं कोई शब्द सूझते थे, न कोई कमबख्त शेर ही याद दिये । एक साहबने दाम देनेकी जहमत फर्माते हुए आता था। इसी उधेड़बुनमें मुंह लटकाये पहुंचा अठन्नी उनके हाथपर रखो और बोले जब हाउस फुल तो विमलभाई देखते ही खिल उठे और मैं कुछ कहूँ हो गया तो टिकिटके पूरे दाम कैसे ?' इससे पहले स्वयं ही बोले___यह लतीफा उन्होंने इस अन्दाज़ में बयान किया "भाई ! हमारा तो सदैवके सङ्कटसे पीछा छूट गये। रातको सोने लगा तो मुझे गया। यकीनन आजसे हमारे बुरे दिन गये और विमलभाईकी ऐसी कई बातें स्मरण हो आई, जिन्हें मैं अच्छे दिन आये।" अबतक उनकी खूबियां तसब्बुर किया करता था। मैंने समझा कि विपताका पहाड़ टूट पड़नेसे अब जो दुनियांकी ऐनक लगाकर देखता हूं तो रङ्ग ही विक्षिप्त हो गया है। परन्तु वह विक्षिप्त नहीं था, दूसरा नज़र आने लगा। फिर बोला-'भाई ! यह परिग्रह ही सब झगड़ोंकी - सन् १९३३ की बात है। मुझे ऐतिहासिक अनु- जड़ है इसीके कारण अनेक क्लेश और बाधाएँ आती सन्धानके लिये अकस्मात् उदयपुर जाना उसी रोज़ हैं। अब सुख-चैन ही सुख चैन है। रोटियाँ तो आवश्यक होगया। मार्ग-व्यय के लिये तो रुपये खानेको मिलेंगी ही। आधे दर्जन बच्चे हो गये अब उधार मिल गये। और ठहरने आदिकी सुविधा पत्नी जेवर पहनते क्या अच्छी लगती थी ? विलायती इतिहास-प्रेमी बलवन्तसिंहजी मेहताके यहां हो गई। कपड़ा सब जाता रहा अब झक मारकर स्वदेशी परन्तु पहननेके कपड़े मेरे पास कतई नहीं थे। जेलसे पहनेगी !' और फिर वही चेहरेपर फूलसी मुस्कराहट आकर बैठा था। जो कपड़े थे उनमेंसे कुछ धोबीके उठकर चला तो वहांसे एक साहब साथ और हो यहां थे, कुछ मैले पड़े थे। स्वच्छ एक भी न था। लिये। फर्माया-"देखा आपने इनका खप्त । और उदयपुर जाना उसी रोज़ अत्यन्त आवश्यक था। लोगोंके घर चोरी होती है तो दहाड़ मारकर रोते हैं बड़ी असमञ्जस और चिन्तामें था कि यकायक और एक आप हैं कि खिल खिल हंस रहे हैं। गोया विमलभाई आये और बोले कि सुना है आप उदयपुर चोरी नहीं हुई, लाटरीमें हरामका रुपया हाथ लग गया जा रहे हैं, वहां आपको कई रोज़ लगेंगे। मेरे पास है। अगर इनका वस चले तो चोरी होनेकी खुशीमें फाल्तू कपड़े तो नहीं हैं. परन्तु आप घरपर दिनभर दावत देदें।" For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] - हिन्दी-गौरव सान्त्वना प्रकट करनेके लिये तो मुझे कोई शेर की उधारको लिष्ट दे दी और दो हजार रुपये एकके याद नहीं आया, उसकी आवश्यकता भी नहीं पड़ी, नाम ऋण लिखे दिखला दिये। परन्तु इन साथीकी बकवास पर गालिबका शेर मनमें मांने सर पीट कर कहा-'तेने उस नादिहिन्दको झूमने लगा दो हजार क्यों पकड़ा दिये ? फर्माया-मां तू तो न लुटता दिनको तो यूँ रातको क्यों बेखबर सोता। बेकारमें घबड़ाती है, उसने मुझे कसम खाकर २०००) रहा खटका न चोरीका दुआ देता हूं रहजनको ॥ रुपये जल्दी लोटानेको कहा है। उसे पठान तंग कर ___ सन् ३० के असहयोग आन्दोलनमें आपने खद्दर रहे थे, इसीसे उसे रुपयेकी जरूरत आन पड़ी थी। की दुकान खोली। विमल भाईकी दुकानपर बाहरके इन १७ वर्षों में जब जब विमलभाईसे पूछा कि वे व्यापारीतो तब आते जब परिचित यारोंकी कुछ कमी रुपये पटे या नहीं। तबतब आपने बड़े विश्वासकेसाथ होती। भीड़ लग गई, लोग हैरान कि जिसने कभी कहा- “भई रुपये मारमें थोड़े ही हैं। विचारा खुद दूकान नहीं की वह इस फर्राटेसे क्योंकर बिक्री कर मुसीबत में है. उससे रुपयेका तकाजा करना भलमनरहा है। घरवाले भी खुश कि चवन्नी न सही दुअन्नी साहतमें दाखिल नहीं।" रुपया भी मुनाफा लिया तो २००-३०० रुपयेकी मैं इन २३ वर्षों में स्वयं निर्णय नहीं कर पाया कि बिक्री पर २५-३० तो कहीं भी न गये । हमने स्वयं विमलभाई खप्ती हैं या जीवनमुक्त ? क्या पाठक अपनी अपनी आखोंसे आपकी दुकानदारीके जौहर देखे । उपयुक्त सम्मति देंगे। . दुकान ऐसी चली कि २-३ माहमें ही पंख निकल डालमियानगर, २ फरबरी १९४८ आये । माँने अपने ३०००) मांगे तो एक हजार रुपये हिन्दी-गौरव (१) . बन रही मां भारतीके भालका शृङ्गार हिन्दी! सोचते थे हिन्दमें कब रामराज स्वराज होगा, + पूर्ण होने जारहे हैं स्वप्न सब अपने सजीले, हिन्दी सुभगलिपि नागरीके सीसपर कब ताज होगा सुखदमादक बन रहे हैं आज कवि गायन सुरीले कल्पनाके नील नभमें उड़ रही थी भावनाएँ, मिट रहे अभियोग युग-युगके, मिले वरदान नीके, दासताके पाशमें थीं बद्ध अपनी योजनाएँ। मिल रहा बलिदानका फल जल रहे हैं दीप घीके। अब करेगी सभ्यताके ज्ञानका सुप्रसार हिन्दी! A पारही सब भारतीयोंके दिलोंका प्यार हिन्दी! बन रही मां भारतीके भालका शृङ्गार हिन्दी!! बन रही मां भारतीके भालका शृङ्गार हिन्दी !! राज-भवनोंसे कुटी तक ना नागरीमें कार्य होगा, II हो गये श्राजाद, पूरी हो गई चिर-कामनाएँ; देश भारतवर्षका अब 'आर्य' सच्चा आर्य होगा। G दूर कटकर गिर पड़ी हैं दासताको शृङ्खलाएँ। जीणे अगणित अब्दियोंके टूक सकल विधान होंगे, ! हष-पूरित लोचनों में मुस्कराती मृदुल-आशा, मुदित होंगे श्रमिक जनसब, तुष्ट सकल किसान होंगे दूर देखेंगी खड़ी सब, अन्य भाषाएँ तमाशा ।। विश्वमेंगूजे तुम्हारा नित्य जय जयकार हिन्दी i मुकुट हिन्दी को मिलेगा, पाएगी सत्कार हिन्दी! बन रही मां भारतीके भालका शृङ्गार हिन्दी !! .........बन रही मां भारतीके भालका शृङ्गार हिन्दी !! पं० हरिप्रसाद 'अविकसित For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमनाथका मन्दिर [बा० छोटेलाल जैन, प्रेसीडेंट “गनीट्रेड्स एसोसियेशन" कलकत्ता ) mज हम अपने पाठकोंको एक ऐसे भावनाको सबल और दृढ बनाने के लिये सोमनाथ M प्रदेशका दिग्दर्शन कराते हैं जिसके मन्दिरके नव-निर्माणका परामर्श दिया है। इस महत्वको मुसलमानोंके निरन्तर घोष से हिन्दुओंके हृदय में अपार हर्ष हुआ है। अत्याचारोंसे हम भूलसे गये हैं। प्रत्येक हिन्दु सोमनाथ मन्दिरके लिये दान देने में यह स्थान है काठियावाड़, जिसका गौरव समझता है, क्योंकि सोमनाथ १२ ज्योतिर्लिङ्गों प्राचीन नाम था सौराष्ट्र। जूना- में सर्व प्रथम है, और सारे भारतका महान तीर्थ है। गढ़की रियासत काठियावाड़में काठियावाड़ प्राय: चारों ओरसे जलावेष्टित है। शामिल है। काठियावाड़ ३२ बड़ी रियासतोंमें विभक्त केवल उत्तरकी ओरसे एक लम्बा सङ्कीर्ण भूमि अंश है जिनमें सबसे बड़ी जूनागढ़ है, और जूनागढ़ उन इसे गुजरातसे मिलाता है। इसी कारण गुजरात सब रियासतोंसे कर लेती है। भूतपूर्व नवाब जूना- और राजपूतानेका, जो इसके उत्तर में है, इतिहास गढ़ने अपनी बहुसंख्यक हिन्दु प्रजापर नाना प्रकारके सौराष्ट्र के मध्यकालीन इतिहाससे घनिष्ठ सम्बन्ध अत्याचार किये। यही नहीं, भारतके स्वतन्त्र होने रखता है। पर नवाब प्रजाकी इच्छाके विरुद्ध पाकिस्तानसे मिल इतिहासगया, परन्तु प्रजाको सामूहिक शक्ति के सामने नवाबको जबसे भगवान कृष्ण मथुराको छोड़कर द्वारिकामें कराची भागना पड़ा और अब पश्चिमका यह पुनीत आये, तभीसे सौराष्ट्र देश प्रकाशमें आया । द्वारिकाके भू-भाग प्रजाको इच्छानुसार भारतमें मिल गया है। यादवोंके समयसे यहां प्रभास क्षेत्र में यात्रियोंके आने हम आपको यह बतलायेंगे कि काठियावाड़के प्रायद्वीप जानेका प्राचीन वर्णन मिलता है। में, जिसको औरङ्गजेबने "भारतका सौन्दर्य और ईसासे ३२२ वर्ष पूर्व भारतके प्रसिद्ध सम्राट आभूषण" कहा था शैवों, वैष्णवों, बौद्धों, तथा चन्द्रगुप्त मौर्य के चार भागोंमेंसे सौराष्ट्र एक था। और जैनियोंके कितने ही प्राचीन और पवित्र मन्दिर और ईसासे २५० वर्ष पूर्वका महाराजा अशोकका शिलालेख अन्य धर्म स्थान हैं। कितनी ही मसजिदें हिन्दु गिरनार में मिलता है। यहां गिरनार पर्वतकी तहलटी तीर्थोकी भूमिपर ध्वस्त किये देवालयोंकी सामग्रीसे में महाराज अशोकने सुदर्शन नामक एक विशाल बनी हुई हैं। कितनी ही मसजिदें हिन्दु-मन्दिरोंका मोल बनवाई थी। मौर्य वंशके पतनके पश्चात् केवल साधारण रूपान्तर हैं, जो असल में हिन्दुओंके सौराष्ट्र ईसासे १५५ वर्ष पूर्व तक शुङ्ग वंशके पुष्यमित्र ही मन्दिर हैं। के आधीन रहा, उनके बाद शक क्षत्रपोंके अधिकार में लगभग एक सहस्र वर्षसे परतन्त्रता ग्रस्त भारतमें चला गया जिनमें महाराज रुद्रमन (सन् १५०) बहुत हिन्दुओंको धर्मभावना मुसलमानों के निरन्तर प्रत्या- प्रसिद्ध हुए। इनका भी शिलालेख यहां मिलता है। चारसे दलित और अर्धमृत होती रही है। आज उन्होंने सुदर्शन झीलकी, जिसका बांध टूट गया था, स्वतन्त्र भारतमें भारतसरकारके उप-प्रधानमन्त्री मरम्मत करवाई थी। फिर यहां गुप्त वंशका आधिश्रीयुत सरदार बल्लभभाई पटेलने हिन्दुओंकी धर्म पत्य हुआ। महाराज स्कन्दगुप्तने भी वहां एक For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] शिलालेख (सन् ४५७ का) छोड़ा है जिससे पता चलता है कि इन महाराजने भी झील सुदर्शनकी जिसका बांध फिर टूट गया था, मरम्मत करवाई थी। इन तीन उपरोक्त शक्तिशाली राजाओं ने जहां अपनी धर्म-लिपि और कीर्ति द्योतक लेख शिलापर सोमनाथका मन्दिर कित करना उचित समझा, उस स्थानका उस समय कितना अधिक महत्व होगा, इसका सहज ही अनुमान किया जा सकता है । गुप्त वंशके पीछे बल्लभी राजाओंने सौराष्ट्र पर अपनी सत्ता जमाई | ये शिव भक्त थे। बहुत सम्भव है कि सोमनाथ मन्दिरको स्थापना बल्लभी राजाओं के शासनकाल (सन् ४८० से ७६४ ) में हुई हो। इन राजाओं के स्वयं शिव उपासक होनेके कारण इस मंदिर की विशेष ख्याति इन्हीं के समय में हुई हैं । इन्हीं राजाओं ने सोमनाथ मन्दिर के निर्वाह के लिये सहस्रों ग्राम दान दिये। गुजरातके अन्य राजाओंने भी सहस्रों गांव सोमनाथ के नाम किये थे । फिर सौराष्ट्र में चूड़सम वंशको स्थापना (सन् ८७५ के लगभग) हुई, जिसका राज्य ६०० वर्ष तक रहा, और उसके बाद मुसलमानोंके आक्रमण का तांता बँध गया। इस वंशका अन्तिम स्वतन्त्र राजा राव मंडलीक हुआ, जिसको यवनोंने परास्तकर मुसलमान बना लिया. (सन् १४७० में) और उसका नाम खांजहां रक्खा गया और जूनागढ़का नाम मुस्तफाबाद रक्खा, परन्तु यह नाम अधिक दिन तक न चल सका । कावड़ (सौराष्ट्र) की राजधानी गत १००० वर्ष से अधिक कालसे जूनागढ़ रही है । १५ वीं शताब्दी से काठियावाड़ के मुसलमान शासक या फौजदार जूनागढ़ रहते थे । ये शासक पहले गुजरात के सुल्तानोंके, और फिर अहमदाबाद के मुग़ल सूबेदारों के अधीन रहे परन्तु मुग़ल साम्राज्य के पतनके साथ साथ १८ वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में यहां के शासक स्वतन्त्र हो गये और अन्तमें अंग्रेजोंके अधीन हुए । अब भारतके स्वतन्त्र होनेपर यहांका नवाब किस तरह की चालसे पाकिस्तान से मिला, और प्रजाके विरोधसे किस तरह उसे पलान करना पड़ा यह सब तो आप लोग जानते ही हैं। ६५ हमारा सम्बन्ध जूनागढ़ से हमारा न केवल राजनैतिक सम्बन्ध ही है, बल्कि इससे कहीं अधिक ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक सम्बन्ध भी है । सौराष्ट्रका दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्वीय प्रदेश ही विशेष कर पौराणिक युगके इतिहासका क्रीडास्थल रहा है। यहीं पर भगवान श्रीकृष्णने मथुरासे आकर द्वारिकाकी रचना की, यहीं पर यादवों सहित अनेक लीलाएँ कीं, और यहीं पर श्रीकृष्णने मदोन्मत्त विशाल यादव कुलको अपनी लीलासे विनाश कराया, और यहीं पर प्रभास पट्टन नामक पवित्र नगर के निकट सावधानी से जरत्कुमार ( व्याध) - द्वारा आहत होकर अपनी जीवन लीला समाप्त की थी। (१) बल्लभी, (२) मूल द्वारिका (प्राचीन द्वारिका) जो भगवान कृष्णके निधन के पश्चात् समुद्र निमग्न हो गई, (३) माधवपुरी (जहां भगवान कृष्ण ने रुक्मिणीका पाणिग्रहण किया), (४) तुलसी श्याम, (५) सुदामापुरी (जिसको भगवान कृष्णने अपने मित्र सुदामाके लिये वनवाकर उसके दरिद्रताके पाश काटे थे. और जिसका आधुनिक नाम पोरबन्दर है ) (६) श्रीनगर. (७) त्रामस्थली, (वनस्थली) इत्यादि प्राचीन नगर भी इसी दक्षिण-पूर्वीय प्रदेश में हैं । जैनियोंके गिरनार व पालीताना (शत्रुञ्जय ) नामक प्राचीन और प्रसिद्ध तीर्थ यहीं हैं । यहीं पर बौद्धों के गुहामन्दिर जूनागढ़, तलाजा, साना, धांक और सिद्धेश्वर में हैं। यहांके अनेक ऋतिकलापूर्ण पाषाणनिर्मित मन्दिरोंके ध्वंसावशेषों से जो कि सेजकपुर, धान, आनन्दपुर, पवेदी, चौबारी तथा बढ़वानादि स्थानों में मिलते हैं, इससे यह बात प्रमाणित होती है कि मध्यकाल में मध्य सौराष्ट्र एक पूर्ण वैभवशाली और अति जनाकीर्ण प्रदेश था । सन्६५० में ह्यूयेन स्यांग नामक चीनी परिब्राजक बल्लभी में आया, और उसने भी यहांको समृद्धिका वर्णन करते हुए लिखा है कि यहां पर बौद्धों के सैकड़ों For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ अनेकान्त मठ, ६००० बौद्ध भिक्षु, और सैकड़ों देव मन्दिर थे । और इसी प्रदेशमें लोक- प्रसिद्ध प्रभास-पट्टनका सोमनाथ मन्दिर है ।" सोरठ देश (सौराष्ट्र) हिन्दुओंके लिए सदा ही आकर्षक रहा है। उनके लिए यह देश भूमिपर स्वर्गके समान है। यहां निर्मल-नीर - बाहिनी नदियाँ हैं, प्रसिद्ध (जाति) घोड़े मिलते हैं और यहांको रमणियां सुन्दरता के लिए प्रसिद्ध हैं । किन्तु इन सबसे ऊपर यह पवित्र स्थान है क्योंकि जैनियों के लिए यह तीर्थंकर आदिनाथ और अरिष्टनेमि (कृष्ण के चचेरे भाई) की भूमि है और हिन्दुओं के लिए महादेव और श्रीकृष्ण का देश है। सोमनाथ पट्टन - जिस नगर में खोमनाथमन्दिर है उसे पटन, पट्टन पाटन प्रभासपट्टन, देवपट्टन, सोमनाथ पट्टन, रेहवास पट्टन, शिव पट्टन और सोरठी-सोमनाथ भी कहते हैं । इस अति प्राचीन नगर में अतीत गौरव के अनेकों चिह्न मिलते हैं यहां उजड़े हुए प्राचीन सोमनाथमन्दिर और आधुनिक सोमनाथ मन्दिरके अतिरिक्त अन्य भग्नावशेषोंमें जामा मस्जिद भी है। यह मस्जिद एक प्राचीन विशाल सूर्य मन्दिरको जो इसी स्थानपर पहले था, नष्ट कर. मन्दिर के सामान से बनाई गई है। इसी जामा मस्जिदके थोड़ी दूर उत्तर में पार्श्वनाथ (जैन तीर्थंकर) का एक बहुत पुराना मन्दिर था जो आजकल एक रहनेके मकानके रूपमें व्यवहृत होरहा है। इस नगरके पश्चिम में ( पट्टन और बेराबलके बीच में ) माइपुरी मसजिद है जो कि एक मन्दिरको मसजिद के रूप में रूपांतरित कर दी गई प्रतीत होती है। यहां भाटकुण्ड भी है जहां, कहा जाता है, भगवान श्रीकृष्णने शरीर छोड़ा था। इस नगर के पूर्व की ओर तीन सुन्दर सरिताओंका त्रिवेणी सङ्गम है, जो भगवान श्रीकृष्ण के शरीरका दाह-संस्कार: स्थान होने के कारण पवित्र है यह सारा स्थान भगवान श्रीकृष्णकी लीलाओंसे सम्बन्धित है । इस स्थानको "वैराग्य क्षेत्र' कहते हैं, क्योंकि यहां पर श्रीकृष्णकी रुक्मणी श्रादि महा रानियां सती हुई थीं। यहां एक गोपी तालाब है, जिसकी मृत्तिकाका रामानन्दी वैरागी, और दूसरे वैष्णव भक्त मस्तकपर लगाते हैं और इस मृत्तिकाको गोपी- चन्दन कहते हैं । गिरनार पर्वतसे ४० मील दक्षिणकी ओर सोमनाथका प्राचीन मन्दिर समुद्र के पूर्वी कोनेपर अब तक स्थित है । इस मन्दिरकी दीवारोंके कोई चिन्ह नहीं मिलते मन्दिरकी नींव के आस-पास की भूमिको समुद्रकी तरङ्गोंसे बचाने के लिये एक सुदृढ़ दीवार बनी हुई है। दीवारोंकी खाली जगहको पत्थरोंसे भर कर मसजिद बना ली गई है। वर्तमान मन्दिरका जो वशिष्ठांश है वह मूलत: गुजरात के महाराज कुमारपाल द्वारा निर्मित किये गये मन्दिरका है । जिसका निर्माण सन् १९६८ में हुवा था । सोमनाथ मन्दिर [ वर्ष पश्चिमी भारत के मन्दिरोंमें, जिनकी संख्या अगति है, हिन्दू धर्म के समस्त इतिहास में काठियावाड़ दक्षिणी सागर तटपर स्थित भेरावल बन्दर के निकट सोमनाथ पट्टनका सोमनाथ मन्दिर सर्वे - प्रसिद्ध है । यह सर्व भारतमें प्रसिद्ध १२ ज्योतिलिङ्गों में से प्रथम है । और न ही किसी अन्य मन्दिरका इतिहास इतना प्राचीन है जितना कि सोमनाथका ! अनेकों ही बार इसकी दीवारोंने युद्ध के परिणामको देखा, और कितनी ही बार पिशाची आक्रमणकारियों द्वारा यह ने पीठ मोड़ी त्यों ही एक अमर प्राणीकी तरह इसकी मन्दिर धराशायी कर दिया गया, परन्तु ज्यों ही शत्रुश्राकाशमें फहराने लगी, और घण्टा शङ्खों और डमरू दीवारें फिर खड़ी हो गई । शङ्करको ध्वजा फिर के शब्दसे शिव की पूजा आरम्भ होती गई । इतिहास में सोमनाथका मन्दिर मुख्यत: महमूद * १२ ज्योतिर्लिङ्गों के नाम - श्री शैल (तिलङ्गना) का मल्लिका 'जुन, उज्जैनका महाकाल, देवगढ़ (विहार) का वैद्यनाथ, रामेश्वरम् (दक्षिणभारत) का रामेश्वर, भीमानदी के मुहानेपर भीम शङ्कर, नासिकका त्रयम्बकं, हिमालयका केदारनाथ, बनारस के विश्वश्वर, गौतम (अज्ञात) For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २ । सोमनाथका मन्दिर ग़ज़नवीके सन् १०२५ के हमले के कारण बहुत प्रसिद्ध शिखरपर चौदह सुवर्ण कलश थे जो सूर्य प्रकाशमें है। इसलाम धर्मकी कुत्सित शिक्षाके प्रभावसे महमूद जगमग २ करते थे और दूरसे दिखाई पड़ते थे। राज नवीने मूर्ति-पूजाको मिटानेका मूर्खता-पूर्ण दृढ विशाल शिवलिङ्गपर शृङ्गारके लिये बहुतसे रत्नसङ्कल्प किया। और हिन्दु मन्दिरोंमेंसे प्रचुर धनराशि जटित आभूषण रहते थे। के उपलब्ध होनेके जघन्य लालचने इसको बिलकुल महमूदका आक्रमणअन्धा बना दिया। प्राचीन मुसलमान लेखकोंने इस मन्दिर के संबन्ध सोमनाथके मन्दिरका धारावाहिक इतिहास अभी तक सन्तोषप्रद नहीं लिखा गया है। इस मन्दिरको र । में बहुत कुछ लिखा है। उन लेखोंके आधारपर, जिनको अंग्रेज इतिहास-वेत्ताओंने संशोधित किया, स्थापना और ख्याति शायद बल्लभी राजाओंके । समयसे हुई है (सन ४८० से सन् ७६४ तक)। - यह सारा लेख लिखा गया है। * इस मन्दिरके दर्शनार्थ दूर २ से हिन्दु यात्री पाते थे। जूनागढ़में मक्काका एक फकीर रहता था जिसका इस मन्दिर के निर्वाहके लिये १०,००० ग्राम बल्लभी " नाम मंगलूरी शाह था (जिसे हाजी महमूद भी कहते ' थे।) इसी फ़कीरने बार बार महमूदको सूचना दी और अन्य राजाओंद्वारा दान दिये गये थे। और कि सोमनाथके मन्दिर में अथाह धन राशि है, और उस समय इस मन्दिर में इतनी प्रचुर रत्न राशि थी यहाँकी मूर्ति इस्लाम धर्मको चुनौती है। महमूद कि किसी भी बड़ेसे बड़े राजाके पास उसका दशांश ग़ज़नवीको इसी फ़क़ीरने इस मन्दिरके विषयमें भी नहीं था। आवश्यक सब सूचनाएँ दीं। सोमनाथकी सेवाके लिये २००० ब्राह्मण नियुक्त · धनकी लालसासे प्रेरित होकर, महमूद ग़ज़नवी थे। इस मन्दिरके भीतर २०० मन सोनेकी जन्जोर सोमनाथ मन्दिरपर आक्रमण करनेका निश्चय से एक विशाल घड़ाबल लटकती थी, जिसको निश्चित किया और १२ अक्तूबर सन् १०२५ में महमूद समयोंपर बजाकर भक्तोंको पूजाके लिये आह्वान ग़ज़नवी ग़ज़नी (अफगानिस्तात स्थित) से ३०,००० किया जाता था। यात्रियोंके मुण्डनादिके लिये इस मन्दिर में ३०० क्षौरकार (नाई) थे। ५०० नर्तकियां, चुने हुवे तुर्क नौजवान घुड़सवारोंको हथियारोंसे पूरा और ३५० सङ्गीत विशारद और सुनिपुण बाद्यकार सुसज्जित करके मुलतानकी ओर रवाना हुआ, और देव-सेवाके लिये नियुक्त थे जिनका निर्वाह पूजाके मध्य नवम्बर में मुलतान पहुंचा। मुलतानमें जब उसे निमित्त अर्पित गांवों और राजागण तथा यात्रियोंके मालूम हुआ कि मुलतान और सोमनाथके बीच में एक विस्तीर्ण निर्जल तण रहित मरुभमि है, तो उसने दानपर आधारित था। यद्यपि सोमनाथसे श्रीगङ्गाजी १२०० मील दूर रही हैं, तथापि अभिषेकके लिये ___ हर सवारके साथ दो दो ऊंट पानीसे लदे हुवे लगा दिये। और उनके अतिरिक्त २०,००० ऊंटोंपर नित्य गङ्गाजल लाने के लिये यात्री नियुक्त थे। महमूद खाद्य पदार्थ और पानी लेकर सोमनाथकी ओर बढ़ा। द्वारा ध्वस्त सोमनाथका यह मन्दिर ईंट और काष्ठका __ मागेमें मुढेर या मुढेरा पड़ा जहां २०,००० बना हुआ था, जैसी कि उस समय गुजरातकी प्राचीन हिन्दुओंने महमूदको आगे बढ़नेसे रोकने के लिये मन्दिर-निर्माण प्रणाली थी। कठिन युद्ध किया, पर महमूदको रोक न सके। ___ इस मन्दिर में ५६ सागवानके विशाल स्तम्भ थे जिनपर होरा माणिक पन्नादि रत्न जड़े हुवे थे। ये जब वह अजमेर पहुंचा तो वहांके लोगोंने इसका स्तम्भ भारतके विविध राजाओं द्वारा निर्मित किये सामना नहीं किया तो भी महमूदने कत्लेआम, लूट, गये थे और उनके नाम उन उन स्तम्भोंपर अङ्कित * देखो, (१) इवनी इ-असीर (सन् ११२१, (२) मीर थे। यह मन्दिर तेरह मञ्जिल ऊँचा था. और इसके खौडका रौजत उस्सफा (सन् १४६४)। For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वह स्त्री-बच्चोंको कैद करनेका हुक्म दिया, और उनकी इसपर उसके उमरावोंने महमूदको सलाह दी कि एक देव मूर्तियोंको खण्डित किया। और आगे बढ़कर मूर्तिको तोड़कर सोमनाथकी दीवारोंसे मूर्ति-पूजा भूवारा (नहेर वाला अनिहलवाड़ पट्टन) पहुंचा। विलुप्त नहीं की जा सकती। अत: मूर्तिको तोड़नेसे उस समय वहांके राजा भीमदेव प्रथम थे। वहां पर कोई लाभ नहीं होगा। पर इतना प्रचुर धन मिलनेसे महमूदने अपना अड्डा बनाया। यहांसे आगे बढ़ते मुसलमानोंको खैरात देकर सवाब हासिल किया जा हुवे और मागेमें पड़ने वाले मन्दिरों और मूर्तियोंको सकता है। इसपर महमूदने कहा कि बात तो कुछ नष्ट करते हुवे, और लूट पाट करते हुवे वह सोमनाथ ठीक है, पर वह इतिहासमें "बुतशकुन' कहलाना के निकट बृहस्पतिवार, ६ जनवरी सन् १००६ को चाहता है, "बुतफरोश" नहीं कहलाना चाहता, और पहुंचा । सोमनाथमें उसने एक सुदृढ़दुर्गे देखा जिसकी मूर्तिको भङ्ग कर दिया। प्राचीरके मस्तक तक समुद्र तरङ्गे उछलती थीं। . मूर्ति भङ्ग करते ही पोले लिङ्गमें से होरे, मोती, ___हिन्दु, दर्शकोंकी नाई, दुर्गप्रवरपर चढ़कर पन्नादिकी ढेर रत्न राशि निकल पड़ी। मुसलमानी फौजको देखने लगे कि किस तरह बावा इस मन्दिरसे जो धन राशि मिली उसका अनुमान सोमनाथ मुसलमानोंको नष्ट करते हैं । जैसी कि उनकी इसीसे लगाया जा सकता हैं कि लूटका कुछ माल धारणा थी। मुसलमानी फौजने दुर्गकी प्रचीरोंपर उमरावों और सैनिकोंमें वितरण किया गया। जिसका भयङ्कर तीर वर्षा की, और "अल्लाह-हो-अकबर" का पांचवां हिस्सा महमृदको मिला जिसकी कीमत दो नारा लगाते हुवे किलेकी दीवारोंपर चढ़ गये। करोड़ दीनार थी। महमूदकी सोनेकी दीनारका वजन आक्रमण होते ही हिन्दुओंने मृत्युको हथेलीपर रखकर ६४८ ग्रेन था। उस परिमाणसे उसका मूल्य एक घोर युद्ध किया, और शत्रके दांत खट्टे कर दिये। करोड़ पांच लाख पाउंड होता है अर्थात् १५ करोड़ सारे दिनके घमासान युद्ध के बाद हिन्दुोंने मुसल- ७५ लाख रुपये हुवे। (देखो "The life and मानोंको भगा दिया, और मुसलमान आतताइयोंने Times of Sultan Mahmud of Ghazni' अपने शिविरोंमें शरण ली। दूसरे दिन मुसलमान ने by Mohamed Nazim, Cambridge 1931, जबरदस्त धावा किया, और हजारों हिन्दुओंको काट Page 118 ) यहां पाउड १५) रुपयेका गिना गया कर मन्दिर में घुस गये, फिर भी हिन्दू योद्धाओंने रात है और सोना २४) रुपये तोला लगाया गया है। होने तक दुश्मनका जोरोंसे मुकाबिला किया। जो अलबरूनी इतिहासकारने (सन् १०३०) में लिखा हिन्दु नोकाओंमें चढ़कर प्राणरक्षाके लिये समुद्रपथसे है कि महमूदने लिङ्गके ऊपरके भागको तोड़ दिया रवाना हुवे, उन्हें महमूदने अपनी सेना द्वारा कत्ल और बाकीका हिस्सा अपने नगर राज़ नीमें ले गया। कराकर अथवा समुद्र निमग्न करा कर, अपना कुत्सित और वहां ग़ज़नीकी जामा मसजिदके द्वारपर लगवा कार्य सफल किया। इस मन्दिरके समीप ५०,००० दिया, ताकि मुसलमान नमाजी मसजिद में घुसनेसे हिन्दुओंने अपने आराध्य देवकी रक्षामें प्राण दिये। पहले अपने पांवकी धूलि उमसे पोंछ सकें। ____७ जनवरी सन् १०२६ को जब महमूद मन्दिरके साथ ही महमूद सोमनाथ-मन्दिरकी चन्दनअन्दर पहुंचा तो वहां पांच गज़ ऊंचा शिवलिङ्ग निर्मित दरवाजोंको जोड़ियां भी उखाड़कर ले गया। देखा, जिसका दो गज भाग भूमिमें था और तीन पाठकों को मालूम होगा कि आठ शताब्दी बाद लार्ड गज़ ऊपर था। जब इस लिङ्गको खण्डित करने के एजिंबराने जब अफग़ानिस्तानसे बदला लेने के लिये लिये हथोड़े उठाये गये तो ब्राह्मण पुजारियोंने महमूद पलटन भेजी, तो उसके जनरलको सोमनाथ मन्दिरके के साथियोंसे कहा कि यदि वे मूर्तिको खण्डित न करें दरवाजे गजनीसे भारत लौटा लानेका आदेश दिया तो बदले में करोड़ोंका सोना दिया जा सकता है। था जिससे कि हिन्दु प्रसन्न हों। किन्तु वह जनरल For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २ । सोमनाथका मन्दिर महमूद ग़ज़ नबीके मकबरेपर लगे हुवे दरवाजोंको आक्रमण होते रहे। सन् १२६८ में देहलीके बादशाह ही सोमनाथके चन्दन-द्वार समझकर वृथा ही उखाड़ अल्लाउद्दीन खिलजीके सिपहसालार अलफखाँने इस लाया जो अब तक आगरेके किलेके एक कोने में पड़े हैं। मन्दिरको फिर धराशायी किया। लिङ्गको जड़से ___महमूद लूटका माल ले भागनेको जल्दीमें केवल इस आशयसे उखाड़ा कि नीचे दबा हुवा धन मिलेगा लिङ्ग तोड़ सका। इस अत्याचारसे हिन्दुओंमें रोष जैसाकि धन-लोलुप मन्दिर-ध्वसंक मुसलमानोंकी छा गया, और कई राजा, आबू के राजा परमर्दीदेवके रीति थी। उसने मन्दिरका नामो निशान मिटानेको नेतृत्वमें अरबली पहाड़ियों और कच्छकी रणके चेष्टा की। बीचसे जाने वाले मार्गको रोकने के लिये आगे बढे, राजा महीपाल देवने (१३०८-१३२५) फिर इस ताकि महमूदको रोक लिया जावे, किन्तु महमूद मन्दिरका निर्माण किया। सन १३१८ में सोमनाथ लड़ाईसे बचने के लिये दूसरे मार्गसे अर्थात् पश्चिमकी मन्दिरपर फिर मुसलमानोंका आक्रमण हुवा, और ओर कच्छ और सिन्धके बीचसे होता हुवा निकल मन्दिर नष्ट कर दिया गया, परन्तु राजा महीपालदेव भागा। वापसीमें सिन्ध नदीके किनारे मुलतानकी के सुपुत्र श्री खगार चतुर्थने (१३२५-५१ ) इस तरफ जाट इसकी सेनाके पिछले भागपर टूट पड़े मन्दिरको फिर निर्मित किया और सोमनाथ लिङ्गकी जिससे इसके बहुतसे सैनिक और घोड़े ऊंट मारे गये। प्रतिष्ठा की। महमूद २ अप्रेल सन् १०२६ में ग़ज़नी वापिस सन् १३६४ में गुजरातके शासक स्वधर्मत्यागी पहुंचा। मुजफ्फरखांने पड़ोसी हिन्दु राजाओंके विरुद्ध भयङ्कर ___ भागनेसे पहले कहते हैं, महमूदने मीठा-खां धार्मिक युद्ध (जहाद) छेड़ा, और सोमनाथके मंदिरको नामके अफसरको नियुक्त किया जिसने सोमनाथ फिर एकबार ध्वस्त किया और इसकी जगह मसजिद मन्दिरको पूर्णरूपसे नष्ट किया। परन्तु अनिहिलवाड़ बना दी । इतिहासकार फरिश्ता लिखता है कि पट्टनके महाराज भीमदेवने ( सन् १०२१-१०७३ ) मुजफ्फरखाने जितने मन्दिर तोड़े, उनकी जगह मीठा-खको मार भगाया और सोमनाथके मन्दिरका मसजिद बनाता गया। इस्लाम धर्म के प्रचार और पुनर्निर्माण किया। महाराज सिद्धराज (सन् १०६३- प्रसार के लिये मौलवियोंको नियुक्त किया, और इसीने ११४३) ने इसको भूषित और सुसज्जित किया और यहां पहली बार मन्दिरोंको मसजिदोंमें परिणत अन्तमें महाराज कुमारपालने सन् १९६८ में जैनाचार्य करने का काम शुरू किया था। श्री हेमचन्द्र सूरिके परामर्शानुसार ७२ लाख रुपये परन्तु हिन्दुओंने सोमनाथ मन्दिरको फिरसे बना. (जो कि उनके राज्यकी एक वर्षकी पूरी प्राय थी) लिया। इसके बाद सन् १४१३ में मुजफ्फरखांके लगाकर इस मन्दिरको सम्पूर्ण किया। कई इतिहास पोते अहमदशाहने, जो अहमदाबाद के अहमदशाही कारोका मत है कि यह नया मन्दिर पुराने मन्दिरकी वंशका संस्थापक था, जूनागढके राजापर आक्रमण जगहमें बना था। कई लेखक इसको कल्पना मानते कियाऔर सोमनाथके मन्दिरको नष्ट किया जहांसे हैं। उनका मत है कि सरस्वती नदीके महानेसे तीन उसे बहुमूल्य सम्पत्ति प्राप्त हुई। , और भीडिया मन्दिरसे प्रायः . गुजरातके शासक महमूद बेगरा (मुजफ्फर२०० गज दूरीपर जो भग्नावशेष हैं, वहींपर सोमनाथ द्वितीय) ने भी सोमनाथ मन्दिर के अवशेषोंपर आक्रका मूल मन्दिर था। मण किये। सन् १७०२-३ में जब औरङ्गजेब ८४ वर्षका हुवा अन्य अाक्रमण तो उसने अहमदाबादके अपने सूबेदार शुजातखांको महमूदके बाद भी इस मन्दिरपर मुसलमानों के फरमान भेजा कि उसके जीवित रहते रहते सोमनाथ For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्षे सदाके लिये बन्द हो जाय। मन्दिरको तुरन्त नष्ट किया जावे ताकि मूर्ति-पूजा चाहिये। बल एकतासे आता है, और धर्म एकताके लिये सहायक होता है। हमने अपनी लापरवाही मुसलमानोंके बार-बार आक्रमण, लूट और निर्बलता और फूटसे लगभग 800 वर्ष तक परतन्त्रता ध्वंसोंसे हिन्दुलोगहतोत्साह हो गये, और सोमनाथका की बेड़ियां पहनीं। आज कितने ही देश-भक्तोंके मन्दिर फिर अपने उस ऐश्वर्यको नहीं प्राप्त कर सका पुरुषार्थ और बलिदानोंके पश्चात् हम स्वतन्त्र हुए हैं। जो उसे कुमारपालके समय में प्राप्त था। स्वतन्त्रताको रक्षा करना हमारे हाथ है। . इन्दोरकी महारानी अहल्याबाईने प्राचीन सोमनाथ सोमनाथ मन्दिरके निर्माणके विषयको लेकर मन्दिरके स्थानको छोड़कर नये स्थानपर अन्तिम गनीट्रेड्स एसोसिएशन कलकत्ताके हिन्दु सदस्योंकी सोमनाथका मन्दिर बनवाया जो आजकल भी अपनी तथा अन्य हेसियन बोरेके कार बार करनेवालोंकी जीर्ण-शीण अवस्था में उपस्थित है। एक सभा गत सप्ताह में हई। उस सभामें श्रीयुक्त सोमनाथ मन्दिरका नव-निर्माण हो माधोप्रसादजी बिड़ला, केसरदेवजी जालान, भागीरथ बहुत दिनोंसे हिन्दुओंकी यह एकान्त कामना रही जी कानोडिया देवीप्रसादजी गोयनका छोटेलालजी कि किसी तरह सोमनाथ मन्दिरका निर्माण हो। कानोडिया रामसहायमलजी मोर मनसुखरायजी मोर ईस्ट इण्डिया कम्पनीके समय लार्ड एलिनबराके गिरधारीलालजी मेहता, विलासरायजी भिवानीवाले, शासनकाल में सोमनाथ मन्दिर के बनानेकी चर्चा उठी केसरदेवजी कानोडिया, तुलसीदासजी, जयलालजी थी पर उसमें सफलता नहीं हो सकी। जूनागढ़के वेरीवाले आदि अनेकों बोरेके कारोबारसे सम्बन्ध मुसलमान नवाबोंने इसका सदैव विरोध किया रखनेवाले महानुभाव उपस्थित थे। यही नहीं 'देहोत्सर्ग' "वैराग्य क्षेत्र" आदि पावन . श्रायुक्त श्रीयुक्त भागीरथजी कानोडियाने सोमनाथ मंदिर स्थानोंकी हिन्दुओं द्वारा देख रेख भी मुसलमान के नव-निर्माणके बारे में सभाके सामने अपने विचार नवाबोंके लिये असह्य हुई, और वहां पूजा करनेकी रखे। उन्होंने बतलाया कि रविवार 4 जनवरीको सख्त मनाई कर दी गई यहां तक कि उसके आस-पास सरदार पटेलने पाट, बोरा, कपड़ा, कागज, चीनी, की भूमिमें मुर्दा गाढ़कर उसे अपवित्र भी करने लगे। सीमेंट आदिके विभिन्न व्यापारिक प्रतिनिधियोंसे जब भारत स्वतन्त्र हुवा तो जूनागढकी प्रजाको बिरला पाक में भेंट की, और उनको जूनागढ़स्थित सुप्त प्रतिक्रिया नवाबके विरुद्ध अति उग्र हो उठी। सोमनाथ मन्दिर के नव-निर्माणके लिये सहायता और जब वहांका मुसलमान नवाब जनताकी इच्छाके करनेका परामर्श दिया। श्री भागीरथजी कनोडियाने विरुद्ध पाकिस्तानसे मिल गया, तो वहांके लोगोंने बतलाया कि अन्य व्यापारवालोंने सरदार पटेलको सशस्त्र स्वतन्त्रता संग्राम प्रारम्भ किया और नवाबको सोमनाथ मन्दिरके लिये धन एकत्रित करनेका आश्वादुर्धर्ष जनसङ्घकी सामूहिक शक्तिके सामने पलायन सन दिया है अत: बोरेके व्यापारसे सम्बन्ध रखने करना पड़ा। वाले सभी सज्जनोंको सोमनाथ मन्दिरके निर्माणके अतः अब समय आ गया है कि हम लिये दान देना चाहिये; क्योंकि सोमनाथ मन्दिर लोग सोमनाथ मन्दिरके अतीत गौरवको पुनः सभी हिन्दुओंका है, उन्होंने यह भी कहा कि सोम नाथके पतनके साथ हिन्दुओंको स्वतन्त्रता-हासका लौटाएं। इतिहास भी निहित है। अब भारत स्वतन्त्र हुआ है, अब हिन्दुओंको अपने छिने हुए धर्मस्थानोंको अत: सोमनाथका जीर्णोद्धार अवश्य होना चाहिये। वापिस लेना चाहिये। दुर्बलताका समय चला गया सभी उपस्थित सज्जनोंने इस कथनका सहर्ष अनुमोअब भारत स्वतन्त्र है, और भारतको बलवान बनना दन किया। For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] अद्भुत बन्धन ७१ फिर श्री माधोप्रसादजी बिड़लाने अपने उन बोरे बाजारके दलालोंकी भी एक अलग सोममित्रों के नामोंका उल्लेख किया, जिनसे सहायताके नाथ-मन्दिर-कोष-सबकमेटी बनाई गई जिसमें निम्न वचन उन्होंने प्राप्त कर लिये हैं और उपस्थित सज्जनों लिखित सदस्योंके नाम हैं-श्रीयुत परमेश्वरीलालजी से चन्दा लिखवाने की अपील की। १॥ डेढ़ लाख गुप्ता, जानकीदासजी बेरीवाला, बद्रीप्रसादजी परसरुपयेसे अधिककी सहायता सोमनाथ मन्दिर-कोषके रामपुरिया, बनारसीलालजी फमारनिया, हरिकिसन लिये हेशियन बोराके व्यापारियोंसे प्राप्त हो चुकी है। जी आचार्य। इस सब-कमेटीको भी अन्य सदस्य चन्दा लिखाने के लिये एक सोमनाथ मन्दिर-कोष- लेनेका अधिकार है। समिति भी बनाई गई जिसमें निम्नलिखित सदस्योंके हमें पूर्ण विश्वास है कि सभी हिन्दु भाई इस नाम हैं-श्रीयुत माधोप्रसादजी बिड़ला, केसरदेवजी कोषमें प्रचुर सहायता प्रदानकर् अखण्ड-हिन्दु-जाति जालान, देवीप्रसादजी गोयनका, छोटेलालजी कानो- (राष्ट्र) को सुदृढ़ बनायेंगे। ड़िया, रामसहायमलजी मोर, जयलालजी बेरीवाला, अन्तमें हम श्री बिडला बन्धओंको धन्यवाद देते भागीरथजी कनोडिया, बिलासरायजी भिवानीवाला, हैं कि इस हिन्दु जागरणके कायमें वे सबसे आगे छोटेलाल जी सरावगी। इस सब कमेटीको अन्य आकर इस फण्डकी सफलताके लिये तन, मन, धनसे सदस्य लेनेका अधिकार है। . पूर्ण प्रयत्नशील हुये हैं। अद्भुत बन्धन ! बता बता रे ! बन्दी ! मुझको, बता ! बनाई किसने तेरी, बांधा किसने आज तुझे ? . यह अटूट अति दृढ बेड़ी ? बोला-"मेरे स्वामीने ही, बोला बंदी-"बड़े यत्नसे, ____ कसकर बांधा आज मुझे ॥ . इसको मैंने स्वयं घड़ी ।। सोचा था धन-बल ही से मैं, सोचा था करलेगा बन्दी, .. लाङ्घ सकू सारा संसार । . जगको मेरा प्रबल प्रताप । और धरा धन निजी कोष वह, सदा भरूंगा शान्ति-सहित मैं, था जिसपर नृपका अधिकार ॥ एकाकी स्वाधीनालाप ॥ निद्राके हो वशीभूत मैं, अत: रात दिन अथक परिश्रम, लेट गया उस शय्यापर । करनेका सब भार लिया। जो मेरे मालिकको प्यारी भट्टी और हथोड़ों द्वारा, . थी मनहर अति ही सुन्दर । बेड़ीको तैयार किया । बात हुई मुझको सब बातें, कडियां पूर्ण अटूट हुई सब, जब निद्रासे जाग चुका। .. सभी कार्य सम्पूर्ण हुआ। हा! मैं बन्दी बना हुआ हूं, ज्ञात हुआ इनहीने मुझको, अपने ही कोशालयका ॥" हा ! बन्धनमें बांध लिया। [ रचयिता-रवीन्द्रनाथ ठाकुर, अनुवादक-अनूपचन्द जैन न्यायतीर्थ ] For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा-कहानी करनीका फल [ लेखक:- अयोध्याप्रसाद गोयलीय ] [“अनेकान्त”के दूसरे और तीसरे वर्ष में इस स्तम्भके नीचे ऐतिहासिक, पौराणिक और मौखिक सुनी हुईं ऐ छोटी-छोटी शिक्षाप्रद और मनोरञ्जक कहानियां दी जाती रही हैं, जो प्रवचनों में उदाहरणका काम दे सकें । इस तरह की छोटी-छोटी लाखों कहानियां लोगोंके हृदयों में बिखरी पड़ी हैं, जो अक्सर हमारे घरोंमें सुनाई जाती हैं और सीने बसी 'चली आ रही हैं । परन्तु कागजों में लिखी नहीं मिलती। ये कहानियां हमारे देश की अमूल्य निधि हैं । ये कल्पित उपन्या और कहानियोंसे अधिक रोचक और हृदयस्पर्शिनी होती हैं। ऐसी छोटी-छोटी कहानियां भेजने वालोंका अनेकान्त स्वागत करेगा । कहानियोंकी आत्मा चाहे ऐतिहासिक या पौराणिक हो अथवा सुनी सुनाई हो, परन्तु उसकी भाषाका परिधान स्वयं लेखकका होना चाहिए | नमूने के तौरपर हम एक कहानी दे रहे हैं, यद्यपि वह कुछ बड़ी होगई है, अगले अंकों में छोटी भी देने का यत्न किया जायगा । - गोयलीय ] बिलखतों को देखकर राशनिङ्ग अफसर बैठा रहता है। कुछ दिनों बाद गांव में प्लेगकी आधी आई तो उसमें उसका एकमात्र पौत्र भी लुढ़क गया । वृद्ध के धैर्यका बन्ध टूट गया, उसने अपना सर दीवार से दे मारा। नारदमुनि अकस्मात् उधर से निकले ते वृद्धको टकराते हुये देखकर उसी तरह खड़े हो गये जिस तरह अपहृत अबलाओं के धैर्य बन्धानेको नेत पहुंच जाते हैं। या आग और पानी में छटपटाते मनुष्यों को देखने न्यूज - रिपोर्टर रुक जाते हैं । क-एक करके श्राठ पुत्र-वधुओंके भरी जवानी में विधवा हो जानेपर भी वृद्धी खोंसू न याये । साम्यभावसे सब कुछ सहन करता रहा । अपने हाथों आग देकर इस तरह घर आ बैठा जिस तरह लार्ड वेवल बङ्गालके अकाल पीड़ितोंको एड़ियाँ रगड़ते-रगड़ते देखकर दिल्ली आ बैठते थे । गाँव के कुछ लोग उसके धैर्य की प्रशंसा उसी तरह करते, जिस तरह आज काश्मीर महाराजके साहसकी कर रहे हैं । कुछ लोग बज्र हृदय कहकर उसका उपहास करते । श्मशान में जिन्हें शीघ्र वैराग्य घेर लेता है और फिर घर आकर सांसारिक कार्यों में उसी तरह लिप्त हो जाते हैं, जिस तरह पं० नेहरू मुस्लि - मलीगी आक्रमणों को भूलकर व्यस्त हो जाते हैं । ऐसे लोग उन्हें जीवन्मुक्त और विदेह कहने से न चूकते और छिद्रान्वेषी उन्हें मनुष्य न मानकर पशु समझते । बात कुछ भी हो, एक-एक करके व्याहे - स्याहे लड़के दो वर्ष में उठ गये । उनकी स्त्रियोंके करुण - क्रन्दनसे पड़ोसियों को रुलाई आ जाती, पर वृद्ध खटोले पर चुपचाप उसी तरह बैठा रहता जैसे भूखसे - विपद् ग्रस्तको देखकर सूखी सहानुभूति प्रकट करने में लोगोंका बिगड़ता ही क्या है ? जो कल दहाड़ मारकर रोते देखे गये हैं, वे भी उपदेश देनेके इस सुनहरी अवसर से नहीं चूकते। फिर नारदमुनि तो आखिर नारदमुनि ठहरे ! जिस प्रकार आयेसमाजका मक्के में वैदिक धर्मका झण्डा फहरानेका अधिकार सुरक्षित है या हसननिज़ामीको सात करोड़ हरिजनोंको मुस्लिम बनानेके हकूक हासिल हैं । ऐसे ही कर्तव्यभार के नाते कण्ठमें मिसरी घोलते हुये नारदमुनि बोले "बाबा ! धैर्य रखो, रोने से क्या लाभ ?" वृद्ध अजनबीसी आवाज सुनी तो अचकचा कर For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] देखा, तो पीताम्बर पहने और हाथ में वीणा लिये नारद दिखाई दिये । वृद्ध उन्हें साधारण भिक्षु समम कर भरे हुए कण्ठसे बोला - स्वामिन् धैर्य की भी कोई सीमा है। एक-एक करके आठ बेटोंको श्रागमें धर आया । अब ले देकर के घर में एक टिमटिमाता दीपक बचा था, सो आज वह भी करकाल आन्धीने ा दिया फिर भी धैर्य रखने को कहते हो, बाबा ! मेरे पास है ही कहां जो उसे रखूं, वह तो कालने पहले ही छीन लिया। मुझे अब बुढापेमें रोनेके सिवाय और काम भी क्या रह गया स्वामिन्! क्या सम्यग्दृष्टि पर्याप्त काल में स्त्री-वेदी हो सकता है सहनशक्ति से अधिक आपत्ति आनेपर आस्तिक भास्तिक बन जाते हैं । जो पर्वत सीना ताने हुए करारी बन्दोंके बार हँसते हुए सहते हैं, वे भी आग पड़ने पर पिघल उठते हैं । ज्वालामुखीसे सिहर उठते हैं । नारदको भय हुआ कि वृद्ध नास्तिक न हो जाय अत: बोले "तो क्या तुम अपने पौत्रकी मृत्युसे सचमुच दुखी हो ? वह तुम्हें पुन: दिखाई दे जाय तो क्या सुखी हो सकोगे ? वृद्ध निर्निमेष नेत्रोंसे नारदकी ओर उसी तरह ' देखा जिस तरह नङ्गी उघारी स्त्रियां लाईन में खड़ी श्री षट्खण्डागमके ६३ सूत्रपर 'संजद' पदके विषय में चर्चा चलते हुए एक यह विषय भी विवाद रूपमें आगया कि असंयत-सम्यग्दृष्टि अपर्याप्त कालमें स्त्री-वेदी हो सकता है या नहीं ? द्रव्य-स्त्री होना तो किसीको इष्ट नहीं है, केवल भाव-स्त्री या स्त्री वेदके उदयपर विवाद है । इस विषय में पं० फूलचन्द जीशास्त्री पं० दरबारीलालजी न्यायाचार्य यदि विद्वानोंने युक्ति ७३ कपड़े की दुकानकी ओर देखतीं हैं। वृद्धने अपने हृदयकी वेदनाको आंखों में व्यक्त करके अपनी अभिलाषाको उसो मौन भाषामें प्रकट कर दिया जिस भाषामें बङ्ग - महिलाओंने सतीत्व - लुटने की व्यथाको महात्मा गान्धोपर जाहिर किया था । नारदकी मायासे क्षितिजपर पौत्र दिखाई दिया तो वृद्ध विह्वल होकर उसी तरह लपका जैसे सिनेमा शौक़ीन टिकट घरकी ओर लपकते हैं। "अरे मेरे लाल, तू कहां चला गया था" ? "अरे दुष्ट तू मेरे शरीरको छूकर अपवित्र न कर पूर्व जन्म में तूने और तेरे आठ पुत्रोंने जिन लोगोंको यन्त्रणाएँ पहुंचाई थीं । ऐश्वर्य और अधिकारके मदमें जिन्हें तूने मिट्टी में मिला दिया था। वे ही निरीह प्राणी तेरे पुत्र और पौत्र रूपमें जन्मे थे । ये रुदन करती हुई तेरी आठों पुत्र वधू तेरे पूर्व जन्म के पुत्र हैं, जिन्होंने न जाने कितनी विधवाओंका सतीत्व हरण किया था" । स्वर्गीय आत्मा विलीन हो गई । वृद्ध के चेहरेपर स्याही-सी पुस गई। नारदबाबा वीणा पर गुनगुनाते चले गये क्या सम्यग्दृष्टि पर्याप्तकाल में स्त्रीवेदी हो सकता है ? [लेखक - बाबू रतनचन्द जैन, मुख्तौर अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् । भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, ३ फरवरी १६४८ तथा आगम प्रमाण द्वारा यह सिद्ध कर दिया है कि असंयत सम्यग्दृष्टिके अपर्याप्त कालमें स्त्रीवेदका उदय नहीं होता, यहां पटखंडागमके तृतीयखंड बंध-वामित्वविवयको श्री वीरसेन स्वामि-कृत धवला टीका से स्पष्ट है । १. पत्र १३० सूत्र ७५ में कहा है- मनुष्यगतिमें मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, एवं मनुष्यनियोंमें तीर्थंकर For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ वर्ष प्रकृति तक के समान जानना चाहिये । विशेषता दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इतनी है कि द्विस्थानिक और अप्रत्याख्यानावरणीयकी कहे हैं (सूत्र १४४ व १४५ पत्र २०५ व २०६) । यहां प्ररूपणा पञ्चद्रिय तिर्यंचोंके समान है। इस सूत्रकी टीकामें श्री वीरसेन स्वामीने स्वोदय - परोदय बन्ध टीका में पत्र १३१ पर श्री वीरसेन स्वामीने जहां भेद बताते हुए पत्र २०७, पंक्ति १६-२० में पुरुषवेदका बंध है उसे बताया लिखा है कि मिध्यादृष्टिमें ५३, सासादन असंयत् सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में स्वोदयसे कहा है, ४८, सम्य मिध्यादृष्टिमें ४२ और असंयतसम्यम्- परोदय से नहीं । इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि दृष्टि गुणस्थान में ४४ प्रत्यय होते हैं; क्योंकि यहां असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में मनुष्य व तिर्यंचों के वैक्रियिक व वैक्रियिकमिश्र प्रत्यय नहीं होते मनुष्यअपर्याप्त कलमें केवल पुरुषवेदका ही उदय होता है । नियोंमें इसी प्रकार प्रत्यय होते हैं। विशेष इतना स्त्री या नपुंसक वेदका उदय नहीं रहता । यदि स्त्री या नपुंसक वेदका उदय भी सम्यग्दृष्टि के अपर्याप्तकाल में है कि सब गुणस्थानों में पुरुष व नपुंसक वेद, होता तो पुरुषवेदका बन्ध स्वोदय न कह कर स्त्रोदयअसंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में औदारिकमिश्र व परोदय कहते। जिस प्रकार मिध्यादृष्टि व सासादनकार्मण, तथा अप्रमत्तगुणस्थाननें आहारक द्विक सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें कहा है। अतः जिसके औदारिक प्रत्यय नहीं होते । प्रकट है कि प्रत्यय (आस्रवके मिश्रकाय योग में सम्यक्त्व होगा उसके स्त्री वेद नहीं होगा । कारण) मूल में चार और उत्तर सत्तावन होते है । इन में से कौन २ और कितने प्रत्यय किस २ गुणस्थान में होते हैं, यह सब पत्र २० से २७ तक टीकाकारने कथन किया है। यहां पर इस कथनसे कि मनुष्यनियों में सब गुणस्थानमें पुरुषं व नपुंसक वेद और अप्रमत्तगुणस्थानमें आहारद्विक प्रत्यय नहीं होते, स्पष्ट हो जाता है कि गतिमा में मनुष्यनी शब्द से आशय भाव स्त्री का है, द्रव्य-स्त्रीका नहीं । यदि द्रव्यस्त्रीका श्राशय होता तो मनुष्यनी में अप्रमत्त गुणस्थानको न कहते और पुरुष व नपुंसकवेदका अभाव भी नहीं कहते, क्योंकि द्रव्य - स्त्रीके अप्रमत्तगुणस्थान संभव नहीं और वेद विषमता में पुरुष व नपुंसक प्रत्यय हो सकते हैं | यहांपर मनुष्यनियों में पर्याप्त व अपर्याप्त अवस्था का भी विचार किया गया है; क्योंकि औदारिकमिश्र व कार्मण प्रत्ययोंका कथन है जो केवल अपर्याप्त काल में हो होते हैं । मनुष्यनियोंके असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में औदारिकमिश्र व कार्मण प्रत्यय नहीं होते । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य नियोंके अपर्याप्त कालमें सम्यक्त्व नहीं होता । ७४ अनेकान्त २. योग मार्गणानुसार औदारिकमिश्रकाययोगियों में पांच ज्ञानावरणीय आदि प्रकृतियोंके बन्धक मिथ्या बताते हुए पंक्ति २५ में असंयतसम्यग्दृष्टिके बत्तीस ३. पत्र २०८ में औदारिकमिश्रकाययोगके प्रत्यय प्रत्यय होते हैं । चूँकि असंयतसम्यग्दृष्टियों में स्त्री और नपुंसक वेदों के साथ बारह योगोंका अभाव है । इससे भी यह सिद्ध होता कि है मनुष्य व तियेंचों के अपर्याप्त कालमें असंयत सम्यग्दृष्टिगुणस्थान में स्त्री वेदका उदय नहीं होता । ४. पत्र २३५ पर काम काययोगियोंमें प्रत्यय बताते हुए पंक्ति १८ में यह कहा है कि अनन्तानुबन्धि चतुष्क और स्त्रीवेदको कम करनेपर असंयतसम्यम्दृष्टियों के तेतीस प्रत्यय होते हैं। यहांपर नपुंसक वेद को कम नहीं किया है; क्योंकि जो सम्यग्दृष्टि मर कर नरक में जा रहा है उसके नपुंसकवेदका सद्भाव कालमें स्त्री वेदका उदय किसी भी गतिमें संभव नहीं पाया जाता है । परन्तु असंयत सम्यग्दृष्टिके अपर्याप्त ५. योग मार्गणानुसार स्त्रीवेदीके प्रत्यय बताते हुए पत्र २४४ पंक्ति २१-२३ में लिखा है कि असंयत सम्यग्दृष्टियों में औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कामंणकाय योग प्रत्ययोंको कम करना चाहिए: क्योंकि स्त्री - वेदियों में असंयतसम्यग्दृष्टियों के अपर्याप्त For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २ ] कालका अभाव है। यहांपर तो श्री वीरसेन स्वामीने स्वयं इस विषयको विलकुल स्पष्ट कर दिया है । ६. आहार मार्गणानुसार अनाहारक जीवोंके द्विस्थान प्रकृतियों ( वह कर्मप्रकृतियां जो केवल पहले और दूसरे गुणस्थान में बंधती हैं और जिनकी बन्ध व्युच्छित्ति दूसरे गुणस्थान में होती है) की प्ररू सल का भाग्योदय स ल सोमवंशसे संबद्ध यदुकुलका .. था । यह उत्तर से आकर शशकपुर वर्तमान मैसूर राज्यान्तर्गत मृडुगेरे तालुक में अवस्थित डिमें रह रहा था। उस समय अङ्गडि एक छोटासा ग्राम था। उसके चारों ओर भयङ्कर जङ्गल था । सल महा-शूर एवं व्यवहार चतुर था। फलत: वह अङ्गडि का रक्षक बनकर जङ्गलसे गांव में आ, हानि पहुंचाने - वाले जङ्गली जानवरोंसे गांववालों की रक्षा करने ये इसे गांववाले प्रतिवर्ष अनाज के रूप में कुछ कर देने लगे । इस प्रकार थोड़े समय के बाद सलके पास काफी अनाज एकत्रित हुआ । तब अपने गांवकी रक्षाके 1. लिये इसने एक छोटीसी सेना तैयार की। सल जैन धर्मावलम्बी था । इसके श्रद्धेय गुरु सुदत्त यति थे +। सलको गुरुदेवपर असीम भक्ति थी। एक दिन सल का भाग्योदय * [ ले० - विद्याभूषण पं० के० भुजबली शास्त्री, मूडबिद्री ] * ‘Epigraphia carnatica' के आधार पर + डा० सालेतोर सागर कट्टे एवं हुं बुचके शिलालेखोंके आधारपर इन सुदत्त यतिका पर नाम वर्धमान योगीन्द्र बताते हैं। [Mediaeval Jainism] पर वह यह नहीं बना सके कि सुदत्त यतिका नाम वर्धमान योगीन्द्र क्यों पड़ा। - पणा करते हुए पत्र ३६४ पंक्ति २७ में यह कहा है अनन्तानुबन्धि चतुष्कका बन्ध व उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं। इससे यह बात सिद्ध हो जाती है कि अनाहारक जीवों के अपर्याप्त कालमें दूसरे गुणस्थान से उपरिम गुणस्थानोंमें स्त्री वेदका उदय नहीं है। ७५ बात है कि स्थानीय वसन्तदेवीके मन्दिर में सल गुरुदेवसे धर्मोपदेश सुन रहा था इसी बीचमें सुदत्त यतिने दूरीपर एक बाघको खरगोशके पीछे दौड़ते हुए देखा । इतने में यति सोचने लगे कि यह दीन खरगोश अवश्य बाघका ग्रास बन जायगा, तत्क्षण ही यति महाराजने धर्म - श्रवणार्थ पास में बैठे हुए परम भक्त वीर शिरोमणि सलसे कहा कि अद पोय सल' अर्थात् 'सल, उसे मारो' । बस, गुरुजीका इतना कहना था कि सल हवाकी तरह दौड़कर बाघकी पीठपर चढ़, कटारीकी सहायता से उसे वश करके गुरुदेव के पादमूलमें ला पटका ÷ । शिष्य के इस अद्भुत शौर्यको देखकर गुरुजी बड़े प्रसन्न हुए । इस उपलक्ष में उत्तरोत्तर उन्नतिकी कांक्षासे ÷ एक शिलालेखसे स्पष्ट है कि सुदन्त, यतिने सलके शौर्य की परीक्षा करनेकेलिये ही यह घटना घटित की थी । दूसरे एक शिलालेखमें यह भी उपलब्ध है कि स्वयं पद्मा बती देवीने सिंहका रूप धारण करके सरदार सलकी परीक्षा करनेमें यति सुदत्तकी सहायता की थी। साथ ही साथ यह भी सिद्ध है कि यति महाराजने ही 'सिंह' सलका राजचिह्न नियत करके पोय-सल या होय्सल उसका विजयी नाम घोषित किया था । [ Epigraphia Carnatica' भाग ८ पृष्ठ ५ ] For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] यति महाराजने शिष्य सलको गम्भीर आशीर्वाद दिया । पीछे वह घाटोंमें छोटे छोटे नायकोंको जीतकर उस समूचे प्रान्तका शासक बना। उस जमाने में जनतामें धर्म-श्रद्धा विशेष थी । मुनिवर दत्त वहांकी जनता के लिये साक्षात् ईश्वर थे उनकी आज्ञा विना जनता कोई कार्य नहीं करती थी । सुदत्त यतिमें एक विलक्षण तेज एवं प्रभाव वर्तमान था । इसलिये एक शब्द भी उनके विरुद्ध बोलनेका साहस वहांकी जनतामें नहीं था । फलत: सलको हर प्रकारसे जनता से सहायता मिलती थी। धीरे धीरे सल अपनी सेनाको बढ़ाकर आस-पास के प्रान्तोंका भी नायक बना । अनेकान्त उस समय सल जिस देशमें था, वह चोल राजाओं के वशमें था । अपनी मातृभूमिको परतन्त्रता से मुक्त करानेके लिये सलने चालुक्योंकी सहायता प्राप्त कर अपने देशको स्वतन्त्र बनाया। बल्कि क्रमशः चोल वर्तमान समूचे मैसूरसे ही खदेड़ दिये गये । होयसल वंशने लगभग ६० वर्षतक राज्यशासन किया था। इस वंशकी राजधानी पहले वेलूर, और पीछे द्वार समुद्र रहा। इस लिये ये 'द्वारावतो पुरवराधीश्वर' कहलाते थे । निस्सन्देह होय्सलोंका समय जैनधर्म के हासका था। चोल राजाओंके द्वारा जैनराष्ट्र गंगवादिका अंत हो चुका था । वैष्णव और शैव आचार्योंने अपने चमत्कारोंसे शासक वर्गपर अपना अधिकार जमा लिया था । ऐसे विकट समय में जैन यतिको धर्मप्रभाकना और राष्ट्रोद्धारको सुध आना स्वाभाविक था । राष्ट्रीय जागृति के अभाव में धर्मोन्नतिका होना कठिन था । इसलिये सिंहनंद्याचार्यके अनुरूप ही श्री सुदत्त । वर्ष - यतिको होय्सल राज्यको स्थापना करना आवश्य प्रतीत हुआ । डा० भास्करानन्द सालेतोरने इस संबंध में निम्नप्रकार लिखा है 'होयसल राज्य जैनी बुद्धिकौशलको दूसरी श्रेष्ठ कृति था । अत: अहिंसा प्रधान जैनधर्मने विजयनगर साम्राज्य के उदय काल तक दो बार देशके राजनैतिक जीवनमें नव जागृतिका संचार किया । जैनाचार्योंने राज्य की सहायता पाने के लिये हो इन साम्राज्योंकी स्थापना नहीं की। क्योंकि दक्षिणमें जैनधर्मके केन्द्र पहले से विद्यमान थे और उनमें उच्च कोटिके विद्वान् मौजूद थे, जैसे भारत में विरले ही . हुए हैं । प्रत्युत उन्होंने राज्य स्थापना में सक्रिय भाग इसलिये लिया कि देश की राजनैतिक विचारधारा ठीक दिशा में बहे, और राष्ट्रीय जीवन उन्नत बने । भारतके इतिहास में जैनधर्मका महत्व इसी कारण है । होय्मल जैन राज्यसे ही विजयनगर के सम्राटोंको वह सन्देश मिला जिसने भारत के इतिहासमें एक नया गौरवपूर्ण अध्याय ही खोल दिया । इस वंशमें विनयादित्य, एरेयंग, विष्णुवर्धन + नारसिंह और बल्लाल द कई धर्मश्रद्धालु शासक हो गये हैं जिन्होंने अपने शासन काल में जैनधर्मकी काफी सेवा की थी। सकलचंद्र बालचन्द्र, अभयचन्द्र, रामचन्द्र, शान्तिदेव तथा गोपनन्दी आदि विद्वान् जैनाचार्य उपयुक्त शासकों के गुरु या प्रबल प्रेरक रहे । आज 'अनेकांत' के विज्ञ पाठकोंके समक्ष होयसल वंशका इतना ही परिचय दिया गया है। १- जिसके राग-द्वेष-मोह क्षीण हो गये हैं वह फकीर करोंपर जो सुख अनुभव करता है वह चक्रवर्ती भी अपनी पुष्पशैय्यापर नहीं अनुभव कर - ईसा सकता । * Mediaeval Jainism, PP. 59-60. + यद्यपि यह पीछे वैष्णव हो गया था, फिर भी अंत तक जैनधर्मपर इनकी सहानुभूति बनी रही । सद्विचार - मणियां २ - चक्रवर्तिको सम्पदा इन्द्रलोकके काकवीट सम गिनत हैं वीतरागके भोग । लोग ॥ — जैनवाङ्मय For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट नामके अनेक विद्वान हुए हैं। उनमें अष्टाङ्गहृदय नामक वैद्यक ग्रन्थके कर्ता वाग्भट सिंहगुप्तके पुत्र और सिन्धुदेशके निवासी थे । नेमिनिर्वाण काव्य के कर्ता वाग्भट प्राग्वाट या पोरवाड़वंशके भूषण तथा छाइड़के पुत्र थे । और वाग्भट्टालङ्कार नामक ग्रन्थके कर्ता वाग्भट सोमश्रेष्ठी के पुत्र थे । इनके अति रिक्त वाग्भट नामके एक चतुथ विद्वान और हुए हैं जिनका परिचय देनेके लिये ही यह लेख लिखा जाता है। का चतुर्थ वाग्भट्ट और उनकी कृतियां [ लेखक -- पण्डित परमानन्द जैन शास्त्री ] ये महाकवि वाग्भट नेर्मिकुमार के पुत्र थे; व्याकरण छन्द, अलङ्कार, काव्य, नाटक, चम्पू और साहित्य के मर्मज्ञ थे; कालीदास, दण्डी, और वामन आदि विद्वानोंके काव्य-ग्रन्थोंसे खूब परिचित थे, और अपने • समय के अखिल प्रज्ञालुओं में चूड़ामणि थे, तथा नूतन काव्य रचना करने में दक्ष थे । * इन्होंने अपने पिता कुमारको महान् विद्वान् धर्मात्मा और यशस्वी बतलाया है और लिखा है कि वे कौन्तेय कुलरूपी कमलोंको विकसित करने वाले अद्वितीय भास्कर थे । * नव्यानेकमहाप्रबन्धरचनाचातुर्यविस्फूर्जितस्फारोदारयशः प्रचारसततव्याकीर्णविश्वत्रयः । श्रीमन्न े मिकुमार-सूरिरखिलप्रज्ञालुचूड़ामणिः। काव्यानामनुशासनं वरमिदं चक्रे कविर्वाग्भटः ॥ छन्दोनुशासनको अन्तिम प्रशस्ति में भी इस पद्य के ऊपर के तीन चरण ज्योंके त्यों रूपसे पाये जाते हैं। सिर्फ चतुर्थ चरण बदला हुआ है, जो इस प्रकार है— 'छन्दः शास्त्रमिदं चकार सुधियामानन्दकृद्वाग्भटः । और सकलशास्त्रों में पारङ्गत तथा सम्पूर्ण लिपि भाषाओं से परिचित थे और उनकी कीर्ति समस्त - कुलोंके मान, सन्मान और दानसे लोकमें व्याप्त हो रही थी । और मेवाड़देशमें प्रतिष्ठित भगवान पार्श्वनाथ जिनके यात्रा महोत्सवसे उनका अद्भुत अखिल विश्व विस्तृत हो गया था । नेमिकुमारने राहडपुर में भगवान नेमिनाथका और नलोटकपुर में वाईस देवकुलकाओं सहित भगवान आदिनाथका विशाल मन्दिर बनवाया था + । नेमि कुमारके पिताका नाम 'मक्कलप' और माताका नाम महादेवी था, इनके राहड और नेमिकुमार दो पुत्र थे, जिनमें नेमिकुमार लघु और राहड ज्येष्ठ थे । नेमकुमार अपने ज्येष्ठ भ्राता राहडके परमभक्त थे और उन्हें आदर तथा प्रेमकी दृष्टिसे देखते थे । राहडने भी उसी नगर में भगवान आदिनाथ के मन्दिर की दक्षिण दिशामें वाईस जिन-मन्दिर बनवाए थे, जिस से उनका यशरूपी चन्द्रमा जगतमें पूर्ण हो गया था - व्याप्त हो गया था: । उनकी स्वोपज्ञ काव्यानुशासनवृत्तिमें आदिनाथ कवि वाग्भट्ट - भक्तिरस के अद्वितीय प्रेमी थे, नेमिनाथ और भगवान पार्श्वनाथका स्तवन किया * जान पड़ता है कि 'राहडपुर' मेवाड़देशमें ही कहीं नेमिकुमारके ज्येष्ठ भ्राता राहडके नामसे बसाया गया 1 +. देखो, काव्यानुशासनटीकाकी उत्थानिका पृष्ट १ ÷ नाभेयचैत्यसदने दिशि दक्षिणस्यां । द्वाविंशति विदधता जिनमन्दिराणि । मन्ये निजाम्रजवर प्रभु राइडस्य । पूर्णीकृतो जगति येन यशः शशाङ्कः । काव्यानुशासन पृष्ठ ३४ For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० अनेकान्त [ वर्षे गया है। जिससे यह सम्भव है कि इन्होंने किसी छन्दोंका कथन विस्तारसे किया गया है। अतएव स्तुति ग्रन्थको भी रचना की हो; क्योंकि रसोंमें रति यहांपर नहीं कहा जाता है। (शृङ्गार) का वर्णन करते हुए देव-विषयक रतिके उदाहरणमें निम्न पद्य दिया है छन्दोनुशासननो मुक्त्यै स्पृहयामि विभवैः कार्य न सांसारिकैः, . जैनसाहित्य में छन्दशास्त्रपर 'छन्दोनुशासन, +. स्वयम्भूछन्द, * छन्दोकोष, * और प्राकृतपिङ्गल* कित्वायोज्य कर पुनरिदं त्वामीशमभ्यर्चये। बाद श्री आदि अनेक छन्द ग्रन्थ लिखे गये हैं। उनमें प्रस्तुत स्वप्ने जागरणे स्थितौ विचलने दुःखे सुखे मंदिरे, छन्दोनुशासन सबसे भिन्न है। यह संस्कृत भाषाका कान्तारे निशिवासरे च सततं भक्तिर्ममास्तु त्वयि। छन्द ग्रन्थ है और पाटनके श्वेताम्बरीय ज्ञानभंडार में __ इस पद्यमें बतलाया है कि हे नाथ ! मै मुक्तिपुरी * अयं च सर्वप्रपञ्चः श्रीवाग्भटाभिधस्वोपज्ञ छन्दोकी कामना नहीं करता और न सांसारिक कार्योंके नुशासने प्रपञ्चित इति नात्रोच्यते।' . लिये विभव (धनादि सम्पत्ति) को ही आकांक्षा करता + यह छन्दोनुशासन जय कीतिके द्वारा रचा गया है। इसे इं; किन्तु हे स्वामिन् हाथ जोड़कर मेरी यह प्रार्थना उन्होंने मांडव्व, पिंगल, जनाश्रय, सेतव, पूज्यपाद (देवनंदी) है कि स्वप्नमें, जागरणमें, स्थितिमें, चलनेमें दुःख- और जयदेव अादि विद्वानोंके छन्द ग्रन्थोंको देखकर बनाया सुखमें, मन्दिरमें, वनमें, रात्रि और दिनमें निरन्तर गया है। यह जयकीर्ति अमलकीर्तिके शिष्य थे। सम्वत् आपकी ही भक्ति हो। ११६२ में योगसारकी एक प्रति अमलकीर्तिने लिखवाई थी तरह कृष्ण नील वोका वर्णन करते हुए इससे जयकीर्ति १२वीं शताब्दीके उत्तरार्ध और १३ वीं राहडके नगर और वहां प्रतिष्ठित नेमिजिनका शताब्दीके पूर्वार्धके विद्वान् जान पड़ते हैं। यह ग्रन्थ स्तवन-सूचक निम्न पद्य दिया है जैसलमेरके श्वेताम्बरीय ज्ञानभण्डारमें सुरक्षित है। देखो गायकवाड संस्कृतसीरीजमें प्रकाशित जैसलमेर भाण्डागारीय मरकतमणिकृष्णो यत्र नेम जिनेन्द्रः। ग्रन्थानां सूची । * यह अपभ्रंशभाषाका महत्वपूर्ण मौलिक छन्द ग्रन्थ विकचकुवलयालि श्यामलं यत्सरोम्भः है इसका सम्पादन एच० डी० वेलंकरने किया है। देखो प्रमुदयति न स्कांस्तत्पुरं राहडस्य ॥ बम्बईयूनिवर्सिटी जनरल सन् १९३३ तथा रायल__इस पद्यमें बतलाया है कि जिसमें वन-पंक्तियां एशियाटिक सोसाइटी जनरल सन् १६३५ मजलमेघके समान नीलवणे मालूम होती हैं और यह रत्नशेखरसूरिद्वारा रचित प्राकृतमाषाका जिस नगरमें नीलमणि सदृश कृष्णवर्ण श्री नेमि छन्दकोश है। जिनेन्द्र प्रतिष्ठित हैं तथा जिसमें तालाब विकसित * पिंगलाचायेके प्राकृतपिंगलको छोड़कर, प्रस्तुत कमलसमूहसे पूरित हैं वह राहडका नगर किन किनको पिंगल ग्रन्थ अथवा 'छन्दो विद्या' कविवर राजमलकी प्रमुदित नहीं करता। कृति हैं जिसे उन्होंने श्रीमालकुलोत्पन्न वणिकपति राजा महाकवि वाग्भट्टकी इस समय दो कृतियां उप- भारमल्ल के लिये रचा था। इस ग्रन्थमें छन्दोंका लब्ध हैं-छन्दोनुशासन और काव्यानुशासन । उनमें निर्देश करते हुए राजा भारमल्ल के प्रताप यश और वैभव छन्दोनुशासन काव्यानुशासनसे पूर्व रचा गया है। श्रादिका अच्छा परिचय दिया गया है। इन छन्द ग्रन्थोंके क्योंकि काव्यानुशासनकी स्वोपज्ञवृत्तिमें स्वोपज्ञ- अतिरिक्त छन्दशास्त्र वृत्तरत्नाकर और श्रुतबोध नामके छन्दोनुशासनका उल्लेख करते हुए लिखा है कि उसमें छन्द ग्रन्थ और हैं जो प्रकाशित हो चुके हैं। सजल For Personal & Private Use Only www ainelibrary.org Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २) ... चतुर्थ वाग्भट्ट और उनकी कृतियां ७ ताडपत्रपर लिखा हुआ विद्यमान है * । उसकी पड़ता है समाजको चाहिये कि वह इस अप्रकाशित पत्रसंख्या ४२ और श्लोकसंख्या ५४० के करीब है छन्दग्रन्थको प्रकाशित करनेका प्रयत्न करे। और जो स्वोपज्ञवृत्ति या विवरणसे अलंकृत है। इस काव्यानुशासनग्रन्थका मङ्गल पद्य निम्न प्रकार है काव्यानुशासन नामका प्रस्तुत ग्रन्थ मुद्रित होचुका है। इसमें काव्य सम्बन्धि विषयोंका-रस अलङ्कार विभुनाभेयमानम्य छन्दसामनुशासनम् । छन्द और गुण दोष आदिका-कथन किया गया है। श्रीमन्नेमिकुमारस्यात्मजोऽहं वच्मि वाग्भटः । इसकी स्वोपज्ञवृत्तिमें उदाहरण स्वरूप विभिन्न ग्रथोंके यहां मङ्गल पद्य कुछ परिवर्तनके साथ काव्यानु- अनेक पद्य उदधृत किये गये हैं जिनमें कितने ही पद्य शासनकी स्वोपज्ञवृत्तिमें भी पाया जाता है, उसमें ग्रन्थ कर्ता के स्वनिर्मित भी होंगे, परन्तु यह बतला 'छन्दसामनुशासनं' के स्थानपर 'काव्यानुशासनम्' सकना कठिन है कि वे पद्य इनके किस ग्रन्थके हैं। दिया हुआ है। समुद्धृत पद्योंमें कितने ही पद्य बड़े सुन्दर और सरस यह छन्दग्रन्थ पांच अध्यायोंमें विभक्त है, संज्ञा- मालूम होते हैं। पाठकों की जानकारीके लिये उनमें से ध्याय १, समवृत्ताख्य २, अर्धसमवृत्ताख्य ३, मात्रा- दो तीन पद्य नीचे दिये जाते हैं। समक ४, और मात्रा छन्दक ५। ग्रन्थ सामने न कोऽयं नाथ जिनो भवेत्तव वशी हुं हुं प्रतापी प्रिये होनेसे इन छन्दोंके लक्षणादिका कोई परिचय नहीं हह तर्हि विमञ्च कातरमते शौर्यावलेपक्रियां। दिया जा सकता और न ही यह बतलाया जा सकता मोहोऽनेन विनिर्जितः प्रभुरसौ तत्किङ्कराः के वयं है कि ग्रन्थकारने अपनी दूसरी किन किन रचनाओंका उल्लेख किया है। इत्येवं रतिकामजल्पविषयः सोऽयं जिनः पातु वः काव्यानुशासनकी तरह इस प्रन्थमें भी राहड ___एक समय कामदेव और रति जङ्गलमें विहार कर और नेमिकुमारको कीर्तिका खुला गान किया गया है रहे थे कि अचानक उनकी दृष्टि ध्यानस्थ जिनेन्द्रपर और राइडको पुरुषोत्तम तथा उनकी विस्तृत चैत्य- पड़ी, उनके रूपवान् प्रशान्त शरीरको देखकर कामदेव पद्धतिको प्रमुदित करनेवाली प्रकट किया है । यथा- और रतिका जो मनोरञ्जक संवाद हुआ है उसीका चित्रण इस पद्य में किया गया है। जिनेन्द्रको मेरुवत् पुरुषोत्तम राहडप्रभो कस्य न हि प्रमदं ददाति सद्यः निश्चल ध्यानस्थ देखकर रति कामदेवसे पूछती है कि विवता तव चैत्य पद्धतिवातचलध्वजमालभारिणी। हे नाथ ! यह कौन है ? तब कामदेव उत्तर देता है और अपने पिता नेमिकुमारकी प्रशंसा करते हुए कि यह जिन हैं,-राग-द्वेषादि फर्मशत्रुओंको जीतने लिखा है कि 'घूमनेवाले भ्रमरसे कम्पित कमल के वाले हैं-पुनः रति पूछती है कि यह तुम्हारे वशमें मकरन्द (पराग) समूहसे पूरित, भडौंच अथवा भृगुः हुए, तब कामदेव उत्तर देता है कि हे प्रिये ! यह मेरे कच्छनगरमें नेमिकुमारको अगाध वाक्ड़ी शोभित वशमें नहीं हुए; क्योंकि यह प्रतापी हैं। तब फिर होती है। यथा रति पूछती है यदि यह तुम्हारे वशमें नहीं हुए तो परिभमिरभमरकंपिरसररूडमयरंदपुजपुजरिया। तुम्हें 'त्रिलोकविजयी' पनकी शूरवीरताका अभिमान छोड़ देना चाहिये। तब कामदेव रतिसे पुनः कहता वावी सहइ अगाहा नेमिकुमारस्स भरुअच्छे ॥ है कि इन्होंने मोह राजाको जीत लिया है जो हमारा इस तरह यह छन्दग्रन्थ बड़ा ही महत्वपूर्ण जान प्रभ है. हम तो उसके किङ्कर हैं। इस तरह रति * See Patan Catalague of Man- और फामदेवके संवाद-विषयभूत यह जिन तुम्हारा ucripts p. 117 संरक्षण करें। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.lainelibrary.org Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० अनेकान्त । वर्ष । शठकमठ विमुक्ताग्रावसंघातघात-, काल कोठरीमें अपने जीवनकी सिसकियाँ ले रहे । व्यथितमपिमनो न ध्यानतो यस्य नेतुः।। होंगे। अचलदचलतुल्यं विश्वविश्वैकधीरः, सम्प्रदाय और समयस दिशतु शुभमीशः पार्श्वनाथो जिनो वः । ___ ग्रन्थकर्ताने अपनी रचनाओं में अपने सम्प्रदायका कोई समुल्लेख नहीं किया और न यही बतलानेका इस पद्यमें बतलाया है कि दुष्ट कमठके द्वारा प्रयत्न किया है कि उक्त कृतियां कब और किसके मुक्त मेघसमूहसे पीड़ित होते हुए जिनका मन ध्यानसे राज्यकालमें रची गई हैं ? हां, काव्यानुशासनवृत्तिके जरा भी विचलित नहीं हुआ वे मेरुके समान अचल ध्यानपूर्वक समीक्षणसे इस बातका अवश्य आभास और विश्वके अद्वितीय धीर, ईश पार्श्वनाथ जिन हो जाता है कि कविका सम्प्रदाय 'दिगम्बर' था; क्यों र तुम्हें कल्याण प्रदान करें। कि उन्होंने उक्त वृत्तिके पृष्ठ ६ पर विक्रमकी दूसरी इसी तरह 'कारणमाला के उदाहरण स्वरूप दिया तीसरी शताब्दिके महान आचार्य समन्तभद्र के 'बृहतहुआ निम्न पद्य भी बड़ा ही रोचक प्रतीत होता है। जिसमें जितेन्द्रियताको विनयका कारण बतलाया स्वयम्भू स्तोत्रके द्वितीय पद्यको 'आगम प्राप्तवचनं यथा' वाक्य के साथ उत किया है । और पृष्ठ गया है और विनयसे गुणोत्कर्ष, गुणोत्कर्षसे लोका ५पर भी 'जैन यथा' वाक्यके साथ उक्त स्तवनका नुरञ्जन, और जनानुरागसे सम्पदाकी अभिवृद्धिका होना सूचित किया है, वह पद्य इस प्रकार है 'नयास्तव स्यात्पदसत्यलांछिता रसोपविद्धा इव लोह धातवः। भवन्त्यमी प्रेतगुणा यतस्ततो भवन्तजितेन्द्रियत्वं विनयस्य कारणं, मार्याः प्रणिता हितैषिणः ॥ यह ६५वां पद्य समुगुणप्रकर्षों विनयादवाप्यते । द्धृत किया है। इसके सिवाय पृष्ठ १५ पर ११ वीं गुणप्रकर्षणजनोऽनुरज्यते, शताब्दीके विद्वान आचार्य वीरनन्दीके 'चन्द्रप्रभचरित' जनानुरागप्रभवा हि सम्पदः॥ का आदि मङ्गलपद्य + भी दिया है, और पृष्ठ १६ पर इस ग्रन्थकी स्वोपज्ञवृत्तिमें कविने अपनी एक सज्जन-दुजैन चिन्तामें 'नेमिनिर्वाण काव्यके' प्रथम सगैका निम्न२० वां पद्य उद्धृत किया हैकृतिका 'स्वोपज्ञ ऋषभदेव महाकाव्ये वाक्यके साथ उल्लेख किया है और उसे 'महाकाव्य' बतलाया है, गुणप्रतीतिः सुजनाजस्य, जिससे वह एक महत्वपूर्ण काव्य ग्रन्थ जान पड़ता है __दोपेष्ववज्ञा खलजल्पितेषु । इतना ही नहीं किन्तु उसका निम्न पद्य भी उद्धव त अतोध्र वं नेह मम प्रबन्धे, किया है प्रभूतदोषेऽप्ययशोवकाशः ॥ यत्पुष्पदन्त-मुनिसेन-मुनीन्द्रमुख्यैः, और उसी १६वें पृष्ठमें उल्लिखित 'उद्यानजलकेलि पूर्वैकृतं सुकविभिस्तदहं विधित्सुः ।। ___ मधुपानवर्णनं नेभिनिर्वाण राजीमती परित्यागादी' हास्यास्य कस्य ननु नास्ति तथापिसन्तः, इस वाक्य के साथ नेमिनिर्वाण और राजीमती परि शृण्वन्तु कञ्चनममापि सुयुक्ति सूक्तम् । * प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषुः शशास कृष्यादिषुकर्मसु प्रजाः। इसके सिवाय, कविने भव्यनाटक और अलंका- प्रबुद्धतत्वः पुनरद्भु तोदयो ममत्वतो निर्विविदे विदांवरः ॥२॥ रादि काव्य बनाये थे। परन्तु वे सब अभी तक अनु- + श्रियं क्रियाद्यस्य सुरागमे नटत्सुरेंद्रनेत्रप्रतिबिंबलांछिता। पलब्ध हैं, मालूम नहीं, कि वे किस शास्त्रभण्डारकी सभा बभौ रत्नमयी महोत्पलैः कृतोपदारेव स वोग्रजो जिनः।। For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] त्याग नामके दो ग्रन्थों का समुल्लेख किया है। उनमें से नेमिनिर्वाणके ८ वें सर्गमें जलक्रीड़ा और १० वें सगँ में मधुपानसुरतका वर्णन दिया हुआ है। हां, 'राजीमती परित्याग' नामका अन्य कोई दूसरा ही काव्यग्रन्थ है जिसमें उक्त दोनों विषयोंके कथन देखनेकी सूचना गई है । यह काव्यग्रन्थ सम्भवतः पं० श्रशाधर जीका 'राजमती विप्रलम्भ' या परित्याग जान पड़ता है; क्योंकि उसी सोलहवें पृष्ठ पर 'विप्रलम्भ वर्णनं राजमती परित्यागादौ वाक्य के साथ उक्त ग्रन्थका नाम 'राजीमती परित्याग' सूचित किया है। जिससे स्पष्ट मालूम होता है कि उक्त काव्यग्रन्थ में 'विप्रलम्भ' विरह का वन किया गया है । विप्रलम्भ और परित्याग शब्द भी एकार्थक है । यदि यह कल्पना ठीक है तो प्रस्तुत प्रन्थका रचना काल १३ वीं शताब्दीके विद्वान् पं० श्रशाधर जीके बादका हो सकता है । महात्मा गान्धीके निधनपर शोक - प्रस्ताव इन सब प्रन्थोल्लेखोंसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि ग्रन्थकर्ता उल्लिखित विद्वान आचार्योंका भक्त और उनकी रचनाओंसे परिचित तथा उन्हींके द्वारा मान्य दिगम्बरसम्प्रदायका अनुसर्ता अथवा अनुयायी था अन्यथा समन्तभद्राचार्यके उक्त स्तवन पद्यके साथ भक्ति एवं श्रद्धावश 'आगम और आप्तवचन' जैसे विशेषणों का प्रयोग करना सम्भव नहीं था । । महात्मा गान्धी "महात्मागांधी की तेरहवीं दिवसपर २२ फरवरी १६४८ को वीरसेवामन्दिर में श्रीमान् पण्डित जुगलकिशोरजी मुख्तार सम्पादक अनेकान्त' की अध्यक्षता में शोक सभा की गई जिसमें विविध वक्ताओंने गान्धीजी के प्रति अपनी हार्दिक श्रद्धांजलियां प्रकट कीं और उपस्थित जनताने निम्न शोक प्रस्ताव पास किया विश्व के महान् मानव, मानव समाजके अनन्य सेवक अहिंसा-सत्य के पुजारी और भारत के उद्धार में निधनपर शोक - प्रस्ताव ! अब रही 'रचना समयंकी बात' सो इनका समय बिक्रमको १४वीं शताब्दीका जान पड़ता है; क्योंकि काव्यानुशासनवृत्ति में इन्होंते महाकवि दण्डी वामन और वाग्भटादिक द्वारा रचेगये दश काव्य गुणों में से सिर्फ माधुर्य ओज और प्रसाद ये तीन गुण ही माने हैं और शेष गुणों का इन्हीं तीनमें अन्तर्भाव किया है । इनमें वाग्भट्टालङ्कारके कर्ता वाग्भट विक्रमकी १२ वीं शताब्दी के उत्तरार्धके विद्वान हैं। इससे प्रस्तुत वाग्भट वाग्भट्टालङ्कारके कर्तासे पश्चात् वर्ति है यह सुनिश्चित है । किन्तु ऊपर १३ वीं शताब्दीके विद्वान पं० आशाधर जीके 'राजीमती विप्रलम्भ या परित्याग' नामके ग्रन्थका उल्लेख किया गया है जिसके देखने की प्रेरणा की गई है। इस प्रन्थोल्लेख से इनका समय तेरहवीं शताब्दीके बादका सम्भवतः विक्रमकी १४ वीं शताब्दीका जान पड़ता है । . वीरसेवा मन्दिर ता० १५-२-४८ ८१ ÷ इति दण्डिवामनवाग्भटादिप्रणीत दशकाव्यगुणाः । वयं तु माधुर्यौजप्रसादलक्षणास्त्रीनेव गुणा मन्यामहे, शेषस्तेष्वेवान्तर्भवन्ति । तद्यथा - माधुर्ये कान्तिः सौकुमार्य च श्रजसि श्लेषः समाधिरुदारता च । प्रसादेऽर्थव्यक्ति: समता चान्तर्भवति । काव्यानुशासन २, ३१ सविशेषरूप से संलग्न, उसकी महाविभूति महात्मा मोहनदास गांधीकी ३० जनवरीको होनेवाली निर्मम हत्याका दुःसमाचार सुना है और साथही यह मालूम हुआ है कि उसके पीछे कोई भारी षडयन्त्र है जो देशमें फासिस्टवादका प्रचार कर तबाह व बर्बाद करना चाहता है तबसे वीर सेवामन्दिर का, जो कि रिसर्च इन्स्टियूट और साहित्य सेवाके रुप में जैन समाजकी एक प्रसिद्ध प्रधान संस्था है, सारा परिवार दुःखसे पोडित और शोकाकुल है और अपनी उस For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२. वेदनाको मन्दिरसे प्रकाशित होने वाले 'अनेकान्त' पत्रको जनवरी मासको किरण में भारतकी महाविभूति का दुःसह वियोग' शर्षिक के नीचे कुछ प्रकट भी कर चुका है। आज महात्माजीकी १३ वींके दिन जबकि उनके शरीरकी पवित्र भस्म नदियों में प्रवाहितकी जायगी, नगरकी सारी जैन जनता वीरसेवामन्दिर में एकत्र हुई, और उसने महात्माजीके इस आकस्मिक निधनपर अपना भारी दुःख तथा शोक प्रकट किया। साथही यह स्वीकार किया कि आपभी महावीर के अहिंसा, सत्य और अपरिग्रहवाद जैसे सिद्धान्तोंकी मौलिक शिक्षाओंका व्यापक प्रचार और प्रसार करने बाले एक सन्तपुरुष थे। देश आपके उपकारों और सेवाओं का बहुत बड़ा ऋणी है आपके इस निधनसे भारतको ही नहीं बल्कि सारे विश्वको भारी क्षति पहुंची है, जिसकी शीघ्र पूर्ति होना असंभव जान गाँधी की याद ! अनेकान्त | वर्ष ६ पड़ता है । अतः वीर सेवामन्दिरका समस्त परिवार एकत्रित जैन जनता और जैनेतर जनताके साथ स्वff महात्माजी की अपनी श्रद्धांजलि अर्पण करता हुआ उनकी आत्माके लिये परलोकमें सुख-शान्ति की कामना करता है और उनके समस्त परिवार के प्रति अपनी हार्दिक समवेदना व्यक्त करता है। साथ ही यह दृढ़भावना और भगवान महावीर से प्रार्थना भी करता है कि पं० जवाहरलाल नेहरु सरदार बल्लभ भाई पटेल, डा० राजेन्द्रकुमार और मौलाना अब्दुलकलाम आजाद जैसे देशके वर्तमान नेताओं को जिनके ऊपर महात्माजी अपने मिशनका भार छोड़ गये हैं वह अपार बल और साहस प्राप्त होवे जिससे वे राष्ट्र के समुचित निर्माण और उत्थान के कार्य में पूरी तरह समर्थ हो सकें । [ लेखक :- मु० फजलुलरहमान जमाली, सरसावी ) वह देशका रहवर था, वह महबूबे नजर था ! सच पूछो तो वह हिन्दका मुमताज बशर था !! हिन्दूको अगर जान तो मुस्लिमका जिगर था ! गङ्गाको अगर मौज तो जमनाकी लहर था !! वह सो गया सोया है मगर सबको जगाकर ! रूपोश हुआ पर्दे में, वह पर्दा उठाकर !! तस्वीरे मुहब्बत था, अहिंसाका वह पैकर ! बहता हुआ वह रहम व हमीयतका समन्दर !! ऐ आह ! कि वह छुप गया न रशेद मनव्वर ! हर मुल्क में अन्धेर तो मातम हुआ घर घर !! तबका यह उलट जाय तो कुछ दूर नहीं है ! गान्धीकी मगर रूहको मंजूर नहीं है !! अब कौन है इस डूबती कश्तीका सहारा ! उन लोगों का याँ दौर है जो हैं सितम आरा !! यह सदमा तो दिलको नहीं होता था गवारा ! क्या डूब चुका हिन्दकी किस्मतका सितारा !! उम्मीद बढ़ी दिलकी लगे होश ठिकाने ! अब दूसरा गांधी किया 'नहरू' को खुदाने !! जां देके बड़े कामको अंजाम दिया है ! कीमतको अहिंसाकी अदा करके रहा है गाँधी जिया जिस तरह से यूं कौन जिया है ! नाथूने मगर हिन्दको बदनाम किया है !! जो शमा हिदायत थी उसे आह बुझा दी ! जालिमने लगी आग में और आग लगा दी ! * यह उर्द ू कविता १२ फरवरी सन् १६४८ को सरसावा की सार्वजनिक शोकसभा में पढ़ी गई और पसन्द की गई For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकाया धारा D .१-राष्ट्रपिताको श्रद्धांजलिट्रपिताके निधनपर हम क्या श्रद्धांजलि इस रोगसे ग्रसित कुछ अभागोंको सन्निपात हो गया। अर्पित करें ? हम तो उनकी भेड़ थे। और उसी सन्निपातके वेगमें उन्होंने राष्ट्रपिताका वध Raminal जिधरको संकेत किया बढे, जब रोका कर डाला । पुत्र ही पिताके घातक हो गये। रुके, पर्वतोंपर चढ़नेको कहा चढे, आर्यकुलमें आश्चर्य जनक घटनाएँ मिलती हैं। और गिरनेको कहा तो गिरे। श्रद्धा- पुत्रने माताका वध किया, माताने पुत्रोंको जङ्गलोंकी ञ्जलि तो हमारी पीढ़ी दर पीढी अर्पित करेगी जिसे खाक छाननेको मजबूर किया। भाईने बहनके स्वतन्त्र भारतमें जन्म लेनेका अधिकार बापूने प्रदान बालकोंका वध किया। देवरने भाभीको नग्न करनेका किया है। बीड़ा उठाया, शिष्यने गुरुको मारा. मित्रने मित्रकी १५ अगस्तको जब समस्त भारत स्वतन्त्रता समा- बहनका अपहरण किया। नारियोंने पतियोंके और रोहमें लीन था, तब हमारा राष्ट्रपिता कलकत्ते में पतियाने नारियों के वध किये। परन्तु पुत्रोंने पिताका बैठा साम्प्रदायिक विष पी रहा था। समग्र भारतको वध किया हो ऐसा उदाहरण आयें, अनार्य, देश, इच्छा उसे अभिशिक्त करनेकी थी, परन्तु वह कल- विदेशमें कहीं नहीं मिलता। गोडसेने यह कृत्य कत्ते से हिला नहीं। और उसने सांकेतिक भाषामें करके कलङ्ककी इस कमीको पूर्ण कर दिया है। सावधान कर दिया कि जिस समुद्रमन्थनसे स्वतंत्रता- एकही भारतमें दो नारियोंको प्रसव पीड़ा हुई। सुधा निकली है, उसीसे सांप्रदायवाद-हलाहल भी एकने बापूको और एकने गोडसेको जन्म दिया। निकल पड़ा है। यह मुझे चुपचाप पीने दो। इसकी कितना आकाश-पातालका अंतर है इस जन्म देने में । बूद भी बाहर रही तो सुधाको भी गरल बना देगी। एकने वह अमर ज्योति दी जिससे समस्त विश्व दीप्त और सचमुच उस हर्षोन्मादकी छीना-झपटीमें हमारे हो उठा, दूसरीने वह राहू प्रसव किया जिसके कारण हाथों जो गरल छलकी तो वह पानीमें मिट्टीके तेलकी आज भारत तिमिराछन्न है। एटम बमके जनकसे तरह सर्वत्र फैल गई। और दूसरे पदार्थों के सम्मि. अधिक निकृष्ट निकली यह नारी। क्या विधाता इस श्रणसे उसका ऐसा विकृतरूप हुआ कि उसके पानसे नारीको वन्ध्या बनाने में भी समर्थ न हो सका। न तो हम मरते ही हैं और न जीते ही हैं। एडियां गोडसेके इस कृत्यने उसके वंशपर, जातिपर, रगड़ रगड़ कर छटपटा रहे हैं फिर भी प्राण नहीं प्रान्तपर कालिमा पोत दी है। गोड़से वंशकी कन्याएँ निकल रहे हैं। बरोंकी खोजमें भटकती फिरेंगी युवकोंकी ओर लालाइस सांघातिक महाव्याधिसे छुटकारा दिलाने यित दृष्टिसे देखेंगी। परन्तु युवक क्या बूढे भी उस राष्ट्रपिता दिल्ली पहुंचे, उपचार चल ही रहा था कि ओर नहीं थूकेंगे। सर्वत्रथू थू दुर दुर लानत और For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्षे १ फटकार बरसेगी। नाथू गोडसे पर थूकना भी लोग मरते-मरते अभय दे गया, हिंसासे भी खिलखिलापसन्द नहीं करेंगे। कौन ऐसे वंशपर थूक कर अपने कर छेड़कर गया। थूकको अपवित्र करेगा ? और हिंसाके भक्त जो दिन-रात लाठी-बर्छ ओ दर्देव । त अपने भयानक चक्र में फंसाकर दिखाते फिरते थे। बासरी बलपर जिन्हें घमण्ड था. हमारे समुचित अपराधोंकी सज़ा देना। पर हमारे वही आज प्राणभयसे कुत्तोंकी तरह भागते फिर रहे देशमें, प्रान्तमें, समाजमें. वंशमें, ऐसा कलंकी उत्पन्न हैं। जो निशस्त्र गान्धीका मखोल उड़ाते थे, वे आज न करना ! भले ही हमारा पुरुषत्व और नारियोंका भेड़ोंकी तरह मिमया रहे हैं। एकसे भी सुखरू जनन अधिकार छीन लेना; परन्तु हमें इस अभिशापसे होकर जनताके सामने आते नहीं बना। .. बचाना। दैव ! हम तेरे पांव पड़ते हैं, हमने इतना बापूके अहिंसक अनुयाइयोंपर गवर्नमैण्ट भी हाथ दीन हो कर त्रिलोकीनाथ जिनेन्द्रसे भी कभी कुछ न डालते हुए सहमती थी। गिरफ्तार होते थे तो मांगा, आज हम गिड़गिड़ाकर यह भीख मांगते है कि जेलखानोंको इस शानसे जाते थे कि देखनेवालोंको हमारे देशमें फिर ऐसा कलङ्की उत्पन्न न करना। उनके इस बांधपनपर गर्व होता था। शत्रु भी हृदयसे बापूको मृत्यु इस शानसे हुई जिसके लिये बड़े २ इज्जत देते थे। इसके विपरीत आसुरी बल और महारथी तरसते है। मगर नसीब नहीं होती- हिंसाके गीत गानेवालोंका जो हाल हुआ वह जो मरजावे खटिया पड़कर उसके जीवनको धिक्कार। दयनीय है। बचपनमें आल्हाखण्डका यह पद्यांश सुना और राष्ट्रपिताने अपनी शानके योग्य ही मृत्युका अभी तक विस्मरण नहीं हुआ। विस्मरण होनेकी वरण किया, परन्तु हमें रह-रहकर एक कलमलाहट चीज भी नहीं है। बचपनसे ही देखता आ रहा हूं बेचैन किये देती है। हजारों वर्षकी दुद्धर तपश्चर्याके कि सचमुच अधमसे अधम, गये बीतेसे गया बीता फलस्वरूप हमें जो निधि प्राप्त हुई, उसे हम सम्हालभी खटियापर नहीं मरना चाहता, वह भी मरनेसे कर न रख सके। हम ऐसे बावले हो गये कि खुलेआम पूर्व खटियासे पृथ्वीपर ले लिया जाता है। रणक्षेत्र उसे रखकर खुर्राटे लेने लगे। हम अपनी इस या कार्यक्षेत्र धर्मक्षेत्र न सही पृथ्वीपर लेटकर प्राण मूर्खतापर उसी तरह उपहासास्पद हो गये हैं जिस देनेसे उसका तसव्वुर तो नेत्रों में रहता है। जिसका तरह एक मजदूर डीकी लाटरीको.बांसमें रखे घूमता जीवन इतना संघर्षमय और व्यस्त हो, उसे खटिया- था। और लाटरी पानेकी खुशीमें उसने बांसको पर मरनेका अवकाश कहां ? वह तो चलते-चलते, समुद्र में इस खयालसे फेंक दिया था कि जब इतना ईश्वर नाम लेते-लेते गया। एक नहीं, दो नहीं, रुपया मिलेगा तो बांसको रखकर क्या करूगा ? चार-चार गोली सीने में मर्दाना वार खाकर भी तो गिरा आगेकी ओर । जिसने जीवन में कभी पीछे मृत्यु-महोत्सवहटना नहीं जाना वह अन्तिम समय में भी पीछे क्यों नशास्त्रों में जितना महत्व मृत्युमहोत्सवको दिया गिरता ? कतैव्य पथपर अग्रसर, जिह्वापर भगवान गया, है उसमें भी कई गुणा अधिक महत्व हमने का नाम, हृदय में विश्व-कल्याणकी भावना, मुखपर उसे अपने जीवन में दे रक्खा है। मृत्यु-समय हँसते क्षमाकी अपूर्व आभा-बताइये तो ऐसी शहादतका हुए प्राण-त्याग देना, ममता-मोह लेशमात्र भी न दर्जा बापूके अतिरिक्त और किसको मयस्सर हुआ है ? रहना और मृत्यु-वेदनाको सान्यभावसे सहन करने अहिंसाका पुजारी हिंसकद्वारा शहीद किया गया, आदिके उदाहरण साधु महामा, शूरवीर, धर्मनिष्ठ पर, हिंसक क्या सचमुच विजय पा सका। विजय एव. देशभक्तों आदिके मिलते हैं। सर्वसाधारणसे तो बापूके ही हाथ लगी। वह क्षमाका अवतार ऐसी आशा बहुत कम होता है। For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] सम्प्रदायवादका अन्त ८५ पर, हमारी समाजमें प्रायः छोटे बड़े सभी एक रहना, निश्चय ही आत्मघातसे भी अधिक जघन्य सिरेसे मृत्यु-समय महोत्सव मना रहे हैं। मृत्यु पाप है। र नाच रही है, पृथ्वी उनके पांवोंके पोलेण्ड और फिनलैंडका वही हश्र हा जो नोचेसे खिसकी जारही है। प्रलयके थपेड़े चप्पत निर्बल राष्ट्रों और अल्पसङ्ख्यक जातियों का होता है। मारकर बतला रहे हैं कि रणचण्डीका तांडव-नृत्य इस घटनासे शंकित आज कमजोर और असहाय राष्ट्र प्रारम्भ होगया है। उसका घातक प्रभाव आँधीको मृत्युवेदनासे छटपटा रहे हैं । निबेल राष्ट्र ही क्यों ? वे तरह संसार में फैल गया है। संसारके विनाशको सबल राष्ट्र भी-जिनकी तलवारोंके चमकनेपर बिजली चिन्ता और अपने अस्तित्व मिट जानेकी आशंका कौन्दती है. जिनके सायेके साथ साथ हाथ बान्धे हुए दूरद कलेजोको खरच-खरच कर खाए विजय चलती है. जिनके इशारे पर मृत्यु नाचती हैजारही है। पृथ्वीके गर्भ में जो विस्फोट भर गया है आज उसी सतृष्ण दृष्टिसे अपने सहायकोंकी ओर वह न जाने कब फूट निकले और इस दीवानी दुनिया देख रहे हैं। जिस तरह डाकुओं से घिरा हुआ काफिला को अपने उदर-गह्वरमें छुपा ले। एक क्षण भरमें (यात्री दल)। क्योंकि उनके सामने भी अस्तित्त्व मिट क्या होनेवाला है- यह कह सकनेकी आज राजनीति जानेकी सम्भावना घात लगाये हुए खड़ी है । इस के किसी भी पंडितमें सामर्थ्य नहीं है। संसार समुद्र प्रलयंकारी युगमें जो राष्ट्र या समाज तनिक भी असामें जो विषैली गैस भर गई है वह उसे नष्ट करने में वधान रहेगा, वह निश्चय ही ओन्धे मुंह पतनके कालसे भी अधिक उतावली है। गहरे कूपमें गिरेगा । अत: जैन समाजको ऐसी परिकिन्तु, जैनसमाजका इस ओर तनिक भी ध्यान स्थितिमें अत्यन्त सचेत और कर्तव्यशील रहनेकी श्रा. नहीं है। वह उसी तरहसे अपने राग रङ्गमें मस्त है वश्यकता है। दुख, चिन्ता, पीड़ा श्रादिके होते हुए भी आनन्द- ३-सम्प्रदायवादका अन्तविभोर रहना. मुसीबतोंका पहाड़ टूट पड़नेपर भी जबसे हमारा भारत स्वतन्त्र हुआ है, उसे अनेक मुस्कगना नमुष्य के वीरत्व साहस और धैर्यके विषम परिस्थितियोंने घेर लिया है । पाकिस्तानी, रिचिह्न हैं। पर जब यही क्लेश, दुख. चिन्ता आदि यासती और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओंके हल करने में तो दूसरेको पीड़ित कर रहे हों. तब उनका निवारण न वह चिन्तित है ही, अपने आन्तरिक मामलोंसे वह करके अथवा समवेदना प्रकट न करके आनन्द रत और भी परेशान है। जिन रूढ़िवादियों, प्रगतिविरहना मनुष्यताका द्योतक नहीं। गाना अच्छी चीज रोधियों, पोंगापन्थियों, जौ हूजूरों, पूँजीपतियों आदि है, पर पड़ौसमें आग लगी होनेपर भी सितार बजाते ने स्वतन्त्रता प्राप्तिमें विघ्न डाले और हमारे मागेमें रहना, उसके बुझानेका प्रयत्न न करना आनन्दके पग-पग पर कांटे बिछाये, वही आज सम्प्रदायवाद, बजाय क्लेशको निमन्त्रण देना है। जहाजका कप्तान प्रान्तवाद और जातीयतावादोंके झण्डे लेकर खड़े हो अपनी मृत्युका आलिंगन मुस्कराते हुए कर सकता है. गये हैं। जिन भलेमानुषों ( ?) ने गुलामीकी जंजीर पर यात्रियोंको मृत्युको संभावनापर उसका आनन्द में जकड़ने वाली ब्रिटिशसत्ताको दृढ़ बनानेके लिये विलीन हो जाता है और कर्तव्य सजग हो उठता है। लाखों नवयुवक फौजमें भर्ती कराके कटा डाले, अ___ हम भी इस संसार-समुद्र में जैनसमाज-रूपी जहा- संख्य पशुधन विध्वंस करा डाला और यहांका अनाज जमें यात्रा कर रहे हैं। जब संसार सागर विक्षुब्ध बाहर भेजकर लाखों नर नारियों और बालक बालिहो उठा है और उसकी प्रलयकारी लहरें अपने अन्त- काओंको भूखे मार डाला. वही आज "धर्म डूबा धर्म स्थलमें छुपाने के लिये जीभ निकाले हुए दौड़ी आरही डूबा" का नारा बुलन्द करके सम्प्रदायवादका बवन्डर हैं तब हमारा निश्चेष्ट बैठे रहना, रागरङ्गमें मस्त उठा रहे हैं । For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त । वर्ष । ऐसेही स्वार्थी धर्मभेषिोंको बहकाकर सम्प्रदा- हम पूछते हैं जब पागलोंको पागलखाने और यवादके नाम पर शासनसत्ता अपने हाथमें लेनेका संक्रामक रोगियोंको तुरन्त एकान्त स्थानमें भेज दिया अधम प्रयत्न कर रहे हैं। प्रान्तवादका यह हाल है कि जाता है. फिर इन सांघातिक धर्मोन्मादकों. मजहवी १-२ प्रान्तोंको छोड़कर प्रायः सभी प्रान्त वाले एक- दीवानों और सम्प्रदायवादियों को कारावास क्यों नहीं दूसरेको घृणा करने लगे हैं। प्रान्तीय सुविधाएँ और भेजा जाता ? जो मानव अपने देश, धर्म, समाज नोकरियां अन्य प्रान्तीय न लेने पाएँ। इसके लिये और वंशके लिये अभिशाप होने जा रहा है, उसकी प्रयत्न प्रारम्भ हो गये हैं । जातीयवादका यह हाल है क्यों नहीं शीघ्रसे शीघ्र चिकित्सा कराई जातो ? कि कुछ लोग महाराष्ट्र साम्राज्यका दुःस्वप्न देख रहे जिन्हाकी धर्मान्धताके कारण मुसलमानोंको कैसी हैं । कुछ जाटि तान, कुछ सिक्खस्तान और कुछ दुर्गति हुई गोडसे के कारण हिन्दुसभा, राष्ट्रीयसङ्घ, अबूतस्तान बनाने के काल्पनिक घोड़े दौड़ा रहे हैं। महाराष्ट्रप्रान्त, महाराष्ट्रीय ब्राह्मणोंको कितना कलङ्कित हर कोई अपनी डेढ़ चावलकी खिचड़ी अलग-अलग होना पड़ा. उनपर कैसी आपदाएं आई और ईसाके पका रहा है । परिणाम इसका यह होरहा है कि भारत घातक यहूदी आज किस जघन्य दृष्टिसे देखे जाते हैं, स्वतंन्त्र होकर उत्तरोत्तर उन्नत और बलवान होनेके बतानेकी आवश्यकता नहीं। अत: हमें अपनी बजाय अवनत और निबैल होता जा रहा है। समाजमें सम्प्रदायवादका प्रवेश प्राणपणसे रोकना ___सम्प्रदायवादके नामपर भारनमें जो इन दिनों चाहिये। हम भगवान महावीरके अहिंसा, सत्य, नरमेधयज्ञ हुआ है-यदि उसके नर-कालोंको अपरिग्रहत्व और विश्वबन्धुत्वके प्रसारके लिये सम्प्रएकत्र करके हिमालयके समक्ष रखा जाय तो वह भी दायवादके दल-दल में न फंसकर अनेकान्त-ध्वजा अपनी हीनतापर रो उठेगा। इस सम्प्रदायवादके फहरायेंगे। आज अनेकान्ती बन्धुओंको सांख्यवाद, विषाक्त कीटाणु अब इतने रक्त पिपासु हो गये हैं कि शैववाद, नैयायिकवाद. चार्वाकवादसे लोहा नहीं अन्य सम्प्रदायोंका रक्त न मिलनेपर अपने ही सम्प्र- लेना है। उसे विश्व में फैले, सम्प्रदायवाद, जातीय दायका रक्त पीने लगे हैं। महात्मा गान्धी इसी वाद, प्रान्तवाद, गुरुडमवाद, परिग्रहवादसे संघर्ष घिनोने सम्प्रदायको वेदीपर बलि चढ़ा दिये गये हैं। करना है। और न जाने कितने नररत्न श्रेष्ठोंकी तालिका अभी ४-हिन्दू और जैन-- बाकी हैं। हमारी समाजके ख्यातिप्राप्त विद्वान डाक्टरहीरा___ "घोड़ेके नाल जड़ती देखकर मेड़कीने भी नाल लालजीका उक्त शीर्षक से जैनपत्रोंमें लेख प्रकाशित हुआ जड़वाई" या नहीं; परन्तु इन विषैले कीटाणुओंका है ! जैन अपनेको हिन्दू कहें या नहीं ? यदि नहीं घातक प्रभाव हमारी समाजके भी कतिपय बन्धुओं- कहें तो हिंन्दुओंको मिलने वाली सुविधाओंसे सम्भवपर हुआ है। जिसके कारण वे तो नष्ट होंगे ही, पर तया जैन बंचित कर दिये जाएंगे । और बहिष्कारको मालूम होता है कि जिस नांवमें वे बैठे हैं उसे भी ले भी सम्भावना है । यही इस लेखका सार है । जो भय डूबनेका इरादा रखते है।। और चिन्ता डाक्टर साहबको है, वही चिन्ता और वे तो डूबेंगे सनम हमको भी ले डूबगे। भय प्रायः सभी समाज-हितैषियोंको खुरच खुरचकर सम्प्रदायवाद जब असाध्य हो जाता है तब रोगी खाये जा रहा है। और अब वह समय प्रागया है सन्निपातसे पीड़ित धर्मोन्मादावस्थामें बहकने लगता कि हम इस ओर अब अधिक उपेक्षा नहीं कर सकते। है-"हमारा धर्म भिन्न, संस्कृति भिन्न, आचार भिन्न, शिकारीके भयसे आंख बन्द कर लेने या रेतेमें गर्दन व्यवहार भिन्न, कानून भिन्न और अधिकार भिन्न हैं। छिपा लेनेसे विपत्ति कम न होकर बढेगी ही। हम सबसे भिन्न विशेष अधिकारों के पात्र हैं।" जिस सिन्ध नदीके कारण भारत हिन्द कहलाया, For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २ ] वह तो भारतमें न रहकर पाकिस्तान में चलोगई । और अपने भारत की पराधीनताको अमिट निशानी "हिंन्दू" यहां छोड़ गई । हिंन्दू परतंत्र पद दलित और विजित भारतका बलात् नाम करण है और मुस्लिम शब्द कोषों में हिन्दूका अर्थ गुलाम या काफ़िर किया गया है । अतः भारतका उपयुक्त प्राचीन नाम तो भारत ही श्रेष्ठ है । और इसके निवासी सभी भारतीय हैं । जैन भी भारतीय जैन हैं । परन्तु हिन्दु शब्द रूढ होजाने से यदि भारतका नाम हिन्द भी रहता है तो यहांके सभी निवासी हिन्दू या हिन्दी है चाहे वे आयें, जैन, बौद्ध, सिक्ख, मुस्लिम, ईसाई पारसी कोई भी क्यों न हों। हां मनुष्य आर्य हिन्दू जैन हिन्दू या मुस्लिम हिन्दू लिखनेका अधिकारी है । किन्तु हिन्दू शब्द भी एकवर्ग विशेषके लिये रूढ़ हो गया है, जिसमें इतर धर्म पर आस्था रखने वालों केलिये स्थान नहीं है । इसीलिये हर राष्ट्रीय विचारका मनुष्य अपने को हिन्दू न कर हिन्दी कहता है । हालांकि दोनोंका अर्थ भारत निवासी ही है । परन्तु प्रचलित रूढ़ि के अनुसार हिन्दू एक सम्प्रदायवादका और हिन्दी भारतीयताका द्योतक बन गया है । और आगे चल कर भाषा के मामले में हिन्दी शब्द भी समस्त भारतीयों की भाषाका द्योतक न होकर नागरीलिपि का रूपक हो गया है। महात्मा गांधी भारतीयता के नाते तो हिन्दी थे; परन्तु भाषा के प्रश्नपर वे हिन्दी के समर्थक न होकर हिन्दुस्तानीके समर्थक थे । जो हिन्दी शब्द सभी सम्प्रदायवाले भारतीयों के एकीकरण के लिये उपयुक्त समझा गया, वही हिन्दी शब्द एक विशेष अर्थ में रुढ़ हो जाने के कारण सभी भारतीयोंकी मिली जुली भाषा के लिये उपयुक्त नहीं समझ कर और उसके एवज "हिन्दुस्तानी" शब्दका प्रचलन किया गया। और अब इसका भी एक रूढ अर्थ हो गया है, अर्थात हिन्दुस्तानी वह खिचड़ी भाषा जिसे कोई भी अपनी न समझे । लावारिस वर्णशंकरी भाषा । श्रेष्ठ नागरिक जानेकी आवश्यकता नहीं । पर हमारे मूलपुरुष यहीं जन्में, यहीं निर्वाण को प्राप्त हुए हैं । भारतको उन्नत बनाने में हमने भरसक और अनथक कार्य किये हैं । अतः हमारे देशका नाम यदि भारत ही रहता हैं तो हम भारतीय जैन हैं और यदि हिन्द रहता है तो हम हिन्दी या हिन्दू जैन हैं। हम अपने लिये न कोई विशेष अधिकार चाहते हैं न अपने लिये कोई नये कानूनका सृजन चाहते है । हमने सबके हित में अपना हित और दुख में दुख समझा है और आगे भी समझेंगे। भगवान महावीर के अहिंसा, सत्य और अपरिग्रहस्व और विश्वबन्धुत्वकी अमृत वाणीको साम्प्रदायिक पोखर में डालकर अपवित्र नहीं होने देंगे राष्ट्रकी भलाई में हम हिन्दू हैं, हिन्दी हैं और भारतीय हैं; किन्तु यदि हिन्दू शब्द किसी विशेष सम्प्रदायवादका पोषक है किसी खास वर्गवादका द्योतक है, और प्रजातन्त्र सिद्धान्तोंको कुचलकर नाज़ी या फासिस्टवाद जैसा सम्प्रदायवाद या जातिवादका परिचायक है तो जैन केवल मनुष्य हैं । सम्प्रदायवाद या साम्राज्यवादका एक महल बनाने में वे कभी सहायक न होंगे । चाहे सभी जैन राष्ट्रपिता बापूकी तरह बलि चढ़ा दिये जाएँ । ५-३ नागरिक-1- श्र ेष्ठ कहने का तात्पर्य है कि जैन, जैन हैं। हम भारत . के आदि निवासी हैं आर्य-अनार्य कौन बाहर से आया और कौन यहांका मूल निवासी है, हमें इस पचड़े में ८७ सम्प्रदायवाद के साथ-साथ जैनोंको राजनैतिक सङ्घर्षो से भी बचना होगा। कभी शासनसत्ता गांधीवादियों, कभी समाजवादियों, कभी कम्यूनिस्टों और कभी किसीके हाथमें होगी । शासनसत्ता हस्तांतरित करनेके लिये व्यापक षडयन्त्र और नर-हत्याएँ भी होंगी। शासकदल विरोधी पक्षको कुचलेगा, विरोधी पक्ष विजयी दलको चैनसे सांस न लेने देगा। ऐसी स्थिति में अल्पसंख्यक जैनसमाजका कर्तव्य है कि वह सामूहिक रूपमें किसी दल विशेषके साथ सम्बन्ध न जोड़े। हां व्यक्तिगत रूप से अपनी इच्छानुसार हर व्यक्तिको भिन्न भिन्न कार्य क्षेत्रों में कार्य करनेका अधि कार है। यह भावना कि हम जैन हैं इसलिये हमें इतनी सीटें और इतनी नौकरियां मिलनी चाहिए" हमारे विकाशमें बाधक होगा । हम अपने को इस For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ अनेकान्त योग्य बनायें कि हर उपयुक्त स्थानपर हमारी उपादेयता प्रकट हो । “योग्य व्यक्तियोंके स्थानपर भी हम अयोग्यको इसलिये लिया जाय कि हम अमुक वर्ग से सम्बन्धित हैं" यह नारा मुसलमानों, सिक्खों, अछूता रहा है। हम इस नारेको हरगिज न दुहराएँगे। हमें तो अपने को इस योग्य बनाना है कि विरोधी पक्ष इच्छा न होते हुए भी अपने लिये निर्वाचित करें । परमुखमचेट्टी कांग्रेसके प्रबल विरोधी होते हुए भी केवल योग्यताके बलपर कॉंग्रेसी सरकार में सम्मिलित हुए। उसी तरह जैनोंको सम्प्र दाय के नामपर नहीं, अपनी योग्यता, वीरता, धीरता, को लेकर आगे बढ़ना है । हम जैन अपने को इतना श्रेष्ठ नागरिक बनाएँ कि जैनत्व हो श्रेष्ठताका परिचायक हो जाय। जिस तरह विशिष्ट गुण या अवगुणके कारण बहुत सी जातियां ख्याति पाती हैं । उसी तरह हमारे लोकोत्तर गुणोंसे जैनत्व इतनी प्रसिद्धि पाजाय कि केवल जैन शब्दही हमारी योग्यता प्रामाणिकता, सौजन्यता, भद्रताका प्रतीक बन जाय । ६- पाँचवें सवार- अपनी समाज में कुछ ऐसे चलते हुए लोग भी हैं, जिनका न राजनीति में प्रवेश है और न देशके लिए ही उन्होंने कभी कोई कष्ट सहन किया । श्रपितु सदैव प्रगतिशील कार्यों में विघ्न स्वरूप बने रहे हैं। दस्सा पूजनाधिकार अन्तर्जातीय विवाह, शास्त्रोद्धार, नुक्ता प्रथाबन्दी बाल-वृद्ध विवाह आदि आन्दोलनों के विरोधी रहे हैं। हर समाजोपयोगी कार्योंमें रोड़े टकाते रहे हैं । सुधारकों और देशभक्तोंको अधर्मी कहते रहे हैं, उनका बहिष्कार करते रहे हैं वही आज इन लोगों के हाथमें सत्ता आते देख खुशामदी लेख लिख रहे हैं, पत्रोंके विशेषांक केवल उनके लेख पाने के लोभसे निकाल रहे हैं, और जैन स्वत्व अधिकार के नामपर मनमाना प्रलाप करके समाजके मस्तकको नीचा कर रहे हैं । समाजके किए गये बहुमूल्य बलिदानका मोल तोल कर रहे हैं । जो जैन अपनी योग्यता और लोकसेवी कार्योंके बलपर अधिक से अधिक जाने चाहियें। वहां ये वर्ष अपनी घातक नीतिके कारण केवल एक सीट के लिये पृथ्वी आकाश एक कर चुके हैं। अभी तक यह लोग विनेकावार और दस्से जैनों के लिये पूजा पाठ रोके हुए थे। चाहे जिसका बहिष्कार करके दर्शन-पूजा बन्द कर देते I अब हरिजनोंकेलिये मन्दिर खुलते देख इन्हें भय हुआ कि जब हरिजन ही मंदिरों में प्रवेश पा जाएंगे, तब इन अभागे दस्सों को कैसे रोका जायगा ? अतः चट एक चाल चली और "जैन हिन्दू नहीं हैं" यह लिखकर उस क़ानून के अन्तर्गत जैन उपासना - गृहोंको नहीं आने दिया । पर इन दयावतारोंने यह नहीं सोचा कि जैन यदि बहुसवयक जातिके साथ क़ानून में नहीं बंधते हैं तो उन् बहुसंख्यक जातिको मिलने वाली सारी सुविधाओंसे वचित होना पड़ेगा । और यह नीति आत्मघातक सिद्ध होगी । हिंदुओंसे पृथक् समझने वाली मुसलमान जातिका आज भारत में क्या हश्र हुआ ? वे अपने ही वतनमें बदसे बदतर हो गये । उनकी मस्जिदें वोरान होगई, व्यापार चौपट होगये, और घर से निकलना दुश्वार होगया, यहां तक कि बाइज्जत मरना भी उनके लिये मुहाल होगया । ऐं ग्लोइण्डियन्सका जिनका ख़ुदा इंगलेण्ड में रहता था, आज भारतमें क्या व्यक्तित्व रह गया है ? तब क्या जैन समाजके ये जिन्हा जैनोंको भी उसी तरह बर्बाद करना चाहते हैं । उस जिन्हामें सूम थी, बुद्धि थी, अक्ल थी, कानून की अपार जानकारी थी । मुसल - मानोंके लिये उसके पास धन था और समय था । जिसने अपने प्रलयङ्ककारी आन्दोलन से पर्वतों को भी विचलित कर दिया था । बाजालमें अच्छे-अच्छे राजनीतिज्ञोंको फँसा लिया था, फिर भी वह मुसलमानोंका अनिष्टकारक ही सिद्ध हुआ। फिर जैन समाज के ये जिन्हा जिन्हें अक्ल कभी मांगे न मिली, जैन स्वत्वके नामपर वायवेला मचाते हैं तो यह समझने में किसी समझदारको देर न लगेगी कि जैनसमाजकी नैया जिस तूफानसे गुज़र रही है, उसे चकनाचूर करने और डुबाने में कसर न छोड़ेंगे । - गोयलीय For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिरको सहायता (गत १२ वी किरणके बाद) २५) ला० होरीलाल नेमचन्दजी जैन, सरसावा (चि० प्रेमचन्दके विवाहकी खुशीमें निकाले हुए दानमेंसे) १०) ला. मेहरचन्द शीतलप्रसादजी जैन, अब्दुल्लापुर जिला अम्बाला (चि० सुपुत्रीके विवाहोपलक्षको खुशीमें) ५) मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीकी ७१ वीं वर्षगांठ _____ के अवसरपर निकाले हुए दानमें से प्राप्त . ४०) अनेकान्तको सहायता--- २५) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी सह पु की ओरसे ३ जैन संस्थाओं और दो जनेतरर . विद्वानोंको फ्री भिजवाने के लिये। १०) ला० होरीलाल नेमचन्दजी (चि० प्रेमचन्द . के विवाहकी खुशीमें निकाले हुए दानमें से) ११) बा० रामस्वरूपजी मुरादाबादके (चि० पुत्र की शादीकी खुशीमें निकाले दानमें से) ५) मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जीकी ७१ वी वर्ष. गांठके अवसरपर निकाले दानमें से प्राप्त .. भारताय ज्ञानपीठ काशाके प्रकाशन १. महाबन्ध-(महाधवल सिद्धान्त शास्त्र प्रथम भाग। णिक रौमाँस) मूल्य ४॥) हिन्दी टीका सहित मूल्य १२) । ८. दो हजार वर्षकी पुरानी कहानियां-(६४ जैन २. करलक्खण -(सामुद्रिक शास्त्र) हिन्दी अनुवाद कहानियाँ) व्याख्यान तथा प्रवचनोंमें उदाहरण देनेयोग्य 2 सहित । हस्तरेखा विज्ञानका नवीन ग्रन्थ । सम्पादक-प्रो० पथचिह्न-(हिन्दी साहित्यकी अनुपम पुस्तक) स्मृति प्रफुल्लचन्द्र मोदी एम० ए०, अमरावती । मूल्य १) , रेखाएँ और निबन्ध । मूल्य २). ३. मदनपराज्य-कवि नागदेव विरचित (मूल संस्कृत) १०. पाश्चात्य तर्कशाख-(पहला भाग) एफ० ए० के भाषानुवाद तथा विस्तृत प्रस्तावनासहित । जिनदेवके कामके लाजिकके पाठ्यक्रमकी पुस्तक । लेखक-भिक्षु जगदीशजी पराजयका सरस रूपक । सम्पादक और अनुवादक-4० काश्यप, एम० ए०. पालि-अध्यापक, हिन्द विश्वविद्यालय राजकुमारजी सा० मूल्य ८) काशी । पृष्ट ३८४ । मूल्य ४||) ४. जैनशासन-जैनधर्मका परिचय तथा विवेचन करने ११. कुन्दकुन्दाचायके तीन रत्न-२)। . वाली सुन्दर रचना । हिन्दू विश्वविद्यालयके जैन रिलोजनके. १२. कन्नडप्रान्तीय ताडपत्र ग्रन्थसूची-(हिन्दी) मूडविाद्र एफ० ए० के पाठ्यक्रममें निर्धारित । कवर पर महावीरस्वामी के जैनमठ. जैनभवन. सिद्धान्तवसदि तथा अन्य ग्रन्थ का तिरंगा चित्र मूल्य ४-) भण्डार कारकल और अलियूरके अलभ्य ताड़पत्रीय ग्रन्थोंक .... हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास-हिन्दी सविवरण परिचय । प्रत्येक मन्दिरमें तथा शास्त्रभंडारमें विरा जैन साहित्यका इतिहास तथा परिचय । २). जमान करनेयोन्य । १०) ६. आधुनिक जैन कवि-वर्तमान कवियोंका कलात्मक वीर सेवामन्दिरके सब प्रकाशन यहांपर मिलते है .. परिचय और सुन्दर रचनाएँ । मूल्य ३॥॥) -प्रचारार्थ पुस्तक मंगानेवालोंको विशेष सुविधा । ७. मुक्ति-दूत-अञ्जना-पवनञ्जयका पुण्यचरित्र (पौरा. .. भारतीय ज्ञानपीठ काशी, दुर्गाकुण्डरोड, बनारस। - For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Regd. A-731. ASO02590950-50-50-50:530525052502525-5952.5IS.5a59:Sapna कीरसेकामन्दिरके नये प्रकाशन CBFBF-885505BEsses PBEBES-BSESSB85555 1 अनित्यभावना- मुख्तार श्रीजुगलकिशोरके६ न्याय-दीपिका (महत्वका नया संस्करण) , हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ-सहित / इष्टवियोगादिके न्यायाचार्य पं० दरवारीलालजी कोठियाद्वारा सम्पादित कारण कैसा ही शोकसन्तप्त हृदय क्यों न हो, इसको एक और अनुवादित न्यायदीपिकाका यह विशिष्ट सँस्करण / बार पढ़ लेनेसे बड़ी ही शान्तताको प्राप्त हो जाता है / अपनी खास विशेषता रखता है। अब तक प्रकाशित इसके पाठसे उदासीनता तथा खेद दूर होकर चित्तमें संस्करणोंमें जो अशुद्धियां चली प्रारही थीं उनके प्राचीन प्रसन्नता और सरसता अाजाती है। सर्वत्र प्रचारके प्रतियोंपरसे संशोधनको लिये हुए यह संस्करण मूल ग्रंथ योग्य है / मू०) और उनके हिन्दी अनुवादके साथ प्राक्कथन, सम्पादकीय 2 आचार्य प्रभाचन्द्रका तत्त्वार्थसूत्र- नया 101 पृष्ठकी विस्तृत प्रस्तावना, विषयसूची और कोई 8 // प्राप्त संक्षिप्त सूत्रग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोरकी सानुवाद परिशिष्टोंसे संकलित है, साथमें सम्पादक-द्वारा नवनिर्मित व्याख्या सहित / मू०।) 'प्रकाशाख्य' नामका एक संस्कृत टिप्पण लगा हुआ है, 3 सत्साधु-स्मरण-मङ्गलपाठ- मुख्तार श्री- जो ग्रन्थगत कठिन शब्दों तथा विषयोंका खुलासा करता जुगलकिशोरकी अनेक प्राचीन पद्योंको लेकर नई योजना, हुत्रा विद्यार्थियों तथा कितने ही विद्वानोंके कामकी चीज सुन्दर हृदयग्राही अनुवादादि-सहित / इसमें श्रीवीर- है। लगभग 400 पृष्ठोंके इस सजिल्द वृहत्संस्करणका वद्धमान और उनके बाद के. जिनसेनाचार्य पर्यन्त लागत मूल्य 5) रु. है। कागजकी कमीके कारण थोडी महान् श्राचार्योके अनेकों श्राचार्यों तथां विद्वानों द्वारा ही प्रतियां छपी है। अतः इच्छकोंको शीघ्र ही मंगा किये गये महत्वके 136 पुण्य स्मरणोंका संग्रह है और लेना चाहिये। शुरूमें 1 लोकमङ्गल-कामना, 2 नित्यकी श्रात्म-प्रार्थना, 1 लाकमङ्गल-कामना, 2 नित्यकी श्रात्म-प्रार्थना. 7 विवाह-समुद्देश्य-लेखक पं० जुगलकिशोर 3 साधुवंशनिदर्शक-जिनस्तुति, 4 परमसाधमुखमद्रा और मुख्तार, हालम प्रकाशित चतुथ सस्करण / / 5 सत्साधुवन्दन नामके पाँच प्रकरण हैं। पस्तक पढते यह पुस्तक हिन्दी-साहित्यमें अपने ढंगकी एक हो। समय बड़े ही सुन्दर पवित्र विचार उत्पन्न होते हैं और चीज है। इसमें विवाह जैसे महत्वपूर्ण विषयका बड़ा ही साथ ही प्राचार्योका कितना ही इतिहास सामने श्राजाता मार्मिक और तात्त्विक विवेचन किया गया है, अनेक ।है। नित्य पाठ करने योग्य है। मू०॥) विरोधी विधि-विधानों एवं विचार-प्रवृत्तियोंसे उत्पन्न हुई 4 अध्यात्म-कमल-मार्तण्डः- यह पञ्चाध्यायी विवाहकी कठिन और जटिल समस्यायोंको बड़ी युक्तिके तथा लाटी संहिता आदि ग्रन्थोंके कर्ता कविवर राजमल्लकी साथ दृष्टि के स्पष्टीकरण-द्वारा सुलझाया गया है और इस अपूर्व रचना है। इसमें अध्यात्मसमुद्रको कजेमें बन्द तरह उनमें दृष्टिविरोधका परिहार किया गया है। विवाह किया गया है / साथमें न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल कोठिया क्यों किया जाता है ? धर्मसे, समाजसे और गृहस्थाश्रमसे और पण्डित परमानन्दजी शास्त्रीका सुन्दर अनुवाद, उसका क्या सम्बन्ध है ? वह कब किया जाना चाहिये ? विस्तृत विषयसूची तथा मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीकी उसके लिये वर्ण और जातिका क्या नियम हो सकता है ? लगभग 80 पेजकी महत्वपूर्ण प्रस्तावना है। बड़ा ही विवाह न करनेसे क्या कुछ हानि-लाभ होता है ? उपयोगी ग्रन्थ है। मू०१||) इत्यादि बानोंका इस पुस्तकका बड़ा ही युक्ति पुरस्सर 5 उमास्वामि-श्रावकाचार-परीक्षा-मुख्तार एवं हृदयग्राही वर्णन है। पार्ट पेपर पर छपी है / श्रीजुगलकिशोर जीकी ग्रंथपरीक्षाओं का प्रथम अंश. विवाहोंके अवसरपर वितरण करने योग्य है। मू० ) ग्रंथ-परीक्षाओं के इतिहास को लिये हुये 14 पेजकी नई प्रकाशन विभाग'प्रस्तावना-सहित / मू०) वीरसेवामन्दिर, सरसावा (सहारनपुर) Sesesamesegressesesesesesesekesesesesesesesesesssessses प्रकाशकई ल. एएमानन्दजैन शास्त्री भारतीयज्ञानपीठ काशीके लिये हाजितकुमारजैन शास्त्री द्वारा अकलङ्कप्रेस सहारनपुर में मुद्रित 6558856-26-05-1985202888seselese FESesesses-05-5050