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________________ ५६ अनेकान्त - . . । वर्ष यदपि च भणामि तदपि न भणामीति दर्शनमस्त्विति अपने स्याद्वादसिद्धान्त, अनेकान्तसिद्धान्त, सप्तभङ्गी कश्चित् , सोपि पापीयान् । तथा हि सद्भावेतराभ्या सिद्धान्त संजयसे बहुतपहलेसे प्रचलित हैं जैसे उसके मनभिलापे वस्तुनः, केवलं मूकत्वं जगत: स्यात्, अहिंसा-सिद्धान्त, अपरिग्रह सिद्धान्त, कर्म सिद्धान्त विधिप्रतिषेधव्यवहारायोगात् । न हि सर्वात्मनान- आदि सिद्धान्त प्रचलित हैं और जिनकेआद्यप्रवर्तक वभावं बद्धिरध्यवस्यति। न चानध्यवसेयं इस यगके तीर्थंकर ऋषभदेव हैं और अंतिम महावीर प्रमितं नाम, गृहीतस्यापि तादृशस्यागृहीतकल्पत्वात् । हैं। विश्वासहै उक्त विद्वान् अपनी जैनदर्शन व स्यामूर्छाचैतन्यवदिति ।"- अष्टस० पृ० १२६ । द्वादके बारेमें हुई भ्रान्तियोंका परिमार्जन करेंगे और ___ इससे यह साफ है कि संजयकी सदोष चतुर्भगी उसकी घोषणा कर देंगे। और दर्शनको जैनदर्शनने नहीं अपनाया। उसके २१ फरवरी १६४८] वीरसेवा मन्दिर, सरसावा रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय [सम्पादकीय ] ( गतकिरणसे आगे) (१) रत्ककरण्डको प्राप्तमीमांसाकार स्वामी सम- प्रोफेसर साहबने आप्तमीमांसाकारके द्वारा अभि. न्तभद्रको कृति न बतलाने में प्रोफेसर साहबकी जो मत दोषके स्वरूपका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं कियासबसे बड़ी दलील है वह यह है कि 'रत्नकरण्डके अपने अभिप्रायानुसार उसका केवल कुछ संकेत ही 'क्षुत्पिपासा' नामक पयमें दोषका जो स्वरूप सम- किया है। उसका प्रधान कारण यह मालूम होता है माया गया है वह आप्तमीमांस.कारके अभिप्रायानुसार कि मूल आप्तमीमांसामें कहीं भी दोषका कोई स्वरूप हो ही नहीं सकता-अर्थात् प्राप्तमीमांसाकारका दोष दिया हुआ नहीं है। 'दोष' शब्दका प्रयोग कुल पांच के स्वरूप-विषय में जो अभिमत है वह रत्नकरण्डके कारिकाओं नं०४६ ५६, ६२, ८० में हुआ है जिनउक्त पद्यमें वर्णित दोष-स्वरूपके साथ मेल नहीं खाता- मेंसे पिछली तीन कारिकाओंमें बुद्धयसंचरदोष, वृत्तिविरुद्ध पड़ता है, और इसलिये दोनों ग्रन्थ एक ही दोष और प्रतिज्ञा तथा हेतुदोषका क्रमशः उल्लेख है, आचार्यकी कृति नहीं हो सकते। इस दलीलको आप्तदोषसे सम्बन्ध रखनेवाली केवल ४थी तथा ६ठी ताथे करनेके लिये सबसे पहले यह मालुम होनेकी कारिका ही है। और वे दोनों ही 'दोष'के स्वरूप जरूरत है कि आप्तमीमांसाकारका दोषके स्वरूप कथनसे रिक्त हैं। और इसलिये दोषका अभिमत विषयमें क्या अभिमत अथवा अभिप्राय है और उसे स्वरूप जानने के लिये आप्तमीमांसाकी टोकाओं तथा प्रोफेसर साहबने कहांसे अवगत किया है ?-मूल प्राप्तमीमांसाकारकी दूसरी कृतियोंका आश्रय लेना आप्तमीमांसापरसे ? आप्तमीमांसाकी टीकाओंपरसे ? होगा। साथ ही ग्रन्थके सन्दर्भ अथवा पूर्वापर अथवा आप्तमीमांसाकारके दूसरे ग्रन्थोंपरसे ? और कथन सम्बन्धको भी देखना होगा। उसके बाद यह देखना होगा कि रत्नकरण्डके 'क्षुत्पि. टीकाओंका विचारपासा' नामक पद्यके साथ मेल खाता अथवा सङ्गत प्रोफेसर साहबने ग्रन्थसन्दर्भके साथ टोकाओंका बैठता है या कि नहीं। आश्रय लेते हुए, अष्टसहस्रीटीकाके आधारपर, जिस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527252
Book TitleAnekant 1948 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1948
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size12 MB
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