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किरण २]
सञ्जय वेलट्ठपुत्त और स्याद्वाद
मुक्तपुरुष जैसे - परोक्ष विषयोंपर करता था । जैन संजय की युक्तिको प्रत्यक्ष वस्तुओंपर लागू करते हैं । उदाहरणार्थं सामने मौजूद घटकी सत्ताके बारेमें यदि जैन दर्शनसे प्रश्न पूछा जाय, तो उत्तर निम्न प्रकार मिलेगा
(१) घट यहां है ? - होसकता है (स्यादस्ति ) । (२) घट यहां नहीं है ? – नहीं भी हो सकता है (स्याद् नास्ति ) ।
(३) क्या घट यहां है भी और नहीं भी है ? है भी और नहीं भी हो सकता है (स्याद् अस्ति च नास्ति च ) ।
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(४) 'हो सकता है' (स्याद्) क्या यह कहा जा सकता है ? नहीं, 'स्याद्' यह अ वक्तव्य है ।
(५) घट यहां 'हो सकता है' (स्यादस्ति) क्या यह कहा जा सकता है ? -नहीं, 'घट यहां हो सकता है' यह नहीं कहा जा सकता ।
(६) घट यहां 'नहीं हो सकता है' (स्याद् नास्ति ) क्या यह कहा जा सकता है ? - नहीं, 'घट यहां नहीं हो सकता' यह नहीं कहा जा सकता ।
(७) घट यहां 'हो भी सकता है', नहीं भी हो सकता है', क्या यह कहा जा सकता है ? नहीं, 'घट यहां हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है' यह नहीं
कहा जा सकता ।
इस प्रकार एक भी सिद्धान्त (वाद ) की स्थापना न करना, जो कि संजयका वाद था, उसीको संजय के अनुयायियों के लुप हो जानेपर जैनोंने अपना लिया, और उसकी चतुर्भगी न्यायको सप्तभङ्गीमें परिणत कर दिया ।"
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मालूम होता है कि इन विद्वानोंने जैनदर्शन के स्याद्वाद - सिद्धान्तको निष्पक्ष होकर समझनेका प्रयत्न नहीं किया और अपनी परम्परासे जो जानकारी उन्हें मिली उसी के आधार पर उन्होंने उक्त कथन किया है। अच्छा होता, यदि वे किसी जैन विद्वान् अथवा दार्शनिक जैन ग्रन्थसे जैनदर्शनके स्याद्वादको समझकर उसपर कुछ लिखते । हमें आश्चर्य है कि दर्शनों और उनके इतिहासका अपनेको अधिकारी विद्वान मानने
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वाला राहुलजी जैसा महापण्डित जैनदर्शन और उसके इतिहासको छिपाकर यह कैसे लिख गया कि " संजय के वादको ही संजय के अनुयायियों के लुप्त हो जाने पर जैनोंने अपना लिया।" क्या वे यह मानते हैं कि जैनधर्म व जैनदर्शन और उनके माननेवाले जैन लिखना असम्बद्ध और भ्रान्त है। और यदि मानते संजय के पहले नहीं थे ? यदि नहीं, तो उनका उक्त हैं, तो उनकी यह बड़ी भारी ऐतिहासिक भूल है, जिसे स्वीकार करके उन्हें तुरन्त ही अपनी भूलका परिमार्जन करना चाहिये। यह अत्र सर्व विदित होगया है और प्राय: सभी निष्पक्ष ऐतिहासिक भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानोंने स्वीकार भी कर लिया है कि जैनधर्म व जैनदर्शन के प्रवर्त्तक भगवान् महावीर ही नहीं थे, अपितु उनसे पूर्व हो गये ऋषभदेव आदि २३ तीर्थङ्कर उनके प्रवर्त्तक हैं, जो विभिन्न समयोंमें हुए हैं और जिनमें पहले तीर्थंकर ऋषभदेव, २२ वें तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि (कृष्णके समकालीन और उनके चचेरेभाई) तथा २३ वें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ तो ऐतिहासिक महापुरुष भी सिद्ध हो चुके हैं । अतः भगवान महावीरके समकालीन संजय और उसके अनुयायियों के पूर्व जैनधर्म व जैनदर्शन और उनके माननेवाले जैन विद्यमान थे, और इसलिये उनके द्वारा संजयके वादको अपनाने का राहुलजीका आक्षेप सर्वथा निराधार और असंगत है। ऐसा ही एक भारी आक्षेप अपने बौद्ध ग्रन्थकारों की प्रशंसाकी धुन में वे समग्र भारतीय विद्वानोंपर भी कर गये, जो अक्षम्य है । वे इसी 'दर्शन दिग्दर्शन ' ( पृष्ठ ४६८) में लिखते हैं
"नागार्जुन, असंग, वसुबन्धु दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, भारतके अप्रतिम दार्शनिक इसी धारामें पैदा हुए थे। उन्हीं के ही उच्छिष्ट-भोजी पीछेके प्रायः सारे ही दूसरे भारतीय दार्शनिक दिखलाई पड़ते हैं ।"
राहुलजी जैसे कलमशूरोंको हरेक बातको और प्रत्येक पदवाक्यादिको नाप-जोख कर ही कहना और लिखना चाहिए ।
अब सञ्जयका वाद क्या है और जैनोंका स्याद्वाद
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